सिलवटें | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

सिलवटें | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

मन की चादर पर पड़ी जो सिलवटें,
उम्र देकर ही मिटाती रह गई।
गिर गए कुछ पल सुनहरी मोतियों के,
ढूंढ कर उनको उठाती रह गई।

एक कोने में जला दी रोशनी अब
की अंधेरा अब न भरने पाएगा।
खिड़कियां भी खोल दी मन के जिरह पर,
अब तो झोंका संदली हो आएगा।

कुछ गुलाबी सी किरन भी आ गई तो,
मन गुलाबों सा खिला हो जायेगा।
बारिशें भी हो गईं तो पूछना क्या?
घर से आंगन तक धुला हो जाएगा।

जाग जाती काश सोई भीतियां सब,
तालियां ही मैं बजाती रह गई।
और निंदिया का हिडोला आन उतरे,
लोरियां मन को सुनाती रह गई।

आ गई है नींद किंतु मोतियां तो,
आज भी बिखरी हुई हैं जिंदगी में ।
सिलवटें सुधरी न चादर ही बदल कर,
सुरमई संध्या बुलाती रह गई।।

पुष्पा श्रीवास्तव शैली

जनकवि सुखराम शर्मा सागर की कविता | हिंदी रचनाकार

अभी सवेरा यतन कीजिए

अभी सवेरा यतन कीजिए

जो बचा है उसको जतन कीजिए
बने हैं राजा रंक यहां पर
दिलों में दीपक जला दीजिए
मिली जो शोहरत नहीं मुकम्मल
कौन है अपना नहीं है मुमकिन
बोया है जैसा वही मिलेगा
अजीब करिश्मा समझ लीजिए
दिलों में दीपक जला दीजिए
माता-पिता है जहां में भगवन
प्रकृति का मकसद समझ लीजिए
सागर की लहरें आती है जाती
मैल दिलों के समन कीजिए
उम्मीद तुमसे किया जो अपने
वही करे जो फर्ज समझिए
नापूरी होगी ख्वाहिश सभी की
माया की नगरी समझ लीजिए
जो बचा है उसका जतन कीजिए
अभी सवेरा यतन कीजिए

जनकवि सुखराम शर्मा सागर

मर्म


सुख दुख के भव सागर में
अपने मन की प्यास छिपाए
तन मन हारा हारा है
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
जब था सब कुछ पास हमारे
अपना बनाया बन सबके प्यारे
बिरले दुख में बने है साथी
हकदार बने अब सभी बाराती
अपनों ने मजधार में मारा
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
अपने प्रसाद में बने प्रवासी
भ पसीना था सपन संजोया
जेसीबी हो अब नियति तुम्हारी
माया में किया को जरा
अपनों से ही अपनों ने हार
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
बसंत सुहाना आए जाए
पतझड़ से ना विस्मित हो जाए
यस अपयस रह जाए सारा
सुखसागर ही एक सहारा
अपनों ने मजधार में मारा
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा

जनकवि सुखराम शर्मा सागर

मैंने ऐसी प्रीति देखी है | हिंदी गीत | डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज

मैंने ऐसी प्रीति देखी है | हिंदी गीत | डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज

मैंने ऐसी प्रीति देखी है
जिससे लाज सॅवर जाती है
मैंने ऐसी रीति देखी है
नैया बीच भ‌ॅवर जाती है ।

बादल भी कुछ ऐसे देखे
जो केवल गरजा करते हैं
उनमें कुछ ऐसे भी देखे
जो केवल वर्षा करते हैं ।

कहीं-कहीं तो हमने देखा
अपनों के ख़ातिर मरते हैं
अपनों को कुछ ऐसा देखा
अपने ही मारा करते हैं ।

सोचा कुछ अनसोचा देखा
दूर बहुत कुछ पास से देखा
जैसा दिखता वैसा ना वह
झूठी लेकिन आस से देखा ।

इसको उसको सबको देखा
नीरज जीवन भर है देखा
देखा कुछ अनदेखा देखा
रहे सुनिश्चित हर क्षण है लेखा ।

डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज
गीतकार रायबरेली

गंगा | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

गंगा | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

हे पतित पावनी गंगा,
तेरी जय हो।
हे पापनाशिनी,
गंगा तेरी जय हो।
पर्वत से चलकर,
तू धरती पर आई।
तू आई तो धरती पर,
रौनक छाई।
मैं तेरा ही गुण गाऊं,
तेरी जय हो।
अमृत जैसा तेरा जल,
सबको भाया।
मानव पीने को,
तेरे तट पर आया।
हे मोक्षदायिनी गंगा,
तेरी जय हो।
अंत समय में सबको,
तू अपनाती है।
अपनी गोदी में फिर,
उसे सुलाती है।
जन्म-मरण की साक्षी,

