पुस्तक समीक्षा | अठारह पग चिन्ह | रश्मि लहर | पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’

एक समीक्षा
पुस्तक अठारह पग चिन्ह
लेखिका-रश्मि लहर
पृष्ठ*95 मूल्य₹150/
प्रकाशन * बोधि प्रकाशन
Isbn:9789355367945

‘अठारह पग चिन्ह’

“तुम्हे देखा नहींं लेकिन नज़र में बस गए हो तुम,
ये सच है हॅंसी की सुरमई सी लालिमा हो तुम।”

बड़ी रोचक बात है कि हमने एक-दूसरे को अभी तक देखा नहीं है ,लेकिन विश्वास की नदी का प्रवाह गति के साथ अविरल है।
पंक्तियाॅं उकेरते हुए मन आह्लादित हो उठा।

मेरी प्रिय सखी रश्मि ‘लहर’ जी का कहानी संग्रह ‘अठारह पग चिन्ह’ हाथ में आते ही अथाह प्रसन्नता हुई।

जीवन-लहरों से अंजुरी भर अनुभवों को बटोरते हुए, शब्दों के माध्यम से कागज पर उकेरते हुए, हृदय पर अंकित कर देने का अद्भुत प्रयास कहानीकार की लेखनी को शीर्ष पर विराजमान कर देता है।

‘अठारह पग चिन्ह’ नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए हर पग पर जीवन का एक चित्र मिलता है। इस यात्रा में कहानीकार और पाठक के बीच का अन्तर समाप्त होता महसूस किया हमने।

आदरणीय माया मृग जी का ये वक्तव्य कि
“ये आपकी कहानियाॅं हैं, सिर्फ कहानीकार की नही” अक्षरशः सत्य सिद्ध होता है।

यात्रा प्रारंभ करते ही ‘लव यू नानी’
पत्र के माध्यम से बड़ा ही मजबूत संदेश देती हुई कहानी मन को भाव विभोर कर जाती है।

‘करवा चौथ’ जैसी कहानी मानवता के दायित्व का निर्वहन दर्शाती है।आगे बढ़ते हुए पुनः जीवन के बीच से उभर कर मन को आह्लादित कर देती है।

कहानी ‘प्रेम के रिश्ते’ में पर शोएब चचा कोरोना जैसी महामारी को भी अपने दायित्व के बीच नहीं आने देते। मानवता की मशाल जलाते हुए यह कहानी समाज को एक सीख दे जाती है।

‘बावरी’ को पढ़ते हुए ऑंख भर आती है, स्वतः एक चित्र मस्तिष्क पर खिंच जाता है।हृदय चीख उठता है।

अनुत्तरित प्रेम के दीप के रूप में ‘अनमोल’
कहानी निरंतर मद्धम लौ की तरह प्रकाशित होते रहने का पर्याय है।

ममता का सिंधु समेटे समाधान के साथ खड़ी हो जाती हैं ‘अम्मा’।

‘अचानक’ कहानी को पढ़ते वक्त मन तीन स्थान पर ठहरता है।

पहला कि नकारात्मकता गुंडो के रूप में समाज में अवसर मिलते ही हावी हो जाती है।
दूसरा दादी के रूप में दूसरे की पीड़ा को न समझने वाले लोग। और तीसरा संकल्प और संकल्प की माॅं ,जो रूढ़ियों को तोड़ते हुए सुलभा की पीड़ा में दुखी हैं, और सुलभा से विवाह करने के लिए अड़े हुए हैं। यह कहानी समाज के बीच पथ प्रदर्शिका का कार्य करती है। कहानीकार और लेखनी दोनो को
साधुवाद।

‘असली उत्सव’, ‘अद्भुत डॉक्टर’, ‘तेरी बिंदिया रे’ सभी कहानियाॅं पाठक को बाॅंधें रखने में समर्थ हैं।

धीरे-धीरे कदम रखते हुए ‘लव यू गौरव’ और ‘गुलगुले’ पर ठहरना पड़ जाता है।

मां की ममता और संवेदना की लहर थामे नहीं थमती है। कहानी समाप्त होते-होते नेत्रों का बाॅंध टूट जाता है, और ऑंसू रूपी गुलगुले बिखर जाते हैं।

प्रणाम करती हूॅं कहानीकार की अंजुरी को जिसमें भावनाओं के पुष्प एक गुच्छ के रूप में एक साथ समाहित हैं।

