अशोक कुमार गौतम
निराला के काव्य में मर्म और संवेदना

निराला के काव्य में मर्म और संवेदना

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के पूर्वज उन्नाव जनपद के गढ़ाकोला ग्राम के रहने वाले थे, जो बैसवारा क्षेत्र में आता है। आपका जन्म पश्चिम बंगाल के महिषादल में 21 फरवरी सन 1896 ई0, वसंत पंचमी को हुआ था। बचपन का नाम सूरज कुमार था, बाद में उत्कृष्ट काव्य सृजन के कारण पूरा नाम ‘महाप्राण पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ हो गया था। बचपन में आपने बंगाली भाषा सीखी थी, तत्पश्चात रायबरेली जनपद के डलमऊ निवासी पं0 रामदयाल की सपुत्री मनोहरा के साथ वैदिक विधि -विधान के साथ आपका विवाह संपन्न हुआ। धर्मपत्नी मनोहरा के कहने पर आपने हिंदी भाषा का अध्ययन करके हिंदी में लेखन कार्य का श्री गणेश किया। फिर संस्कृत और अंग्रेजी का अध्ययन किया। मनोहरा जी ने एक कन्या सरोज को जन्म दिया तथा बेटी को जन्म देने के 15 माह बाद वो परलोकवासी हो गईं, तब निराला जी के जीवन में मानो वज्रपात हो गया हो। 19वें वर्ष में प्रवेश करते ही पुत्री सरोज की मृत्यु राना बेनीमाधव सिंह जिला चिकित्सालय रायबरेली में हो गयी। 15 अक्टूबर सन 1961 को निराला जी चिरनिद्रा में लीन हो गए।

महाप्राण पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला छायावादी कवि हैं। छायावाद का सम्पूर्ण लक्षण उनकी रचनाओं में समाया हुआ है। छायावादी काव्य में रहस्यात्मकता, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रीय चेतना, विद्रोही भावना, सौन्दर्यानुभूति आदि विशेषताएँ विद्यमान हैं। निराला जी साहित्यिक क्रांतिकारी, ओजस्वी कवि माने जाते हैं। जिन्हें कबीर दास के समकक्ष खड़ा किया जा सकता है।

    निराला ने अपनी कविताओं के माध्यम से भारत की जनता को जागृत  करने का प्रयास किया है। वह चाहते थे कि देश में अंग्रेजी शासन का विनाश हो और स्वशासन किया जा सके। निराला के समय स्वाधीनता संग्राम की चिंगारी पूरी लौ के साथ जल रही थी। भारतीय जनता को प्रेरित करते हुए निराला ने लिखा-
       जागो फिर एक बार
       प्यारे जगाते हुए हारे सब तुम्हें।
       अरुण पंख तरुण किरण
       खड़ी खोलते द्वार।
       जागो फिर एक बार

निराला के काव्य में रहस्यवाद भी प्रखर है। इन्होंने बहु विधियों से ईश्वर को श्रेष्ठ और अपने को निम्न बताया है। साथ ही यह भी कहा 'तुम और मैं' दोनों में कोई प्रथक नहीं है। यदि तुम ब्रह्म हो तो मैं उसी का अंश जीव मात्र हूँ-
       तुम शिव हो मैं हूँ शक्ति,
       तुम रघुकुल गौरव रामचंद्र
       मैं सीता अचला भक्ति।

    निराला जी लोकमंगल की भावना रखते हैं। इसलिए आपने माँ सरस्वती की चरण वंदना के माध्यम से भी यही भाव प्रकट किया है। छायावाद में रहस्यवाद की प्रखरता के साथ ही जनकल्याण की भावना भी इस युग के कवियों में रही है-
       दृग दृग को रंजित कर अंजन दो भर,
       विधे प्राण पंच वाण के भी परिचय शर।

    पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताओं में करुणा की छाप दिखाई पड़ती है। चाहे किसी भिखारी का वर्णन हो अथवा किसी युवती या वृद्ध स्त्री का विपरीत परिस्थितियों में जीवन यापन, साथ ही उसका सम्मान के साथ हाड़-तोड़ मेहनत। स्त्रियों युवतियॉ द्वारा' गरीबी को दूर करने का प्रयास किया गया है-
       मैंने देखा उसे इलाहाबाद के पथ पर,
       वह तोड़ती पत्थर।
       कोई न छायादार,
       पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार।

    निराला ने सरस्वती माँ  को भारत माता  के रूप में चित्रित किया है। भारत माता से बड़ी कोई माता नहीं है। आपने अपने देश के लिए सदैव तत्पर रहने का मार्ग दिखाते हुए हर हिंदुस्तानी को प्रेरित किया है। भारत का मुकुट कश्मीर से लेकर पद-तल पर स्थित श्री लंका तक का वर्णन मार्मिक ढंग से किया है-
       लंका पदतल शतदल,
       गार्जितोर्मि में सागरतल।
       धोता शुचि चरण युगल,
       स्तव कर बहु अर्थ भरे।

    निराला जी ने अपने काव्य में प्रकृति को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है। 'जूही की कली' कविता में 'जूही' को नायिका तथा 'पवन' को नायक मान कर देश की जनता को नींद से उठ कर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया है-
       विजन वन वल्लरी पर,
       सोती थी सुहाग-भरी स्नेह-स्वप्न-मग्न,
       अमल कोमल तनु जूही की कली।

    निराला के काव्य में श्रृंगार, वीर, रौद्र, करुण आदि रसों को समाहित किया गया है। आपने प्रकृति के प्रति चेतना, अगाध प्रेम के माध्यम से मानो मानवीकरण भर दिया है। श्रृंगार रस का एक उदाहरण-
       नायक ने चूमे कपोल,
       डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल,
       इस पर जागी नहीं, भूल क्षमा माँगी नहीं।

    निराला जी ने अपने काव्य में अनुप्रास, रूपक, संदेह, उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, मानवीकरण आदि अलंकारों यथा स्थानों पर प्रयोग किया है। उपमा अलंकार का एक उदाहरण-
       दिवसावसान का समय,
       मेघमय आसमान से उतर रही है।
       वह संध्या सुंदरी परी सी,
       धीरे धीरे धीरे।

    निराला जितना उग्र कठोर हैं, उससे कहीं ज्यादा हृदय में सहानुभूति भी रखते हैं। पुत्री 'सरोज' की असमय मृत्यु ने आपको झकझोर दिया है। सम्पूर्ण जीवन को शूल भरा मानते हैं। यहाँ तक, पाप का भागीदार भी खुद को मानते हैं। अंत में हृदय पर वज्र रख कर पुत्री का तेरहवीं संस्कार भी करते हैं-
       दुःख ही जीवन की कथा रही,
       क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
              ×        ×         ×      ×
       कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
       कर, करता मैं तेरा तर्पण।

           सरयू-भगवती कुंज
          अशोक कुमार गौतम
            असिस्टेंट प्रोफेसर
        शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
           रायबरेली (उ०प्र०)
         मो० 9415951459
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मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली।
+919415951459

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त सन 1886 को चिरगांव जिला झांसी में हुआ था। आप खड़ी बोली के रचनाकार और द्विवेदी युग के कवि हैं। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने सन 1952 में गुप्त जी को राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया था।

मैथिलीशरण गुप्त जी की प्रमुख रचनाएँ साकेत, यशोधरा, द्वापर, पंचवटी, सैरन्ध्री, नहुष, भारत भारती आदि हैं। साकेत महाकाव्य की रचना सन 1931 में हुई , जिसमें कुल 12 सर्ग हैं। साकेत का अर्थ है- अयोध्या। साकेत का प्राणतत्व लक्ष्मण की अर्धांगिनी उर्मिला को माना गया है। साकेत में सीता जी को, यशोधरा महाकाव्य में यशोधरा जी को संघर्ष, त्याग, बलिदान की प्रतिमूर्ति दिखाया गया है। मैथिलीशरण गुप्त की मृत्यु 12 दिसंबर 1964 को हुई थी।

किसी भी राष्ट्र की आत्मा उसकी सभ्यता और संस्कृति में निवास करती है। ईश्वर के प्रति प्रेम और देश के प्रति सम्मान, सद्भाव की भावना को राष्ट्र भावना कहते हैं। मैथिलीशरण गुप्त के संपूर्ण काव्य ग्रंथों में सर्वत्र राष्ट्रीय चेतना परिलक्षित होती है। गुप्त जी की कविता में राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र उत्थान, राष्ट्र कल्याण आदि जो भाव छिपे हुए हैं, वह अन्यत्र तत्कालीन कवियों में बहुत सीमित एक मिल सकेंगे। गुप्त जी की प्रथम कृति ‘भारत भारती’ है। जिसमें गुप्त जी ने आत्म गौरव का सम्मान बढ़ाने का प्रयास किया है-

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर पशु निरा, और मृतक समान है।।

गुप्त जी ने राष्ट्रीय भावना में अपनी मातृभाषा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है। इस दृष्टिकोण से आपने कविता ‘नागरी और हिंदी’ लिखी है-
एक लिपि एक विस्तार होना योग्य हिंदुस्तान में।
अब आ गई यह बात सब विद्वतत्जनों के ध्यान में।।

मैथिलीशरण गुप्त की कृति ‘भारत भारती’ ने उन्हें राष्ट्रकवि बना दिया है। यद्यपि यह कविता गुप्त जी की उग्र राष्ट्रीय चेतना का परिचायक बन गई थी, जिसे अंग्रेजों ने जप्त कर लिया था। आपने भारत भारती में वर्तमान परिवेश को लेखनी के माध्यम से बड़े दुःख के साथ व्यक्त किया है-
जिस लेखनी में लिखा उत्कर्ष भारतवर्ष का।
लिखने चली अब हाल वह उसके अमिट अपकर्ष का।
× × × ×
हे पुण्य भूमि! कहाँ गई है वह तुम्हारी श्री कहो।

गुप्त जी अपने देश के सम्मान में मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रथम वंदना करते हैं। मातृभूमि को पूज्य बताते हुए आप लिखते हैं-
जो जननी का भी सर्वथा थी पालन करती रही।
तू क्यों न हमारी पूज्य हो मातृभूमि मात मही।।
हमारे देश भारत को ‘सोने की चिड़ियाँ’ की संज्ञा दी गई थी, जिसकी महानता का वर्णन करते हुए गुप्त जी ने भारत के प्रति दुःख प्रकट करते हुए लिखा है-
सुख का सब साधन है इसमें।
भरपूर भरा धन है इसमें।
पर हा! अब योग्य रहे न हमीं।
इससे दुःख की जड़ आ जमी।।

हमारे समाज को सुधारने के साथ राष्ट्र भावना का निर्माण की अभिव्यक्ति भी मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपने काव्य में की है। सदाचार के माध्यम से इस पावन भूमि को स्वर्ग बताते हुए कहा है-
बना लो जहाँ, वहीं स्वर्ग है।
स्वयंभूत थोड़ा वहीं स्वर्ग है।।

राष्ट्रकवि गुप्त जी ने अपनी विख्यात कविता ‘भारत भारती’ में भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल का वर्णन बड़े मार्मिक ढंग से किया है। जिसमें आम-खास भारतीय नागरिक को प्रेरणादायक और नया सन्देश दिया है कि हम सब मिलकर देश की उन्नति के लिए विचार करें-
हम कौन थे? क्या हो गए और क्या होंगे अभी?
आओ विचारे आज मिलकर यह समस्याएं सभी।।

गुप्त जी ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘यशोधरा’ में गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा के माध्यम से देश प्रेम को व्यक्त करते हुए लिखा है-
मधुर बनाता सब वस्तुओं का नाता है।
भाता वहीं उसको, जहाँ जो जन्म पाता है।।

द्विवेदी युग के प्रखर कवि मैथिली शरण गुप्त के अंदर अपने देश के प्रति उन्नतिशील राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी, जिससे प्रभावित होकर महात्मा गाँधी जी ने मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि की संज्ञा दी है।



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बाल श्रम पर लेख | Paragraph on Child Labour in Hindi

बाल श्रम पर लेख | Paragraph on Child Labour in Hindi

बाल कार्य क्या है

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पंडित जवाहरलाल नेहरु का जन्मदिन बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है एक तरफ तो हम इस दिन को बड़े ही उत्साह से मनाते हैं लेकिन दूसरी और हमारा ध्यान उन बच्चों की ओर नहीं जाता है जिन का शोषण कहीं न कहीं किसी रूप में समाज में हो रहा है हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो गरीब तबके के बच्चों को चंद पैसों की खातिर अपने निजी जरूरतों के लिए उनका प्रयोग करते हैं आज हमारे समाज में एक बहुत ही शर्मनाक विभीषिका है वह है बाल श्रम

बाल श्रम का प्रमुख कारण क्या है?

