बेसुध | रत्ना सिंह
बेसुध | रत्ना सिंह | लघुकथा
उसका फोन या वो जब तक नहीं आता ये मन भी शान्ति से बैठने का नाम नहीं लेता । ये दिमाग कोड़े मार -मारकर न बैठने पर मजबूर कर देता और फिर क्या बालकनी से झांकती रहती या फिर बार-बार फोन को देखती रहती । कभी -कभी दिन में दस बार फोन करता तो कभी पूरा दिन गायब । कहने पर काम ज्यादा है का बहाना लगा बातों के बेशुमार पेश कर देता । तुमको बहुत चाहता हूं,तुम्हारे बिना रह नहीं सकता और तुम —-।
अच्छा वो जो घर में हैं उसका ग़लती मेरी है जो प्यार किया तुमसे ये पता होने के बावजूद कि तुम शादीशुदा हो अब ये —–। लेकिन प्यार के बाद पता चला तो तुम्हारी ग़लती कहां से अब—– । वो ये सब बोल ही रहा था कि तभी उसके फोन में घरररर-घररर की आवाज सुनाई दी , और बोलने के पहले ही उसका फोन कट गया।दुबारा मिलाया तो व्यस्त करीब आधे घंटे तक व्यस्त। उसके बाद पता नहीं ——?
दूसरे दिन सुबह फोन किया तो कहा पीरियड नहीं आया और कल तुमको बताने वाली थी कि फोन रख दिया फिर रात को बात नहीं हो पाई। पेट में तुम्हारा बच्चा —–। अभी पूरा बोल भी नहीं पायी कि वो बोल पड़ा,दवाई खा लो और बच्चा —–। तुमने तो कहा कि दो शादी कर लोगे ऐसा हुआ अगर नहीं -नहीं कभी —-? वो बड़े आराम से कह दिया कि दवाई ले लो लेकिन यहां तो ——?
आज उसकी बीबी सबिता को फोन लगाया उसकी बात सुन पैर लड़खड़ाने लगे ये आदमी ने बहुत बड़ा धोखा दिया । सबिता का फोन रख दुबारा उसे फोन किया और ये बताओ कि दुनिया जहांन की बातें करने वाले ये बताइये कि —-।
अरे !बाबू तुमसे सच्चा प्यार करता हूं ये बीबी बच्चों के पचड़े में क्यों पड़ती हो हम लोग खुले आसमान में उड़ने वाले पंक्षी तुम भी न—-। जोर- जोर से हंसने लगा । बेसुध सी खड़ी रह गयी वो जोर -जोर से हंसता हुआ चला गया आज तक वो —। आज भी बेसुध खड़ी हूं।न जाने कब तक —-?