ड्यूटी | लघुकथा | रत्ना सिंह
ड्यूटी | लघुकथा | रत्ना सिंह
तुम्हारा ही घर है बेटा एक बार नहीं अनेक बार कहती हैं फिर भी पता नहीं जैसे ही फोन आता श्रेया तुम बाहर जाओ, थोड़ी देर में बुला लूंगी।अभी जरा व्यक्तिगत बात करनी है।ये व्यक्तिगत बात क्या होती है श्रेया ने हमेशा से यही सुना और देखा की व्यक्तिगत बात में अपने सभी लोग उपस्थित रहते हैं,तो उसके साथ ऐसा क्यों?एक तरफ तुम्हारा घर दूसरी तरफ बाहर जाना। श्रेया दिल्ली के जाने माने अस्पताल में बतौर नर्स काम करती है लेकिन उसे अस्पताल की तरफ से घर में मरीज को देखने के लिए भेजा गया।समय सीमा कुछ निर्धारित नहीं कि आखिर उस घर में कितने दिन तक जाना है। मरीज की हालत बेहद नाज़ुक है घर के लोगों का कहना था कि जो भी इलाज होगा घर से वहीं पर डाक्टर और नर्स भेज दीजिए।
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अस्पताल की तरफ से भी पूरी फारमेलिटी पूरी करके हां कर दिया गया चुना गया श्रेया को । श्रेया के लिए भी अस्पताल और घर मायने नहीं रखता उसे तो बस अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटना था सो हां कर दिया और पता लेकर दूसरे दिन मरीज के घर पहुंच गयी । पहले दिन सबकुछ मैनेज करने में पूरा दिन निकल गया,खाना खाने तक की फुर्सत नहीं दूसरे दिन उसे लगा कि जब अपना ही घर है तो खाने का टिफिन बॉक्स क्यों ले जाना? ऐसे ही पहुंच गयी और लग गयी काम में पहले दिन चाय और नाश्ता मिल गया था आज ग्यारह बजने को आये अभी तक एक कप चाय भी नसीब नहीं। फिर भी श्रेया ने सोचा कि आज रविवार की वजह से हो सकता है देरी हो। लेकिन देखते -देखते घड़ी ने टिक टिक करके दो बजा दिये, ये कैसा अपना घर है ?कमरे से बाहर निकल कर देखा तो तरह तरह के पकवानों से मेज सजी हुई है, चारों तरफ घर के सदस्य बैठे खाना खा रहे हैं।वापस आ गयी , तभी मरीज की बहु ने देखा और वो कमरे में आ गयी क्या हुआ सिस्टर, कोई बात।
नहीं -नहीं खाना चाहिए था श्रेया ने कहा! बहू ने आश्चर्य से पूछा क्या? खाना नहीं लायी अपना टिफिन बॉक्स लाना होता है यहां कोई खाना बनाने वाली नहीं है मैं ही बनाती हूं,चलो आज दे देती हूं कल से लेकर आना और अन्दर चली गई। इतने में सभी आपस में बात करते हुए क्या हुआ खाना नहीं लायी तो बोल दो बाहर से ले आये यहां इतनी मंहगाई में अपना ही भारी है ,बहू ने कहा,चलो आज दे देती हूं।एक सब्जी और दो रोटी देकर चली गयी,खा तो लिया मगर उस खाने से न पेट भरा नहीं कोई स्वाद लगा ।बस एक दृश्य कौध गया कि जब मां खाना बनाती है तो कितनी बार पूछती है और ले लो थोड़ा और मना करते -करते थाली में एक रोटी रख ही देती है। दुसरे दिन से श्रेया अपना टिफिन बॉक्स खुद ले जाती, यहां तक अब वो गर्म थरमस में चाय भी अब उसे उस अपने घर का कुछ नहीं चाहिए। धीरे धीरे समय व्यतीत होने लगा मरीज की हालत में सुधार आने लगा।एक दिन सुबह -सुबह गयी तो देखा मरीज की हालत फिर से खराब है प्रथमिक उपचार करने के बाद डॉक्टर को फोन लगाया।
डॉक्टर ने जैसे जैसे बताया वैसे ही किया मगर स्थिति में सुधार नहीं हुआ तब डॉक्टर को खुद आना पड़ा । डाक्टर अपने इलाज में व्यस्त था श्रेया भी डाक्टर की मदद में जुटी हुई थी घर के लोग नदारद थे । देखा तो श्रेया अचंभित हो उठी। सभी लोग सज धज के बाहर आये बेटे ने कहा आप लोग इन्हें देखिए,हम सभी एक जरूरी फंक्शन में जा रहे हैं। जी ठीक है श्रेया ने हां की मुद्रा में सिर हिलाया।तीन चार घंटे के बाद जब मरीज की हालत स्थिर हूई तो बेटे और बहू की पुकार लगाई। श्रेया ने कह दिया कि वे सभी जरूरी फंक्शन में गये हुए हैं।बात सुन मरीज रोने लगी और श्रेया का हाथ पकड़ कर धन्यवाद दिया। तभी श्रेया ने कहा,अरे! नहीं -नहीं ये तो हमारी ड्यूटी और जिम्मेदारी है,दूसरा आप सभी तो कहते हो कि ये घर अपना ही समझिए।अपने घर में धन्यवाद किस बात का मरीज अनुत्तरित थी लेकिन श्रेया की समझ में अपना घर और घर जैसे का अर्थ बखूबी समझ आ गया।