‘हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा- अम्मा जी!’ संस्मरण 

संस्मरण 

‘हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा- अम्मा जी!’

नई-नई बहू मैं निर्जला व्रत पहली बार रखे थी! पूजा करने के लिए तैयार हुई तो अम्मा बार-बार मुझे देख कर बताती रहीं..” नथ पहनना ज़रूरी होता है। देखो बेंदी तिरछी है, ठीक कर लो। कान वाले झाले काहे नहीं पहिने?” उजबक ढंग से तैयार हुई मैं लॅंहगे की चुन्नी नहीं सॅंभाल पा रही थी। अम्मा ने मुस्करा कर कहा था- “धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी” सुनकर मुझे चैन मिला। पहला हर काम बड़ा कठिन लगता था। 

अम्मा “देखो बबलू दुलहिन! लहंगा लंबा है सॅंभल कर चलो।  भूख लगे तो पहले साल ही कुछ खा लो” आदि बातें बता कर सारी तैयारी करने लगतीं। 

घर पकवानों की सोंधी महक से भर जाता।ढेर सारा पुजापा बनता, साथ में तरह-तरह के व्यंजन भी बनते। अम्मा सुबह से भजन गुनगुनाते हुए काम में लग जाती थीं। अम्मा कमाल की कलाकार भी थीं। दीवार पर माता जी का चित्र बनातीं तो जैसे माॅं साक्षात मुस्करा पड़ती थीं। सूरज-चंन्द्रमा बनाने के साथ अम्मा का चेहरा भी चमक उठता था। 

दशहरे वाले दिन से घर की दीवार का एक कोना अम्मा की उंगलियों से सजने लगता। पापा कहते..”देखो टेढ़ी न हो जाए लाइन!”  वे दोनों दीवार पर अपने भावों के साथ परिवार की सुखद कामना रचाते रहते। पापा मुग्ध होकर अम्मा की कलाकारी देखते थे। उनके चेहरे के प्रशंसित भाव देखकर हम लोग भी बहुत खुश होते थे। मेरी आर्ट तो इतनी खराब थी कि.. क्या कहें। अम्मा के पास बैठ जाएं तो वे कहें, “माता जी की चुनरी तुम भी रंग दो।”  मैं झिझक जाऊॅं तो वे कहें-“भगवान भावना देखते हैं बहू!” 

इतने वर्षों बाद भी पहले साल की वे अनमोल स्मृतियाॅं मन में जस की तस  सिमटी हैं। समय बीतता रहा..पापा के जाने से जो धक्का लगा वो अम्मा की बीमारी से और बढ़ गया। कल अम्मा बोल भी नहीं सकीं। जीवन का यह बदलाव अंतर्मन को अनदेखी पीड़ा से भरता जा रहा है। बार-बार मन करता है भगवान से कहें -” अम्मा को स्वस्थ कर दीजिए भगवन्!” 

रश्मि ‘लहर’

”समय की लीला” | लघुकथा | रश्मि लहर

”समय की लीला”

छोटे साहब ने बड़े साहब को खुश करने के लिए जेल में रामलीला करवाने का मन बना लिया था। चार दिन की तैयारी के बाद आज फाइनल कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। मंत्री जी ने दोनों साहब लोगों को इनाम स्वरूप ‘आशीर्वाद’ दिया। बड़े साहब मंत्री जी के साथ चले गए। सब लोग सफ़ल आयोजन की ख़ुमारी में थे कि छोटे साहब की चीख सुनकर सब चौंक पड़े। 

छोटे साहब की प्रेयसी ‘सीता’ बनी कैदी को तो ढूॅंढ लिया गया था.. फिर? सब चिंतित कि.. “क्या हुआ?” 

जेल में अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया था।  सब स्तब्ध! जितने मुॅंह उतनी बातें! छोटे साहब कमरे में बंद हो चुके थे। अचानक सिक्योरिटी गार्ड ने जो बताया उसको सुनकर सबके मुंह से चीख निकल पड़ी! उसने कहा –

“पता चला है कि सीता जी को ढूॅंढकर लाने वाले दो बंदर बने कैदी-नंबर 402 तथा 404 रामलीला समाप्त होने से पहले ही फरार हो गए!”

