”समय की लीला” | लघुकथा | रश्मि लहर

”समय की लीला”

छोटे साहब ने बड़े साहब को खुश करने के लिए जेल में रामलीला करवाने का मन बना लिया था। चार दिन की तैयारी के बाद आज फाइनल कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। मंत्री जी ने दोनों साहब लोगों को इनाम स्वरूप ‘आशीर्वाद’ दिया। बड़े साहब मंत्री जी के साथ चले गए। सब लोग सफ़ल आयोजन की ख़ुमारी में थे कि छोटे साहब की चीख सुनकर सब चौंक पड़े। 

छोटे साहब की प्रेयसी ‘सीता’ बनी कैदी को तो ढूॅंढ लिया गया था.. फिर? सब चिंतित कि.. “क्या हुआ?” 

जेल में अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया था।  सब स्तब्ध! जितने मुॅंह उतनी बातें! छोटे साहब कमरे में बंद हो चुके थे। अचानक सिक्योरिटी गार्ड ने जो बताया उसको सुनकर सबके मुंह से चीख निकल पड़ी! उसने कहा –

“पता चला है कि सीता जी को ढूॅंढकर लाने वाले दो बंदर बने कैदी-नंबर 402 तथा 404 रामलीला समाप्त होने से पहले ही फरार हो गए!”

रश्मि ‘लहर’

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श्मशान लघुकथा | रत्ना भदौरिया

थरथर कांपता हुआ इधर उधर भटकने के बावजूद कहीं गर्माहट वाली जगह नहीं मिली ,तो एक जगह पेड़ की आड़ में बैठ गया ।जितनी तेजी से रात का समय बढ़ रहा था उतनी ही तेजी से कंपकंपाहट बढ़ रही थी। सिर ,कान ,नाक और हाथ पर एक भी कपड़ा ना होने की वजह से ऐसा लग रहा था मानो जम गया हो। शरीर पर तो फिर भी फटे पुराने कपड़े थे‌। पेड़ से दो चार बूंदें सिर पर टपक जाती और मैं अंदर तक और थर्रा जाता। गाड़ियों की आवा जाही ठप सी हो गई थी, आसमान की तरफ देखेकर ऐसा लगा कि अभी एक या दो ही बजे होंगे। तभी पेड़ों से टपक रही बूंदें शुरू हुई ये क्या लगता है बारिश तेज हो गई। अगर नहीं उठा तो राम नाम सत्य हो जायेगी, उठा और चल पड़ा कंपकंपी कम नहीं बढ़ रही थी ,बल्कि अब लथपथ भीग भी चुका था।तभी सामने आग की रोशनी सी प्रतीत हुई पास जाकर देखा तो पता चला ये श्मशान घाट है और ये जल रही लाशों की लपटें हैं।

पहले ठिठुका और पुराने दृश्य आंखों के सामने कौंध गये ,कैसे ? बचपन में ना अंधेरे में निकल पाता और ना ही घर के किसी कोने में जाता यहां तक बिस्तर या सोफे पर पैर नीचे करके नहीं हमेशा ऊपर करके बैठता। घर में अकेले रहना क्या होता है इससे कोशों दूर रहा , हमेशा यही बात का डर रहता कि भूत ना आ जाए।लेकिन एक महामारी आयी और घर का सबकुछ लेकर चली गयी,सब झटके में खत्म हुआ। जिसकी वजह से वो घर काटने को दौड़ता है। घर की प्रत्येक चीज से डर लगता है खुद नहीं समझ पाता कि अपने आप को पागल कहूं या बीमार या फिर कुछ और——।

ऐसा लगने लगा जैसे हड्डियां बोल रही हों इस कंपकंपी से इसलिए पुराने दृश्य को छोड़ श्मशान की तरफ बढ़ चला और वहीं आग के पास लेट गया,सुबह की आवाजों ने नींद तोडा आंखें खोली तो सामने देखा एक सज्जन कह रहें हैं कि ये रे पागल तू श्मशान में लाश की आग के पास लेट गया डर नहीं लगा। कैसा आदमी है तू? अरे भाई साहब ठंड की कंपकंपी से कम ही डर लगा और सबसे अच्छा तो यह लगा कि चैन की नींद आ गयी इस गरमाहट से—। वो सज्जन बुदबुदाया और वहां से चलता बना , मैं भी अपने कदम बाहर की ओर बढ़ा लिया —-।

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

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फैसला | रत्ना भदौरिया | Hindi Short Story