अगर आप अपने आसपास नजर दौड़ आएंगे तो आपको अनेक ऐसे बच्चे दिखाई पड़ेंगे जो अपनी उम्र से कहीं ज्यादा जिम्मेदारियों का बोझ उठाए हुए हैं कभी कंधे पर बोरा लेकर कबाड़ चलते हुए कहीं किसी होटल में चाय के गिलास धोते हुए या फिर छोटे-छोटे कोमल हाथों से किसी घर में बर्तन साफ करते हुए यह भी किसी के बगीचे के फूल है इनका माली भी अपने फूल को मुस्कुराता और फलता फूलता देखना चाहता है लेकिन इनकी मजबूरी इनकी गरीबी इन्हें यह सोचने और सपने देखने की इजाजत नहीं देती है हमारे समाज में ही कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने हित और फायदे के लिए इन मासूमों का शोषण कर उनसे उनका बचपन छीन कर जरूर तो और अभाव का वास्ता देकर उन्हें बाल श्रम की भट्टी में झोंक देते हैं और इस तरह समाज का एक वर्ग एक पीढ़ी एक नस्लें देश के भावी कर्णधार पढ़ने की उम्र में अशिक्षित रह जाते हैं और आगे चलकर यही समाज के लिए कलंक बाना समस्या पैदा करते हैं इसी तरह से बेरोजगारी आतंकवाद चोरी डकैती आदि को बढ़ावा मिलता है।

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बालश्रम को रोकने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए?

बच्चे अगर यह शिक्षित होंगे तो एक अच्छा नागरिक बन देश के सुधार में भागीदार बनेंगे इस समस्या को खत्म करने के लिए हम आपको ही पहल करनी होगी इस बच्चों से हम अपना निजी स्वार्थ सिद्ध ना करें हो सके तो इन्हें आर्थिक मदद कर उनके जीवन का अंधकार मिटा कर शिक्षा रूपी प्रकाश प्रदान करें जोकि ज्ञान से वंचित हो अज्ञानता के भंवर में डूब जा रहे हैं हमें एकजुट होकर समाज की इस बुराई को दूर करना चाहिए मैं कहती हूं ऊंची ऊंची बात करने वाले समाज के उन सेवकों को क्या इनका दर्द नहीं दिखाई पड़ता इनके दिलों में कभी किसी ने झांक कर देखा है कि यह भी कुछ कहना चाहते हैं इनके भी कोई सपने हैं हमें आपको ही इसे रोकना है आगे हाथ बढ़ाकर इन्हें एक अच्छा नागरिक बनने का अवसर प्रदान करिए जिस तरह कोई किसी कोमल पौधे को सिर उठाने से पहले रौंद डालें ठीक उसी तरह बाल श्रम है वे मासूम जिन्हें हमें प्यार से सीचना चाहिए उन्हें यह समाज कठोर जीवन जीने के लिए मजबूर कर देता है ।

बाल श्रम पर कविता

बाल श्रम वह अग्नि है जिसने फूलो को भी न छोडा है
हवा न दो इस चिनगारी को जिसने मानव के जमीर को निगला है
जलाने के लिए है समाज मे बहुत जलावन
भस्म करो उन बुराइयो को
जिसने मानव से मानवता को छीना है
झोके न तुम इन मासूम फूलो को
बाल श्रम की भट्टी मे
मुरझाने न दो इन्हे समय से पहले
‘प्रेम ‘का समाज से यह कहना है.

प्रेमलता शर्मा
प्रेमलता शर्मा

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मण्डी नगर और शिवमन्दिर | Mandi Nagar and shiv Mandir – आशा शैली

मण्डी नगर और शिवमन्दिर | Mandi Nagar and shiv Mandir – आशा शैली

हिमाचल प्रदेश में कुल मिलाकर बारह जिले हैं। प्रत्येक जिले की अपनी देव-परम्पराएँ और मेले त्यौहार हैं। इनमें से कुछ तो देश भर में विख्यात हैं और कुछ को अब विश्व स्तर पर भी पहचान मिलने लगी है। इन विख्यात त्यौहारों में कुल्लू का दशहरा, किन्नौर का फ्लैच, रामपुर का लवी मेला, चम्बा का मिंजर और मण्डी की शिवरात्रि आदि की गणना की जा सकती है। इन मेलों में एक बात जो समान है वह है देवताओं की सहभागिता। पूरे प्रदेश में देवताओं की सहभागिता को विशेष महत्व दिया जाता है और इनके प्रति इस प्रकार का व्यवहार अमल में लाया जाता है जैसे वह हम-आप जैसे ही हो किन्तु हमसे उच्च और विशिष्ट स्थान रखते हों। इस प्रकार आदर दिया जाता है जैसे किसी राजा-महाराजा को दिया जाए। लोग इन की पालकियों को सामने रखकर इस तरह नाचते-गाते हैं मानों देवता इन लोगों को देख रहा है और नाचने वाले इस प्रकार नृत्य मग्न होते हैं मानों देवता को प्रसन्न कर रहे हों। यही हिमाचल के मेलों की सबसे बड़ी विशेषता होती है वरना क्रय-विक्रय तो प्रत्येक मेले में होता ही है। हिमाचली मेलों की दूसरी विशेषता होती है वहाँ के लोकनृत्य, जिन्हें नाटी कहा जाता है, नाटी अर्थात् सामूहिक नृत्य। तो आइए कुछ बातें मण्डी नगर और उसकी शिवरात्रि की करें। इसके लिए हम आप को मण्डी ले चलते हैं, क्योंकि मण्डी जिले की सुन्दरता के लिए ही हिमाचल की सुन्दरता का बखान होता है।

मण्डी नगर जो कि जिला मुख्यालय भी है, व्यास और सुकेती नदियों के संगम स्थल पर समुद्र तल से 760 मीटर के ऊँचाई पर बसा हुआ एक सुन्दर और रमणीक नगर है। इतिहासकारों के अनुसार यह स्थान कुल्लू और लाहुल-स्पिति जाने के मार्ग में पड़ता है इस लिए यह मैदानों और पहाड़ों को जोड़ने वाली एक कड़ी रहा है। व्यापार का केंद्र रहने के कारण ही सम्भवतया इस का नाम मण्डी पड़ गया हो, लेकिन मण्डी नाम माण्डव्य ऋषि से सम्बद्ध भी माना जाता है। जनश्रुति के अनुसार माण्डव्य ऋषि ने इस क्षेत्र में तपस्या की थी। इस क्षेत्र में रियासतों की स्थापना जहाँ सातवीं ईस्वी पूर्व की मानी जाती है वहीं इस नगर की स्थापना बारे तथ्य है कि ईस्वी सन् 1526 में इसे मण्डी रियासत के शासक अजबरसेन ने बसाया था। इससे पूर्व इस स्थान पर घने जंगल हुआ करते थे। रियासत की राजधानी पुरानी मण्डी हुआ करती थी। इस जंगल पर सलयाणा के राणा गोकल का अधिकार था। लेकिन मण्डी में अजबरसेन का शासन था। राणा लोग राजाओं के अधीन ही रहते थे।

कहा जाता है कि एक दिन अजबरसेन को स्वप्न दिखई दिया। जिसमें राजा ने देखा कि एक गाय जंगल में एक स्थान पर आकर खड़ी हो जाती है और उसके थनों से अपने-आप दूध बहने लगता है। जिस स्थान पर दूध गिर रहा था वहाँ राजा को एक शिवलिंग नजर आया। उपरोक्त स्वप्न राजा को निरंतर कई रातों तक दिखाई देता रहा। जब ऐसा बार-बार होने लगा तो राजा ने अपने मंत्रियों को पूरी बात सुनाई। सुनकर सब ने ही आश्चर्य व्यक्त किया और इस बात की खोज-बीन करने का परामर्श राजा को दिया। राजा ने खोज कराई तो पता चला कि यह मात्र स्वप्न ही नहीं था, अपितु ठोस वास्तविकता थी। वास्तव में उस जंगल में एक स्थान पर ऐसा ही होता था, जैसा राजा ने स्वप्न में देखा था। तब राजा अजबरसेन ने उस स्थान पर बाबा भूतनाथ (सदाशिव) का मन्दिर बनवाया और अपनी राजधनी पुरानी मण्डी से यहाँ ले आए और स्वयं भी सदाशिव के शरणागत हो गए।

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भारत की स्वाधीनता के पश्चात् जब रियासतों का भारत संघ में विलय और हिमाचल का गठन हुआ तो 1948 में मण्डी, पांगणा और सुकेत की तीन छोटी-छोटी रियासतों को मिला कर इस क्षेत्र को भी जिले का रूप दिया गया और जिला मण्डी नाम दिया गया। वर्तमान में इस जिले का क्षेत्रफल 4018 वर्ग किमी. है।

इस समय इस नगर में छोटे-बड़े कुल मिलाकर 85 मन्दिर हैं, किन्तु प्रमुख मन्दिर आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व व्यास नदी के किनारे पर तत्कालीन मण्डी नरेश विजयसेन की माता द्वारा बनवाया गया था। इस मन्दिर का नाम साहबानी है। मन्दिर में ग्यारह रुद्रों के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की बहुत सी सुन्दर और कलात्मक मूर्तियाँ भी स्थापित की गई हैं। इसके अतिरिक्त अर्धनारीश्वर, पंचवक्त्र महादेव मन्दिर, त्रिलोकनाथ मन्दिर, जालपा (भीमाकाली) आदि अन्य देवी-देवताओं के भी मन्दिर हैं, परन्तु अधिक मात्रा शिव मन्दिरों की ही है। इन्ही शिव मन्दिरों के कारण इसे छोटी काशी कहा जाता है।