रश्मि ‘लहर’

जिन्दगी को हमने जूम किया – अभय प्रताप सिंह | पुस्तक समीक्षा

पहली बार कोई पुस्तक पढ़ते हुए ऐसा लगा कि जैसे कविताओं की गहराइयां तभी समझ आएंगी जब साहित्य में रुचि ही नहीं बल्कि उच्च स्तर का ज्ञान भी होना ज़रूरी है।

पल्लवी मंडल और अंजली ठाकुर द्वारा लिखित पुस्तक ” जिन्दगी को हमने जूम किया ” पढ़ने के बाद ये अहसास हुआ की कोई इतनी कम उम्र में इतनी अच्छी कविताएं … ?

ये पुस्तक सिर्फ़ लिखी ही नहीं गई है। बल्कि इन कविताओं में सामाजिक, राजनीतिक , सांस्कृतिक, स्त्री विमर्श, नया समाज निर्माण, प्रेम, संघर्ष, सबक, सीख उम्मीद, खालीपन, अकेलापन आदि काफ़ी मात्रा में देखने को मिलती हैं।

” तुम जो कागज के टुकड़ों में बसा
कभी चुपके से हाथों में सिमटा
कभी सपना बन, आंखों में छलका
तुम्हारा मोल क्या, कभी सम्पूर्ण तो कभी अधूरा। “

” जब कुछ नहीं होता
तो सिर्फ़ उम्मीद ही होती है
उस सुबह की
जो शायद मेरी भी हो। “
इसी पुस्तक से ….

मैं सालों पहले करीब 150 से अधिक कविताएं लिखा था पर बाद में लगा कि मैं कविताएं लिखने के लायक नहीं हूं जो कि मित्र आशुतोष शुक्ल के शब्दों का मुहर लगने के बाद ये साबित हो गया था कि मेरे द्वारा कविताएं लिखना देश के ऊपर अहसान करना हो जाएगा इसलिए मैं उन सभी कविताओं को चुन – चुन कर डिलीट किया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरी कविताओं का एक भी अभिलेख इतिहास का पाठ्यक्रम बढ़ाए।

कहते हैं कि –

” किसी उदास चेहरे पर खुशियां लाने का मूल्य,
किसी खुश चेहरे की तारीफों से कई गुना अधिक होता है।”

भगवंत अनमोल द्वारा लिखित पुस्तक ” ज़िंदगी 50 – 50 ” की ये पंक्तियां पल्लवी जी और अंजली ठाकुर द्वारा लिखित पुस्तक ” जिन्दगी को हमने जूम किया ” पर एकदम सटीक बैठती है।

आप दोनों की इस उपलब्धि के लिए बहुत सारी बधाइयां और मुझे इस पुस्तक को सम्प्रेम भेंट के लिए बहुत – बहुत आभार।

आख़िर में आप दोनों की तारीफ़ में कुछ कहने के लिए हेक्टर गर्सिया और फ्रांसिस मिरेलस द्वारा लिखित व प्रसाद ढापरे द्वारा अनुवादित पुस्तक ” इकिगाई ‘ में जापानी कहावत सबकुछ बयां कर देती है जो कि –

” सौ वर्ष जीने की चाहत आप में तभी होगी
जब आपका हर पल सक्रियता से भरा हो।”

– अभय प्रताप सिंह
(संस्थापक – लेखनशाला)

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में | अशोक कुमार गौतम

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में

शुभ विवाह के मुहूर्त की लग्न बेला आते ही बैंड बाजे की धुन, रंग बिरंगी सजावट, नानादि व्यंजनों से सजा पांडाल, डी.जे. पर थिरकते जनाती–बाराती आदि की चहक महक चहुंओर दिखाई सुनाई पड़ती है। सकुशल हंसी–खुंसी से विवाह संपन्न होने के लिए वर के माता–पिता और वधू के माता–पिता अपना–अपना पेट काटकर, एक-एक पाई जोड़कर अच्छी सी अच्छी व्यवस्था करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। सभी रीति–रिवाजों से सोशल मीडिया भरा रहता है, किंतु शिष्टाचार कहीं नहीं दिखता। संस्कार विहीन रस्में और छिछलापन लिए नवीन प्रथाएं देखकर कहीं न कहीं मन कचोटता है।