फैसला | रत्ना भदौरिया | Hindi Short Story

इंतजार की हद होती है ये बात खूब सुनी थी और हर दिन सोचता भी की मेरे इंतजार का ——-?हर दिन वो यही कहती की आज नहीं कल बता दूंगी और उसका कल आता ही नहीं बस हर दिन आज होता। मैं उसके कल वाला वो दिन जब मेरे दिल की बात समझकर मुझसे कुछ कहेगी इसी इंतजार में घर से हर दिन उसके स्कूल जाने के समय पर आकर सड़क पर खड़ा हो जाता। इसी वजह से कभी -कभी मैं स्कूल देर से पहुंचता तब प्रिंसिपल कहते अगर अध्यापक ही समय से स्कूल नहीं आयेंगे तो बच्चों का क्या होगा? सर कल से ध्यान रखूंगा कहकर कक्षा में चला जाता।समय व्यतीत हो रहा था लेकिन उसका कल नहीं आया। इसी बीच नया साल आया मैंने उस दिन लम्बी चौड़ी चिट्ठी लिखी -मै जानता हूं प्रिय की तुम मुझे जवाब क्यों नहीं दे रही हो ।शायद और लड़कों की तरह तुम भी मुझे आवारा आशिक समझती हो पर सच मेरे दिल में सिर्फ़ तुम्हीं हो।

वैसे तो मैं भी कह दूं की चांद से तारे तोड़ लाऊंगा लेकिन मैं वहीं कहूंगा जो कर सकता हूं क्योंकि कहने पर विश्वास नहीं करता,कहने पर विश्वास करता हूं। तो प्रिय दिल से मेरी इस बात को सुनना और दिमाग से सोचकर जवाब जरूर दें देना । पुनः कह रहा हूं आप ही मेरे दिल में हो आप ही हमेशा रहोगी। एक बात और वादा -इस दिल में तेरे शिवाय कोई और नहीं आयेगा। मैं आई —यू लिखकर छोड़ रहा हूं पूरा करने का फैसला तुम्हारे हाथ में—-। ये चिट्ठी लेकर नयी साल की सुबह नये उम्मीद के साथ सड़क पर जैसे ही निकला वो स्कूल जा रही थी मैं भी पीछे-पीछे चल पडा दो सौ मीटर की दूरी पर जाकर मैंने उनकी साइकिल के सामने गाड़ी रोक दी और चिट्ठी पकड़ाते हुए कहा- ये ले लो एक बार पढ़कर ज़वाब दे दो प्लीज़। इस चिट्ठी में भी वही लिखा होगा जो तुम रोज कहते हो। उसने कहा!

फिर तुम जवाब क्यों नहीं देती । देखो आज तो नया साल है और हम ——। मैं अभी पूरी बात कह भी नहीं पाया कि वो बोल पड़ी इससे क्या हुआ अगले साल फिर आयेगा और कोई फिर आकर कह दे देखो नया साल है ——। अब मेरा जवाब सुनों तुम बिना मतलब पीछे मत पड़ो। उसका नकारना मन को कचोट तो रहा था लेकिन दूसरी तरफ़ ख़ुशी भी की उसका कल तो आया। मैंने वहीं से गाड़ी मोड़ी और घर वापस आ गया इस सवाल के साथ की कभी ना कभी वापस आयेगीं। उसी दिन से इसी सवाल को लेकर जीने लगा। समय व्यतीत होता गया मेरी शादी हुई और कुछ साल के बाद उसकी भी शादी हो गई। दोनों गृहस्थ जीवन में व्यस्त हो गए मैं भी जिंदगी की गाड़ी को गुडकाने के लिए स्कूल की नौकरी छोड़कर दिल्ली चला आया क्योंकि प्राइवेट स्कूल में मिलने वाली तनख्वाह से पेट भर भरना दूभर हो गया था। बच्चे भी हो गये थे सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था।

आज जब पन्द्रह साल बाद उसकी फ्रेंड रिक्वेस्ट देखी तो आश्चर्यचकित हो गया लेकिन दूसरी तरफ सवार ने धक्का मारा और मैं आश्चर्यता को दरकिनार कर उसी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। हाल चाल के बाद हमारी बातें शुरू हुई। लेकिन आज मैं नहीं वो ज्यादा बोल रही थी। उसने कहा कि मैं माफी चाहूंगी की उस समय के आज को नहीं समझ पायी हमेशा कल में बदलती रही । क्या अब हम बात कर सकते हैं? उसकी बात करने की बात सुन मैं फिर प्रश्नवाचक हो गया क्या? कैसी बातें कर रही हो आप ? अब तो शायद बहुत देर कर दी काश ! तब समझ जाती तो मैं यहां वीरान सा सिर्फ जिंदगी की गाड़ी को गुडकाने में नहीं बल्कि दोनों साथ मिलकर दौड़ाने में लगे होते। ऐसा क्यों आपकी शादी हो गई आप अपनी बीबी के साथ भी ——-। उसकी इस बात से मैं मुस्कुराया और बोला- तुम्हारी भी तो शादी हो गयी है फिर‌ तुमने इस बात को अब क्यों समझा ?

