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बेसुध | रत्ना सिंह

बेसुध | रत्ना सिंह | लघुकथा

उसका फोन या वो जब तक नहीं आता ये मन भी शान्ति से बैठने का नाम नहीं लेता । ये दिमाग कोड़े मार -मारकर न बैठने पर मजबूर कर देता और फिर क्या बालकनी से झांकती रहती या फिर बार‌-बार‌ फोन को देखती रहती । कभी -कभी दिन में दस बार फोन करता तो कभी पूरा दिन गायब । कहने पर काम ज्यादा है का बहाना लगा बातों के बेशुमार पेश कर देता ‌। तुमको बहुत चाहता हूं,तुम्हारे बिना रह नहीं सकता और तुम —-।

अच्छा वो जो घर में हैं उसका ग़लती मेरी है जो प्यार किया तुमसे ये पता होने के बावजूद कि तुम शादीशुदा हो अब ये —–। लेकिन प्यार के बाद पता चला तो तुम्हारी ग़लती कहां से अब—– । वो ये सब बोल ही रहा था कि तभी उसके फोन में घरररर-घररर की आवाज सुनाई दी , और बोलने के पहले ही उसका फोन कट गया।दुबारा मिलाया तो व्यस्त करीब आधे घंटे तक व्यस्त। उसके बाद पता नहीं ——?

दूसरे दिन सुबह फोन किया तो कहा पीरियड नहीं आया और कल‌ तुमको बताने वाली थी कि फोन रख दिया फिर रात को बात नहीं हो पाई। पेट में तुम्हारा बच्चा —–। अभी पूरा बोल भी नहीं पायी कि वो बोल पड़ा,दवाई खा लो और बच्चा —–। तुमने तो कहा कि दो शादी कर लोगे ऐसा हुआ अगर नहीं -नहीं कभी —-? वो बड़े आराम से कह दिया कि दवाई ले लो लेकिन यहां तो ——?

आज उसकी बीबी सबिता को फोन लगाया उसकी बात सुन पैर लड़खड़ाने लगे ये आदमी ने बहुत बड़ा धोखा दिया । सबिता का फोन रख दुबारा उसे फोन किया और ये बताओ कि दुनिया जहांन की बातें करने वाले ये बताइये कि —-।

अरे !बाबू तुमसे सच्चा प्यार करता हूं ये बीबी बच्चों के पचड़े में क्यों पड़ती हो हम लोग खुले आसमान में उड़ने वाले पंक्षी तुम भी न—-। जोर- जोर से हंसने लगा । बेसुध सी खड़ी रह गयी वो जोर -जोर से हंसता हुआ चला गया आज तक वो —। आज भी बेसुध खड़ी हूं।न जाने कब तक —-?

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नजरिया | रत्ना सिंह | लघुकथा

नजरिया | रत्ना सिंह | लघुकथा

उसका फोन सबके पास आया लेकिन मेरे पास नहीं । मैं दुखी भी नहीं हूं , हैरान परेशान भी नहीं , क्योंकि पता था कि एक दिन आर्यन जरुर सफल होगा मैंने दिन रात मेहनत जो की थी । मैं और आर्यन एक ही स्कूल में एक ही साथ जाया करते । मेरे स्कूल की एक सबसे दिलचस्प बात यह थी कि सप्ताह के अन्तिम दिन टेस्ट होता, और आंकलन किया जाता कि पूरे सप्ताह बच्चों ने क्या सीखा । आर्यन उस दिन जाने से कतराता कई बार वो रास्ते में छुपकर तो कई बार घर में बीमारी का बहाना बना कर बैठ जाता।तब मैं उसका हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जाया करती ,आर्यन चिल्लाता अनापशनाप बोलता लेकिन मैं एक‌ नहीं सुनती उससे सीनियर जो थी। धीरे-धीरे समय व्यतीत हुआ। मैं नौकरी करने के लिए इलाहाबाद चली गई और आर्यन लखनऊ पढ़ने के लिए । अब वो बात नहीं करता, कल जब उसके रिजल्ट के‌ बारे में मां ने फोन पर बताया तो खुशी के साथ -साथ दिमाग में सवाल भी कौंधने लगे कि——? क्या ग़लती रही जो नहीं बताया आर्यन ने चलो कोई बात नहीं उसकी —–।

इसी बात से मैं बहुत खुश थी तभी गांव की एक मुंह बोली चाची का फोन आया उन्होंने भी यही खबर सुनाई और फिर एक सबसे ही आश्चर्यचकित करने वाली बात कही ,सुनो रूबी (मैं)बिटिया आर्यन कह रहा था कि रूबी ने बहुत कोशिश की कि असफल हो जाऊं लेकिन सफल हो गया अब देखता हूं ——? ऐसा मैं सपने में भी नहीं सोच सकती , कोई बात नहीं चाची ये अपना अपना नजरिया है कहकर मैंने फोन रख दिया और वहीं धम्म से बैठ गयी । दिमाग में एक ही सवाल कि ऐसा नजरिया क्या आर्यन के काम को , उसकी नौकरी को सफलता कि ऊंचाईयों को छू पायेगा या फिर —–?