जयमाला कार्यक्रम आज की परंपरा नहीं है। त्रेतायुग में श्रीराम और सीता जी का शुभ विवाह भी जयमाला रस्म के साथ सन्पन्न हुआ था। यह वैवाहिक संबंध की महत्वपूर्ण रस्म है। जिसके द्वारा नवयुगल के सुखमयी दाम्पत्य जीवन के परिणय सुत्र में बंध जाते हैंl, इसे बदलता परिवेश कहें या पाश्चात्य सभ्यता का कुप्रभाव? वर्तमान समय में जयमाल के समय कहीं दुल्हन नृत्य करते हुए स्टेज पर आाती है, कहीं बुलट बाइक से स्टेज पर आती है, कहीं रिवॉल्वर/रायफल से फायर करती हुई स्टेज पर आती है, कहीं उसकी सखियाँ गोदी में उठा लेती है, जिससे दूल्हा माला आसानी से न पहना सके।


दूल्हे राजा भी पीछे क्यों रहें। कहीं दूल्हा शराब पीकर आता है, तो कहीं लड़खड़ाते हुए आता है, कहीं डान्स करते हुए आता है, कहीं दुल्हन की सहेलियों से शरारतें अटखेलियां करता है। कहीं दूल्हे को उसके मित्र इतना ऊपर उठा लेते हैं कि दुल्हन का जयमाला पहनाना असम्भव हो जाता है। आखिर इन सबके पीछे क्या धारणा है? क्या वैवाहिक जीवन सात जन्मों का बंधन है या विवाह विच्छेदन? बुजुर्गों के पहले युवा पीढ़ी को इस तथ्य पर चिंतन करना होगा।


हल्दी रस्म, मेंहदी रस्म आदि कभी शालीनता के साथ हृदय से निभाई जाती थीं, किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में पाश्चात्य संस्कृति से कुपोषित विभिन्न रस्मों को मानो होली पर्व में बदल दिया गया है। सारी खुशियां, आपसी समन्वय की भावना, आत्मिक सुख-शांति को कैमरों और दिखावटीपन ने छीन लिया है।

भौतिकवादी युग में हल्दी रस्म के दिन रिश्तेदारों व मोहल्ले वासियों को भावात्मक सांकेतिक भाषा में बता दिया जाता है कि पीले वस्त्र और मेंहदी रस्म के दिन हरे रंग के वस्त्र ही पहन कर आना है। जिन निर्धन दंपत्ति के पास पीले हरे रंग के वस्त्रादि नहीं होते हैं, उन्हें समाज में हीन भावना से देखा जाता है। बाहरी मेहमानों यहां तक पड़ोसियों को भी न चाहकर फिजूलखर्ची करना पड़ रहा है।


इतना ही नहीं, बारात आने पर कहीं-कहीं तो मंच पर ही वर-वधू एक दूसरे पर दो–चार हांथ आजमा लेते हैं, तो कहीं मंच पर दहेज की माँग ऐसे होती है, मानो पशु बाजार में सुर्ख जोड़े में सजी दुल्हन की खरीद-फरोख्त की बोली लगाई जा रही हो। सर्वधर्म और सर्वसमाज को पुनः चिंतन–मनन करना चाहिए कि हम अपने समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं।
धनाढ्य, पूंजीवादी ऊपरगामी विचारधारा की संस्कृति आज मध्यम और निम्नवर्गीय चौखटों पर प्रवेश कर रही है। जो भारत में आने वाली पीढ़ियों के लिए कुंठा और असहजता के द्वार खोलेगी। इसलिए ‘जितनी चादर, उतने पैर पसारना चाहिए’ की कहावत चरितार्थ करते हुए दिखावेपन और पश्चिमी देशों की संस्कृति से चार हाँथ दूरी बनाकर चलने में भलाई है।