छोड़ो ना जो बीत गया सो बात गया अब हम बात करते हैं और हां सभी तो कहते हैं जब जागो तभी सवेरा वाली बात से नयी शुरुआत करते हैं।

नयी शुरुआत शब्द सुनकर कुछ छड़ के लिए मैं चुप हो गया और सोचने लगा नयी शुरुआत ——। नहीं नहीं बिल्कुल नहीं मेरे दिल में तो पन्द्रह साल पहले की पुरानी शुरुआत अभी भी है जो कभी शुरू ही नहीं हुई थी तो नयी शुरुआत कैसी ? क्या ?तुम आज भी —-!उसने कहा। और तुम ——-वो कुछ नहीं बोली थोड़ी देर तक सन्नाटा पसरा रहा फिर ——।

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खुशबू | संस्मरण | रत्ना भदौरिया

खुशबू | संस्मरण | रत्ना भदौरिया

खुशबू आज भी आयी थी लेकिन आज की खुशबू में हवा ज्यादा थी इसलिए नाक के अंदर प्रवेश करते- करते गुम हो गयी । लेकिन मेरे दिमाग में पुरानी यादों को ताजा कर गयी थी। मेरे हिसाब से यादें पुरानी नहीं होती बस हम नयी यादों में इतना मशगूल हो जाते हैं कि पहले की यादें पुरानी लगने लगती हैं। हां तो अब उस याद पर आते हैं आज से लगभग दस पहले जब हम ज़िंदगी की आपाधापी से कोसों दूर खेलकूद की आपाधापी और त्योहार आते ही उसके उत्साह में व्यस्त रहते। ना कोई थकान होती ना कोई चिंता। आज तो खाने के हर कौर में यही चिंता रहती है की कहीं शुगर न बढ़ जाए या ब्लड प्रेशर बढ़ गया तो क्या होगा?अरे कुछ लोग कहते हैं कि ज्यादा तेल खाने से हार्ट की समस्या आ जाती है।

सब छोड़ो ये बात खूब याद रखो की वजन बढ़ जायेगा इसलिए लाइट खाना खाओ । मुझे ये बात थोड़ी कम जमती और त्योहार आते ही मेरा दिमाग घर में बन रहे पूड़ी,कचौड़ी, पुलाव ,पनीर , मिठाई और होली पर तेल में भुने पापड़ों की तो क्या बात ?जिसे आज के दौर में वजन ना बढ़ाने के लिए भूनकर खाया जाता है मैं तो तेल पापड़ के दौर में पतली थी भुने पापड़ों के दौर में खूब मोटी हो रही हूं पता नहीं क्यों? ये सवाल भी बराबर हिलोरें मारता रहता है। होली और नागपंचमी के त्योहार में हमारे यहां गुझिया बनाने का बड़ा रिवाज है। जोकि हर तबके के लोगों के यहां बनती है चाहे गरीब हो या अमीर।

अब जब अपनी यादों को ताजा कर ही हूं तो आप सबको एक मजेदार बात बताती हूं जब मैं करीब सात -आठ साल की थी तो होली के त्योहार में बनी गुझिया जिन्हें मांगने पर मम्मी एक दे देती और कहती बाद में खाना सब एक साथ नहीं। एक से भला होता नहीं,दूसरी तुरन्त मांगने पर मिलती नहीं थी। एक दिन मैंने और मेरे भाई बहन तीनों ने ज्यादा खाने की योजना बनाई। मम्मी की गुझिया अलमारी में रखी थी जोकि मेरे से ऊंचाई में बड़ी थी। तीनों मेज को सरका कर लें गये आलमारी तक और खूब गुझिया खायी कुछ पाकेट में भी रख ली।

