डॉ.नीरज की काव्य कृतियां मेरी दृष्टि में / ब्रजेश नाथ त्रिपाठी

डॉ.नीरज की काव्य कृतियां_मेरी दृष्टि में

सुनहरी भोर की ओर

नव गति नव लय ताल तुम्ही हो के शिख से लेकर मुक्तक के नख तक पुण्य सलिल मंदाकिनी की काव्य धारा के तट पर स्थापित अनेक तीर्थों का दरशन- परसन करते हुए भगवान भास्कर के बाल रूप को अर्घ्य अर्पित करने का शुभ अवसर अनुज डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज की काव्य कृतियां ” सुनहरी भोर की ओर” और “अञ्जुरी भर प्यास लिये ” का अवगाहन करके प्राप्त हुआ।

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की अवधारणा को पुष्ट करती हुई इस कृति के अनुपम रूप सौंदर्य को देखकर मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है की डॉ. नीरज एक साहित्यकार ही नहीं एक संस्था हैं जिससे जुड़ने का सुयोग सैकड़ों कवियों के साथ मुझे भी प्राप्त हुआ है।

मेरा अभी तक का यह मानना था की बहुत लिखा महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि बहुत अच्छा लिखा मायने रखता था लेकिन मुझे खुशी है कि मेरा मत निर्मूल सिद्ध हुआ क्योंकि आज सुनहरी भोर की ओर और अञ्जुरी भर प्यास लिये का रसास्वादन करने के पश्चात मैं दावे से कह सकता हूं मैं दावे से कह सकता हूं कि नीरज जी ने बहुत लिखा और बहुत अच्छा लिखा। यद्यपि इन दो काव्य कृतियों के अतिरिक्त मैने नीरज जी की गद्य पद्य में कोई अन्य कृति नहीं पढी किंतु अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस स्फुट रचनाओं एवं काव्य मंचो का मैं साक्षी रहा हूं इस गर्व की अनुभूति के साथ कि मेरे मित्र ने साहित्य में जिस स्थान को प्राप्त करने का संकल्प लिया था उसने उस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया।

मुझे लगता है नीरज जी का और मेरा साथ संभवत 1990 के दशक से है इस कालखंड की सबसे स्मरणीय घटना है 2003 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्त लेकर मेरा अपने घर जगतपुर आना ।
कहने को रायबरेली नगर से 20 किलोमीटर दूर एक विकासखंड लेकिन मेरे लिए ‘दिल्ली दूर आयद’ नगर के साहित्यिक मित्रों से ना मिल पाने का एक बहुत बड़ा कारण 71 वर्ष की आयु के कारण नगर में परंपरागत आयोजित होने वाले सांध्य कालीन कार्यक्रमों में सम्मिलित ना हो पाने की विवशता, खैर छोड़िए यह सब तो अपनी रामकहानी है जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।

कृतियों के संबंध में तमाम मनीषियों ने अपनी – अपनी भूमिका में काव्य कृतियों एवं रचनाओं के बारे में सुंदर शब्दावली में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की भूरि- भूरि प्रशंसा की है इस सार तत्व के साथ कि अच्छे को तो अच्छा कहना ही है। समान मत रखने के कारण मैं उन तमाम मनीषियों को प्रणाम करता हूं जिन्होंने अपनी भूमिकाओं में कृतियों के अनेक पक्षों पर दृष्टि डालते हुए उसे समग्रता प्रदान की है।

सुनहरी भोर की ओर कृति के प्रारंभिक पृष्ठों में स्वामी गीतानंद गिरि का आशीर्वाद शिव कुमार शिव और डॉ.रंगनाथ मिश्र सत्य ने तो अपनी बात कही लेकिन रचनाकार ने चुप्पी साध ली शायद इसीलिए कि कृति की सारी रचनाएं अपनी उत्कृष्टता से रचनाकार की यशगाथा को हिंदी साहित्य के इतिहास में अनंत काल तक उद्घभाषित करती रहेंगी।