अपमान और लाचारी के आँसू | लघुकथा | रश्मि लहर

अपमान और लाचारी के आँसू | लघुकथा | रश्मि लहर

“संपादक महोदय?”
लखनऊ कार्यालय के एक बड़े से कमरे में पहुँचते ही नीरजा ने किताब पढ़ते हुए व्यक्ति से पूछा।
“जी कहिए …!”उसने चश्मे के भीतर से टटोलती निगाहों से नीरजा को देखते हुए कहा।
“सर, मुझे अपनी कहानी छ्पवानी है, आपके प्रतिष्ठित अखबार में …” नीरजा ने आत्मविश्वास भरे भावों से संपादक से कहा।
संपादक थोड़ा सीधा हुआ …
“कहाँ की पृष्ठभूमि है ?”
“जी मैं! महोना गाँव की हूँ, किसान परिवार की ग्रेजुएट। मेरी कहानी ….”कहते हुए नीरजा ने कुछ पेपर आगे बढ़ाए |
“यहाँ..लखनऊ में किसी को जानती हैं?” संपादक ने पेपर लेने में कोई दिलचस्पी न दिखाते हुए कहा।
“जी नहीं …..मैं गाँव से आ रही हूँ..आपके अख़बार का साप्ताहिक परिशिष्ट बहुत अच्छा लगता है, उसी में अपनी ये कहानी छपवाना चाहती हूॅं। ये मेरी कहानी आधुनिक परिप्रेक्ष्य की है …आपको बहुत पसंद आएगी सर!” कहते हुए उसने कागज फिर आगे बढ़ाये।
“क्या मैडम ! ऐसे थोड़े छ्पता है ….न …न!
अरे किसी ने संस्तुति दी है आपकी ? कोई लेखक है आपके गाँव में ? किसी को जानती हैं आप ?”
“अरे सर , भले मैं इस शहर में किसी को नहीं जानती पर कृपया आप मेरी कहानी पढ़ तो लीजिए …आपको अविस्मरणीय लगेगी। एकदम सटीक, यर्थाथवादी कहानी है सर” कहते हुए नीरजा लगभग रोने सी लगी।
सहसा संपादक ने घंटी बजाई…
“इनको बाहर भेजो” चपरासी से कहते हुए उसने नीरजा की ओर इशारा किया
“और हाँ ……यूॅं ही हर किसी को मेरे कमरे में न भेज दिया करो …” कहते-कहते संपादक ने अपनी कुर्सी पीछे की और अपनी अलमारी की तरफ झुक गया।
अपनी आँख में अपमान और लाचारी के आँसू भरे नीरजा! थके-थके कदमों से घर के लिए लौट पड़ी।

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समझ | लघुकथा | रत्ना सिंह

समझ | लघुकथा | रत्ना सिंह

मुझे फेसबुक और सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना उतना नहीं भाता लेकिन कभी कभी थोड़ा बहुत पढ़ और देख लेती हूं उनमें से कुछ चीजें सुकून दे जाती हैं और कुछ हैरान परेशान तो कुछ बातें सवालों के घेरे में खड़ा कर जाती हैं। आज सुबह अखबार नहीं आया दूध वाला भी कल दो थैली दूध पकड़ा गया, कूड़े वाला तो वैसे भी एक दिन छोड़कर आता है कामवाली ने भी चार दिन पहले ही कह दिया था कि आज वो किसी शादी में जायेगी।

मतलब आज सब छुट्टी पर, मुझे भी अस्पताल दो बजे जाना है चलो तबतक फोन ही चला लूं। अभी फेसबुक खोला ही था कि पहली पोस्ट उसकी मिली जहां मैं पिछले एक साल पहले जाया करती और सिर्फ जाती ही नहीं घंटों बैठकर बातें भी किया करती ।कभी कभी तो रात भी गुजारती तब वो मुझे सब बताती जो आज इस दुनिया में मौजूद नहीं है इस पोस्ट को पढ़ देख नहीं सकती।उसका बताना ही क्या? अनेकों बार मैंने खुद देखा है ।

उसकी पोस्ट में शब्दों को ऐसे बेशुमार पेश किये गये कि आप भी पढ़ेंगें तो यही सोचेंगे कि मैं भी कितनी फालतू बातें करती रहती हूं। लेकिन जिसने देखा हो ,जिसका सामना उस हकीकत से हुआ हो उसे कहने में कोई झिझक नहीं आप सब कुछ भी—-। हां तो अपनी बात पर आती हूं। जिसने कभी दस मिनट नहीं दिये,जिसने कभी एक गिलास पानी नहीं दिया,जिसने कभी सुबह उठते ही ये नहीं पूछा कि आज नाश्ते में क्या खाओगी जिसने अपने दोस्तों के आने पर कमरे का दरवाजा बंद करवाया।

उसने आज अपनी दोनों की फोटो साथ में पोस्ट करते हुए लिखा -सच कहूं आपकी बहुत याद आती है,आपके साथ घंटों बैठकर बातें करना,आपके साथ खाना खाना सब कुछ जब याद करती हूं तो आंखों से निकले आंसुओं को रोक नहीं पाती काश!ऐसा होता कि वहां भी आ पाती सच मां तुम——।

लोगों की सांत्वना और ढांढस बंधाने का अम्बार देख मैं इतना जरूर समझ गयी कि सच में ये फेसबुक नहीं होता तो कुछ लोग के चेहरे मौसम की तरह बदले हुए नहीं दिखते तब शायद उन्हें असली चेहरे में ही रहना होता तो शुक्रिया फेसबुक मुझे समझाने और लोगों के चेहरे बदलने के लिए।

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सुकून | लघुकथा | हिंदी कहानी | रत्ना भदौरिया