विवाह पूर्व की मांगलिक रस्मों और विवाह के दिन तक हर माता-पिता या अभिभावक सोंचता है कि भोजनालय प्रबंधन आदि में कहीं कोई कमी न रह जाये। इसलिए 30 से 35 प्रकार का नाश्ता, भोजन और मिष्ठान आदि सजाकर मेहमानों और मेजवानों की सेवा में रखा जाता है। बफर सिस्टम में कोई भी व्यक्ति नाना प्रकार के सभी व्यजनों को ग्रहण नहीं करता होगा और सही मायने में सायद ही किसी का पेट भरता होगा। फिर भी समाज में पद और प्रतिष्ठा की होड़ में अनावश्यक रूप से अधिकाधिक व्यय करके भी आत्म संतुष्टि नहीं मिलती है।


अफसोस तो तब होता है जब अधिकांश भोजन नालियों, तालाबों में फेंका जाता है।
अन्न का अनादर करने वाले इंसान किसी भी प्रकार से सभ्य सुसंस्कृति युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। बफर सिस्टम में किसी के कपड़े लाल-पीले हो जाते हैं तो, कोई गुस्सा में लाल-पीला हो जाता है।
चिकित्सा जगत कहा गया है कि शरीर को सुदृढ़ और निरोगी बनाए रखने के लिए भोजन और पानी बैठकर ही ग्रहण करना चाहिए। अफसोस बफर सिस्टम के आगे चिकित्सा पद्धति दम तोड़ देती है।
सीखना सिखाना जीवन का महत्वपूर्ण पहलू है। संस्कारित ज्ञानवर्धक शिक्षा देने का कार्य हर पीढ़ी में रहा है, सही मार्गदर्शन से दांपत्य जीवन में चार चांद लग जाते थे। कुछ दशक पहले तक कन्या के घर में आई हुई सभी सखियाँ, सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक स्त्रियाँ आदि दुल्हन को सिखाती थी कि-

सास ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसनेहू।।
अति सनेह बस सखीं सवानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
(बालकाण्ड, श्री रामचरित मानस)

किंतु आज आर्थिक और स्वालम्बी संस्कारहीन युग में वर–वधू के नैतिक संस्कार सुरसा रूपी धारावाहिकों, फिल्मों , रील्स आदि ने निगल लिया है। शायद इसीलिए विवाह के चंद दिनों बाद ही विवाह-विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न होने लगती है?
नव विवाहित जोड़े का उज्ज्वल भविष्य की कामना स्वरूप आशीर्वाद देने व खुशहाली का वातावरण स्थापित करने के लिए लोकगीत गाए जाने की परंपरा थी। इन लोकगीतों को कानफूडू हॉर्न और डीजे ने जब्त कर लिया है। इसलिए लोकगीत, लोकनृत्य, लोकभाषा, लोकगायकों आदि का अस्तित्व भी समाप्ति की ओर है। आज ये परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं। इनको संरक्षित संवर्धित करने की आवश्यकता है।
बैसवारा की शान सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने भी अपने शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ में पुत्री सरोज का विवाह का वर्णन करते हुए दहेजप्रथा और फिजूलखर्ची बंद करने के लिए प्रेरित किया है-

कर सकता हूँ यह पर नहीं चाह।
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय।
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली, उ.प्र.
मो० 9415951459