नई कविता में ‘ज्योति पुंज प्रकाश’ ‘परिणाम हैं तेरे’ के पश्चात जैसे ही ‘अनुभूति और अभिव्यक्ति’ शीर्षक से बिल्कुल नये प्लाट पर लिखी कविता को पढ़कर मैं चमत्कृत हो उठा। यथा — सरोवर से निकले / सद्य:
स्नानित महिषों के दल / एक- दूसरे से लुरियाते/ वक्र विषाणों से खुजलाते एक दूसरे को /कर्ण पल्लवों की पवित्री से/ एक दूसरे पर छिड़कने अभिषेक जल।

     मैंने इस कविता को कितनी बार पढ़ा कह नहीं सकता कोई चित्रकार भी इतनी सजीवता से इन क्षणों को , इन दृश्यों को अपनी तूलिका से नहीं उकेर सकता इसका परिणाम यह हुआ कि पन्ना पलटने की प्रवृत्ति अपने आप दरकिनार हो गयी और मैंने सावधान होकर पूर्ण मनोयोग से अगले पृष्ठ को खोला शीर्षक था   'कानन मधुरस बतियां'   यथा---  तन दियना मन बाती, दीपित अंग/  प्राण शलभ न रहै थिर, तरल तरंग, दीखत जो मुख आपन, दरपन माहिं/  बार-बार भ्रम जागे वा  मुख नाहि  । 