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मण्डी रियासत के अधिकतर शासक शैव रहे हैं इसीलिए यहाँ शिवमन्दिरों की बहुतायत है। त्रिलोकीनाथ मन्दिर राजा अजबरसेन की रानी सुल्तान देवी ने अपने पति की सुख-समृद्धि के लिए बनवाया था इसका निर्माणकाल 1520 ईस्वी के आस-पास बताया जाता है। इस दृष्टि से त्रिलोकी नाथ मन्दिर पहले बना और भूतनाथ मन्दिर बाद में परन्तु भूतनाथ मन्दिर की मान्यता और प्रसिद्धि अधिक है। मण्डी का शिवरात्रि मेला भी भूतनाथ मन्दिर से ही प्रारम्भ हुआ माना जाता है। ईस्वी सन्1527 की शिवरात्रि को इस मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा की गई और उसी दिन से यह मेला प्रारम्भ किया गया जो अब पूरे भारत में विख्यात हो चुका है। मण्डी नगर और शिवरात्रि एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। घरों में पकवान बनने लगते हैं और कानों में गूंजने लगते हैं स्वर खरनाली, हरणसिंगे और ढोल की थाप के। अभी तक शिवरात्रि का मेला मण्डी में सात दिन तक चलता है। इस मेले में पूरे प्रदेश ही नहीं भारत के अन्य स्थानों के लोग भी स्थानीय देवताओं की ही तरह भाग लेते हैं। लेकिन इस मेले में अधिक सहभागिता हिमाचल सरकार की ही रहती है क्योंकि यह मेला अब विशुद्ध सरकरी तंत्र पर निर्भर हो कर रह गया है।

मण्डी वासियों की मान्यता है कि सूखा पड़ने की स्थिति में व्यास का इतना जल शिवलिंग पर चढ़ाया जाए कि पानी पुनः व्यास में मिलने लगे तो वर्षा हो जाती है। अतः सूखे की स्थिति में लोग आज भी घड़े भर-भर पानी शिवलिंग पर चढ़ाते हैं और इसकी निरंतरता को तब तक बनाए रखा जाता है, जब तक पानी की धारा व्यास में न मिलने लगे।
मण्डी का शिवरात्रि मेला भी हिमाचल के अन्य मेलों की ही भान्ति उन्हीं सारी परम्पराओं का निर्वाह करता है जिनका अन्य मेले करते हैं परन्तु प्रगति की अन्धी दौड़ में पुरातन कहीं खोता जा रहा है। नगर में नवनिर्माण के नाम पर बस्तियाँ मन्दिरों के प्रागणों तक फैलती जा रही हैं। नगर के मध्य भाग में राजा सिद्धिसेन का बनाया सुभाष पार्क है, जिसके एक कोने में मन्दिर और दूसरे कोने में सार्वजनिक शौचालय है। जिसकी सफाई न होने से साथ में ही बने पुस्तकालय एवं पाठशाला में बैठना भी दूभर हो जाता है। मन्दिरों का रख-रखाव भाषा एवं कला संस्कृति विभाग के सुपुर्द होने से मन्दिर सुरक्षित हैं लेकिन नगर अपना ऐतिहासिक महत्व खोता जा रहा है। मन्दिरों के पुजारी धूप जला कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जहाँ एक भ्रांत-क्लांत मन विश्राम और शान्ति की आशा लेकर आने पर एक भी हरी शाखा न पाकर नदी किनारे के गोल और सूखे पत्थरों के दर्शन कर लौट जाते हैं।
सेरी रंगमंच की दर्शकदीर्घा की सीढ़ियाँ उखाड़ दी गई हैं, जहाँ बैठकर लोग शिवरात्रि और अन्य विशेष समारोहों का आनन्द लेते थे। इस विकास से तो यह आभास हो रहा है कि किसी समय छोटीकाशी खोज का विषय बन जाएगी और मण्डी के 85 मन्दिर शोध का विषय बन जाएंगे।

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उत्तराखण्ड का इतिहास | History of Uttarakhand| आशा शैली

उत्तराखण्ड का इतिहास | History of Uttarakhand / आशा शैली

दुनिया जानती है कि इतिहास विजयी लोगों का होता है। पराजित सेनायें, राजा-महाराजा चाहे कितनी वीरता से ही क्यों न लड़े हों, उनका इतिहास ( History of Uttarakhand ) नहीं लिखा जाता, क्योंकि सत्ता विजेता के हाथ में होती है और वह धनबल से चाहे जो लिखवा सकता है। हाँ, यह बात अलग है कि पराजित वीरों की गाथायें जन-जन के हृदय में अवश्य रहती हैं और रहता है उन देशद्रोहियों के प्रति एक अव्यक्त आक्रोश जिनके कारण अन्यायी और अत्याचारी विजयश्री प्राप्त कर लेता है।

उत्तर भारत में स्थित एक नव निर्मित राज्य है

उत्तराखण्ड (पूर्व नाम उत्तरांचल), भले ही उत्तर भारत में स्थित एक नव निर्मित राज्य है परन्तु यहाँ का इतिहास अति प्राचीन है। प्राचीनकाल से लेकर स्वतंन्त्रता प्राप्ति तक अनेक इतिहासकारों ने अपने-अपने तरीके से इसका उल्लेख किया है। डॉ. अजय सिंह रावत की ‘उत्तराखण्ड का समग्र राजनैतिक इतिहास (पाषाण युग से 1949 तक) नामक पुस्तक के आमुख में ‘दीपक रावत आई.ए.एस.’ ने लिखा है कि उत्तराखण्ड से ऐसे अनेक पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जिनके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र अतिप्राचीन काल से ही मानवीय गतिविधियों से सम्बद्ध रहा है।’1 वर्तमान में इसका निर्माण 9 नवम्बर 2000 को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात् भारत गणराज्य के सत्ताइसवें राज्य के रूप में किया गया और सन् 2000 से 2006 तक यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राज्य का आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया। राज्य की सीमाएँ उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से लगी हैं। पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश इसकी सीमा से लगे राज्य हैं। सन 2000 में अपने गठन से पूर्व यह उत्तर प्रदेश का एक भाग था।

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पहले कहा जा चुका है कि उत्तराखण्ड भले ही नवनिर्मित राज्य हो परन्तु इसका इतिहास अति प्राचीन है। पारम्परिक हिन्दू ग्रन्थों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। पांचवीं सदी ईस्वी पूर्व में पाणिनी ने इस क्षेत्र का उल्लेख ‘उत्तरपथे वाहृतम’ कहकर किया है। तैत्तरीय उपनिषद् में ‘नमो गंगा यमुनायोर्मध्ये ये वसानि, ते मे प्रसन्नात्मा चिरंजीवित वर्धयन्ति’ कह कर यहाँ के निवासियों के लिए मंगलकामनायें प्रकट की गई हैं। हिन्दी और संस्कृत में उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है, इस राज्य में हिन्दू धर्म की पवित्रतम और भारत की सबसे बड़ी नदियों गंगा और यमुना के उद्गम स्थल क्रमशः गंगोत्री और यमुनोत्री तथा इनके तटों पर बसे वैदिक संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान हैं। आइए, आज हम उत्तराखण्ड के इतिहास पर एक दृष्टि डालें। इसके लिए हमें उत्तराखण्ड को अधिक गहराई से जानना होगा।
देहरादून, उत्तराखण्ड की अन्तरिम राजधानी होने के साथ इस राज्य का सबसे बड़ा नगर भी है। गैरसैण नामक एक छोटे से कस्बे को इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भविष्य की राजधानी के रूप में प्रस्तावित तो किया गया है किन्तु विभिन्न विवादों और संसाधनों के अभाव के चलते अभी भी देहरादून ही अस्थाई राजधानी बना हुआ है परन्तु राज्य का उच्च न्यायालय नैनीताल में है। आइये उत्तराखण्ड के इतिहास को खंगालते हैं।

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उत्तराखण्ड के इतिहास


इतिहास बताता है कि प्राचीन काल में उत्तराखण्ड पर अनेक जातियों ने शासन किया जिनमें से कुणिन्द उत्तराखंड पर शासन करने वाली पहली राजनैतिक शक्ति कही जाती है। इसका प्रमाण हमें अशोक के कालसी अभिलेख से मिलता है। जौनसार बाबर तथा लेंसडाउन ;पौड़ीद्ध से मिली मुद्राओं से हमें उत्तराखण्ड में यौधेयों के शासन के भी प्रमाण मिलते हैं।
कुणिन्द प्रारंभ में मौर्यों के अधीन थे। कुणिन्द वंश के सबसे शक्तिशाली राजा अमोधभूति की मृत्यु के बाद उत्तराखण्ड के मैदानी भागां पर शकों ने अधिकार कर लिया।
शकों के पतन के बाद तराई वाले भागों में कुषाणों ने अधिकार कर लिया था। ‘बाडवाला यज्ञ वेदिका’ का निर्माण करने वाले शील वर्मन को कुछ विद्वान कुणिन्द व कुछ यौधेय मानते हैं। उत्तर महाभारतकाल, पाणिनी काल या बौद्धकाल में मैदानों से आने वाले लोगों के यहाँ बसने और स्थानीय लोगों से घुलमिल जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी। ‘उत्तराखण्डःगढ़वाल की संस्कृति, इतिहास और लोक साहित्य’ पुस्तक, जिसे डॉ. शिव प्रसाद नैथानी ने लिखा है, की भूमिका में डॉ. नैथानी लिखते हैं, ‘उत्तराखण्ड गढ़वाल का प्राचीन साहित्य वैदिक काल के साहित्य के समान अलिखित, मौखिक और गेय-गान के रूप में होता था।’’
कर्तपुर राज्य के संस्थापक भी कुणिन्द ही थे, कर्तपुर में उस समय उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश तथा रोहिलखण्ड का उत्तरी भाग शामिल था। कालान्तर में कर्तपुर के कुणिन्दों को पराजित कर नागों ने उत्तराखण्ड पर अपना अधिकार कर लिया। नागों के बाद कन्नोज के मौखरियों ने उत्तराखण्ड पर शासन किया। मौखरी वंश का अंतिम शासक गृह्वर्मा था। हर्षवर्धन ने इसकी हत्या करके शासन को अपने हाथ में ले लिया। इसी हर्षवर्धन के शासन काल में चीनी यात्री व्हेनसांग उत्तराखण्ड भ्रमण पर आया था।
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तराखण्ड पर अनेक छोटी-छोटी शक्तियों ने शासन किया। इसके पश्चात 700 ई. में कार्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश के तीन से अधिक परिवारों ने उत्तराखण्ड पर 700 ई. से 1030 ई. तक लगभग 300 साल तक शासन किया। इस राजवंश को उत्तराखण्ड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश कहा जाता है।
प्रारंभ में कार्तिकेयपुर राजवंश की राजधानी जोशीमठ ;चमोलीद्ध के समीप कार्तिकेयपुर नामक स्थान पर थी परन्तु बाद में राजधानी बैजनाथ (बागेश्वर) बनायी गई।
इस वंश का प्रथम शासक बसंतदेव था किन्तु बसंतदेव के बाद के इस वंश के राजाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। इसके बाद खर्परदेव के शासन के बारे में जानकारी मिलती है। खर्परदेव कन्नौज के राजा यशोवर्मन का समकालीन था। इसके बाद इसका पुत्र कल्याण राजा बना। खर्परदेव वंश का अंतिम शासक त्रिभुवन राज था।
नालंदा अभिलेख में बंगाल के पाल शासक धर्मपाल द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण करने की जानकारी मिलती है। इसी आक्रमण के बाद कार्तिकेय राजवंश में खर्परदेव वंश के स्थान पर राजा निम्बर के वंश की स्थापना हुई। निम्बर ने जागेश्वर में विमानों का निर्माण करवाया था।
निम्बर के बाद उसका पुत्र इष्टगण शासक बना, उसने समस्त उत्तराखण्ड को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया था। जागेश्वर में नवदुर्गा, महिषमर्दिनी, लकुलीश तथा नटराज मंदिरों का निर्माण कराया।
इष्टगण के बाद उसका पुत्र ललित्शूर देव शासक बना तथा ललित्शूर देव के बाद उसका पुत्र भूदेव शासक बना इसने बौद्ध धर्म का विरोध किया तथा बैजनाथ मंदिर निर्माण में सहयोग दिया। कार्तिकेयपुर राजवंश में सलोड़ादित्य के पुत्र इच्छरदेव ने सलोड़ादित्य वंश की स्थापना की। कार्तिकेयपुर शासकों की राजभाषा संस्कृत तथा लोकभाषा पाली थी।
कार्तिकेयपुर शासनकाल में आदि गुरु शंकराचार्य उत्तराखण्ड आये। उन्होंने बद्रीनाथ व केदारनाथ मंदिरों का पुनरुद्धार कराया और सन 820 ई. में केदारनाथ में ही उन्होंने प्राणोत्सर्ग किया। कार्तिकेयपुर वंश के बाद कुमाऊं में कत्यूरियों का शासन हुआ