‘अतीत के दस्तावेज’ में आज के स्वार्थी संतानों की लालची और विकृत मानसिकता को उधेड़ने का सार्थक प्रयास करते हुए नज़र आती है लेखनी।

‘शिरीष’, ‘संयोग’ और ‘कैसे-कैसे दु:ख’ के माध्यम से जीवन के बड़े नाज़ुक पहलुओं को छूने का प्रयास किया है कहानीकार ने।

एक के बाद एक सभी कहानियाॅं भावनात्मकता का सजीव निर्वाह करती हैं।प्रवाहमयता के साथ-साथ पाठक को अपने में डुबा लेने का अद्भुत सामर्थ्य है इन कहानियों में।

ये समाज के बीच ज्वलंत प्रश्नों को उठाती हैं, और समाधान भी प्रस्तुत करती हैं तथा अंत में उद्देश्य परक संदेश प्रेषित करते हुए सार्थकता को पोषित करती हैं।

मैं ‘अठारह पग चिन्ह’ कहानी संग्रह की सफलता की कामना करती हुई प्रिय मित्र रश्मि ‘लहर’ जी की लेखनी और भावों की सरिता का आचमन करते हुए प्रणाम करती हूॅं।

पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’
रायबरेली

अमर शहीद वीर पांड्या कट्टाबोम्मन : दक्षिण भारत के रोबिन हुड

भारत को फ्रांसीसी, डचों, पुर्तगालीयों व अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए देश के कोने-कोने से वीर पुरुषों और वीरांगनाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हुए प्राण न्योछावर कर दिया। तब सन 1857 से प्रारम्भ हुई स्वाधीनता के संघर्ष की यात्रा लगभग 90 वर्ष बाद 15 अगस्त सन 1947 को स्वतंत्रत भारत के रूप मे दिखाई दी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक के असंख्य वीरों ने अपने लहू के एक एक बूँद से फिरांगियों के खिलाफ जंग-ए-आजादी की लड़ाई लड़ी है।
    दक्षिण भारत के रोबिन हुड कहे जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीरपाड्या कट्टाबोम्मन का जन्म 03 जनवरी सन 1760 को मद्रास प्रेजिडेंसी के तहत तमिलनाडु के पंचलकुरिचि नामक ग्राम के तमिल समुदाय में हुआ था।
     पिता जगवीरा कट्टाबोम्मन व माता श्रीमती अरुमुगाथमल राजसी परिवार से संबंधित थे। अंग्रेजों को उनकी रियासत पर नजर लग चुकी थी। किसी भी हाल में अंग्रेज जगवीरा का साम्राज्य समाप्त कर उन्हें अपना गुलाम बानाना चाहते थे, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका।
वीरपांडिया कट्टाबोम्मन को तमिलनाडु के पंचलकुरिचि और पलायकर (तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश, कर्नाटक ) का शासक नियुक्त किये जा चुका था। पॉलिकर वो अधिकारी होते थे, जो विजय नगर साम्राज्य के तहत कर Tax वसूलते थे।
     ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने वीरपाण्डेया को अपना साम्राज्य देने का सन्धि प्रस्ताव भेजा किन्तु, शासक वीरपांडीया ने ब्रिटिश प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। कुछ दिन बाद षड़यंत्र के तहत फिरंगियों ने पदुकोट्टई और टोंडाईमन रियासत के राजाओं के साथ मिलकर वीरपंड्या कट्टाबोम्मन को पराजित कर दिया। पॉलिगर का यह प्रथम युद्ध कहा जाता है। पॉलिगर या पालियाक़र का युद्ध तमिलनाडु में तिरुनेवल्ली के शासक और ब्रिटिश हुकूमत के मध्य लड़ा गया। अंततः ब्रिटिश सेना की जीत के साथ ही दक्षिण भारत में अंग्रेजों ने पैर पसारकर अपनी पैठ मजबूत कर ली। अब धीरे धीरे अंग्रेज दक्षिण भारत में अपनी शासन-सत्ता चलाने लगे थे।
     अंग्रेजों ने दक्षिण भारत के मद्रास प्रेजिडेंसी परिक्षेत्र में अब तेजी से अपना साम्राज्य विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया, साथ ही कर Tax वसूली की गोपनीय योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया।
     हम स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत सन 1857 से मानते हैं, किन्तु इससे भी कई दशक पूर्व तिलका मांझी, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन आदि क्रन्तिकारी स्वाधीनता संग्राम का आगाज कर चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्रांति की शुरुआत सन 1857 से लगभग 60 वर्ष पूर्व सन 1787 में अंग्रेजों के खिलाफ शंखनाद कर दिया था।