दुर्भाग्य मम्मी खडी -खडी सब देख रही थी। कार्यक्रम खत्म होते ही सबसे पहले मुझे मार पड़ी इन शब्दों के साथ की चोरी घर से सीखते हैं खाना था तो बताया क्यों नहीं ? मम्मी के पिटाई के बाद धीरे-धीरे दिन बीतते गए और मैं नौकरी के सिलसिले में घर से बाहर आ गयी। अब तो अक्सर त्योहार पर बाहर ही रहती हूं। मम्मी फोन पर ही बता देती हैं क्या- क्या बनाया और मैं सुनकर ही पकवानों का आनंद लें लेती हूं। लेकिन गुझिया की बात सुनते ही बचपन की वो पिटाई जरुर याद आ जाती है।

मम्मी ने कल भी बता दिया था कि नागपंचमी का त्योहार है आज पकवान बता दिये मैं फोन से ही आनंद लें रही हूं। जो घर पर हैं वो सौभाग्यशाली हैं की उनकी खुश्बू बराबर नाक में जा रही होगी और देर तक थमी रहेगी । लेकिन जो मेरे जैसे घर के बाहर हैं उनको पकवानों की खुशबु आयी होगी लेकिन चाहे कुछ छड़ के लिए ही गुम हुई हो लेकिन हुई जरुर होगी। मैं तो इसी में खुश हूं कि ख़ुशबू आयी तो सही आप भी——— शुक्रिया।

रत्ना भदौरिया

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सवाल | लघुकथा | रत्ना सिंह

सवाल | लघुकथा | रत्ना सिंह

सामने दो पेड़ बेहद शोभायमान थे।उस पर चढ़ रही लगभग दस साल की लड़की भी पेड़ों से कम शोभायमान नहीं थी‌। लेकिन मेरे दिमाग में एक सवाल बार बार आ रहा था कि आखिर वो लड़की एक ही पेड़ पर क्यों चढ़ रही है?आखिर दूसरे पेड़ पर भी तो चढ़ सकती है। अभी बुलाकर पूछती हूं और मैंने आवाज़ लगाई ज्ञानवती —-वो ज्ञानवती इधर आओ बेटा। वो दौड़कर पास आयी और बोली -हां दीदी का आये बताव ?

कुछ नहीं पहले तो तुम ये बताओ स्कूल नहीं जाती हो क्या ?अब तो छुट्टी खत्म हो गई, स्कूल खुल गये हैं। मेरी बात सुनकर वो बोली -जाईत हवै दीदी मुला आज काल्हि अम्मा बाप्पा हारै जात हंवै धान लगावै। तव बोकरीन कईहां चरावै वाला कऊ नहिन हवै यही बरे हम स्कूलै नहिन जाईत हवै।

अच्छा लेकिन आजकल तो स्कूल दोपहर तक ही रहता है चली जाया करो ,शाम को आकर बकरियों को चराया करो मैंने कहा।

नहीं दीदी घर केर खानव तव बनावये कईहां रहत हवै अम्मा -बाप्पा सुबेरेन निकरि जात हंवै उनका हार मईहां खाना दईके आईत हवै तव बोकरीन कईहां चरावै आईत हवै। ज्ञानवती की बातें सुनकर मज़बूरी साफ झलक रही थी। मैंने कहा सुबह अम्मा से कह दो खाना तो ले जाया करें।

नहीं दीदी येतना अम्मा से कहै केर बूत नहिंन हवै। अच्छा पढ़ाई के लिए कैसा डर ?मेरी बात पर ज्ञानवती फीकी सी मुस्कुराहट के साथ बोली नहीं दीदी बप्पा तव अबकिन बियाहे के बरे कहत रहें मुला अम्मा मना करि दाहिनी कि अबै ख्यात पात लगावै मईहां बरी मदद करत हवै परी रहै दियव अबै, अऊर बहस करबै तव पांचव तक्का न पढई हैं। अच्छा दीदी जाईत हवै सांझ होई गयीं रोटी बनावै कईहां हवै।

अच्छा चली जाना लेकिन जो पूंछने के लिए बुलाया वो तो पूंछा नहीं। ये बताओ तुम उतनी देर से एक ही पेड़ पर क्यों चढ़ रही थी?दूसरे पर क्यों नहीं चढ़ी ?जबकि दूसरा वाला बड़ा है। ज्ञानवती बोली दीदी वो पेड़ ज्यादा लदा है वहिमा ज्यादा फल लागी हंवै कबो टूटी सकत हवै मुला यहिमा फल बहुत कम है तव हमै चढै से वजन कम परी तव देर मईहां टूटी। मतलब ज्ञानवती मैं समझी नहीं।