पढ़ते-पढ़ते मैं भवसागर में डूब गया । यह मेरा अल्प ज्ञान कह लें या धृष्टता लेकिन सभी विद्वजनों से क्षमा मांगते हुए मैं कहूंगा कि इतनी अप्रतिम अद्वितीय अनुपम रचना इससे पूर्व नहीं पढ़ी।
अमीर खुसरो की यह लुप्तप्राय विधा, शैली जिसके शब्द संयोजन से शहद टपकता हो उसे इस सदी में स्थापित करने का श्रेय डॉ. नीरज जी को जाता है और निश्चय ही हिंदी साहित्य के इतिहासकारों की दृष्टि 33 और 34 पृष्ठ के इस पन्ने पर जानी चाहिए ।
दोहा , छंद, सवैया, कुंडलिनी आदि अन्यान्य विधाओं को तो अपनाया किंतु इस विधा को आगे बढ़ाने का उपक्रम क्यों नहीं हुआ यह एक विचारणीय प्रश्न है?
मेरी दृष्टि से कविता इस पन्ने में ही पूर्ण हो गई है । नई कविता की यह यात्रा पृष्ठ संख्या 37 पर टंकित –‘प्रणय- राशि बनकर अनंग में’ समा जाती है । पुन: पृष्ठ संख्या 52 ‘संस्कृति दम तोड़ती यहां’ से ‘मैं पत्थर हूं ‘ पृष्ठ संख्या 60 तक जब तक ग़ज़ल अपनी पूर्ण अल्हड़ता के साथ मार्ग में खड़ी नहीं हो जाती , चलती रहती है।
इससे पूर्व कि मैं ग़ज़लों की बात करूं एक नई विशिष्ट कविता या गीत कहें का उल्लेख किए बिना नहीं रह सकता यद्यपि इसका शीर्षक कविता के भावों के अनुरूप नहीं है भले ही वह कविता का एक अंश ही है। शीर्षक है ‘प्रणय राशि बन कर अनंग में’ और कविता है ‘कविते! तुम पावन प्रसाद सी, मुक्त कृपा सी बरसो । नीर -क्षीर बिलगाओ , और बोध -शोध सी परसो ।
चलिए अब ग़ज़लों की बात करते हैं ग़ज़लों के लिए नई ज़मीन तलाशने की काफ़ी कोशिश की गई और रचनाकार अपने इस प्रयास में काफ़ी हद तक सफल भी हुआ दूसरी ग़ज़ल ‘ बादशां तो दिल के थे’ , बादशा से एक स्मृति दिमाग में कौंध गई यह उस समय की बात है जब पंडित बालकृष्ण मिश्र एडवोकेट को ‘गीतों का राजकुमार ‘ कहकर प्रतिष्ठा दी गई थी ।
रिफॉर्म क्लब के सामने बृहद काव्य गोष्ठी का आयोजन था पंडित बालकृष्ण मिश्र मुक्तकों की श्रंखला में यह मुक्तक पढ़ रहे थे– उम्र दरिया के किनारों की तरह कटती रही । या कि चंदा की तरह घटती रही बढ़ती रही ।कभी बादशाह कभी दहला कभी ग़ुलाम बना । ज़िंदगी ताश के पत्तों की तरह बंटती रही। और मेरे बगल में बैठे उर्दू के महान शायर जनाब वाक़िफ रायबरेलवी मुझसे कह रहे थे बृजेश इस पंडित को कितनी बार कहा है कि बादशां की जगह पर बादिश पढ़ा करो लेकिन यह मानता ही नहीं ।मुझको लगता है कि मिश्र जी हिंदी के स्वत्व को बनाए रखना चाहते थे इसलिए वह तिरा, मिरा का प्रयोग हिंदी में करने के पक्षधर नहीं थे। हिंदी शब्दावली में उर्दू ,अरबी ,फारसी तथा अन्य भाषाओं के आगत शब्द जिस प्रकार लिये गये हैं उसी प्रकार उन्हें प्रयुक्त भी करना चाहिए। बहरहाल मुझे गर्व है कि मैं सदैव हिंदी -उर्दू के इन कीर्ति स्तंभों का कृपा पात्र रहा।
संग्रहीत 15 ग़ज़लों में कई अच्छे शेर कहे गए हैं उसमें से एक लाजवाब शेर यह भी है–
‘साथ लाए थे छड़ी जो, वो ले गए वापस।
पास में इसके तो माथा है टेकने के लिए’।
बालगीत के सभी गीत बहुत सुंदर हैं और यह सिद्ध करने में पूर्ण समर्थ हैं कि रचनाकार को बाल मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञान है।
हाइकु ने जापान से भारत विशेष रूप से रायबरेली उत्तर प्रदेश तक जिस तीव्र गति से यात्रा की उतनी ही तीव्रता से त्रिशूल ने उसे आत्मसात ही नहीं कर लिया बल्कि तुकांत के प्रयोग से उसका शुद्ध भारतीय करण भी कर दिया जिसके लिए पंडित शंभू शरण द्विवेदी बंधु को सदैव स्मरण किया जाएगा। उनका एक प्रसिद्ध हाइकु या त्रिशूल है– कुछ कहोगे / अपने विवेक से / कहां रहोगे ।
नीरज के इस त्रिशूल को कौन भुला सकता है – गंध गमकी/ फगुनी पलाश की / छाया दहकी। रचनाकार द्वारा द्विवेदी जी को सम्मान देते हुए त्रिशूल शीर्षक से ही 15 त्रिशूल छंद संग्रह की माला में पिरोये हैं जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने में सक्षम हैं।
छंद और मुक्तक अंशावतार न लगकर पूर्णावतार लगते हैं और कवि की कोमल हृदयानुभूति के संवाहक के रूप में काव्य कृति को अलंकृति करते हैं मुझे विश्वास है कि इनमें से बहुसंख्यक छंदों एवं मुक्तकों का प्रयोग मंच उद्घोषकों द्वारा जनमानस के मध्य होता रहेगा ।
निश्चय ही इस काव्य कृति को डॉक्टर नीरज की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में हिंदी साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त होगा।

