समझ | लघुकथा | रत्ना सिंह
समझ | लघुकथा | रत्ना सिंह
मुझे फेसबुक और सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना उतना नहीं भाता लेकिन कभी कभी थोड़ा बहुत पढ़ और देख लेती हूं उनमें से कुछ चीजें सुकून दे जाती हैं और कुछ हैरान परेशान तो कुछ बातें सवालों के घेरे में खड़ा कर जाती हैं। आज सुबह अखबार नहीं आया दूध वाला भी कल दो थैली दूध पकड़ा गया, कूड़े वाला तो वैसे भी एक दिन छोड़कर आता है कामवाली ने भी चार दिन पहले ही कह दिया था कि आज वो किसी शादी में जायेगी।
मतलब आज सब छुट्टी पर, मुझे भी अस्पताल दो बजे जाना है चलो तबतक फोन ही चला लूं। अभी फेसबुक खोला ही था कि पहली पोस्ट उसकी मिली जहां मैं पिछले एक साल पहले जाया करती और सिर्फ जाती ही नहीं घंटों बैठकर बातें भी किया करती ।कभी कभी तो रात भी गुजारती तब वो मुझे सब बताती जो आज इस दुनिया में मौजूद नहीं है इस पोस्ट को पढ़ देख नहीं सकती।उसका बताना ही क्या? अनेकों बार मैंने खुद देखा है ।
उसकी पोस्ट में शब्दों को ऐसे बेशुमार पेश किये गये कि आप भी पढ़ेंगें तो यही सोचेंगे कि मैं भी कितनी फालतू बातें करती रहती हूं। लेकिन जिसने देखा हो ,जिसका सामना उस हकीकत से हुआ हो उसे कहने में कोई झिझक नहीं आप सब कुछ भी—-। हां तो अपनी बात पर आती हूं। जिसने कभी दस मिनट नहीं दिये,जिसने कभी एक गिलास पानी नहीं दिया,जिसने कभी सुबह उठते ही ये नहीं पूछा कि आज नाश्ते में क्या खाओगी जिसने अपने दोस्तों के आने पर कमरे का दरवाजा बंद करवाया।
उसने आज अपनी दोनों की फोटो साथ में पोस्ट करते हुए लिखा -सच कहूं आपकी बहुत याद आती है,आपके साथ घंटों बैठकर बातें करना,आपके साथ खाना खाना सब कुछ जब याद करती हूं तो आंखों से निकले आंसुओं को रोक नहीं पाती काश!ऐसा होता कि वहां भी आ पाती सच मां तुम——।
लोगों की सांत्वना और ढांढस बंधाने का अम्बार देख मैं इतना जरूर समझ गयी कि सच में ये फेसबुक नहीं होता तो कुछ लोग के चेहरे मौसम की तरह बदले हुए नहीं दिखते तब शायद उन्हें असली चेहरे में ही रहना होता तो शुक्रिया फेसबुक मुझे समझाने और लोगों के चेहरे बदलने के लिए।