सुकून | लघुकथा | हिंदी कहानी | रत्ना भदौरिया

जगवन्ती ने सुबह ही डलिये में दियाली रख बच्चों से गांव की गलियों में बेचने कह दिया और ये भी कहा कि वह काम पर जा रही है वापस आकर शहर दियाली बेचने जायेगी, वहां बेचने से जल्दी और ज्यादा दिये बिकेंगे। बच्चे अपनी -अपनी डलिया सिर पर रखकर निकल पड़े।दियाली ले लो दियाली—-‌ जगवन्ती भी काम पर निकल गई। घर से करीब दस‌ किलोमीटर की दूरी पर बसे लालगंज शहर में बर्तन चौका का काम करती। जाते समय जगवन्ती आज काफी खुश थी। दिवाली जो है सभी को बड़ा- बड़ा उपहार मिला वो बग में भाई दफ्तर में काम करता है कितना बड़ा उपहार मिला है उसकी मालकिन भी कुछ उपहार देंगी बड़ा न सही छोटा ही । वैसे भी एक मालकिन के यहां अभी आठ महीने हुए हैं। हां श्वेता मैडम जरूर बड़ा गिफ्ट दे सकती हैं उनके यहां पिछले दो साल से काम कर रही हूं। पिछले साल उनकी मां की तबीयत खराब होने की वजह से वे परेशान थी उन्होंने कहा भी था कि इस बार वे कुछ नहीं ला पायी अगले साल दोनों का देंगी। रास्ते भर यही सोचते -सोचते उसने दस किलोमीटर की दूरी कब तक कर ली पता ही नहीं चला । फटाफट टेंम्पो से उतर गेट की तरफ बढ़ी नहीं -नहीं श्वेता मैडम के यहां बाद में वे बड़ा उपहार देंगी उसे लेकर कहां घूमूगी। पहले अन्नू मैडम के यहां जाते हैं। अन्नू मैडम के दरवाजे की घंटी बजाई चेहरे पर ढेर सारी खुशी, दरवाजा खुलते ही दिवाली मुबारक मैडम। हां ठीक है !आओ जगवन्ती देखो सफाई खूब अच्छे से कर देना ,घर को अच्छे से सजा देना ।शाम को पूजा के बाद लोग खाने पर आएंगे। जी मैडम! जगवन्ती सोचने लगी मैडम ने दिवाली मुबारक भी नहीं बोला! बस हां ठीक है कहकर काम निपटा दिया। कहीं काम खत्म होते ही दिवाली उपहार ना देकर धन्यवाद से काम निपटा ना दें। नहीं- नहीं उसे ऐसी बात नहीं सोचनी चाहिए।

रत्ना भदौरिया की अन्य कहानी पढ़े : लघुकथा स्वेटर 

अगर घर को अच्छे से सजायेगी मैडम के मेहमान खुश हो जायेंगे तो मैडम बड़ा उपहार भी दे सकती हैं। वैसे रुपए पैसे कुछ भी नहीं चाहिए बस छोटा बेटा रामू को स्कूल में दाखिला कराने बोल दें, क्योंकि अभी पिछले हफ्ते ही उसने घर की दशा बतायी थी। जगवन्ती दनादन काम में लग गयी ,पूरे घर की सफाई करते -करते दोपहर के एक बज गए।अब उसके पेट में चूहे कूदने लगे, अभी से इतनी भूख अभी श्वेता मैडम का काम बाकी है।एक हाथ से पेट दबाती कभी पानी पी लेती।अभी घर को सजाना भी है और हां रंगोली भी बनानी है। घर को सजाते -सजाते तीन बज गए।मैडम साहब घर के सभी सदस्य टेबल पर बैठे हैं कई तरह के पकवान बने हैं, साथ में कई तरह की मिठाई भी।साहब मैडम से कहते हुए यार आज खाना बहुत खा लिया,मेरा खाना भी ज्यादा हो गया कहकर मैडम टेबल समेटने लगी। जगवन्ती ने रंगोली बनाई,घर का सारा काम खत्म कर शाम के साढ़े चार बजे मैडम को दुबारा दिवाली मुबारक बोल चलने लगी।मैडम भी ठाठ के साथ हां ठीक जगवन्ती बहुत बहुत धन्यवाद कहते हुए गेट बंद कर लिया। ये क्या वही हुआ? कोई बात नहीं मैडम भी क्या करें इतनी मंहगाई में।

श्वेता मैडम के यहां जाती हूं महज पांच मिनट की दूरी पर श्वेता मैडम का घर। श्वेता मैडम बाहर ही बच्चों के साथ पटाखें फोड़ रही थी। देखते ही भड़क गयी ये कोई समय है आने का ।जब देखो मुंह उठाकर चली आती हो आज का काम कर लिया है अब कल आ जाना। ठीक है मैडम दिवाली मुबारक हो आप सबको । क्या दिवाली मुबारक हो? सुबह से दिमाक खराब कर दिया। सारे रास्ते जगवन्ती ने उपहार पाने की खुशी छोड़ ये सोचने में बिता दिया कि पूरा दिन निकल गया उसने दिये नहीं बेचे अगर बच्चों के दिये नहीं बिके होंगे तो आज खाने में क्या बनायेगी?दस किलोमीटर की दूरी तय‌ करने में घंटा लग गया, क्योंकि सारे टैम्पो वाले घर दिवाली पूजा के लिए जा चुके होंगे,उसे पैदल ही दस किलोमीटर की दूरी तय‌ करनी पड़ी। घर पहुंच कर देखा धुंधले प्रकाश में दोनों बच्चे एक दूसरे से लिपटे हुए सिसक रहे हैं । दौड़ कर जगवन्ती बच्चों को पुचकारते हुए पूछने लगी क्या हुआ दोनों ऐसे क्यों रो रहे हो?मां -मां दिये नहीं बिके ।

