नजरिया | रत्ना सिंह | लघुकथा

नजरिया | रत्ना सिंह | लघुकथा

उसका फोन सबके पास आया लेकिन मेरे पास नहीं । मैं दुखी भी नहीं हूं , हैरान परेशान भी नहीं , क्योंकि पता था कि एक दिन आर्यन जरुर सफल होगा मैंने दिन रात मेहनत जो की थी । मैं और आर्यन एक ही स्कूल में एक ही साथ जाया करते । मेरे स्कूल की एक सबसे दिलचस्प बात यह थी कि सप्ताह के अन्तिम दिन टेस्ट होता, और आंकलन किया जाता कि पूरे सप्ताह बच्चों ने क्या सीखा । आर्यन उस दिन जाने से कतराता कई बार वो रास्ते में छुपकर तो कई बार घर में बीमारी का बहाना बना कर बैठ जाता।तब मैं उसका हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जाया करती ,आर्यन चिल्लाता अनापशनाप बोलता लेकिन मैं एक‌ नहीं सुनती उससे सीनियर जो थी। धीरे-धीरे समय व्यतीत हुआ। मैं नौकरी करने के लिए इलाहाबाद चली गई और आर्यन लखनऊ पढ़ने के लिए । अब वो बात नहीं करता, कल जब उसके रिजल्ट के‌ बारे में मां ने फोन पर बताया तो खुशी के साथ -साथ दिमाग में सवाल भी कौंधने लगे कि——? क्या ग़लती रही जो नहीं बताया आर्यन ने चलो कोई बात नहीं उसकी —–।

इसी बात से मैं बहुत खुश थी तभी गांव की एक मुंह बोली चाची का फोन आया उन्होंने भी यही खबर सुनाई और फिर एक सबसे ही आश्चर्यचकित करने वाली बात कही ,सुनो रूबी (मैं)बिटिया आर्यन कह रहा था कि रूबी ने बहुत कोशिश की कि असफल हो जाऊं लेकिन सफल हो गया अब देखता हूं ——? ऐसा मैं सपने में भी नहीं सोच सकती , कोई बात नहीं चाची ये अपना अपना नजरिया है कहकर मैंने फोन रख दिया और वहीं धम्म से बैठ गयी । दिमाग में एक ही सवाल कि ऐसा नजरिया क्या आर्यन के काम को , उसकी नौकरी को सफलता कि ऊंचाईयों को छू पायेगा या फिर —–?