कत्यूरी वंश


मध्यकाल में कुमाऊं में कत्यूरियों का शासन था इसके बारे में जानकारी हमें स्थानीय लोकगाथाओं व जागर से मिलती है।
सन् 740 ई. से 1000 ई. तक गढ़वाल व कुमाऊं पर कत्यूरी वंश के तीन परिवारों का शासन रहा, तथा इनकी राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) थी। आसंतिदेव ने कत्यूरी राज्य में आसंतिदेव वंश की स्थापना की और अपनी राजधानी जोशीमठ से रणचुलाकोट में स्थापित की। कत्यूरी वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव था। यह एक अत्याचारी शासक था, जागरां में इसे वीरमदेव कहा गया है।
जियारानी की लोकगाथा के अनुसार 1398 में तैमूर लंग ने हरिद्वार पर आक्रमण किया और ब्रह्मदेव ने उसका सामना किया और इसी आक्रमण के बाद कत्यूरी वंश का अंत हो गया।
1191 में पश्चिमी नेपाल के राजा अशोक चल्ल ने कत्यूरी राज्य पर आक्रमण कर उसके कुछ भाग पर कब्ज़ा कर लिया। 1223 ई. में नेपाल के शासक काचल्देव ने कुमाऊं पर आक्रमण किया और कत्यूरी शासन को अपने अधिकार में ले लिया।


कुमाऊं का चन्द वंश


कुमाऊं में चन्द वंश का संस्थापक सोमचंद था जो 700ई. में गद्दी पर बैठा था। कुमाऊं में चन्द और कत्यूरी प्रारम्भ में समकालीन थे और उनमें सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजयी रहे। चन्दों ने चम्पावत को अपनी राजधानी बनाया। प्रारंभ में चम्पावत के आसपास के क्षेत्र ही इनके अधीन थे लेकिन बाद में वर्तमान का नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि क्षेत्र इनके अधीन हो गए। राज्य के विस्तृत हो जाने के कारण भीष्मचंद ने राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा स्थान्तरित कर दी जो कल्याण चंद तृतीय के समय (1560) में बनकर पूर्ण हुआ। इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा गरुड़ चन्द था।
प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया। बाद में जब बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा 1568 में अल्मोड़ा कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई। चंद राजाओं के समय में इसे राजपुर कहा जाता था। ’राजपुर’ नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।
कल्याण चन्द चतुर्थ के समय में कुमाऊं पर रोहिल्लों का आक्रमण हुआ तथा प्रसिद्ध कवि ‘शिव’ ने कल्याण चंद्रौदयम की रचना की। चन्द शासन काल में ही कुमाऊं में ग्राम प्रधान की नियुक्ति तथा भूमि निर्धारण की प्रथा प्रारंभ हुई। चन्द राजाओं का राज्य चिन्ह गाय थी।
1790 ई. में नेपाल के गोरखाओं ने चन्द राजा महेंद्र चन्द को हवाल बाग के युद्ध में पराजित कर कुमाऊं पर अपना अधिकार कर लिया, इसके सांथ ही कुमाऊं में चन्द राजवंश का अंत हो गया।


गढ़वाल का परमार (पंवार) राजवंश


ईस्वी सन् 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा थे जिन्हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। इनमे सबसे शक्तिशाली चांदपुर का राजा भानुप्रताप था, 887 ई. में धार (गुजरात) का शासक कनकपाल तीर्थाटन पर आया। भानुप्रताप ने इसका स्वागत किया और अपनी बेटी का विवाह उसके साथ कर दिया और अपना राज्य भी उन्हें दे दिया।
कनकपाल द्वारा 888 ई. में चाँदपुरगढ़ (चमोली) में परमार वंश की नींव रखी। ईस्वी सन् 888 से 1949 ई. तक परमार वंश में कुल 60 राजा हुए।
इस वंश के राजा प्रारंभ में कार्तिकेयपुर राजाओं के सामंत रहे लेकिन बाद में स्वतंत्र राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गए। इस वंश के 37वें राजा अजयपाल ने सभी गढ़पतियों को जीतकर गढ़वाल भूमि का एकीकरण किया। इसने अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ को पहले देवलगढ़ फिर 1517 ई. में श्रीनगर में स्थापित किया। परमार शासकों को लोदी वंश के शासक बहलोल लोदी ने शाह की उपाधि से नवाजा, सर्वप्रथम बलभद्र शाह ने अपने नाम के आगे शाह जोड़ा। परमार राजा पृथ्वीपति शाह ने मुग़ल शहजादा दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को आश्रय दिया था।
1636 ई. में मुग़ल सेनापति नवाजत खां ने दून-घाटी पर हमला कर दिया। उस समय की गढ़वाल राज्य की संरक्षित महारानी कर्णावती ने अपनी वीरता से मुग़ल सैनिको को पकड़वाकर उनके नाक कटवा दिए। इसी घटना के बाद महारानी कर्णावती को ‘नाककटी रानी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।


1790 ई. में गोरखाओं ने कुमाऊं के चन्दां को पराजित कर, 1791 ई. में गढ़वाल पर भी आक्रमण किया लेकिन पराजित हो गए। गढ़वाल के राजा ने गोरखाओं पर संधि के तहत 25000 रुपये का वार्षिक कर लगाया और वचन लिया कि अब ये गढ़वाल पर आक्रमण नहीं करेंगे, लेकिन 1803 ई. में अमर सिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में गौरखाओं ने भूकम्प से ग्रस्त गढ़वाल पर आक्रमण कर उनके काफी भाग पर कब्ज़ा कर लिया। 27 अप्रैल 1815 को कर्नल गार्डनर तथा गोरखा शासक बमशाह के बीच हुई संधि के तहत कुमाऊं की सत्ता अंग्रेजो को सौपी दी। कुमाऊं व गढ़वाल में गोरखाओं का शासन काल क्रमशः 25 और 10.5 वर्षों तक रहा जो बहुत ही अत्याचार पूर्ण था। इस अत्याचारी शासन को गोरख्याली कहा जाता है। धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्व बढ़ता गया और इन्होनें लगभग 12 वर्षों तक राज किया। इनका राज्घ्य कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्ट इंडिया कम्पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्य पुनः छीन लिया।

14 मई 1804 को देहरादून के खुड़बुड़ा मैदान में गोरखाओं से हुए युद्ध में प्रद्युमन्न शाह की मौत हो गई। इस प्रकार सम्पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊं में नेपाली गोरखाओं का अधिकार हो गया।
प्रद्युमन्न शाह के एक पुत्र कुंवर प्रीतमशाह को गोरखाओं ने बंदी बनाकर काठमांडू भेज दिया, जबकि दूसरे पुत्र सुदर्शनशाह हरिद्वार में रहकर स्वतंत्र होने का प्रयास करते रहे और उनकी मांग पर अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज ने अक्तूबर 1814 में गोरखा के विरुद्ध अंग्रेज सेना भेजी और 1815 को गढ़वाल को स्वतंत्र कराया लेकिन अंग्रेजों को लड़ाई का खर्च न दे सकने के कारण गढ़वाल नरेश को समझौते में अपना राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा।
सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को अपनी राजधानी श्रीनगर से टिहरी गढ़वाल स्थापित की। टिहरी राज्य पर राज करते रहे तथा भारत में विलय के बाद टिहरी राज्य को 1 अगस्त 1949 को उत्तर प्रदेश का एक जनपद बना दिया गया।


ब्रिटिश शासन


अप्रैल 1815 तक कुमाऊॅ पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने टिहरी को छोड़ कर अन्य सभी क्षेत्रों को नॉन रेगुलेशन प्रांत बनाकर उत्तर पूर्वी प्रान्त का भाग बना दिया और इस क्षेत्र का प्रथम कमिश्नर कर्नल गार्डनर को नियुक्त किया। कुछ समय बाद कुमाऊं जनपद का गठन किया गया और देहरादून को 1817 में सहारनपुर जनपद में शामिल किया गया। 1840 में ब्रिटिश गढ़वाल के मुख्यालय को श्रीनगर से हटाकर पौढ़ी लाया गया व पौढ़ी गढ़वाल नामक नये जनपद का गठन किया। 1854 में कुमाऊं मंडल का मुख्यालय नैनीताल बनाया गया। 1891 में कुमाऊं को अल्मोड़ा व नैनीताल नामक दो जिलो में बाँट दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति तक कुमाऊं में केवल 3 ही ज़िले थे। अल्मोड़ा, नैनीताल, पौढ़ी गढ़वाल। टिहरी गढ़वाल क्षेत्र एक रियासत के रूप में था। 1891 में उत्तराखंड से नॉन रेगुलेशन प्रान्त सिस्टम को समाप्त कर दिया गया। 1902 में सयुंक्त प्रान्त आगरा एवं अवध का गठन हुआ और उत्तराखंड को इसमें सामिल कर दिया गया। 1904 में नैनीताल गजेटियर में उत्तराखंड को हिल स्टेट का नाम दिया गया।


उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन


मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के आंदोलन का समर्थन किया। एक नए राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000) उत्तराखण्ड की स्थापना 9 नवम्बर 2000 को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

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वीरवर वीरा पासी का सत्तावनी क्रांति में योगदान | Veeravar Veera Pasi