दीदी अम्मा वहि दिन प्रधान के हियां गयीं रहै पइसन कईहां तव कहिन नहिन हवै अउर जब वोट मांगै आयें रहै तव कहिन की सब मदद करबै अउर जब ज्यादा ——। यही बरे अम्मा या बात कहिनि। अब तो आप समझि गईव होई हव नहीं तो ——–। कहते हुए ज्ञानवती भाग गयी। मैं कुछ समझी कुछ न समझी सी ज्ञानवती को देखती रह गयी ——-।

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बंद आंखें | रत्ना सिंह | लघुकथा

बंद आंखें | रत्ना सिंह | लघुकथा

सारे समय झगड़ा,सारे समय झगड़ा उसके सिवाय तुम लोगों को कुछ नहीं सूझता। तंग आ गया हूं किसी दिन सब छोड़कर चला जाऊंगा,तब तुम दोनों को शान्ति मिल जायेगी अभिनव ने अपनी पत्नी करिश्मा और मां से कहा।

मां अभिनव से लिपटते हुए कहने लगी बेटा तुझे तो पता है कि तेरे बिना मैं कैसे रह सकती हूं तू आंखों का तारा है,तू एक मात्र सहारा है। कोई झगड़ा नहीं कर रही थी बस बहू को कहा कि घुटने में जोरों का दर्द है, थोड़ा तेल मल दे उतने में ही —–। बात पूरी भी नहीं होने दी कि करिश्मा बोल पड़ी, आखिर आप भी तो लगा सकती हैं अपने घुटनों में तेल घर का काम,बाहर का काम घर में घुसो नहीं कि दुनिया भर की बीमारी शुरू हो जाती हैं।जो अभिनव थोड़ी देर पहले मां और पत्नी दोनों को छोड़कर जाने की बात कह रहा था,वही पत्नी की तरफदारी करते हुए बोला -मां यार ठीक ही तो कह रही है करिश्मा अपने हाथ से तेल लगा लो हाथ पैर चलेंगे तो अच्छा होगा वरना जम जायेंगी हड्डियां। कोई बात नहीं बेटा आज के बाद नहीं कहूंगी लेकिन छोड़कर मत जाना कहते हुए मां की ममता भरे हाथों से बेटे और बहू को दुलराने लगीं। बहू झिड़कते हुए नौटंकी शुरू कर दी हटो उधर अभी घर में मरु चलकर इनसे तो बाहर का खाना भी नहीं खाया जाता । हर दिन वही दाल रोटी की फरमाइश रहती है पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा और धप्प- धप्प करती हुई करिश्मा अंदर चली गई पीछे- पीछे अभिनव भी चला गया। मां भी जाकर कमरे में बैठ गयी ।

एक घंटा बीता दो घंटा बीता लेकिन कमरे का दरवाजा नहीं खुला तो मां ने कमरा खटखटाते हुए कहा बेटा बहू चाय बना रही हूं ले लेना। अंदर से बहू की आवाज अपने लिए बना लो हम लोग डिनर पर बाहर जा रहे हैं।

बेटा वो तो ठीक है लेकिन डिनर करने जायेगी देर रात लौटेगी नींद पूरी नहीं होगी कल आफिस भी है, रविवार को चली जाना । मां की बात सुनकर बहू ने भड़ाक से दरवाजा खोला,’अब आप बतायेंगी कब जाना है बस नहीं। बेटी होती तो कभी नहीं कहती बहू हूं इसलिए। जा रही हूं चलो अभिनव दोनों चलने लगे तो फिर मां ने टोका लेकिन बेटा ढेरों दवाई खानी है क्या खाऊंगी ये तो बतायें जा ? सब्जियां खत्म हो गई है फ्रिज में ब्रेड और मक्खन रखा है चाय बना ही रही हो खा लेना जितना मर्जी हो। चलो दरवाजा बंद करो और दोनों चले गए। मां ने चाय बनाई और ब्रेड गर्म किया साथ में दवाईयां भी गटक ली। दवाई रोज खटकती थी तो चैन की नींद नहीं ले पाती लेकिन आज की दवाई ने चैन की नींद दे दी। बहू बेटे कब घर में दाखिल हुए कितनी ?घंटियां बजाईं? सारी बातों से अनजान मां बस चैन की नींद सो रही थीं। एक बात उन्हें बराबर याद थी और बहू को पास बुलाकर कहा बहू तुम्हारी आंखें —-। अच्छा– अच्छा बहू हो इसलिए बेटी होती तो आंखें जरुर नम होती ऊपर जाकर भगवान से दुआ करूंगी कि तुम हमेशा बहू ही बनो मेरी‌। मां ने आंखें बंद कर ली बहू पथरायीं आंखों से उन्हें अभी भी देख रही है।