छोटा बेटा सिसकते हुए भईया के सिर्फ पच्चास रुपए के ही दिये बिके हैं , और पता है मां सब कह रहे थे कि आज कल इनको कौन लेगा दो चार ले लो । तरह -तरह की लाइट आ गयी हैं, जो चमक और रौनक उनमें इन दियों में कहां? जगवन्ती मुस्कुराते हुए पता है जब मैं छोटी थी तो मेरी मां बहुत स्वादिष्ट खीर बनाती थी आज वही बनाती हूं देखना खाकर मजा आ जायेगा।चलो चलो‌ तुम लोग दियाली जलाओ। मैं अभी आती हूं। पच्चास रुपए लेकर जगवन्ती दुकान गयी वहां से दूध चीनी ले आयी घर के मटके से चावल निकाल खीर बनाने लगी दोनों बच्चे दियाली जलाने में मग्न हो गये । रात के करीब नौ बजे खीर खाने बैठे बच्चे जोर जोर से हंसते और मां को धन्यवाद करते हुए कहते वाह मां आज तो सच में मज़ा आ गया । खाकर तीनों कब सो गए पता ही नहीं चला सुबह जब फोन की घंटी बाजी देखा अरे! ये श्वेता मैडम का फोन है इतनी सुबह। इन्हें क्या हुआ । हेलो मैडम क्या हुआ? जगवन्ती तुम जल्दी से घर आ जाओ और सुनो घर से कुछ खाने का ले आना। यहां पर—–आगे श्वेता मैडम बोल नहीं पाती

जगवन्ती फटाफट बच्चों के लिए नमकीन चावल बना दिये और श्वेता मैडम के लिए खीर ले लेती हूं पसंद आयेगी। श्वेता मैडम के घर पहुंच कर श्वेता मैडम को देख स्तब्ध रह गई। ये सब कैसे हुआ मैडम? इससे पहले आपने कभी ——? कल साहब ने ——और खाना भी खाने नहीं दिया जिसकी वजह से ब्लड प्रेशर की दवाई‌ नहीं ली‌ सिर में बेतहाशा दर्द है । ला पहले जो लेकर आयी खाने का दे बाकी बातें बाद में। जगवन्ती ने मैडम को कटोरी में खीर डालकर दे दी मैडम बड़े आराम से खीर खाकर जोर की डकार ली जगवन्ती सच मजा आ गया,दवाई भी दे दे । जगवन्ती ने दवाई और पानी का गिलास उठा दिया। मैडम ने खीर और दवाई खाकर —-अब जाकर सुकून मिला। जगवन्ती हल्के से मुस्कुरा कर बाहर आ गयी मैडम चैन की सांस ——।

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ड्यूटी | लघुकथा | रत्ना सिंह

ड्यूटी | लघुकथा | रत्ना सिंह

तुम्हारा ही घर है बेटा एक बार नहीं अनेक बार कहती हैं फिर भी पता नहीं जैसे ही फोन आता श्रेया तुम बाहर जाओ, थोड़ी देर में बुला लूंगी।अभी जरा व्यक्तिगत बात करनी है।ये व्यक्तिगत बात क्या होती है श्रेया ने हमेशा से यही सुना और देखा की व्यक्तिगत बात में अपने सभी लोग उपस्थित रहते हैं,तो उसके साथ ऐसा क्यों?एक तरफ तुम्हारा घर दूसरी तरफ बाहर जाना। श्रेया दिल्ली के जाने माने अस्पताल में बतौर नर्स काम करती है लेकिन उसे अस्पताल की तरफ से घर में मरीज को देखने के लिए भेजा गया।समय सीमा कुछ निर्धारित नहीं कि आखिर उस घर में कितने दिन तक जाना है। मरीज की हालत बेहद नाज़ुक है घर के लोगों का कहना था कि जो भी इलाज होगा घर‌ से वहीं पर डाक्टर और नर्स भेज दीजिए।

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अस्पताल की तरफ से भी पूरी फारमेलिटी पूरी करके हां कर दिया गया चुना गया श्रेया को । श्रेया के लिए भी अस्पताल और घर मायने नहीं रखता उसे तो बस अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटना था सो हां कर दिया और पता लेकर दूसरे दिन मरीज के घर पहुंच गयी । पहले दिन सबकुछ मैनेज करने में पूरा दिन निकल गया,खाना खाने तक की फुर्सत नहीं दूसरे दिन उसे लगा कि जब अपना ही घर है तो खाने का टिफिन बॉक्स क्यों ले जाना? ऐसे ही पहुंच गयी और लग गयी काम में पहले दिन चाय और नाश्ता मिल गया था आज ग्यारह बजने को आये अभी तक एक कप चाय भी नसीब नहीं। फिर भी श्रेया ने सोचा कि आज रविवार की वजह से हो सकता है देरी हो। लेकिन देखते -देखते घड़ी ने टिक टिक करके दो बजा दिये, ये कैसा अपना घर है ?कमरे से बाहर निकल कर देखा‌ तो तरह तरह‌ के पकवानों से मेज सजी हुई है, चारों तरफ घर के सदस्य बैठे खाना खा रहे हैं।वापस आ गयी , तभी मरीज की बहु ने देखा और वो कमरे में आ गयी क्या हुआ सिस्टर, कोई बात।