     पॉलिगार का युद्ध के समय वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों से कहा कि- ‘हम इस भूमि के बेटे बेटियाँ हैं। हम प्रतिष्ठा और सम्मान कि दुनिया में रहते हैं। हम विदेशियों के सामने सर नहीं झुकाते। हम मरते दम तक लड़ेंगे।’ इस प्रकार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने फिरंगियों को अपने पूर्वजों का शासन और अपना संघर्षशील मंतव्य प्रकट कर दिया था।
     ईस्ट इण्डिया कंपनी ने सर्वप्रथम कर Tax संग्रह की आपस में योजना बनाई। तत्पश्चात कर्नाटक में अर्कोट के नवाब से कर संग्रह की एक प्रकार से नौकरी रूप में अनुमति माँगी। अनुमति मिलते ही जनता पर अधिक कर Tax थोपना शुरू कर दिया। धीरे धीरे ब्रिटिश कम्पनी ने अपनी आय और प्रभुसत्ता बढ़ाने के साथ ही स्थानीय रियासतों के राजाओं की शक्तियाँ क्षीण कर दी। ठेकेदारी भी स्वयं करवाने लगे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब पूरी तरह से अंग्रेजी हुकूमत की कूटरचित चालें समझ चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब अंग्रेजी हुकूमत और अंग्रेजों के खिलाफ दक्षिण भारतीय लोगों को एकत्रित करके छोटी-छोटी बैठकें करने लगे, तो कभी-कभी रैलियाँ भी निकालते थे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्षेत्रीय रियासत के राजाओं से जन-बल व धन की मदद मांगी। राजा शिवकाँगा और राजा रामनाद आदि साथ खड़े हो गए, क्योंकि भविष्य में उन पर भी खतरा का बादल मंडरा सकता था।
     वीरापांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों को कर Tax देने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों के मन में तो विश्वासघात की कूटनीति चल ही रही थी। पंचालकुरिचि में एक मीटिंग के दौरान वीरपांड्या कट्टाबोम्मन और अंग्रेज अफसर क्लार्क के मध्य वाद-विवाद इतना बढ़ गया कि कट्टाबोम्मन ने अंग्रेज अफसर की मीटिंग के दसरान ही हत्या कर दी। इससे ब्रिटिश अधिकारीयों के अंदर खौफ़ भर गया, किन्तु अंदर ही अंदर षड़यंत्र करने लगे।
     कुछ समय बाद अंग्रेजों ने उचित अवसर देखकर पंचालकुरिचि पर जोरदार धावा बोलकर वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के 17 सैनिक साथियों को गिरफ्तार कर लिया। फिरंगियों ने वीरपांड्या के सबसे विश्वासपात्र थानापति पिल्लई का सिर काटकर पेड़ से लटका दिया। उसके बाद निर्दयी फिरंगियों एक-एक कर शेष सभी साथियों को मार डाला। इस हमले में वीरपांड्या कट्टाबोम्मन बचकर निकल गए थे, किन्तु अपने 17 साथियों की दर्दनाक मृत्यु पर बहुत रोये थे।
     अंग्रेज हुक्मरान लगातार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन को खोजने में लगे थे। जल, जंगल गाँव सब जगह की खाख छान रहे थे। अंत में 24 सितंबर सन 1799 को वीरपांड्या को धोखे से गिरफ्तार कर लिया। वीर सपूत पर फर्जी मुकदमें चलाकर एक माह के अंदर ही निर्णय सुनाकर कायाथारू (तमिलनाडु) में 16अक्टूबर सन 1799 को फाँसी पर लटका दिया। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के ख़ास विश्वासपात्र साथी सुब्रमण्यम पिल्लई  को भी फाँसी दे दी थी।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन की फाँसी के बाद भी दक्षिण भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की लौ धीमी नहीं पड़ी। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के भाई ओम मदुरई मोर्चा सँभालते हुई अंग्रेजों से लड़ते रहे, किन्तु ब्रिटिश हुक़ूमत के आगे उनकी भी न चली। जल्द ही गिरफ्तार करके आजीवन कारावास कि सजा देकर जेल में कैद कर दिए गए।
    वीरपांड्या कट्टाबोम्मन  की स्मृतियों को ताज़ा रखने के लिए वहाँ का किला का नाम, डाक टिकट, शहीद स्मारक, नौसेना का कट्टाबोम्मन जहाज आदि के नाम दिए गए हैं।