अञ्जुरी भर प्यास लिए

   डॉ.नीरज की दूसरी काव्य कृति के अंतिम पृष्ठ पर शतएकादश दोहों को छोड़ दिया जाये तो पूरी कृति गीतों को समर्पित है वस्तुतः जहां तक मैं समझता हूं रसिक जी मूलतः तथा स्वभावत: गीतकार हैं उनके रोम-रोम में गीतों का स्पंदन है गीतों ने ही साहित्य जगत में उनकी पहचान बनाई है अतः गीतात्मकता उनके पूरे साहित्य में रचा बसा है कहीं-कहीं वाणी कठोर भले ही हुयी हो लेकिन उसमें द्वेष ना होकर शाश्वत प्रेम और वात्सल्य की ही प्रबलता है ठीक उस कुम्भकार की तरह जिसका एक हाथ बाहर घड़े पर चोट मारता है और घड़े के भीतर से एक हाथ उस पर होने वाले आघात से बचाता रहता है । परंपरा का निर्वाह करना और बात है अन्यथा मुझे तो लगता है कि नीरज जी के गीत ही कृति की भूमिका भी है और विस्तृत कलेवर भी , कृति को प्रसिद्धि भूमिका के साथ भी मिलती है और उनके बिना भी, बस रचनाकार की दृष्टि प्रखर होनी चाहिए गीतों की प्रमाणिकता और श्रेष्ठता स्वयं सिद्ध है इसके लिए 10 मूर्धन्य विद्वानों के हस्ताक्षर गीत के स्वाभिमान को कदाचित आहत ही करेंगे ।

