अपमान और लाचारी के आँसू | लघुकथा | रश्मि लहर
अपमान और लाचारी के आँसू | लघुकथा | रश्मि लहर
“संपादक महोदय?”
लखनऊ कार्यालय के एक बड़े से कमरे में पहुँचते ही नीरजा ने किताब पढ़ते हुए व्यक्ति से पूछा।
“जी कहिए …!”उसने चश्मे के भीतर से टटोलती निगाहों से नीरजा को देखते हुए कहा।
“सर, मुझे अपनी कहानी छ्पवानी है, आपके प्रतिष्ठित अखबार में …” नीरजा ने आत्मविश्वास भरे भावों से संपादक से कहा।
संपादक थोड़ा सीधा हुआ …
“कहाँ की पृष्ठभूमि है ?”
“जी मैं! महोना गाँव की हूँ, किसान परिवार की ग्रेजुएट। मेरी कहानी ….”कहते हुए नीरजा ने कुछ पेपर आगे बढ़ाए |
“यहाँ..लखनऊ में किसी को जानती हैं?” संपादक ने पेपर लेने में कोई दिलचस्पी न दिखाते हुए कहा।
“जी नहीं …..मैं गाँव से आ रही हूँ..आपके अख़बार का साप्ताहिक परिशिष्ट बहुत अच्छा लगता है, उसी में अपनी ये कहानी छपवाना चाहती हूॅं। ये मेरी कहानी आधुनिक परिप्रेक्ष्य की है …आपको बहुत पसंद आएगी सर!” कहते हुए उसने कागज फिर आगे बढ़ाये।
“क्या मैडम ! ऐसे थोड़े छ्पता है ….न …न!
अरे किसी ने संस्तुति दी है आपकी ? कोई लेखक है आपके गाँव में ? किसी को जानती हैं आप ?”
“अरे सर , भले मैं इस शहर में किसी को नहीं जानती पर कृपया आप मेरी कहानी पढ़ तो लीजिए …आपको अविस्मरणीय लगेगी। एकदम सटीक, यर्थाथवादी कहानी है सर” कहते हुए नीरजा लगभग रोने सी लगी।
सहसा संपादक ने घंटी बजाई…
“इनको बाहर भेजो” चपरासी से कहते हुए उसने नीरजा की ओर इशारा किया
“और हाँ ……यूॅं ही हर किसी को मेरे कमरे में न भेज दिया करो …” कहते-कहते संपादक ने अपनी कुर्सी पीछे की और अपनी अलमारी की तरफ झुक गया।
अपनी आँख में अपमान और लाचारी के आँसू भरे नीरजा! थके-थके कदमों से घर के लिए लौट पड़ी।