डॉ अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर,
(अध्यक्ष हिंदी विभाग)
रायबरेली  उ•प्र
मो.  09415951459

हजारी लाल तिवारी काव्य भूषण सम्मान’ से लखनऊ में सम्मानित हुए वरिष्ठ कविगण

Lucknow: कल दिनाॅंक 14.07.24 को वरिष्ठ कवि श्री सत्येन्द्र तिवारी जी के लखनऊ स्थित आवास पर आदरणीय भूपेन्द्र सिंह ‘होश’, शैलेन्द्र शर्मा, उपेन्द्र वाजपेई तथा कमल किशोर ‘भावुक’ जी को पं . हजारी लाल तिवारी काव्य भूषण सम्मान ‘ से सम्मानित किया गया।

आत्मीय साहित्यिक समागम के विशेष आयोजन में देश के सुप्रसिद्ध पर्वतारोही/फोटोग्राफर उपेन्द्र वाजपेई जी के साथ कानपुर के वरिष्ठ कवि आदरणीय शैलेन्द्र शर्मा जी की रचनाओं को सुनकर लोग वाह-वाह कर उठे। आदरणीय भूपेन्द्र सिंह ‘होश’, कमल किशोर ‘भावुक’, कुलदीप ‘कलश’ के साथ सत्येन्द्र तिवारी के गीतों ने कार्यक्रम को अद्भुत ऊॅचाइयाॅं प्रदान कीं। संजय ‘सागर’, रश्मि ‘लहर’, आदर्श सिंह ‘निखिल ‘ जी सहित कई रचनाकारों की उपस्थिति से समारोह ने एक भव्य स्वरूप ले लिया। कार्यक्रम का प्रारंभ सत्येन्द्र तिवारी के नातियों क्रमशः दिव्यांश एवं अर्णव द्वारा संस्कृत की वाणी वन्दना से किया गया। कार्यक्रम की समाप्ति पर सत्येन्द्र तिवारी ने सभी का आत्मीयता से आभार व्यक्त किया।

