सजल |बेटे-बहू नातियों को मैं कोने का सामान हो गया | डाॅ०अनिल गहलौत
बेटे-बहू, नातियों को मैं, कोने का सामान हो गया।
धीरे-धीरे अपना ही घर, मुझको चूहेदान हो गया ।।
नौते-पानी, चाल-चलन सब, होते सबकी मन-मर्जी से।
मैं बूढ़ा क्या हुआ सभी का, सफर बहुत आसान हो गया।।
चूर-चूर अभिमान एक दिन, कर देता है समय बली यह।
एक केंचुए-सा बुढ़ाँत में, लचर कड़क-संज्ञान हो गया।।
नहीं धमक वह रही, न वैसा, रुतबा रहा गाँव में अपना।
राम-राम, बंदगी-दुआ का, बदला रूप-विधान हो गया।।
बड़ा न कोई कुनबे में कोई, बचे सभी छोटे हैं मुझसे।
पास न आते, कतराते सब, जीवन उच्च मचान हो गया।
जब हम बूढ़े हो जाएँगे, तब वट-वृक्ष कहे जाएँगे।
सीचेंगे सब हमें प्यार से, मिथ्या गर्दभ-गान हो गया।।
जग समझा ही नहीं सृष्टि का, शाश्वत सत्य विधान आज तक।
भव्य भवन हो गए खंडहर, देख दुखी मन म्लान हो गया।।
—डाॅ०अनिल गहलौत