नहीं -नहीं खाना चाहिए था श्रेया ने कहा! बहू ने आश्चर्य से पूछा क्या? खाना नहीं लायी‌ अपना टिफिन बॉक्स लाना होता है यहां कोई खाना बनाने वाली नहीं है मैं ही बनाती हूं,चलो आज दे‌ देती हूं कल से लेकर आना और अन्दर चली गई। इतने में सभी आपस में बात करते हुए क्या हुआ खाना नहीं लायी‌ तो बोल दो बाहर से‌ ले‌ आये यहां इतनी मंहगाई में अपना ही भारी है ,बहू ने कहा,चलो आज दे देती‌ हूं।एक सब्जी और दो रोटी देकर चली‌ गयी,खा तो लिया मगर उस खाने से न पेट भरा नहीं कोई स्वाद लगा ।बस एक दृश्य कौध गया कि जब मां खाना बनाती है तो कितनी बार पूछती‌ है और ले लो थोड़ा और मना करते -करते थाली में एक रोटी ‌रख‌‌ ही देती है। दुसरे दिन से श्रेया अपना टिफिन बॉक्स खुद ले‌ जाती, यहां तक‌ अब वो गर्म थरमस में चाय भी अब उसे उस अपने घर का कुछ नहीं चाहिए। धीरे धीरे समय व्यतीत होने लगा मरीज की हालत में सुधार आने लगा।एक‌ दिन सुबह -सुबह गयी‌ तो देखा मरीज की हालत फिर से खराब है प्रथमिक उपचार करने ‌के‌ बाद डॉक्टर को‌ फोन लगाया।

डॉक्टर ने‌ जैसे जैसे बताया वैसे ही किया मगर स्थिति में सुधार नहीं हुआ तब डॉक्टर को‌ खुद आना पड़ा‌ । डाक्टर अपने इलाज‌ में व्यस्त था‌ श्रेया भी डाक्टर की मदद में जुटी हुई थी घर के‌ लोग नदारद थे । देखा तो श्रेया अचंभित हो उठी। सभी लोग सज धज के बाहर आये बेटे ने कहा आप लोग इन्हें देखिए,हम सभी एक जरूरी फंक्शन में जा रहे हैं। जी ठीक है श्रेया ने हां की मुद्रा में सिर हिलाया।तीन चार घंटे के बाद जब मरीज की हालत स्थिर हूई तो बेटे और बहू की पुकार लगाई। श्रेया ने कह दिया कि वे सभी जरूरी फंक्शन में गये हुए हैं।बात सुन मरीज रोने लगी और श्रेया का हाथ पकड़ कर धन्यवाद दिया। तभी श्रेया ने कहा,अरे! नहीं -नहीं ये तो हमारी ड्यूटी और जिम्मेदारी है,दूसरा आप सभी तो कहते हो कि ये घर अपना‌ ही समझिए।अपने घर‌ में धन्यवाद किस बात का‌ मरीज अनुत्तरित थी लेकिन श्रेया की समझ में अपना घर और घर जैसे का अर्थ बखूबी समझ आ‌ गया।

इंटरव्यू | गुलशेर अहमद | Hindi Short Story

कुछ दिनों पहले मैं एक इंटरव्यू देने गया था। जब हम इंटरव्यू के लिए जाते हैं तो बहुत सारे लोग मिलते हैं; कुछ आपके उम्र से बड़े और कुछ छोटे भी होते हैं। सभी में समानता यही होती है कि वो बेरोज़गारी में जी रहे होते हैं और कैसे भी, नौकरी पा लेने की जुगत में होते हैं। ऐसे सभी लोगों में एक और समानता होती है कि सभी के जेब बहुत ठंडे; मतलब की ख़ाली होते हैं। कुछ लोग होते हैं जिनके बड़े भाई या पिता या कोई ऐसा उनका बड़ा होता है जो मज़ाक-मज़ाक में जेब या अकाउंट में पैसे डाल देते हैं; तब उन्हें पैसों की तंगी बिलकुल महसूस नहीं होती है। ऐसे ही लोगों में मैं भी था; मेरे अब्बा ने मेरे अकाउंट मे पैसे डाल दिए थे।

ख़ैर! उस दिन मैं एक लड़के से मिला। मैं उसका नाम यहाँ लिखना चाहता हूँ लेकिन मैं लिख नही पा रहा हूँ; इसकी मेरी अपनी वजाहत है। खैर! इंटरव्यू में उसका सिलेक्शन नही हुआ और मुझे भी एक उम्मीद की लड्डू दे कर भेजा गया की HR का फाइनल कॉल आपको आ जायेगा। नियति कुछ ऐसी थी कि हम दोनो वहाँ से साथ निकले। दो-तीन घंटे साथ में उस दफ़्तर के कोरिडोर में बैठते-उठते इतनी दोस्ती तो हो ही गई थी कि हम साथ निकल सके; दोनो एक मायूसी के साथ निकले। मायूसी इसलिए कि दोनो को आस थी कि यहाँ हमारा कुछ हो जायेगा।

मैंने बाहर आते ही कहा कि अगले चौराहे तक के लिए ऑटो ले लेते हैं। उसने मना कर दिया। कहता है “क्या यार इतनी करीब जाने के लिए क्या ऑटो लें; चलो वॉक करते हुए चलते हैं। एक दो किलोमीटर तो होगा ही; बस।”
मैं आश्चर्यचकित होते हुए उसका चेहरा देखा और मुस्कुराते हुए कहा “बस।”
वो भी हंसने लगा और हम दोनो “भारत देश, बेरोज़गारी और राजनीति” पर बात करते हुए आगे बढ़ गए।

“वाकई देश में बहुत बेरोज़गारी आ गई है भाई।” उसने कहा।

” हां यार; मैंने भी “सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के ताजा आंकड़ों को पढ़ा; एक महीने में यानी जुलाई 2021 के मुकाबले अगस्त 2021 में 15 लाख के करीब जॉब अपॉर्चुनिटी घट गई और बेरोजगारी दर (Unemployment Rate) जुलाई के 6.96% से बढ़कर अगस्त में 8.32% हो गई.
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के इंस्टीट्यूशनल हेड प्रभाकर सिंह ने बताया कि “जुलाई से अगस्त, 2021″ के बीच एक महीने में करीब 40 लाख अतिरिक्त लोग जॉब मार्केट में नौकरी खोजने के लिए पहुंचे।” मैंने अपनी ताज़ा जानकारी साझा की।