सार्थक वेलफेयर सोसायटी ने कवि राम लखन वर्मा को किया सम्मानित

“भारत गौरव रत्न 2K24” का मिला सम्मान

रायबरेली-उ. प्र. AN ISO-9001:2015 प्रमाण पत्र प्राप्त एवं वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर संस्था सार्थक वेलफेयर सोसायटी लखनऊ द्वारा 29 सितम्बर 2024 को इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आईटीआई) रायबरेली में स. इंजीनियर पद पर कार्यरत श्री राम लखन वर्मा को “भारत गौरव रत्न 2024 सम्मान” से राजधानी लखनऊ के अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संस्थान में उ.प्र. सरकार में मंत्री माननीय श्री विश्वनाथ जी, एमएलसी पवन कुमार, महान कमेडियन श्री अन्नू अवस्थी एवं सार्थक वेलफेयर सोसाइटी के संस्थापक/अध्यक्ष श्री अश्विनी जायसवाल द्वारा सम्मानित किया गया। यह विशिष्ट सम्मान उनके उत्कृष्ट लेखन और सामाजिक कार्य के लिए प्रदान किया गया।
आपको बताते चले रायबरेली जनपद के हरीपुर-निहस्था इनकी जन्मभूमि रही है यह कवि, साहित्यकार के अलावा कई समिति के मीडिया प्रभारी भी रहे। इससे पहले आईटीआई लिमिटेड मनकापुर गोंडा में सेवा करते हुए इन्होंने “मुख्य योग शिक्षक” रहते हुए पूरे गोंडा जनपद में योग का प्रशिक्षण देकर लोगों को स्वस्थ एवं निरोगी बनाया। इसके अलावा बहुत सारे सामाजिक कार्यो में अपनी भूमिका निभाई है और इनका सफर अभी भी जारी है। इससे पहले भी बहुत सारे सम्मान प्राप्त कर चुके हैं।

उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है| हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’

उर-ऑगन की तुलसी ,तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।

अधरों पर मृदु हास तुम्हारा मुखरित है,
लोल कपोल खिले सुमनों सा मुकुलित है।
कजरारी पलकों के चौखट में कैद आज,
बन स्नेह सुधा की निर्झरिणी प्रवहित है।
अनुपल भाव सुमंगल उर भरने वाली,
पुण्य-प्रदा तू जीवन की पहचान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है,
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।1।

झील सरीखी गहरी तेरी सुधियों में,
मस्त भ्रमर-मन लिपट न जाए कलियों में।
पूछेंगे सब लोग तुम्हारा नाता मुझसे,
और मनायेंगे खुशियॉ फिर गलियों में।
स्नेह-गंग की चपल तरंगों सी बल खाकर,
मिल जाऊॅगा सागर में अब ठान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।2।

छली चॉद सा रूप बदलना मुझे तनिक ना भाया,
मुखर चॉदनी ने चुपके से तन-मन आग लगाया।
नव प्रभात की किरण सुनहरी सन्ध्या दीपक-बाती,
धड़कन की हर सॉस तुम्हारी,कैसा रूप सजाया।
सपनों की अमराई में जब-जब कोयल कूके,
मधुरिम स्वर की मलिका तुम हो जान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।3।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010

Weekend Top

1

martyred shailendra pratap singh par kavita

जम्मू कश्मीर के सोपोर जिले मेँ आतंकी हमले मेँ शहीद सीआरपीएफ रायबरेली के जवान शैलेन्द्र प्रताप सिंह के लिए हिंदी विद्धान दयाशंकर जी की कविता martyred shailendra pratap singh par kavita

*शहीद सैनिक शैलेन्द्र सिंह को समर्पित*

बालक शैलेन्द्र का बाल्यकाल,

ग्रामांचल मध्य व्यतीत हुआ।

प्रारंभिक शिक्षा हेतु माता ने,

ननिहाल नगर को भेज दिया ।

अपने सीमित श्रम साधन से,

प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण किया।

चल पड़े कदम देश की सेवा को,
दायित्व भार जो मिला तुम्हे,

उसको पूरा करना होगा ।

है शत्रु खड़ा जो सीमा पर,
उसका रण-मद हरना होगा।

रण की वेदी पर कभी कभी,
कुछ पुष्प चढ़ाने पड़ते हैं।

कुछ महा वीर होते शहीद,
जो मातृभूमि हित लड़ते हैं।

वह मौन हो गया परमवीर,
अपने पीछें संदेश छोड़ गया ।

भावी    युवकों की  आंखों   को,
भारत की सीमा की ओर मोड़ गया।

स्वर गूंजा मत रोना मुझको तिरंगे में लिपटे होने पर,
मत     तर्पण     करना    आंखों   के   पानी   का।

करना है तो तर्पण करना,
सीमा पर प्रखर जवानी का ।

श्रद्धांजलि मुझको देते हो,
तो साथ शपथ लेनी होगी।

भारत की सीमा पर वीरों प्राणों की आहुति अपनी देनी होगी।
जो दीप जलाया है मैंने,
वह बुझे नहीं बरखा व तूफानों से।