वीरवर वीरा पासी का सत्तावनी क्रांति में योगदान | Veeravar Veera Pasi

रायबरेली जनपद का बैसवारा प्राचीन काल से कलम, कृपाण और कौपीन का धनी क्षेत्र माना जाता रहा है। वैसे तो बैसवारा क्षेत्र को रायबरेली, उन्नाव और लखनऊ की सीमाएं स्पर्श करती हैं। बैसवारा के अनेक राजाओं, ताल्लुकेदारों ने 1857 ई० की क्रांति जितना बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, उतना ही उन राजाओं की सेनाओं ने भी हिस्सा लिया है। किसी राजा की जीत का आधार सैनिक ही होते हैं।

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रायबरेली की धरती ने वीरवर वीरा पासी जैसा नायक को जन्म दिया। वीरा पासी का वास्तविक नाम स्वर्गीय शिवदीन पासी था। वीरा पासी का जन्म 11 नवंबर सन 1835 को रायबरेली जिला के लोधवारी गाँव में हुआ था। लोधवारी शहजादा की रियासत थी। शहजादा महाराजा रणजीत सिंह के पोते थे। कुछ इतिहासकार वीरा पासी का जन्म भीरा गोविंदपुर मानते थे। भीरा गोविंदपुर वीरा पासी की बहन बतसिया की ससुराल थी। वीरा के पिता का नाम सुखवा और माता का नाम सुरजी था। माता-पिता बहुत ही निर्धन थे। दुर्भाग्यवश वीरा के बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था। अब वीरा बेसहारा होकर अपनी बहन बतसिया के ससुराल में आकर रहने लगे थे। कालांतर में बहन के ससुराल में रहने वाले भाई को वीरना कहा जाता था। इसलिए बहन के घर में रहने के कारण वीरना से वीरा नाम पड़ गया था।

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वीरा पासी बाल्यकाल से ही बहुत बलिष्ठ और फुर्तीला था। शंकरपुर रियासत के राजा राना बेनी माधव सिंह की फौज में सैनिकों की भर्ती होनी थी। राना साहब की फौज में भर्ती होने के कठोर नियम भी थे। भर्ती होने के लिए आए हुए नौजवान लड़कों को राणा साहब एक सेर (लगभग 950 ग्राम) घी खिला कर अपने कक्ष में बुलाते थे और सीना में जोर से दो घूसा (मुक्का) मारते थे। जो लड़का मूर्छित नहीं होता था, उसे अपना अंगरक्षक नियुक्त कर लेते थे। 18 वर्ष की आयु में वीरा पासी राना साहब के फौज में भर्ती होने गया और सेना भर्ती की अग्नि परीक्षा में सफल रहा है। राना साहब द्वारा मुट्ठी बंद करके दो घूसा खाने के बाद भी वीरा हिला तक नहीं। उसकी वीरता के कारण राना बेनी माधव सिंह ने अपना अंगरक्षक नियुक्त कर लिया।


जनश्रुतियों के आधार पर कहा जाता है, परशुराम के पसीने से पासी जाति की उत्पत्ति हुई थी। पासी जाति लड़ाकू, निडर और स्वामिभक्त के रूप में जानी जाती है। पासी शब्द पा+असि से मिलकर बना है। पा का अर्थ है पकड़ और असि का अर्थ है तलवार। इस प्रकार पासी शब्द का अर्थ हुआ- जिसके हाथ में तलवार हो।

भारत में मुसलमानों का वर्चस्व कायम था। जिसे रोकने के लिए हिंदू राजाओं ने पासी बिरादरी से सूअर का पालन करवाया था। जिससे मुसलमानों को हिंदू बस्ती में घुसने से रोका जा सके। पासी जाति के लोग वीरों की परंपरा में अग्रसर थे। स्वामिभक्त जाति को छोटी जाति मानते हुए षड्यंत्र के तहत जरायम (अपराधी जाति) बना दिया गया।


राना बेनी माधव सिंह ने अपने पिता राजा राम नारायण सिंह के साथ अपने ननिहाल नाइन में अंग्रेजों से लोहा लेने लगे थे। इस अनियोजित युद्ध में राना साहब के पिता वीरगति को प्राप्त हुए और घायल अवस्था में राना बेनी माधव सिंह अंग्रेजों द्वारा बंदी बना लिए गए। उस समय वीरा पासी अंगरक्षक के रूप में नियुक्त हो चुके थे। राना बेनी माधव सिंह की माता जी रो-रो कर मूर्छित हो जाती थी। राज माता के आँसू वीरा से देखे नहीं गए। वीरा पासी ने अंग्रेजों की जेल से राना साहब को छुड़वाने की योजना बनाई। जेल मैनुवल के नियमानुसार घड़ी में जितने बजते थे, उतने बार बंदी रक्षकों/पहरेदारों द्वारा घंटा बजाया जाता था। यह प्रथा आज भी भारत की जेलों और पुलिस लाइनों में विद्यमान है।

वीरा पासी ने विश्वासपात्र लोहार से मजबूत लोहे की सरिया से खूंटी नुमा 12 कील बनवाई। रात्रि में जेल के बैरक के पीछे छिपकर वीरा पासी बैठ गए। जैसे ही मध्यरात्रि के 12:00 बजे का 12 बार घंटा टन टन बजना शुरू हुआ। उसी घंटे की ध्वनि के साथ ही वीरा फुर्ती के साथ एक-एक कील ठोकते हुए मजबूत रस्सा लेकर छत पर पहुँच गए। रोशनदान के सहारे रस्सा डालकर राना बेनी माधव सिंह को जेल से आजाद करा लिया। ब्रिटिश साम्राज्य की बनी इमारतें ऊँची और बड़े रोशनदान वाले होती थी। जिनका प्रमाण आज भी सरकारी इमारतों में विद्यमान है।


राना साहब ने वीरा पासी की निडरता, बहादुरी और स्वामिभक्ति देखकर अपनी रियासत शंकरपुर का सेनापति बना लिया था। स्वामिभक्त वीरा पासी ने 50 से अधिक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। इसलिए भारत से लेकर लंदन तक वीरा पासी के नाम से अंग्रेज कांपते थे। अंग्रेजों ने वीरा से भयभीत होकर जिंदा या मुर्दा पकड़ने अथवा उनका पता बताने वाले को सन 1857 में 50,000 (पचास हजार रुपये) का इनाम घोषित किया था। भारतीय इतिहास में अंग्रेजों द्वारा पहली बार इतनी अधिक धनराशि का इनाम घोषित किया गया था, वरना क्रूर अंग्रेज 5.0 रुपये से अधिक का इनाम घोषित नहीं करते थे। इसका प्रमाण आज भी लंदन में देखा का रखा हुआ है। फिर भी वीरवर वीरा को अंग्रेज पकड़ नहीं सके थे।


वीरा पासी ने अपने अदम्य साहस के साथ राना बेनी माधव सिंह का हर कदम साथ दिया। कभी भी अंग्रेजों ने राना साहब की भनक तक नहीं लगने दी। भीरा की लड़ाई में कुछ देसी गद्दारों की सहायता से अंग्रेजों ने राना साहब को घेर लिया था। युद्ध कला में निपुण वीरा पासी ने राना साहब के प्राणों की रक्षा करते हुए स्वयं का बलिदान कर दिया था। इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए वीर योद्धा वीरा का सिर अपने हाथों में रखकर राना बेनी माधव सिंह बहुत रोए थे। राना साहब वीरा को अपना दाहिना हाँथ मानते थे।


वीरा पासी की यादों को चिरस्थाई बनाने के लिए रायबरेली में जिला पंचायत कार्यालय से पहले वीरा पासी द्वार बनाया गया है। बैसवारा का केंद्र बिंदु लालगंज में नगर पंचायत कार्यालय के सामने वीरा पासी के वक्षस्थल तक की प्रतिमा लगाई गई है। अफसोस शासन और प्रशासन की लापरवाही और निष्ठुरता के कारण लालगंज में वीरा पासी की मूर्ति के आसपास का चबूतरा व गेट टूट चुका है, जिसे बनवाने वाला कोई भी समाजसेवी, जनप्रतिनिधि अथवा प्रशासन सामने नजर नहीं आता है। यथाशीघ्र स्थल का जीर्णोद्धार होना चाहिए।


जातिगत राजनीति का खेल था कि दलित होने के कारण वीरवर वीरा पासी को इतिहास के पन्नों में इंसाफ नहीं मिल सका। महान योद्धा, कुशल अंगरक्षक, सेनापति और स्वामिभक्त होने के बावजूद नाम के आगे पासी शब्द लगा होने के कारण इस वीर पुरुष का नाम गुमनाम हो गया, वरना इस योद्धा का नाम भी इतिहास पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा गया होता।

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सरयू-भगवती कुंज
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली (उ०प्र०)
मो0 9415951459

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विज्ञान को समाज तक पहुंचाने का सशक्त उपकरण है विज्ञान कविताएं –   सविता चडढा

 जब से दुनिया बनी है विज्ञान की भूमिका हम सबके जीवन में प्रारंभ से विद्यमान है । विज्ञान के अनेक रूप भी हमारे आसपास, हमारे सौरमंडल में विचरण करते रहे हैं । हमारे मन में कई जिज्ञासाएं  बचपन से बनी रही हैं। सौर मंडल क्या है , ब्रह्मांड क्या है धरती  कैसे बनी, चेतन और अवचेतन मन, आने वाले सपने, बादल और चमकती बिजली….अनगिन विषय  विज्ञान के दायरे में आते रहे हैं। 

बचपन में जब रामायण के कई दृष्टांत सुने  तो मुझे लगता था उस समय भी विज्ञान विद्यमान था , नहीं तो पुष्पक विमान कैसे बनता । पवन पुत्र हनुमान जी की यात्रा का उल्लेख भी मुझे बहुत जिज्ञासा में डालता था। बालपन की जिज्ञासाएं  यह जानने को सदैव इच्छुक रहती , कैसे श्रीराम और लक्ष्मण जी को अपने कंधों पर बिठाकर ले गए थे पवन पुत्र और जब राम और रावण के युद्ध की बात होती  और इसमें प्रयोग किए गएअनेक अस्त्र।  मुझे लगता  यह सब भी विज्ञान का ही चमत्कार था और विज्ञान आज का नहीं युगों युगों से इस पृथ्वी पर विद्यमान है । पारस को छूने से जब लोहा भी सोना बन जाता है तो क्या यह  विज्ञान नहीं है । मैं तो यहां पर यह भी कहना चाहती हूं अगर कोई साधारण मनुष्य, असाधारण व्यक्तियों की छत्रछाया में आकर चमत्कार कर जाता है अपने जीवन में , यह भी तो विज्ञान है । क्या ये मनोविज्ञान है?  विज्ञान  में भी तो मनोविज्ञान में भी तो विज्ञान  है। विज्ञान के जितने भी चमत्कार हुए हैं उसे बनाया तो मनुष्य नहीं है । बहुत ही विस्तृत दायरा है विज्ञान का। विज्ञान के विभिन्न रूपों को देखने का अवसर मुझे मिला एक विज्ञान कविताओं के संग्रह में।