अपनी बात में कृतिकार ने कृति के बारे में न्यूनाधिक और अन्य के बारे में अधिकाधिक विचार रखे हैं जिसे आत्मकथा , संस्मरण और यात्रा वृतांत के एक अंश के रूप में भी देखा जा सकता है यद्यपि मुझे यह बहुत रुचिकर और आनंद दायक लगा। इसलिए नहीं कि इसमें मेरा भी उल्लेख है बल्कि इसलिए भी कि बीते दिनों का इतिहास एकाएक सजीव हो उठा । यह इतिहास उस कालखंड का था जिसका एक पात्र मैं भी था । सुखद दिनों की अनुभूति सबको अच्छी लगती है और मुझे कहने दे कि रायबरेली नगर में हिंदी साहित्य का वह स्वर्ण काल था ।
रेलवे में पंडित गोविंद नारायण मिश्र जी (त्रिवेणी काव्य कृति के रचयिता) स्टेशन परिसर में काव्य आयोजन, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में “एक ताल जिंदगी ” काव्य कृति के रचनाकार भाई स्वप्निल तिवारी जी और नई कविता के पुरोधा आनंद स्वरूप श्रीवास्तव जी के प्रयास से बैंक परिसर में काव्य समारोह, गांधी धर्मशाला में डॉ.चक्रधर नलिन द्वारा प्रतिवर्ष महावाणी का प्रकाशन और हिंदी समारोह और रायबरेली में लघु कथा को पुष्पित, पल्लवित करने वाले राजेंद्र मोहन त्रिवेदी बंधु के यहां प्रत्येक माह के अंतिम शनिवार को होने वाली गोष्ठियों को कौन न याद करना चाहेगा। जैसे पिंक सिटी के रूप में जयपुर विख्यात है उसी तरह चतुर्भुजपुर से सूरजूपुर मोहल्ले तक चारों ओर बस काव्य उत्सव।
तब आज जैसी ना तो खेमे बंदी, गुटबंदी या जुगलबंदी थी । हिंदी उर्दू के सभी कवि, शायर एक छत के नीचे इकट्ठा होते थे नई-नई रचनाएं सुनाने की होड़, बड़ा कवि हो या छोटा सभी अपने घरों में गोष्ठी आयोजित करते थे। गोष्ठी भी मात्र काव्य तक सीमित ना हो परिचर्चा कहानी, लघुकथा, समस्या पूर्ति के रूप में साहित्य सृजन के लिए भूमि को उपजाऊ बना रही थी। आज उस दौर के कवियों, शायरों में स्मृति शेष की संख्या सबसे ज्यादा है और जो विद्यमान हैं उनमें कतिपय को छोड़कर वही 30- 35 वर्ष पहले की रचनाएं पढ़ रहे हैं शायद वह लिखना बंद कर चुके हैं या उस स्तर का नहीं लिख पा रहे हैं जो 30 – 35 वर्ष पूर्व लिखा था।
इसका एक दूसरा पहलू भी है और वह है मंच संस्कृति मेरी समझ से “मंच कवि और कविता के पांव में बंधी हुई वह जंजीर है जो तालियों की गड़गड़ाहट से टूटती है ” । कवि के लिए कविता तो श्वास , प्रश्वास है फिर मात्र वाहवाही के लिए?
नीरज जी देखिए मैं भी आप द्वारा वर्णित इतिहास के प्रवाह में बह गया भान हीं नहीं रहा कि मैं कृति के बारे में लिख रहा था या पुराना पत्रा बाच रहा हूं ,क्षमा करें !
उन कतिपय कवियों में एक नाम डॉ . रसिक किशोर सिंह नीरज का भी है जो आज पहले से ज्यादा श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर रहे हैं और अनवरत साहित्य साधना में रत हैं ।
प्रस्तुत कृति में वाणी वंदना से लेकर ” भारत दर्शन हुआ नीरज” तक साठ गीत हैं जिनमें स्थान- स्थान पर भारतीय संस्कृति का उदात्त स्वरूप बिखरा हुआ है। इसमें तमाम गीत जिस पृष्ठभूमि पर लिखे गए हैं लगता है कि वह जन-जन की व्यथा का चित्रण कर रहे हैं यथा — भाई ने भाई के तोड़े क्षण भर में सपने । उनके मन की बात जान ली लेकिन कही नहीं। अपने ही अनजाने हैं कुछ। मन का चोर कहां बसता है कौन बताएगा। पुनश्च – दिल टूटा अपनों से हुए बहुत मज़बूर यह कैसी सौगात रही । बुरे वक़्त में बेटी ही तो मर्यादा ढ़ोती। किंतु पिता सागर सा केवल वह विषपान किया करते हैं । आंखों के अंदर कण कोई चुभता जैसे शूल लगा है ।
बड़े छोटों के अंदर बहुत गहरी हुई खाई
इन्हें कैसे भरेंगे अब नहीं कुछ समझ में आई
अपने को समष्टि में समाहित करने की कला, जग की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने की संवेदना ,लोगों का मन टटोलने की चेष्टा, यही कवि को तथा उसके कार्य को विशिष्टता प्रदान करता है ।डॉक्टर शिव बहादुर सिंह भदौरिया की मुझे एक पंक्ति याद आ रही है – “मैंने देखा है बिंधे शर से तड़पता हारिल, मेरे देखे को मेरा हाल न जाना जाए।” कितनी सहजता और खूबसूरती से जग में रहकर भी अपने को जग से अलग कर लिया। यही बात कबीर ने भी कही थी दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों कि त्यों धरि दीनी चदरिया ।
डॉक्टर रसिक किशोर सिंह नीरज समझते हैं तभी तो उन्होंने गूंगी पीड़ा को अपना स्वर देकर उसे जन-जन तक पहुंचाने का स्तुत्य प्रयास अपने गीतों और दोहों के माध्यम से किया है। उनके सभी गीत हृदयस्पर्शी हैं तथा अपने कर्तव्यों का पालन करने में सामर्थ्यवान हैं। विश्वासन था, मन का चोर कहां बसता है, सचमुच प्यार करो , जग दहता अंगार हो गया, मनहर दिन आये , मेरे गांव में आना जी, और भीग गई ममता के जल से, सबसे सुंदर बन पड़े हैं और जिन की गूंज एक लंबे अंतराल तक हृदय के द्वार पर सुनाई देगी। गीतों को दीप्ति प्रदान करते हुए ” एक एक एक” दोहे अपनी आभा से पूरी कृति को प्रकाश मई बनाएंगे।
मैं इन श्रेष्ठ कृतियों के प्रणयन के लिए डॉक्टर नीरज को आशीर्वाद तथा साधुवाद उनके ही एक दोहे को उद्धृत करते हुए दे रहा हूं– जगमग जगमग जग दिखा चकाचौंध में आज।
अंधकार लेकिन यहां अंतस गया विराज।।