“बताओ! खैर से भाई; एक बात की ख़ुशी है कि सिर्फ हम दो लोग ही नही हैं।” उसने कहा और हम दोनों हंसने लगे।

“यार जानते हो; इन आंकड़ों से ज़्यादा दुःख तो एक सवाल से होता है; क्या भाई कुछ हुआ तुम्हारे जॉब का; कब तक बेरोज़गार घूमोगे?” वो थोड़ा इमोशनल हो गया।

“अरे कोई न भाई; बोल दिया कर कि हो जायेगा।” मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा।

“भाई थोड़ा भूख लग रही है। चलो छोले-भटूरे खाते हैं।” मैंने अपने पेट पर हाथ फेरते और सड़क के किनारे छोले भटूरे के ठेले की तरफ देखते हुए बोला।

“अरे नही भाई। मैं अपने दोस्तों के साथ रहता हूं। उन्होंने मेरा खाना बना दिया होगा।” उसने मना किया।

“यार; तुम्हारा घर इतना दूर है। तुमको पहुंचने में भी घंटे लगेंगे अभी। और टाइम तो देख; तीन बज गए हैं।” मैंने अपनी हाथ की घड़ी उसे दिखाई।

“अरे भाई, वो बात नही है।” वो इधर-उधर देख रहा था। उसके चेहरे से साफ पता चल रहा था उसे भी मेरे जितनी ही भूख लगी है। इंसान की यही तो खूबी है और खामी भी कि चेहरा कुछ छुपा ही नही पाता। और भूख तो बिल्कुल भी नही। कुछ भी समय पर हो या न हो लेकिन भूख बिलकुल समय पर लग जाती है।

मैंने पूछ “तो फिर क्या बात है?”

“यार; मेरे पास इतने ही पैसे हैं कि मैं कमरे तक जा सकता हूं। इसीलिए तो वहाँ से ऑटो भी नही लिया।” वो अपना वॉलेट निकल कर दिखाने लगा।

मैं निःशब्द था। मैं खामोश था। शॉक्ड में था। वो मुझसे नज़रे नही मिला पा रहा था। मैं भी इधर-उधर देखने लगा। मैंने बस उसके कंधे पर हाथ रखे; हमने एक दूसरे से अब कोई बात नही की। हम दोनो ने छोले-भटूरे खाए लेकिन कोई बात नही हुई। वहाँ से लगभग और आधा किलोमीटर वॉक करके चराहे तक गए, लेकिन हमारी कोई बात नही हुई। घर से निकलते हुए जैसे मेरे बड़े भाई ने मेरे शर्ट की जेब में कुछ पैसे डाले थे; मैंने भी कुछ रुपए उसके शर्ट की जेब में डाल दिए। वो मेरे गले लग गया। बस आई और वो चला गया।

मुझे रोना आ रहा था लेकिन नही रो पाया। मैं वही सड़क पर बहुत तेज़ दौड़ना चाहता था लेकिन नही दौड़ पाया। पास में ही एक दुकान के बाहर की सीढ़ियों पर देर तक बैठा रहा। आपको लग रहा होगा कि ज़्यादा ही सेंटी हो रहा है। ऐसा नहीं है।

आज-कल हमारे आस-पास ऐसे बहुत से जवान लड़के हैं जिनकी कॉलेज की पढ़ाई खत्म हो गई है लेकिन वो न किसी नौकरी पर लग पाए हैं और न ही किसी जॉब में। अब “नौकरी और जॉब” में क्या फ़र्क है ये फिर कभी बताऊंगा; लेकिन अभी एक गुज़ारिश करूंगा। यदि आपके आस-पास ऐसा कोई लड़का मिल जाए तो कोई ऐसा सवाल मत कीजिए; जिसके जवाब की हमने कभी तैयारी ही नही की और न ही किसी और ने तैयारी की होगी कि बेरोज़गारी के सवाल का वो क्या जवाब देगा।

मैं सिर्फ एक लड़के से मिला लेकिन ऐसे बहुत सारे नौजवान लड़के हैं जो दो किलोमीटर तक वॉक कर लेते हैं ये सोच कर कि शायद ₹10 बच जाए तो आगे के किराए में लगा दूंगा। सड़क पर चलते हुए कपड़े, जूते, चप्पल, चश्मे, परफ्यूम तो दूर की बात कभी-कभी भूखे-प्यासे अपने कमरे पर लौट आते हैं ताकि वो पैसे कहीं इंटरव्यू देने जायेंगे तो किराए पर खर्च करेंगे।

मैं मानता हूँ कि बहुत सारे लोगों के मस्तिष्क में ये सवाल पैदा होगा कि घर बता देता; घर से पैसे ले लेता। इस सिचुएशन में दो बातें आ जाती हैं। पहला कि शायद हो सकता है कि उसकी फैमिली इतनी कैपेबल न हो। दूसरा और सबसे जरूरी कि हम सभी के जीवन में एक ऐसी उम्र आती है जब हम घर से पैसे लेते हैं तो शर्म आने लगती है। अंदर से मन “मरने” लगता है। ख़ुद से ही घुटन होने लगती है और सबसे बड़ी बात कि खूद से ही हीनता( Inferiority ) होने लगती है।

ऐसी बहुत सारी बातें हैं जो हमे सोचने की ज़रूरत है। ज़रूरत है कि अगर कहीं कुछ पता चले तो हम बेरोज़गार बच्चों की मदद करके उनको रोज़गार दिलवा दें और अगर इतना नही कर सकते तो इतना ज़रूर कर सकते हैं कि उनके अपने ज़ख्मों पर सवालों और तंज़काशी के नमक ना रगड़ें। बाकी आप अल्लाह का शुक्र अदा करें और खुश रहें।