सविता चड्ढा

पिछले दिनों” विज्ञान कविताएं ” पुस्तक मेरे हाथ में आई और हाथ में भी इसलिए आई क्योंकि मुझे विज्ञान पर कविताएं लिखने के लिए आमंत्रित किया गया था।  मैंने अपनी लिखी कविताओं में से कुछ कविताएं प्रदूषण और पर्यावरण, काश कोई ऐसा यंत्र मिल जाए,  जो मनुष्य के मन के आकार को जान सके, पल पल का साथी विज्ञान,एकात्म ऐसे अनेक विषयों पर लिखी मेरी कविताएं इस संग्रह में शामिल है । इस पुस्तक के संपादक सुरेश नीरव जी को मैंने अपनी कविताएं भेज दी,  मुझे बहुत हैरानी हुई कि उन्होंने इन कविताओं को विज्ञान कविताएं स्वीकार किया और कहा इन कविताओं में वैज्ञानिकता है । मित्रों मैंने कई कहानियां लिखी है जिसमें मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान से संबंधित विषय कहानियों में लिए गए हैं । जब यह पुस्तक तैयार होकर मेरे हाथ में पहुंची और मैंने इसे पढ़ा तो मैंने पाया कि विज्ञान का हमारे समाज में कितना महत्व है और कविताएं एक सशक्त माध्यम है विज्ञान को समाज तक पहुंचाने का ,समाज की जिज्ञासाओं को विज्ञान ही शांत कर सकता है।  जब आप इस  संग्रह की कविताएं पढ़ेंगे तो आप जान पाएंगे कि सपनों का विज्ञान क्या है, डीएनए, प्राणी और पदार्थ क्या हैं। विज्ञान कविता है क्या ? इन सब के बारे में पंडित सुरेश नीरव जी ने इस पुस्तक में विस्तार से बताया है। डॉक्टर शुभता मिश्रा, अंधकार  चंद्रयान की सुंदर पृथ्वी के बारे में बताती हैं और टैबलेट आहार के बारे में बताती हैं। सुरेंद्र कुमार सैनी कहते हैं कि सत्य को पहचानने का नाम है विज्ञान है । नीरज नैथानी वृक्षों के संसार और ऊर्जा प्रदायनी गंगा को लेकर विज्ञान को परिभाषित करते हैं । मंगलयान, खिचड़ी और प्रोटीन एक कदम, विज्ञान पर अपनी बात, विज्ञान से जुड़ी कई बातें यशपाल सिंह यश ने अपनी कविताओं में बताई हैं और अरुण कुमार पासवान  ने ,सुबह की सैर ,वृक्षारोपण और महायुद्ध के माध्यम से विज्ञान को हम सबको परोसा है। राकेश जुगरान ने पॉलिथीन,जीवन दर्शन और जंगल के मासूम परिंदे जैसे विषयों पर लिखकर विज्ञान को परिभाषित किया है। मधु मिश्रा ने विज्ञान की बात करते हुए पेड़ों को ऑक्सीजन प्रदाता कहां है और संतुलित भोजन और पेड़ों को बचाने पर अपनी सुंदर रचनाएं प्रस्तुत की है । पंकज त्यागी असीम ने इसरो के माध्यम से और मोबाइल को लेकर अपनी कुछ बातें विज्ञान के साथ जोड़ी है । वहीं डॉक्टर कल्पना पांडेय ने शून्य का गणित और कोविड महामारी और विज्ञान को बहुत ही जादुई बताते हुए विज्ञान को प्रस्तुत किया है । इसी प्रकार सुबोध पुण्डीर  कहते हैं कि आज बिजली के सहारे जिंदगी का काम चल रहा है। उन्होंने भी पेड़ों को ऑक्सीजन का भंडार बताया है।  रामवरन ओझा इस पुस्तक में विज्ञान के चमत्कारों की बात करते हैं । पंडित सुरेश नीरव पुस्तक के अंत में” तुम गीत लिखो विज्ञान के ” एक बहुत ही सुंदर गीत के साथ प्रस्तुत हुए हैं।  इस संग्रह को पढ़ते हुए मैंने पाया कि विज्ञान पर लिखी गई ये कविताएं समाज को विज्ञान के कई रूप प्रस्तुत करती है और यह सिद्ध हो जाता है कि विज्ञान को समाज तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम कविता भी हो सकती है।

हमारा व्यवहार हमारे मानसिक संतुलन को अभिव्यक्त करता है- सविता चड्डा
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सविता चड्ढा

हमारा व्यवहार हमारे मानसिक संतुलन को अभिव्यक्त करता है। साधारण लोग इस बात की ओर भले ही ध्यान ना दें लेकिन आप यह जान लें कि हम जो भी करते हैं, कैसे उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, बात करते समय हमारे चेहरे की भाव भ॔गिमांए  अगर कोई ध्यान से देखता है तो वह जान सकता है कि आपके हृदय में क्या चल रहा है, आपके मस्तिष्क की अवस्था कैसी हैं, जीवन के प्रति  आपका दृष्टिकोण क्या है ?

आप सोचेंगे ऐसा कैसे संभव है।  मैं आपको बहुत सारी बातें बता सकती हूं।  मेरी बताई गई बातें आपके मस्तिष्क को परिवर्तित नहीं कर सकती, आपकी सोच को भी बदल नहीं सकती ,हां उसे कुछ समय के लिए प्रकाशित कर सकती हैं और अगर आप निरंतर उस प्रकाश को महसूस करेंगे तो छोटे से छोटे कंकर से बचाव संभव हो सकेगा।

सबसे पहले तो यह जान लेना चाहिए,  संसार की सारी बातें सब व्यक्तियों के लिए नहीं होती। उदाहरण के लिए  यदि हम कला में स्नातक की डिग्री लेना चाहते हैं या कला में स्नातक की शिक्षा लेना चाहते हैं तो उसके लिए हमें अलग सब्जेक्ट पढ़ने होते हैं और यदि हम कॉमर्स विषय  लेते हैं तो उसके लिए हम अलग शिक्षा लेते हैं। इसी प्रकार चिकित्सा, विज्ञान या जीवन में शिक्षा के क्षेत्र में लिए जाने वाले सभी विषयों के लिए, हमें अलग अलग तरह से उसका  चयन करना पड़ता है।  इसी प्रकार  ईश्वर ने हमें हमारे मस्तिष्क को  जिस प्रकार बना दिया है हमें केवल वही बातें पसंद आती हैं और हम उसी के अनुसार ही अपना वातावरण चुनते हैं। अपने संगी साथी पसंद करते हैं।  हमें अपने ही सोच वाले व्यक्ति पसंद आते हैं। मस्तिष्क का निर्धारण कोई व्यक्ति नहीं कर सकता, इसे हम कुछ पल के लिए बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए  अगर पानी को गर्म किया जाए तो वह कुछ समय के पश्चात शीतल हो जाता है अर्थात जो उसका वास्तविक स्वभाव है वह उसमें बदल ही जाता है।  इसी प्रकार ईश्वर द्वारा प्रदत्त मस्तिष्क में  बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हो सकता लेकिन इसे धीरे धीरे नकारात्मकता से सकारात्मकता की और स्थाई रूप से लाया जा सकता है।

जैसे किसी ने पहले बी. ए. पास कोर्स में दाखिला लिया बाद में उसे  लगा कि कॉमर्स की शिक्षा अधिक उपयोगी है तो वह किसी दूसरे संस्थान में, अपनी दूसरी पुस्तकों के साथ उपस्थित होता है और लगातार उसीका अध्ययन करता है तो वह इस शिक्षा में भी उतीर्ण  हो सकता है अर्थात ईश्वर द्वारा प्रदत मस्तिष्क को पूर्ण रूप से बदलने के लिए हमें अपने हृदय का सहारा इसमें मिल सकता है। यह सहारा  कोई भी हो सकता है, पुस्तकें भी हो सकती हैं ,व्यक्ति भी हो सकता है।  उनका सहारा लेकर आप अपने जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन ला सकते हैं बशर्ते आपका मस्तिष्क उसे स्वीकार करने के लिए उपस्थित हो। ये विषय बहुत विस्तृत है और इस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है।

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डॉ.नीरज की काव्य कृतियां मेरी दृष्टि में / ब्रजेश नाथ त्रिपाठी

डॉ.नीरज की काव्य कृतियां_मेरी दृष्टि में

सुनहरी भोर की ओर

नव गति नव लय ताल तुम्ही हो के शिख से लेकर मुक्तक के नख तक पुण्य सलिल मंदाकिनी की काव्य धारा के तट पर स्थापित अनेक तीर्थों का दरशन- परसन करते हुए भगवान भास्कर के बाल रूप को अर्घ्य अर्पित करने का शुभ अवसर अनुज डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज की काव्य कृतियां ” सुनहरी भोर की ओर” और “अञ्जुरी भर प्यास लिये ” का अवगाहन करके प्राप्त हुआ।

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की अवधारणा को पुष्ट करती हुई इस कृति के अनुपम रूप सौंदर्य को देखकर मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है की डॉ. नीरज एक साहित्यकार ही नहीं एक संस्था हैं जिससे जुड़ने का सुयोग सैकड़ों कवियों के साथ मुझे भी प्राप्त हुआ है।

मेरा अभी तक का यह मानना था की बहुत लिखा महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि बहुत अच्छा लिखा मायने रखता था लेकिन मुझे खुशी है कि मेरा मत निर्मूल सिद्ध हुआ क्योंकि आज सुनहरी भोर की ओर और अञ्जुरी भर प्यास लिये का रसास्वादन करने के पश्चात मैं दावे से कह सकता हूं मैं दावे से कह सकता हूं कि नीरज जी ने बहुत लिखा और बहुत अच्छा लिखा। यद्यपि इन दो काव्य कृतियों के अतिरिक्त मैने नीरज जी की गद्य पद्य में कोई अन्य कृति नहीं पढी किंतु अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस स्फुट रचनाओं एवं काव्य मंचो का मैं साक्षी रहा हूं इस गर्व की अनुभूति के साथ कि मेरे मित्र ने साहित्य में जिस स्थान को प्राप्त करने का संकल्प लिया था उसने उस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया।

मुझे लगता है नीरज जी का और मेरा साथ संभवत 1990 के दशक से है इस कालखंड की सबसे स्मरणीय घटना है 2003 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्त लेकर मेरा अपने घर जगतपुर आना ।
कहने को रायबरेली नगर से 20 किलोमीटर दूर एक विकासखंड लेकिन मेरे लिए ‘दिल्ली दूर आयद’ नगर के साहित्यिक मित्रों से ना मिल पाने का एक बहुत बड़ा कारण 71 वर्ष की आयु के कारण नगर में परंपरागत आयोजित होने वाले सांध्य कालीन कार्यक्रमों में सम्मिलित ना हो पाने की विवशता, खैर छोड़िए यह सब तो अपनी रामकहानी है जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।

कृतियों के संबंध में तमाम मनीषियों ने अपनी – अपनी भूमिका में काव्य कृतियों एवं रचनाओं के बारे में सुंदर शब्दावली में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की भूरि- भूरि प्रशंसा की है इस सार तत्व के साथ कि अच्छे को तो अच्छा कहना ही है। समान मत रखने के कारण मैं उन तमाम मनीषियों को प्रणाम करता हूं जिन्होंने अपनी भूमिकाओं में कृतियों के अनेक पक्षों पर दृष्टि डालते हुए उसे समग्रता प्रदान की है।