रत्ना भदौरिया

पहाड़पुर कासों गंगागंज रायबरेली उत्तर प्रदेश

पूरी गिनती |रत्ना सिंह | लघुकथा

पूरी गिनती | रत्ना सिंह | लघुकथा

वर्षों पहले अलग होने के बावजूद हम दोनों एक ही जगह पर पहुंचे और दोनों का स्वागत सत्कार बड़ी धूमधाम से ज़िले के मंत्री महोदय ने किया।हम वही लोग थे जिनके रास्ते कुछ सालों पहले एक थे लेकिन आज दोनों के रास्ते बेमेल खाते हुए बिल्कुल अलग थे। वषों पहले जब हम एक‌ ही रास्ते पर चलते तो चाहे प्रेम की बात हो ,चाहे वस्तु की या फिर कारोबार करने की। समय गुजरा और वह राजनीति की दुनिया में चला गया और मैं कलम की दुनिया में चला गया।

आज मेरे बैठने के बावजूद उसकी नजर मेरी तरफ नहीं सभा में बैठे स्रोताओं की तरफ थी। मैं उसकी तरफ देख रहा था वो अपनी कुर्सी को कसकर पकड़े एक‌ , दो ,पढ़ने जैसे हल्के हल्के होंठ हिल रहे थे। मैं भी नहीं समझ पाया कि आखिर गिन क्या रहा है समझ तो तब आया जब उसने मेरे पास आके सौ बोला और हंसकर कहने लगा मतलब सौ में से नब्बे तो पक्के। तब तक मंच से आवाज आई राम सिंह आयें और दो शब्द आशीर्वाद स्वरूप कहें राम सिंह। लेकिन वो तो अपनी सौ की गिनती पूरी होने की खुशी में मस्त हैं।

लघुकथा : बेटियाँ बनी घर का चिराग

लघुकथा : बेटियाँ बनी घर का चिराग

नंदनी आज बहुत खुश थी, पाँच बेटियों के बाद बेटा जो हुआ था। घर के बाहर ढोल नगाड़े की कानफोड़ू, परन्तु खुशियों के कारण वही मधुर आवाज़ें, तो अंदर से तरह-तरह के पकवानों की खुशबू आ रही थी। पास-पड़ोस की सभी औरतों और रिश्तेदारों की बधाईयों का तांता लगा हुआ था। मैंने भी सोचा कि मैं भी बधाई दे आऊँ, सो चली गई। नंदनी बेटे को गोद में लिये खूब चूम और दुलरा रही थी।

पाँचों बेटियां घर के काम में इधर-उधर दौड़ रही थी। चार तो काफी बड़ी, लेकिन इतनी भी बड़ी नहीं, कि घर के सारे दैनिक कार्यों के बाद भी प्यार नदारद रहे। मैं ये सब इसलिए कह रही हूँ कि अभी मेरी मौजूदगी नंदनी के घर में ही थी, तभी उसकी छोटी बेटी जो पाँच साल की थी, वो गिलास में सबको आधा जमीन पर लुढ़काते हुए पानी भर-भर के दे रही थी। कुछ देर बाद वो अपनी माँ के पास आयी और बैठ गयी। अपनी माँ के चुम्बन की तरफ जैसे ही बढ़ी कि माँ ने रोकते हुए कहा – ‘ये लाड़ प्यार बाद में कर लेना। जा, जो लोग आ रहे हैं, उनको पानी दे भरकर।’ वो बिना कुछ बोले उठी और चली गई। उम्र में भले ही छोटी लेकिन अपनी माँ को अच्छे से समझती जरूर होगी, तभी तो बिना मुँह खोले वहाँ से जाकर काम में जुटी। बड़ी दीदी का दुपट्टा पकड़कर सिसक पड़ी। बड़ी दीदी ने जरूर लाड़-प्यार किया और फिर काम में लग गयी।