~”अहमद”

janamdin ka uphar-रूबी शर्मा

जन्मदिन का उपहार


        कल खुशी का जन्मदिन है लेकिन वह आज ही बहुत प्रसन्न और उत्साहित है ।उसकी खुशी का ठिकाना न था क्योंकि उसके जन्मदिन में हर वर्ष उसे बहुत अच्छे-अच्छे अनेक उपहार ,कपड़े व अन्य वस्तुएं मिलती थी। बुआ ,मम्मी-पापा, दादा- दादी, चाचा -चाची ,मौसी ,मामा सब उसके लिए कुछ न कुछ लाते थे। घर में खाने के लिए बहुत अच्छी-अच्छी चीजें बनती थी ।उस दिन  सब उसे बहुत स्नेह करते थे ।

यह उसका दसवां जन्मदिन था। जन्मदिन के दिन वह सवेरे उठी और तैयार होकर मम्मी -पापा के साथ भगवान का आशीर्वाद पाने के लिए शिवजी के मंदिर गई ।   

   घर वापस आई तो देखा घर में मेहमान आने लगे थे। सब तरफ चहल पहल थी ।बुआ ,मौसी ,मामा धीरे-धीरे सब लोग आ रहे थे ।     

  शाम को बड़े ही धूमधाम से खुशी का जन्मदिन मनाया जा रहा था। सब ने उसे अनेक सुंदर-सुंदर उपहार दिए। उसके पापा और मम्मी ने भी सुंदर सा उपहार दिया जिसे देखकर वह बहुत खुश थी ।     

तभी मम्मी ने कहा ,”बेटी !हम तुम्हें एक और उपहार देंगे जो तुम्हारे लिए तो बहुत अच्छा होगा ही साथ साथ ही साथ दूसरों के लिए भी हितकारी होगा ।   

अच्छा मम्मी !आप मुझे कौन सा ऐसा उपहार देने वाली है जो दूसरों के लिए हितकारी होगा।       

मम्मी खुशी को घर के पीछे वाले मैदान में ले गई ।वहां लगे पांच छोटे-छोटे आम के बच्चों को दिखाया और कहा ,”खुशी !ये वृक्ष ही मेरी तरफ से तुम्हारे लिए जन्मदिन का उपहार है। आज से अब तुम इनकी देखभाल करोगी। भविष्य में ये वृक्ष तुम्हारे लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध होंगे ।” 

 खुशी बोली,” मम्मी! सच में आपका यह उपहार बहुत ही अच्छा है। ऐसा उपहार कभी किसी ने न दिया होगा। मैं भी संकल्प करती हूं कि अब हर जन्मदिन पर मैं पांच वृक्ष जरूर लगाऊंगी ।उनकी देखभाल करूंगी।”     

 समय बीतने के साथ खुशी ने ऐसा ही किया ।अब वह बीस वर्ष की हो गई थी ।उसके खेत में बहुत से वृक्ष उसके लगाए हुए थे ।कुछ वर्षों में तो फल भी लगने लगे थे । 

इधर खुशी ने स्नातक की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण ली थी। उसकी आगे की पढ़ाई रुकने वाली थी क्योंकि उसके पापा की अब अधिकतर तबीयत खराब रहती थी। कंपनी कार्य करने भी नहीं जा पा रहे थे ।

घर की आर्थिक स्थिति कमजोर हो रही थी ।इधर खुशी का नाम भी ला की मेरिट लिस्ट में आ गया था परंतु उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसके लिए फीस कहां से लाए गए।  वह उदास थी ।उसकी मम्मी ने उसे उदास देखा तो पूछा ,”खुशी क्या बात है ।तुम इतना उदास क्यों हो। मुझे बताओ शायद मैं किसी भी प्रकार से तुम्हारी मदद कर सकूं।”   

  खुशी के चेहरे पर उदासी छा गई वह रुआसे  स्वर में बोली ,”मम्मी !अब मेरी आगे की पढ़ाई कैसे होगी ।मेरे कैरियर का क्या होगा। पापा के पास तो पैसे नहीं है ।मैं ला की पढ़ाई कैसे कर पाऊंगी ।”       

मम्मी ने समझाते हुए कहा ,”बेटी! चिंता न करो ।सब ठीक हो जाएगा और फिर तूने तो अपने आप को पहले से ही इतना मजबूत कर लिया है तो अब चिंता किस बात की।” खुशी मम्मी की बात समझ नहीं पाई ।उसने तुरंत पूछा,” मम्मी! मैंने किस प्रकार से अपने आप को मजबूत किया है।

आप क्या कह रही हो ।मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है।”   

 अरे तूने इतने वृक्ष लगाए हैं ।उनके फलों को बेचकर तुम्हारी पढ़ाई अच्छे से हो सकेगी ।पैसे कम हुए तो दो- चार वृक्ष बेंच देंगे । मम्मी की बात को सुनकर खुशी की खुशी का ठिकाना न था ।उसे अपना वकील बनने का सपना पूरा होता नजर आने लगा । समय की मांग के साथ उन लोगों ने वैसा ही किया ।वृक्ष एवं उनके फलों को बेचकर खुशी के पापा ने खुशी को ला करवा दिया ।कुछ ही दिनों में वह वकील बन गई ।अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर वह बहुत ही कम दिनों में श्रेष्ठ वकीलों की पंक्ति में आ गई ।