उसकी लौ क्रीड़ा करती रहे सतत,

आजादी के परवानों से।
*दया शंकर*
राष्ट्रपति पुरस्कृत,साहित्यकार
पूर्व अध्यक्ष हिंदी परिषद रायबरेली

2

nahin thaharata hai vakt

नहीं ठहरता है वक्त

ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
यह वक़्त कभी ठहरा ही नहीं !
रफ्त़ा- रफ़्ता निकल जायेगा
उजाले कब तलक क़ैद रहेंगे
देखना ! कल सुबह
अपनी रिहाई के
गीत ज़रूर गायेंगे
माना कि
आज सारे जुगनूं
तम से संधि कर
उजालों को चिढ़ा रहे हैं
जब अंधकार की छाती चीरकर
कल
रश्मियां विकीर्ण हो जायेंगी
तो इन्हीं में से कुछ जुगनूं
आफ़ताब से भी हाथ मिलायेंगे
ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
ये वक्त कभी ठहरा ही नहीं!
आज आंजनेय के बध के लिए
बिसात बिछाई जा रही है
एक और सुरसा की ज़िंदगी
दांव पर लगाई जा रही है
लेकिन झूठ के वक्ष को चीरकर
जब
सत्य का सूर्य कल उदित होगा
तो देखना! यही अंधेरे
दिन में ही दिनकर
से हाथ मिलायेंगे
ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
ये वक्त कभी ठहरा ही नहीं

संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर

 

3

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar
डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ की इलाहाबाद से वर्ष 2003 में प्रकाशित पुस्तक ‘अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संकलन में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गीत कारों ,साहित्यकारों ने उनके साहित्य पर अपनी सम्मति प्रकट करते हुए कुछ इस प्रकार लिखे हैं

भूमिका

कविता अंतस की वह प्रतिध्वनि है जो शब्द बनकर हृदय से निकलती है। कविता वह उच्छ् वास है जो शब्दों को स्वयं यति- गति देता हुआ उनमें हृदय के भावों को भरना चाहता है क्योंकि कविता उच्छ् वास है और उच्छ् वास स्वर का ही पूर्णरूप है, अतः यदि स्वर की कुछ अभिलाषाएँ हैं तो वे एक प्रकार से हृदय की अभिलाषाएँ ही हैं जो काव्य का रूप लेकर विस्तृत हुई हैं ।’अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संग्रह एक ऐसा ही संग्रह है इसमें कवि डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ ने अपनी अभिलाषाओं के पहले स्वर दिए फिर शब्द।

 

कवि डॉ. रसिक किशोर ‘नीरज‘ ने इस संग्रह में कविता के विभिन्न रूप प्रस्तुत किए हैं। उदाहरणतया उन्होंने अतुकांत में भी कुछ कवितायें लिखी हैं एक प्रश्न तथा अस्मिता कविता इसी शैली की कविताएं हैं तथा पवन बिना क्षण एक नहीं….. वह तस्वीर जरूरी है…… किसी अजाने स्वप्नलोक में…… अनहद के रव भर जाता है…. पत्र तुम्हारा मुझे मिला….. खिलता हो अंतर्मन जिससे….
विश्व की सुंदर सुकृति पर….. मित्रता का मधुर गान……. चढ़ाने की कोशिश……. चूमते श्रृंगार को नयन…… बनाम घंटियां बजती रही बहुत…… जो भी कांटो में हंसते ……..जिंदगी थी पास दूर समझते ही रह गये…….. गीत लिखता और गाता ही रहा हूं……. श्रेष्ठ गीत हैं इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर की प्रति ध्वनियों को शब्द दिए हैं
डॉ. कुंंअर बैचेन गाज़ियाबाद
2. कविता के प्रति नीरज का अनुराग बचपन से ही रहा है बड़े होने पर इसी काव्य प्रेम ने उन्हें सक्रिय सृजनात्मक कर्म में प्रवृत्त कियाl यौवनोमष के साथ प्रणयानुभूति उनके जीवन में शिद्त से उभरी और कविता धारा से समस्वरित भी हुई ।वह अनेक मरुस्थलों से होकर गुजरी किन्तु तिरोहित नहीं हुई। संघर्षों से जूझते हुए भावुक मन के लिए कविता ही जीवन का प्रमुख सम्बल सिद्ध हुई
डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया

इस प्रकार रायबरेली के ही सुप्रसिद्ध गीतकार पंडित बालकृष्ण मिश्र ने तथा डॉ. गिरजा शंकर त्रिवेदी संपादक नवगीत हिंदी मुंबई ने और डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी बरेली आदि ने अपनी शुभकामनाएं देते हुए डॉ. नीरज के गीतों की प्रशंसा की है

(1). पारब्रह्म परमेश्वर

पारब्रह्म परमेश्वर तेरी
जग में सारी माया है।
सभी प्राणियों का तू
नवसृजन सृष्टि करता
तेरी ही तूलिका से
नव रूप रंग भरता।
कुछ रखते सत् विचार
कुछ होते अत्याचारी
तरह तरह के लोग यहाँँ
आते, रहते बारी-बारी ।
जग के रंगमंच में थोड़ा
अभिनय सबका आया है।
कहीं किसी का भेद
खेद हो जाता मन में
नहीं किसी की प्रगति
कभी देखी जन-जन में ।
सदा सदा से द्वेष
पनपता क्यों जीवन में
माया के चक्कर में
मतवाले यौवन में।
‘नीरज’ रहती नहीं एक सी
कहीं धूप व छाया है।।

(2).राम हमारे ब्रह्म रूप हैंं

राम हमारे ब्रह्म रूप हैं ,राम हमारे दर्शन हैं ।
जीवन के हर क्षण में उनके, दर्शन ही आकर्षण हैं ।।
हुलसी सुत तुलसी ने उनका
दर्शन अद्भुत जब पाया ।
हुआ निनाँदित स्वर तुलसी का
‘रामचरितमानस’ गाया।।
वैदिक संस्कृति अनुरंजित हो
पुनः लोक में मुखर हुई ।
अवधपुरी की भाषा अवधी
भी शुचि स्वर में निखर गई।।
कोटि-कोटि मानव जीवन में, मानस मधु का वर्षण है ।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं राम, हमारे दर्शन हैं।।
ब्रह्म- रूप का रूपक सुंदर ,
राम निरंजन अखिलेश्वर ।
अन्यायी के वही विनाशक,
दीन दलित के परमेश्वर ।।
सभी गुणों के आगर सागर ,
नवधा भक्ति दिवाकर हैं।
मन मंदिर में भाव मनोहर
निशि में वही निशाकर है।
नीरज के मानस में प्रतिपल, राम विराट विलक्षण हैंं।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं , राम हमारे दर्शन हैं।

(3).शब्द स्वरों की अभिलाषायें

रात और दिन कैसे कटते
अब तो कुछ भी कहा ना जाये
उमड़ घुमड़ रह जाती पीड़ा
बरस न पाती सहा न जाये।
रह-रहकर सुधियाँ हैं आतीं
अन्तस मन विह्वल कर जातीं
संज्ञाहीन बनातीं पल भर
और शून्य से टकरा जातीं।
शब्द स्वरों की अभिलाषायें
अधरों तक ना कभी आ पायें
भावों की आवेशित ध्वनियाँ
‘ नीरज’ मन में ही रह जायें।

(4). समर्पण से हमारी चेतना

नई संवेदना ही तो
ह्रदय में भाव भरती है
नई संवेग की गति विधि
नई धारा में बहती है ।
कदाचित मैं कहूँँ तो क्या कि
वाणी मौन रहती है
बिखरते शब्द क्रम को अर्थ
धागों में पिरोती है ।
नई हर रश्मि अंतस की
नई आभा संजोती है
बदल हर रंग में जलती
सतत नव ज्योति देती है।
अगर दीपक नहीं जलते
बुझी सी शाम लगती है
मगर हर रात की घड़ियाँ
तुम्हारे नाम होती हैं।
नया आलोक ले ‘नीरज’
सरोवर मध्य खिलता है
समर्पण से हमारी चेतना
को ज्ञान मिलता है ।