सुनहरी भोर की ओर कृति के प्रारंभिक पृष्ठों में स्वामी गीतानंद गिरि का आशीर्वाद शिव कुमार शिव और डॉ.रंगनाथ मिश्र सत्य ने तो अपनी बात कही लेकिन रचनाकार ने चुप्पी साध ली शायद इसीलिए कि कृति की सारी रचनाएं अपनी उत्कृष्टता से रचनाकार की यशगाथा को हिंदी साहित्य के इतिहास में अनंत काल तक उद्घभाषित करती रहेंगी।

नई कविता में ‘ज्योति पुंज प्रकाश’ ‘परिणाम हैं तेरे’ के पश्चात जैसे ही ‘अनुभूति और अभिव्यक्ति’ शीर्षक से बिल्कुल नये प्लाट पर लिखी कविता को पढ़कर मैं चमत्कृत हो उठा। यथा — सरोवर से निकले / सद्य:
स्नानित महिषों के दल / एक- दूसरे से लुरियाते/ वक्र विषाणों से खुजलाते एक दूसरे को /कर्ण पल्लवों की पवित्री से/ एक दूसरे पर छिड़कने अभिषेक जल।

     मैंने इस कविता को कितनी बार पढ़ा कह नहीं सकता कोई चित्रकार भी इतनी सजीवता से इन क्षणों को , इन दृश्यों को अपनी तूलिका से नहीं उकेर सकता इसका परिणाम यह हुआ कि पन्ना पलटने की प्रवृत्ति अपने आप दरकिनार हो गयी और मैंने सावधान होकर पूर्ण मनोयोग से अगले पृष्ठ को खोला शीर्षक था   'कानन मधुरस बतियां'   यथा---  तन दियना मन बाती, दीपित अंग/  प्राण शलभ न रहै थिर, तरल तरंग, दीखत जो मुख आपन, दरपन माहिं/  बार-बार भ्रम जागे वा  मुख नाहि  । 

पढ़ते-पढ़ते मैं भवसागर में डूब गया । यह मेरा अल्प ज्ञान कह लें या धृष्टता लेकिन सभी विद्वजनों से क्षमा मांगते हुए मैं कहूंगा कि इतनी अप्रतिम अद्वितीय अनुपम रचना इससे पूर्व नहीं पढ़ी।
अमीर खुसरो की यह लुप्तप्राय विधा, शैली जिसके शब्द संयोजन से शहद टपकता हो उसे इस सदी में स्थापित करने का श्रेय डॉ. नीरज जी को जाता है और निश्चय ही हिंदी साहित्य के इतिहासकारों की दृष्टि 33 और 34 पृष्ठ के इस पन्ने पर जानी चाहिए ।
दोहा , छंद, सवैया, कुंडलिनी आदि अन्यान्य विधाओं को तो अपनाया किंतु इस विधा को आगे बढ़ाने का उपक्रम क्यों नहीं हुआ यह एक विचारणीय प्रश्न है?
मेरी दृष्टि से कविता इस पन्ने में ही पूर्ण हो गई है । नई कविता की यह यात्रा पृष्ठ संख्या 37 पर टंकित –‘प्रणय- राशि बनकर अनंग में’ समा जाती है । पुन: पृष्ठ संख्या 52 ‘संस्कृति दम तोड़ती यहां’ से ‘मैं पत्थर हूं ‘ पृष्ठ संख्या 60 तक जब तक ग़ज़ल अपनी पूर्ण अल्हड़ता के साथ मार्ग में खड़ी नहीं हो जाती , चलती रहती है।
इससे पूर्व कि मैं ग़ज़लों की बात करूं एक नई विशिष्ट कविता या गीत कहें का उल्लेख किए बिना नहीं रह सकता यद्यपि इसका शीर्षक कविता के भावों के अनुरूप नहीं है भले ही वह कविता का एक अंश ही है। शीर्षक है ‘प्रणय राशि बन कर अनंग में’ और कविता है ‘कविते! तुम पावन प्रसाद सी, मुक्त कृपा सी बरसो । नीर -क्षीर बिलगाओ , और बोध -शोध सी परसो ।
चलिए अब ग़ज़लों की बात करते हैं ग़ज़लों के लिए नई ज़मीन तलाशने की काफ़ी कोशिश की गई और रचनाकार अपने इस प्रयास में काफ़ी हद तक सफल भी हुआ दूसरी ग़ज़ल ‘ बादशां तो दिल के थे’ , बादशा से एक स्मृति दिमाग में कौंध गई यह उस समय की बात है जब पंडित बालकृष्ण मिश्र एडवोकेट को ‘गीतों का राजकुमार ‘ कहकर प्रतिष्ठा दी गई थी ।
रिफॉर्म क्लब के सामने बृहद काव्य गोष्ठी का आयोजन था पंडित बालकृष्ण मिश्र मुक्तकों की श्रंखला में यह मुक्तक पढ़ रहे थे– उम्र दरिया के किनारों की तरह कटती रही । या कि चंदा की तरह घटती रही बढ़ती रही ।कभी बादशाह कभी दहला कभी ग़ुलाम बना । ज़िंदगी ताश के पत्तों की तरह बंटती रही। और मेरे बगल में बैठे उर्दू के महान शायर जनाब वाक़िफ रायबरेलवी मुझसे कह रहे थे बृजेश इस पंडित को कितनी बार कहा है कि बादशां की जगह पर बादिश पढ़ा करो लेकिन यह मानता ही नहीं ।मुझको लगता है कि मिश्र जी हिंदी के स्वत्व को बनाए रखना चाहते थे इसलिए वह तिरा, मिरा का प्रयोग हिंदी में करने के पक्षधर नहीं थे। हिंदी शब्दावली में उर्दू ,अरबी ,फारसी तथा अन्य भाषाओं के आगत शब्द जिस प्रकार लिये गये हैं उसी प्रकार उन्हें प्रयुक्त भी करना चाहिए। बहरहाल मुझे गर्व है कि मैं सदैव हिंदी -उर्दू के इन कीर्ति स्तंभों का कृपा पात्र रहा।
संग्रहीत 15 ग़ज़लों में कई अच्छे शेर कहे गए हैं उसमें से एक लाजवाब शेर यह भी है–
‘साथ लाए थे छड़ी जो, वो ले गए वापस।
पास में इसके तो माथा है टेकने के लिए’।
बालगीत के सभी गीत बहुत सुंदर हैं और यह सिद्ध करने में पूर्ण समर्थ हैं कि रचनाकार को बाल मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञान है।
हाइकु ने जापान से भारत विशेष रूप से रायबरेली उत्तर प्रदेश तक जिस तीव्र गति से यात्रा की उतनी ही तीव्रता से त्रिशूल ने उसे आत्मसात ही नहीं कर लिया बल्कि तुकांत के प्रयोग से उसका शुद्ध भारतीय करण भी कर दिया जिसके लिए पंडित शंभू शरण द्विवेदी बंधु को सदैव स्मरण किया जाएगा। उनका एक प्रसिद्ध हाइकु या त्रिशूल है– कुछ कहोगे / अपने विवेक से / कहां रहोगे ।
नीरज के इस त्रिशूल को कौन भुला सकता है – गंध गमकी/ फगुनी पलाश की / छाया दहकी। रचनाकार द्वारा द्विवेदी जी को सम्मान देते हुए त्रिशूल शीर्षक से ही 15 त्रिशूल छंद संग्रह की माला में पिरोये हैं जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने में सक्षम हैं।
छंद और मुक्तक अंशावतार न लगकर पूर्णावतार लगते हैं और कवि की कोमल हृदयानुभूति के संवाहक के रूप में काव्य कृति को अलंकृति करते हैं मुझे विश्वास है कि इनमें से बहुसंख्यक छंदों एवं मुक्तकों का प्रयोग मंच उद्घोषकों द्वारा जनमानस के मध्य होता रहेगा ।
निश्चय ही इस काव्य कृति को डॉक्टर नीरज की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में हिंदी साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त होगा।

अञ्जुरी भर प्यास लिए

   डॉ.नीरज की दूसरी काव्य कृति के अंतिम पृष्ठ पर शतएकादश दोहों को छोड़ दिया जाये तो पूरी कृति गीतों को समर्पित है वस्तुतः जहां तक मैं समझता हूं रसिक जी मूलतः तथा स्वभावत: गीतकार हैं उनके रोम-रोम में गीतों का स्पंदन है गीतों ने ही साहित्य जगत में उनकी पहचान बनाई है अतः गीतात्मकता उनके पूरे साहित्य में रचा बसा है कहीं-कहीं वाणी कठोर भले ही हुयी हो लेकिन उसमें द्वेष ना होकर शाश्वत प्रेम और वात्सल्य की ही प्रबलता है ठीक उस कुम्भकार की तरह जिसका एक हाथ बाहर घड़े पर चोट मारता है और घड़े के भीतर से एक हाथ उस पर होने वाले आघात से बचाता रहता है । परंपरा का निर्वाह करना और बात है अन्यथा मुझे तो लगता है कि नीरज जी के गीत ही कृति की भूमिका भी है और विस्तृत कलेवर भी , कृति को प्रसिद्धि भूमिका के साथ भी मिलती है और उनके बिना भी, बस रचनाकार की दृष्टि प्रखर होनी चाहिए गीतों की प्रमाणिकता और श्रेष्ठता स्वयं सिद्ध है इसके लिए 10 मूर्धन्य विद्वानों के हस्ताक्षर गीत के स्वाभिमान को कदाचित आहत ही करेंगे ।