तेरी जय हो।

दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’
रायबरेली

सजल |बेटे-बहू नातियों को मैं कोने का सामान हो गया | डाॅ०अनिल गहलौत

बेटे-बहू, नातियों को मैं, कोने का सामान हो गया।
धीरे-धीरे अपना ही घर, मुझको चूहेदान हो गया ।।

नौते-पानी, चाल-चलन सब, होते सबकी मन-मर्जी से।
मैं बूढ़ा क्या हुआ सभी का, सफर बहुत आसान हो गया।।

चूर-चूर अभिमान एक दिन, कर देता है समय बली यह।
एक केंचुए-सा बुढ़ाँत में, लचर कड़क-संज्ञान हो गया।।

नहीं धमक वह रही, न वैसा, रुतबा रहा गाँव में अपना।
राम-राम, बंदगी-दुआ का, बदला रूप-विधान हो गया।।

बड़ा न कोई कुनबे में कोई, बचे सभी छोटे हैं मुझसे।
पास न आते, कतराते सब, जीवन उच्च मचान हो गया।

जब हम बूढ़े हो जाएँगे, तब वट-वृक्ष कहे जाएँगे।
सीचेंगे सब हमें प्यार से, मिथ्या गर्दभ-गान हो गया।।

जग समझा ही‌ नहीं सृष्टि का, शाश्वत सत्य विधान आज तक।
भव्य भवन हो ग‌ए खंडहर, देख दुखी मन म्लान हो गया।।
—डाॅ०अनिल गहलौत

रक्षाबंधन | रश्मि लहर | रक्षाबंधन पर छोटी सी कविता | Poem On Raksha Bandhan In Hindi

रक्षाबंधन | रश्मि लहर | रक्षाबंधन पर छोटी सी कविता | Poem On Raksha Bandhan In Hindi

रक्षाबंधन

मेरी कलाई को सहेजे
यह रक्षासूत्र मेरी संपूर्णता को
अपनी दुआओं से नवाजता रहता है!
संवेदनाओं से गलबहियाॅं करता हुआ
यह बन्धन जब-तब मुझे
निखारता रहता है, सॅंभालता रहता है!

कभी शैशव की मुस्कराती नोंक-झोंक में उलझाता है,
तो कभी यर्थाथ की कटु यातनाओं से बाहर निकाल लाता है
और स्वयमेव ही मेरे ‘स्व’ से परिचय करवाता है!

बाल-सखा से हम! कब एक-दूसरे के
पथ-प्रदर्शक बन चुके होते हैं, पता ही नहीं चलता।
मेरे असंख्य सपनों में रंग भरता है
तुम्हारी रोली-अक्षत से सजा मेरे माथे का टीका।

मेरे भावों के ऑंगन में सिमटी मेरी ज़िम्मेदारियों को
तुम्हारी रंग-बिरंगी कल्पनाएं और
खिलखिलाती चुहलबाज़ियाॅं सहज बना देती हैं!

सुनो बहना!
मैं उम्र के अंतिम पड़ाव तक
तुम्हारा हाथ अपने मस्तक पर चाहूॅंगा।
तुम्हारे रॅंगोली रचे भाव,
तुम्हारी नज़रें उतारती सी ऑंखें
और मेरी कलाई को सहेजे यह रक्षासूत्र!
मेरी संभावनाओं का अनूठा सहारा है।
तुम जानती हो न?
मुझे यह रिश्ता हर रिश्ते से प्यारा है!

रश्मि लहर
इक्षुपुरी कालोनी,
लखनऊ

झूम कर चांद पर अब तिरंगा कहें | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

झूम कर चांद पर अब तिरंगा कहें | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

झूम कर चांद पर अब तिरंगा कहें,
सबसे उपर हमारा वतन हो गया।
उनके झंडे में बस चांद ही चांद है
मेरे झंडे का घर चांद पर हो गया।

फब्तियां कसने वालों का सूखा गला,
होगा हमसे न कोई अजूबा भला।
तुम बना लो खिलौने के औजार बस,
तुमसे दुनिया से कोई नहीं वास्ता।
ज्ञान,प्रज्ञान की तो समझ चाहिए,
हाय चंदा धरा की नज़र हो गया।
उनके झंडे में बस चांद ही चांद है,
मेरे झंडे का घर चांद पर हो गया।

वो उछलते रहे हांथ दो हांथ बस
ज्यादा उछले तो मिट्टी खिसकने लगी।
गिर गए खा के गश तो उठाना पड़ा,
जिंदगी हाथ से फिर फिसलने लगी।
हम जो उछले तो समझो हवाओं में भी,
जोश का पूरा पूरा असर हो गया।
उनके झंडे में बस चांद ही चांद है,
मेरे झंडे का घर चांद पर हो गया।

देख कर यान को चांद ठिठका रहा,
धीरे धीरे से फिर जा गले लग गया।
ले कर आगोश में प्यार से कह उठा,
मै न जापान का और नहीं रूस का,
अा गए तुम तो समझो ये मामा तेरा,
आज खुशियों से जी तर बतर हो गया।
उनके झंडे में बस चांद ही चांद है,
मेरे झंडे का घर चांद पर हो गया।।