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हर तरफ खुशियों की बहार। नंदिनी का पति राम प्रकाश शर्मा खेती-किसानी और मजदूरी करता था। शिक्षा उनके लिए जरूरी न थी, अन्यथा पाँच बेटियों के बाद छठवीं सन्तान की उम्मीद न करता। मदिरा सेवन प्रतिदिन करता था, बाद में गुस्सा अपनी बीवी पर उतरता था। बीवी भी क्यों पीछे रहे, वो अपना गुस्सा बेटियों पर उतारती थी। संतानें बड़ी होने लगी। किसी तरह से बेटियों ने घर संभालना शुरू किया। बेटियों के नन्हें कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी रख दी गयी। वहीं धीरे-धीरे पाँचों बेटियां घर को रोशन कर रही थी। सबका विवाह भी मध्यमवर्गीय परिवार में कर दिया। सभी बेटियां अपनी अपनी ससुराल में खुश थी। लड़के का भी विवाह कर दिया गया।

कुछ ही वर्षों में बेटा अपनी अर्धांगिनी के साथ अलग दूर शहर में फैक्ट्री में नौकरी करने लगा।
बेटे की चिंता में नंदनी और उनके पति बीमार रहने लगे। घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने की वजह से दवाई तक के पैसे नहीं जुटा पाते। बीमारी और समय दोनों ने रफ्तार पकड़ी। एक रात नंदनी सो नहीं पायी। पति को खांसी का दौरा जो पड़ा कि नंदनी की नींद ही छीन ली। अगली सुबह नंदनी ने बेटे से फोन करके कहा- बेटा तेरा बाप बहुत बीमार है..। दवाई करा दे, नहीं तो मर जायेगा। बेटा- क्या है? बीमार हैं तो क्या करूँ ? तुम लोगों ने तो अपनी जिंदगी जी ली। हमें चैन से रहने दो और अब अस्सी बरस के हो ही गये होंगे। मर ही जायेंगे तो क्या ? कहते हुए बेटे फोन रख दिया। नंदनी ने अब अपनी बेटियों को संकोच करते हुए फोन किया और कहा बिटिया तेरा बाप बहुत बीमार है। आ देख जा, कहते हुए रोने लगी।

नंदनी ने सिर्फ एक बेटी को फोन किया लेकिन शाम तक पांचों बेटियां मौजूद। एक अस्पताल लेकर, तो दूसरी वहाँ दवाई की व्यस्था, तीसरी घर में खाने पीने की व्यवस्था, अंत तक पांचों बेटियां माँ-बाप की सेवा में लगी रहीं। राम प्रकाश के मुंह से अन्तिम समय में बेटियों के लिए दो शब्द निकले- ‘धन्य हो बेटी, तुम धन्य हो।’

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिवा जी नगर, रायबरेली।
मो० 9415951459

कौन हो तुम | Kaun Ho Tum Short Story in Hindi | Ratna Singh

कौन हो तुम | Kaun Ho Tum Short Story in Hindi | Ratna Singh

तुमसे कितनी बार पूछा कि कौन हो तुम? और इतना तंग क्यों करती हो ?बताया तो कि लिफ्ट बोल रही हूं लेकिन समझ पाती नहीं बस घर से निकल पड़ती हो। क्या करूं? बेटे से कहा तो उसने कहा रास्ते में सब समझा दूंगा । रास्ते में समझाने से पहले ही वो पता नहीं कहां चला गया ? तुम तो लिफ्ट हो चलती भी तेज हो पता लगा दो न बहुत एहसान रहेगा तुम्हारा।

यही तो कर नहीं सकती क्योंकि एक सीमा में बांध दिया गया है, और देखो न सब कैसे ऊपर चढ़ चढ़कर चले जाते हैं ? जीवन की इस आपाधापी में किसी के पास समय नहीं कि दो मिनट ठहर जाये। जबकि सबका समय बचाकर फटाफट ऊपर नीचे पहुंचा देती हूं । लिफ्ट की बात सुनकर थोड़ी देर तक चुप‌ रहने के बाद जवाब दिया कि तुमको बनाने वाले को हमने बनाया जब उसके पास समय नहीं है कि हमारे लिए ठहर जाये तो भला —–?और देखो न कितनी खुश किस्मत हो कि मिलने के लिए सभी आते हैं ठहरते नहीं तो क्या ? यहां देखो बेटा लाकर छोड़ दिया ऊपर से लिफ्ट बहन तुम भी धौंस जमा रही हो।