अपनी बात में कृतिकार ने कृति के बारे में न्यूनाधिक और अन्य के बारे में अधिकाधिक विचार रखे हैं जिसे आत्मकथा , संस्मरण और यात्रा वृतांत के एक अंश के रूप में भी देखा जा सकता है यद्यपि मुझे यह बहुत रुचिकर और आनंद दायक लगा। इसलिए नहीं कि इसमें मेरा भी उल्लेख है बल्कि इसलिए भी कि बीते दिनों का इतिहास एकाएक सजीव हो उठा । यह इतिहास उस कालखंड का था जिसका एक पात्र मैं भी था । सुखद दिनों की अनुभूति सबको अच्छी लगती है और मुझे कहने दे कि रायबरेली नगर में हिंदी साहित्य का वह स्वर्ण काल था ।
रेलवे में पंडित गोविंद नारायण मिश्र जी (त्रिवेणी काव्य कृति के रचयिता) स्टेशन परिसर में काव्य आयोजन, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में “एक ताल जिंदगी ” काव्य कृति के रचनाकार भाई स्वप्निल तिवारी जी और नई कविता के पुरोधा आनंद स्वरूप श्रीवास्तव जी के प्रयास से बैंक परिसर में काव्य समारोह, गांधी धर्मशाला में डॉ.चक्रधर नलिन द्वारा प्रतिवर्ष महावाणी का प्रकाशन और हिंदी समारोह और रायबरेली में लघु कथा को पुष्पित, पल्लवित करने वाले राजेंद्र मोहन त्रिवेदी बंधु के यहां प्रत्येक माह के अंतिम शनिवार को होने वाली गोष्ठियों को कौन न याद करना चाहेगा। जैसे पिंक सिटी के रूप में जयपुर विख्यात है उसी तरह चतुर्भुजपुर से सूरजूपुर मोहल्ले तक चारों ओर बस काव्य उत्सव।
तब आज जैसी ना तो खेमे बंदी, गुटबंदी या जुगलबंदी थी । हिंदी उर्दू के सभी कवि, शायर एक छत के नीचे इकट्ठा होते थे नई-नई रचनाएं सुनाने की होड़, बड़ा कवि हो या छोटा सभी अपने घरों में गोष्ठी आयोजित करते थे। गोष्ठी भी मात्र काव्य तक सीमित ना हो परिचर्चा कहानी, लघुकथा, समस्या पूर्ति के रूप में साहित्य सृजन के लिए भूमि को उपजाऊ बना रही थी। आज उस दौर के कवियों, शायरों में स्मृति शेष की संख्या सबसे ज्यादा है और जो विद्यमान हैं उनमें कतिपय को छोड़कर वही 30- 35 वर्ष पहले की रचनाएं पढ़ रहे हैं शायद वह लिखना बंद कर चुके हैं या उस स्तर का नहीं लिख पा रहे हैं जो 30 – 35 वर्ष पूर्व लिखा था।
इसका एक दूसरा पहलू भी है और वह है मंच संस्कृति मेरी समझ से “मंच कवि और कविता के पांव में बंधी हुई वह जंजीर है जो तालियों की गड़गड़ाहट से टूटती है ” । कवि के लिए कविता तो श्वास , प्रश्वास है फिर मात्र वाहवाही के लिए?
नीरज जी देखिए मैं भी आप द्वारा वर्णित इतिहास के प्रवाह में बह गया भान हीं नहीं रहा कि मैं कृति के बारे में लिख रहा था या पुराना पत्रा बाच रहा हूं ,क्षमा करें !
उन कतिपय कवियों में एक नाम डॉ . रसिक किशोर सिंह नीरज का भी है जो आज पहले से ज्यादा श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर रहे हैं और अनवरत साहित्य साधना में रत हैं ।
प्रस्तुत कृति में वाणी वंदना से लेकर ” भारत दर्शन हुआ नीरज” तक साठ गीत हैं जिनमें स्थान- स्थान पर भारतीय संस्कृति का उदात्त स्वरूप बिखरा हुआ है। इसमें तमाम गीत जिस पृष्ठभूमि पर लिखे गए हैं लगता है कि वह जन-जन की व्यथा का चित्रण कर रहे हैं यथा — भाई ने भाई के तोड़े क्षण भर में सपने । उनके मन की बात जान ली लेकिन कही नहीं। अपने ही अनजाने हैं कुछ। मन का चोर कहां बसता है कौन बताएगा। पुनश्च – दिल टूटा अपनों से हुए बहुत मज़बूर यह कैसी सौगात रही । बुरे वक़्त में बेटी ही तो मर्यादा ढ़ोती। किंतु पिता सागर सा केवल वह विषपान किया करते हैं । आंखों के अंदर कण कोई चुभता जैसे शूल लगा है ।
बड़े छोटों के अंदर बहुत गहरी हुई खाई
इन्हें कैसे भरेंगे अब नहीं कुछ समझ में आई
अपने को समष्टि में समाहित करने की कला, जग की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने की संवेदना ,लोगों का मन टटोलने की चेष्टा, यही कवि को तथा उसके कार्य को विशिष्टता प्रदान करता है ।डॉक्टर शिव बहादुर सिंह भदौरिया की मुझे एक पंक्ति याद आ रही है – “मैंने देखा है बिंधे शर से तड़पता हारिल, मेरे देखे को मेरा हाल न जाना जाए।” कितनी सहजता और खूबसूरती से जग में रहकर भी अपने को जग से अलग कर लिया। यही बात कबीर ने भी कही थी दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों कि त्यों धरि दीनी चदरिया ।
डॉक्टर रसिक किशोर सिंह नीरज समझते हैं तभी तो उन्होंने गूंगी पीड़ा को अपना स्वर देकर उसे जन-जन तक पहुंचाने का स्तुत्य प्रयास अपने गीतों और दोहों के माध्यम से किया है। उनके सभी गीत हृदयस्पर्शी हैं तथा अपने कर्तव्यों का पालन करने में सामर्थ्यवान हैं। विश्वासन था, मन का चोर कहां बसता है, सचमुच प्यार करो , जग दहता अंगार हो गया, मनहर दिन आये , मेरे गांव में आना जी, और भीग गई ममता के जल से, सबसे सुंदर बन पड़े हैं और जिन की गूंज एक लंबे अंतराल तक हृदय के द्वार पर सुनाई देगी। गीतों को दीप्ति प्रदान करते हुए ” एक एक एक” दोहे अपनी आभा से पूरी कृति को प्रकाश मई बनाएंगे।
मैं इन श्रेष्ठ कृतियों के प्रणयन के लिए डॉक्टर नीरज को आशीर्वाद तथा साधुवाद उनके ही एक दोहे को उद्धृत करते हुए दे रहा हूं– जगमग जगमग जग दिखा चकाचौंध में आज।
अंधकार लेकिन यहां अंतस गया विराज।।

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तंबाकू की हैवानियत / अशोक कुमार गौतम

“बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा।।”

(उत्तरकाण्ड- रामचरित मानस)

तंबाकू की हैवानियत

मानव रूप में जीवन पाना ईश्वर का दिया हुआ सबसे खूबसूरत उपहार है। जिसे सजा-संवार कर बनाए रखना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। तंबाकू के सेवन से हम अपना खुशहाल जीवन बर्बाद कर देते हैं। ‘नशा’ नाश की जड़ है, इस सूक्ति को भूलकर विभिन्न माध्यमों में तंबाकू खाते पीते हैं, जिससे असमय मृत्यु हो जाती है। विश्व के विभिन्न देशों में सन 1500 ई0 के बाद तंबाकू का सेवन प्रारंभ हो गया था। तब तंबाकू सिर्फ छोटे व्यापार का माध्यम हुआ करती थी। पुर्तगाल के व्यापारियों द्वारा भारत में सन 1608 ई0 में तंबाकू का पहला पौधा रोपा गया था। वह पौधा आज लगभग संपूर्ण भारत में लह-लहा रहा है। सन 1920 में जर्मन के वैज्ञानिकों ने तंबाकू से होने वाले कैंसर का पता लगाया था और सभी देशों को सचेत किया था। परंतु सन 1980 में तंबाकू खाने से होने वाले कैंसर की पुष्टि हुई है। निकोटियाना प्रजाति के पेड़ों के पत्तों को सुखाकर तंबाकू बनाया जाता है, जिसका प्रयोग सिगरेट, गुटखा, पान आदि के माध्यम से करते हैं। मध्यप्रदेश में तेंदू के पत्तों से बीड़ी बनाई जाती है जिसके अंदर भी तंबाकू भरते हैं। तम्बाकू में निकोटीन पाया जाता है जो शरीर की नसों को शनैः शनैः ब्लॉक करने लगता है, जिससे चेहरे की चमक तक चली जाती है। मुँह भी पूरा नहीं खोल पाते हैं।
अखिल विश्व में तंबाकू का प्रयोग दो प्रकार से होता है- चबाकर खाना और धुंआ के द्वारा। दोनों ही प्रकार से तंबाकू द्वारा बने उत्पादों का सेवन करने से मुख में कैंसर, गले में कैंसर, फेफड़ों में कैंसर, हृदय रोग, दमा आदि बीमारियाँ हो जाती हैं। ये बीमारियाँ अकाल जानलेवा बन जाती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के सर्वे में विश्व में प्रतिवर्ष 60 लाख से अधिक लोगों की असमय मृत्यु का कारण तंबाकू है। इसके दुष्परिणामों को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 31 मई सन 1988 को अंतरराष्ट्रीय बैठक करके यह निर्णय लिया कि तंबाकू सेवन की रोकथाम और निवारण के लिए प्रतिवर्ष 31 मई को ‘विश्व तंबाकू निषेध दिवस’ मनाया जाएगा। वर्ष 2008 में भारत सरकार ने तंबाकू से जुड़े विज्ञापनों पर रोक लगा दी तथा तंबाकू से जुड़े सभी उत्पादों जैसे गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, पान में प्रयोग की जाने वाली तंबाकू आदि के पैकेट ऊपर बिच्छू का चित्र, मुंह में कैंसर वाली मानवाकृति छपवाने का आदेश दिया। इतना ही नहीं, नशा से जुड़ी हर पाउच, पैकेट, बोतल पर स्लोगन भी लिखवाया जाता है कि तंबाकू सेवन/मदिरा सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
भारत सरकार ने सार्वजनिक स्थानों जैसे बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, चिकित्सालय, स्कूल, कॉलेज, विभिन्न कार्यालयों आदि में धूम्रपान करने पर अर्थदंड का प्रावधान किया है। साथ ही 18 वर्ष से कम आयु के लड़कों को तंबाकू से जुड़े उत्पादों की बिक्री पर रोक लगा दी गयी है। यदि देखा जाए तो धूम्रपान की शुरुआत अक्सर शौकिया लोग करते हैं, लेकिन शुरू में खुशी या गम का इजहार करने का शौक समय के साथ लत बन जाता है जो प्राणघातक है। आज की युवा पीढ़ी अपने शौक पूरा करने तथा दोस्ती को प्रगाढ़ बनाने के लिए धूम्रपान कर रही है। तंबाकू का सेवन किसी भी रूप में करना मीठा जहर है जिसके प्रति शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लड़के लड़कियां अधिक आकर्षित हो रही हैं। इसके दुष्परिणाम बहुत ही घातक होंगे। यह युवा पीढ़ी के लिए चिंता का विषय है।
सरकार विभिन्न विज्ञापनों में करोड़ों रुपए खर्च करती है जिससे तंबाकू से लोगों को छुटकारा मिले। एक सिगरेट पीने से 11 मिनट आयु कम होती है तथा विश्व में 6 सेकंड में एक मृत्यु तंबाकू से होने वाले कैंसर से होती है। तम्बाकू सेवन छुड़ाने के लिए आयुर्वेद को बढ़ावा दिया जाए, जिससे इस बीमारी और लत को रोका जा सके।
भारत में विडम्बना है कि नशा मुक्ति अभियान में करोड़ों रुपए खर्च करके आमजन को जागरूक करने का सार्थक प्रयास किया जाता है, किंतु ‘नशा’ से जुड़ी वस्तुओं और अन्य मादक पदार्थों के उत्पादन पर रोक नहीं लगाई जाती है? यह भी वास्तविकता है कि धूम्रपान/आबकारी विभाग से सरकार को राजस्व प्राप्त होता है, परन्तु मानव जीवन को खतरा में डालना भी अनुचित है। इसलिए हम जिम्मेदार नागरिकों को संकल्प लेना होगा कि न नशा करेंगे, न किसी को प्रेरित करेंगे। नशा न करने से घर की अर्थव्यवस्था सुदृढ होगी, साथ ही पारिवारिक स्नेह, आत्मीय सम्मान और शारीरिक, मानसिक बल मिलेगा।

         
सरयू-भगवती कुंज,
अशोक कुमार गौतम
(असिस्टेंट प्रोफेसर)
शिवा जी नगर, रायबरेली
मो. 9415951459

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