पुष्पा श्रीवास्तव शैली
रायबरेली।

वह बूढ़ा पेड़ | सम्पूर्णानंद मिश्र

वह बूढ़ा पेड़

गांव की ड्योढ़ी पर आज
वह बूढ़ा पेड़ नहीं दिखा मुझे

जिसकी डालियों की देह पर
चींटियां इत्मीनान से अपना निवाला निर्विघ्न लेकर आती थी

किसी आगत ख़तरे में
उन पेड़ों के कोटर में
गिलहरियां छुप जाया करती थी

गांव की सुहागिन
लड़कियां सावन में
पेड़ की लचीली डालियों पर
झूलते हुए‌ प्रिय के पास अपनी प्रेम- पाती पहुंचाती थी

वह बूढ़ा पेड़ गांव के
बच्चों को संस्कारों का ककहरा सिखाता था

बूढ़ों की खिलखिलाहट
उसी पेड़ में बसती थी

न जाने कितनी विधवाओं की मांगों में सिंदूरी रंग डाला था
पंचायत ने उसी बूढ़े पेड़ के निर्णय पर

उस बूढ़े पेड़ के
हस्ताक्षर के बिना
गांव का कोई मांगलिक कार्य सम्पन्न नहीं होता था

वह बूढ़ा पेड़
मानों गवाह था
गांव के शुभ और अशुभ कर्मों का

लेकिन वह बंद रखता था
हमेशा अपना मुंह

राग और द्वेष से
मुक्त था वह

गांव के सबल लोग
कभी- कभी
अनायास उससे टकराते थे

क्योंकि
उस बूढ़े पेड़ ने
अपने पेट में न जाने गांव के कितने श्वेत चेहरों के पापों की गठरियों को छिपाए हुए था

न जाने कौन सी आंधी
कल रात आई

कि उस बूढ़े पेड़ की आंखें
आज नीली हो गई

सैकड़ों कौओं से
वह बूढ़ा पेड़ आज घिरा हुआ था

छोटी- बड़ी चिटियां निष्कंटक उसकी देह पर चहलकदमी कर रही थी

आज वह बूढ़ा नहीं जगा!

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

पहचान पिता हैं | Heart Touching पापा पर कविता हिंदी में

Heart Touching पापा पर कविता हिंदी में, पिता के लिए कविता हिंदी में

पहचान पिता हैं

अंदर के अभिमान पिता हैं ,
सुयश , प्रतिष्ठा , शान पिता हैं ,
जीवन के इस रंगमंच पर ,
मेरी तो पहचान पिता हैं !

जब धरती पर आँखें खोली ,
तुतलाती थी मेरी बोली ,
कभी गोद में मुझे उठाया ,
उँगली धर चलना सिखलाया !
इस दिल के अरमान पिता हैं !
मेरी तो पहचान पिता हैं !

बाहों में ले मुझे झुलाया ,
नव – जीवन का पाठ पढ़ाया ,
झूठ बोलना नहीं सिखाया ,
सदा सत्य – पथ ही दिखलाया !
दिव्य गुणों का खान पिता हैं !
मेरी तो पहचान पिता हैं !

करो बंदना , नित कर जोड़ो ,
कभी पिता का दिल मत तोड़ो ,
ईश्वर तो बैठे हैं नभ में ,
पिता रूप ले आये जग में !
चंद्र , गगन , दिनमान पिता हैं !
मेरी तो पहचान पिता हैं !

है गौरव , हूँ अंश तुम्हारा ,
मिला आपसे सदा सहारा ,
भूतल का वो श्रेष्ठ , प्रवर – नर ,
देव , नक्षत्रों से भी ऊपर !
धरती पर भगवान पिता हैं !
मेरी तो पहचान पिता हैं !

प्रतिभा इन्दु
भिवाड़ी राजस्थान

बंजारा मन गाये | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

बंजारा मन गाये | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

बंजारा मन गाये,
बंजारा मन गाये।
दर्द छुपें हैं दिल में जितने,
गाकर उन्हें सुनायें।
सुबह हुई कब शाम हो गई,
पता नहीं चलता है।
सारा जीवन घूम-घूम कर,
धूप छांव बनता है।
ग़म के छाले दिल में कितनें,
किसको यह बात। बतायें।
आसमान है चादर मेरी,
धरती मेरा बिछौना।
सर्दी-गर्मी सबको झेलें,
यह जीवन का रोना।
किस्मत में बस यही लिखा,
मन सोच-सोच घबराये।
नहीं ठिकाना कोई मेरा,
ना घर कोई अपना।
अपना कोई घर भी होगा,
मुझको लगता सपना।
पूरा जीवन दर्द भरा है, कौन इसे सहलाये।

दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’
रायबरेली।