यही तो समस्या है तुमको इतनी देर से समझा रही हूं और तुम समझती‌ नहीं हो कहते हुए लिफ्ट हंसने लगी कितनी ——? और बोली ज़रा पीछे देखो जब तक पीछे देखती तब तक लोगों की आवाजें जोर -जोर से आने लगी अरे !इसकी समझ में नहीं आता यहां कितनी देर हो रही है।किसी के आफिस के लिए तो किसी की ट्रेन छूट रही ‌। पता नहीं कहां -कहां से आ जाते हैं ? गंवार पता होता नहीं मुंह उठाया और चल पड़ी। एक ने धक्का देते हुए कहा -“ये बुढ़िया किनारे खड़ी हो जा जाने दे”। लिफ्ट दुबारा हंसी और लोगों का समय बचाने में जुट गई। वहां खड़ी- खड़ी कभी लोगों को तो कभी लिफ्ट को देख रही हूं —–।

घूमता दिमाग | Laghukatha | Hindi Short Story

घूमता दिमाग | Laghukatha | Hindi Short Story

दिमाग भी कहां- कहां घुमाता रहता है? कुछ पता ही नहीं चलता , देखो न अब मुम्बई पहुचा दिया। शरीर दिल्ली में दिमाग मुम्बई कितना अजीब कितनी देर से इसे मुम्बई से दिल्ली लाने की कोशिश कर रही हूं लेकिन नहीं वहीं जमा बैठा है।जानती हूं मुम्बई बड़ा शहर , बड़ा पैसा। लेकिन दिल्ली भी क्या कम है? कभी -कभी बड़े पैसे के चक्कर में ही हमें मात खानी पड़ती है फिर भी —। हमारे साथ पढने वाली रेशमा जो सिर्फ पढ़ाई में ही नहीं खेल कूद में हमेशा अव्वल रहती ।

हम दोनों ने कालेज एक साथ खत्म किया और एम बी ए किया । रेशमा नौकरी के सिलसिले में मुंबई चली गई और मैं दिल्ली। मैंने कहा भी उससे कि वो भी दिल्ली आ जाये लेकिन उसने नहीं सुनी उसका आशिक रवि जो मुम्बई में था । अभी पन्द्रह दिन ही हुए थे मुम्बई गये कि कल रेशमा ने बताया कि यार मुम्बई आकर बहुत बड़ी गलती कर दी। तेरे साथ दिल्ली में ही रहती तो कितना अच्छा रहता। क्यों रेशमा क्या हुआ?पता चला कि रवि ने अभी एक महीने पहले ही शादी की है उसकी पहली बीबी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है। इसने उसको बताया कि ये दो महीने के लिए आफिस के काम से बाहर जा रहा है और यहां हमारे पास आ गया।

तुझे ये बात पता कैसे चली ? मैंने पूछा! कल सुबह जब वो बाथरूम में था तब उसने कहा कि उसका फोन चार्ज पर लगा दूं उसकी बीबी का मैसेज था,” यार जानू तुम जबसे गये फोन मैसेज कुछ नहीं किया रात को तो काम नहीं होता होगा”। बता यार क्या कसूर है? जो इसने ऐसा किया । सिर्फ प्यार ही तो किया । प्यार करना इतना गलत है जिसकी इतनी बड़ी सजा। बता क्या करूं? तू भी वैसा ही कर जैसा उसने किया और देखना कभी धोखा नहीं खायेगी ।

देखना रवि धोखा जरुर खायेगा। मैंने कहा! रेशमा की सहमी आवाज कुछ समझी नहीं। बस उसने प्यार किया तो भी कर ले । रेशमा लेकिन किससे? किताबों से। मैं तो नौकरी के बाद किताबों में व्यस्त रहती हूं। ठीक है कोशिश रहती हूं। रेशमा ने धीरे -धीरे किताबें पढ़ना शुरू कर दिया और अब उसका ध्यान उतना रवि पर नहीं जाता। हां लेकिन उस दिन जरूर गया जिस दिन नशे में धुत्त रवि ने लड़खड़ाते हुए दरवाजे की घंटी बजाई । दरवाजा खोलते ही रवि लड़खड़ाते हुए अंदर आया और रेशमा से कहने लगा वो छोड़कर चली गई जैसा किया वैसा भरना पड़ेगा लेकिन तुम आजकल कैसे —-?रेशमा ने बस हमने भी किसी से दोस्ती कर ली है जैसे —। आपकी तो छोड़कर चली गई लेकिन ये कभी नहीं –। रेशमा ने जब ये बात बताई थी तो मेरे मुंह से इतना ही निकला वाह ! अपने आप में ही शाबाशी देने लगी मैं ‌ । तबसे ये दिमाग भी वहीं घूम रहा है।