उसके घर की आर्थिक स्थिति में भी सुधार हो गया। पापा का उसने अच्छे डॉक्टर से इलाज करवाया। वह पूरी तरह स्वस्थ हो गए ।वह भी कंपनी में कार्य करने वापस जाने लगे । खुशी ने मम्मी से कहा ,”मम्मी! आज अपने घर में सब कुछ ठीक है तो आपकी वजह से ।मम्मी सच में आपके उपहार ने मेरा ही नहीं अपने पूरे परिवार का भविष्य बदल दिया।”

बीमारी | रत्ना सिंह | लघुकथा

बीमारी | रत्ना सिंह | लघुकथा

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रत्ना सिंह

सोमवार का दिन था आफिस जाना था लेकिन तबियत कुछ ठीक नहीं लगी तो सोचा आज आराम कर लेता हूं।शाम को बतियाने शर्मा जी के यहां चला गया पंचायत चुनाव पर चर्चा हो रही थी,कि शर्मा जी का बेटा नितिन आफिस से आया। कैसा रहा आज आफिस का दिन ?शर्मा जी ने पूछा ! पापा बहुत बढ़िया!बेटे ने कहा।उसकी खुशी समा नहीं रही थी। फिर कुछ रुककर बोला “पापा आज एक मजेदार बात बताता हूं। हमारे जो हेड हैं वो कह रहे थे कि उनके पापा नींद में तो कुछ बड़बड़ाते ही हैं जब जगे होते हैं तब भी बड़बड़ाते रहते हैं।दिमाग खराब कर रखा है उन्होंने। कभी कभी मन करता है कि सड़क पर छोड़ आऊं। तो मैंने उन्हें कहा छोड़ आइऐ मेरे पापा ने भी ऐसा ही किया। क्यों पापा? ठीक कहा! पापा की आवाज,तू पागल हो गया है नितिन सब जगह बेजजती करवा रहा है। पापा उस समय दादा जी कितना रोये थे,उनकी क्या ग़लती, सिर्फ उन्हें बीमारी ही तो लगी थी । जब सड़क पर दादा जी को छोड़ते हुए बेजजती महसूस नहीं हुई अभी बताते हुए क्यों? बताइए पापा अब क्यों नहीं बोल रहें हैं नितिन बोल रहा था, शर्मा जी के गले से आवाज नहीं निकली सिर नीचे झुक गया।

अंतर | Short Story in Hindi | आशा शैली

अंतर | Short Story in Hindi | आशा शैली

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आशा शैली

अंतर

पति के देहांत को छः महीने से भी ज्यादा हो गये थे, बेटी बार-बार बुला रही थी। हॉस्टल की वार्डन भी कई बार कह चुकी थी कि ‘बच्ची पिता को लेकर बहुत भावुक है, एक बार आप आकर उसे मिल जाइए थोड़ा-सा हौसला होगा उसे।’
घर से निकलने की उसे हिम्मत ही नहीं हो रही थी, फिर भी वह अपने दायित्व के प्रति जागरूक थी। पिता के न रहने पर माँ के बढ़े हुए दायित्व से भली भान्ति परिचित थी, अतः शिमला जाने का मन बना ही लिया।
बैग उठाकर बाहर ही निकली थी कि विवाहित बेटे ने टोक दिया, ‘‘यह क्या पहन लिया आपने? कुछ समाज की भी चिन्ता है या नहीं?’’
करुणा ने चौंककर अपने आप को देख, उसने गहरे हरे रंग का पुराना-सा प्रिंट सूट पहन रखा था, ‘‘इस सूट में क्या हो गया?’’
‘‘आपको पगड़ी पर कितनी सारी सफेद साड़ियाँ मिली थीं? उनका क्या करेंगी आप?? अब आपको घर से बाहर जाते समय उन्हें पहनना जरूरी है। हमारे समाज का यही नियम है।’’ बेटे की आवाज़ सपाट थी।
‘‘बस के सफर में सफेद कपड़ा जल्दी गंदा हो जाता है। मिला पहुँचकर बदल लूँगी।’’ करुणा नीचे सड़क पर उतर गई थी। बस आने वाली थी, बहस का समय नहीं था।

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शाम तक वह अपनी मित्र उषा के घर में थी, उषा से भी इस हादसे के बाद वह पहली बार मिल रही थी, वातावरण बोझिल ही रहा। सुबह करुणा को सफेद साड़ी में शृंगार विहीन देखकर वह बिलख उठी, परन्तु करुणा अनदेखा करके बाहर निकल गई।
प्रिंसिपल ने लड़की को बुलावा भेजा, पर यह क्या, बेटी तो माँ को देखते ही दरवाजे से उल्टे पैर भागती हुई प्रांगण के बड़े पेड़ से सिर मार-मार कर रोने लगी। जो अध्यापिकाएँ करुणा से मिलने आई थीं वे भी लड़की के इस अप्रत्याशित व्यवहार से भौंचक्की खड़ी थीं, तभी वार्डन ने आगे बढ़कर बच्ची को प्यार से सहलाते हुए पूछा,
‘‘क्या हुआ मैना? क्यों रो रही हो?? तुमने ही तो उनको मिलने के लिए बुलाया था।’’
‘‘मैम!….उसने सुबकते हुए कहा, ‘‘वो, सफेद साड़ी…..वो मुझे याद दिलाती है….पापा मर गये…नहीं हैं अब मेरे पापा’’ वह फिर हिचकियाँ लेने लगी।
‘‘सॉरी बेटा, अब ऐसा नहीं होगा। विश्वास रखो।’’ करुणा ने बेटी को गले लगा लिया। अब उसने उषा की दी हुई कत्थई शॉल ओढ़ ली।