(5).नाम दाम के वे नेता हैं

कहलाते थे जन हितार्थ वह
नैतिकता की सुंदर मूर्ति
जन-जन की मन की अभिलाषा
नेता करते थे प्रतिपूर्ति।
बदले हैं आचरण सभी अब
लक्षित पग मानव के रोकें
राजनीति का पाठ पढ़ाकर
स्वार्थ नीति में सब कुछ झोंके।
दुहरा जीवन जीने वाले
पाखंडी लोगों से बचना
शासन सत्ता पर जो बैठे
देश की रक्षा उनसे करना।
पहले अपनी संस्कृति बेची
अब खुशहाली बेंच रहे हैं
देश से उनको मोह नहीं है
अपनी रोटी सेक रहे हैं।
देशभक्ति से दूर हैं वे ही
सच्चे देश भक्त कहलाते
कैसे आजादी आयी है
इस पर रंचक ध्यान न लाते।
कथनी करनी में अंतर है
सदा स्वार्थ में रहते लीन
नाम धाम के वे नेता हैं
स्वार्थ सिद्धि में सदा प्रवीन।

(6). आरक्षण

जिसको देखो सब ऐसे हैं
पैसे के ही सब पीछे हैं
नहीं चाहिए शांति ज्ञान अब
रसासिक्त होकर रूखे हैं।
शिक्षा दीक्षा लक्ष्य नहीं है
पैसे की है आपा धापी
भटक रहे बेरोजगार सब
कुंठा मन में इतनी व्यापी ।
आरक्षण बाधा बनती अब
प्रतिभाएं पीछे हो जातीं
भाग्य कोसते ‘नीरज’ जीते
जीवन को चिंतायें खातीं ।
व्यथा- कथा का अंत नहीं है
समाधान के अर्थ खो गये
आरक्षण के संरक्षण से
मेधावी यों व्यर्थ हो गये।
सत्ता पाने की लोलुपता ने
जाने क्या क्या है कर डाला
इस यथार्थ का अर्थ यही है
जलती जन-जीवन की ज्वाला।

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प्यार का गीत – बाबा कल्पनेश

प्यार का गीत – बाबा कल्पनेश
प्यार का गीत
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत,
जिसमें हार हुई हो मेरी और तुम्हारी जीत।
कई जन्म बीते हैं हमको करते-करते प्यार,
तन-मन छोड़े-पहने हमने आया नहीं उतार।
छूट न पाया बचपन लेकिन चढ़ने लगा खुमार,
कितने कंटक आए मग में अवरोधों के ज्वार।
हम दोनों का प्यार भला कब बनता अहो अतीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
तुम आयी जब उस दिन सम्मुख फँसे नयन के डार,
छिप कर खेले खेल हुआ पर भारी हाहाकार।
कोई खेल देख पुरवासी लेते नहीं डकार,
खुले मंच से नीचे भू पर देते तुरत उतार।
करने वाले प्यार भला कब होते हैं भयभीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
नदी भला कब टिक पायी है ऊँचे पर्वत शृंग,
और कली को देखे गुप-चुप रह पाता कब भृंग।
नयनों की भाषा कब कोई पढ़ पाता है अन्य,
पाठ प्यार का पढ़ते-पढ़ते जीवन होता धन्य।
जल बिन नदी नदी बिन मछली जीवन जाए रीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
कभी मेनका बन तुम आयी विश्व गया तब हार,
हुई शकुंतला खो सरिता तट लाए दिए पवार।
कण्वाश्रम पर आया देखा सिर पर चढ़ा बुखार,
भरत सिंह से खेल खेलता वह किसका उद्गार।
वही भरत इस भारत भू पर हम दोनों की प्रीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
श्रृद्धा मनु से शुरू कहानी फैली मानव वेलि,
अब भी तो यह चलता पथ पर करता सुख मय केलि।
इसे काम भौतिक जन कहते हरि चरणों में भक्ति,
आशय भले भिन्न हम कह लें दोनो ही अनुरक्ति।
कभी नहीं थमने वाली यह सत्य सनातन नीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
बाबा कल्पनेश