एक कप दूध | Hindi Story | डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

आज रामसिंगार बाबू के घर सुबह से ही ज़ोर ज़ोर से चीखने की आवाज़ आ रही थी। दरअसल कल उनका अपनी पत्नी से किसी बात पर बहस हो गई थी। बहस लंबी चली। मानों दोनों बहस के युद्ध में पूरी तैयारी से उतरे हों। रामसिंगार बाबू की पत्नी शहर के एक प्रतिष्ठित बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत हैं। कल रात सात बजे थकी मांदी घर पहुंची। अमूमन वे छ: बजे तक घर पहुंच जाया करती थी, लेकिन आज कैश काउंटर पर बड़ी भीड़ थी। जिस काउंटर पर कैश जमा होता था, वे साहब आज अवकाश पर थे।‌ एक ही काउंटर पर लेन- देन दोनों हो रहा था।‌ शाम को साढ़े चार बजे काउंटर क्लोज होने पर उनकी पत्नी दीक्षा ने हिसाब मिलाया तो दस हजार रुपए कम था। वे घबरा गई। ऐसा प्रतीत हुआ कि उनके पैर‌ से जमीन खिसक गई हो।‌ पसीना उनके माथे से निकलकर उनकी पूरी साड़ी को भिगोने लगा। इस महंगाई में दस हजार रुपए का नुक़सान एक बड़ा नुक़सान था। वे सोचने लगी कि अभी मकान मालिक का किराया भी देना है। बच्चों की फीस भी बाकी है। घर के चूल्हे की मद्धिम और तेज लौ दीक्षा की सैलरी के लाइटर पर ही निर्भर रहती थी।‌ शहर के एक निजी कंपनी में उनके पति एक मामूली सा काम करते थे, वे अपना खर्च निकाल लें यही दीक्षा के लिए बहुत था। इसी बात को लेकर आए दिन‌ दीक्षा के अहंकार की तलवार राम सिंगार के ऊपर चल जाया करती थी। राम सिंगार अपनी इन कमज़ोरियों से पूरी तरह वाकिफ थे। इसलिए पत्नी के क्रोध के तेज़ाब से वे हमेशा अपने को बचाते थे लेकिन कभी-कभी उसके छींटें से वे बच नहीं पाते थे।
उधर दीक्षा रुआंसा चेहरा लेकर मैनेजर के पास गयी। बोली सर आज मेरा हिसाब नहीं मिल रहा है। मैंने पूरा बाउचर चेक कर लिया है सर दस हजार रुपए कम आ रहे हैं, अगर बंटी को मेरे कैश मिलान के लिए कह दें तो मुझे सर सुविधा हो जायेगी।
मैनेजर ने कहा, देखिए मैम यह आपका रोज़ रोज़ का है। कभी हिसाब नहीं मिलता है कभी बाउचर पर मुहर लगाना भूल जाती हैं और आए दिन कुछ न कुछ गलतियां!
आए दिन लेट आती हैं यह सब नहीं चलेगा।‌ दरअसल मैनेजर मैम को ऊपरी तौर पर तो डांट रहा था, लेकिन उसकी वासनात्मक आंखों की कड़ाही में मैम के सौंदर्य की मछली नृत्य रही थी। वह इस मछली को किसी भी तरह से पाने के लिए अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाए हुए था। आज मछली फंस गई थी।
मैनेजर शंभूसिंह जब से इस बैंक में आएं हैं उनकी इस हरकत से बैंक में कार्यरत तमाम महिलाएं अपना ट्रांसफर करवाकर दूसरे अन्य बैंक में चली जाती थीं। दीक्षा को आए इस बैंक में चार महीने ही हुए थे वह अपने काम में निपुण थी। बैंक मैनेजर को शिकायत का कभी मौका भी नहीं देती थी लेकिन जब संयोग खराब हो तो सावधान जानवर भी विदग्ध आखेटक के जाल में फंस जाता है और असहाय महसूस करते हुए दया की भीख मांगता है। आज दीक्षा की भी यही स्थिति है। बेचारी आज जाल में फंस चुकी थी। उसने कहा सर आज मुझे बहुत जल्दी है। बंटी से कह दीजिए कि वह मेरा सहयोग कर दे। मैनेजर ने संकेत संकेत में बंटी को मना कर दिया था।
बेचारी अपने केबिन में आकर रोने लगी। वह किंकर्तव्यविमूढ़ थी। तभी मैनेजर ने मैम को चैंबर में बुलाकर कहा कि ठीक है मैम आप घर जाइए! मैं हिसाब मिलवा लूंगा। दीक्षा को एक पल की खुशी तो मिली लेकिन वह मैनेजर की गिद्ध दृष्टि की आंखों में वासना की बनती बिगड़ती रेखाओं को पढ़ चुकी थी।‌
वहां से घर आने में सात बज चुके थे। उसे भूख और प्यास लगी थी। आते ही वह कटे वृक्ष की तरह विस्तर पर गिर चुकी थी।
अपने पति राम सिंगार को आवाज देते हुए चाय बनाने के लिए कही।राम सिंगार भी दिन भर का भूखा था,उसने कहा तुम खुद बना लो!
इतना सुनते ही वह बिगड़ैल बैल की तरह भड़क उठी और उसने अपनी ज्वलनशील वाणी के तेज़ाब में पति को इस तरह नहलाया कि अगल बगल की बिल्डिंग भी इस छींटें से नहीं बच सकी। रामसिंगार अपने क्रोध को अपने विवेक के जल से
नहीं शांत करते,तो आज कुछ भी हो सकता था। रात के ग्यारह बजे रहे थे। अंधेरी रात थी। झमाझम बारिश हो रही थी। दीक्षा कोपभवन में जा चुकी थी। राम सिंगार को बहुत ज़ोर से भूख लगी थी दोपहर में भी उसने कुछ नहीं खाया था। जाकर रसोईघर में देखा तो सारे बर्तन जूठे पड़े थे। फ्रिज में एक कप दूध रखा था‌। रात को कुछ बनाने की स्थिति में नहीं था। रामसिंगार ने दूध गरम होने के लिए रख दिया। रसोईं में कुछ ढूँढ़ रहे थे कि दूध के साथ खाकर सो जाया जाए कि अचानक पत्नी की सुध आई और पता नहीं क्या हुआ कि बड़ी ख़ामोशी से उन्होंने जूठे बर्तन साफ़ किए और भगोने में दाल चावल डाल कर खिचड़ी चढ़ा दी।
अपनी ज़िंदगी को कोसती दीक्षा भूख अपमान और क्रोध से करवटें बदल रही थी। सिर फटा जा रहा था। अचानक उठी कि किचन में जाकर कुछ खा लूँ और क्रोसीन ले कर सो जाऊँ कि अचानक बत्ती जली और देखा कि रामसिंगार एक हाथ में खिचड़ी की थाली और दूजे में पानी का गिलास लिए सामने खड़े हैं और खिचड़ी से देशी घी की सुगंध नथुनों में ज़बरदस्ती घुसी जा रही थी।

डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

प्यासा कलश | नरेन्द्र सिंह बघेल | लघुकथा

यह जरूरी नहीं कि जो कलश भरा दिखाई देता हो प्यासा न हो । इस पीड़ा को कलश बनाने वाला सिर्फ कुम्हार ही समझ सकता है , इसीलिए वह ग्राहक को कलश बेचते समय कलश को ठोंक बजा कर इस आश्वासन से देता है कि इसका पानी ठंडा रहेगा ।सच बात यह है कि जब तक वह अपनी बाह्य परत से जलकण आँसू के रूप में निकालता है तब तक कलश का जल शीतल रहता है , यदि कलश से आंसू निकलने बंद हो जाएं तो फिर जल की शीतलता भी गायब हो जाती है । इसलिए तन को शीतल रखने के लिए आँसू निकलना भी जरूरी रहता है जो मानसिक विकार को तन से निकाल देते हैं ।कलश से आँसू निकलने का फार्मूला सिर्फ कुम्हार को ही पता है , वो कुम्हार जो सृष्टि का नियंता है । जो आँसू निकलते हैं उन्हें निकल जाने दें ये निकल कर तन को शीतल ही करेंगे । प्यासा कलश दूसरों की प्यास शीतल जल से जरूर बुझाता है पर खुद प्यासा रहकर लगातार आँसू ही बहाता रहता है । बेचारा प्यासा कलश ।
*** नरेन्द्र ****

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किराये का रिश्ता | रत्ना भदौरिया

दो दिन पहले फेसबुक पर एक लाईन पढ़ी ‘उसके साथ रिश्ता मेरा किराये के घर जैसा रहा, मैंने उससे सजाया तो बहुत लेकिन वो कभी मेरा न हुआ। अभी पढ़ ही रही थी कि दिमाग ने चलना शुरू कर दिया और चार साल पहले इन्हीं पंक्तियों में जुड़ी मेरी एक सहेली जो आज भी यही सोच के साथ जिंदगी काट रही है। जब तब मैं अपने गांव जाती हूं तो उससे जरुर मिलती हूं फिर वो घंटों बैठकर अपनी कहानी सुनाती है मुझे।

आज इस लाइन को पढ़ते ही एक बार फिर वो और उसकी कहानी याद आ गयी स्नातक की पढ़ाई के बाद उसने बी टी सी के लिए दाखिला लिया और मैं आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चली गई। बी टी सी करते करते उसे एक लड़के से प्यार हो गया। प्यार सिर्फ प्यार तक सीमित नहीं रहा बात शादी तक पहुंची। दोनों तैयार थे लेकिन जिंदगी ने ऐसा मोड़ लिया कि मेरी सहेली उमा के पापा की मृत्यु हो गई ‌। मृत्यु के अभी पन्द्रह दिन भी व्यतीत नहीं हुए कि उसके प्रेमी ने उससे शादी के लिए घर में बात करने कहा उसने कहा देखो प्यार जितना आपका जरुरी है उतना मेरा भी लेकिन अभी पापा को गये हुए पंद्रह दिन भी नहीं हुए और घर में कोई नहीं है मां को संभालने वाला उसने कहा ठीक है संभालो मां को अपनी उसी दिन से उसने राश्ता बदला और दूसरी लड़की से शादी कर ली। कई महीने बाद पता चला।ये तो आजकल शोसल मीडिया का शुक्र जो बात आयी गयी पता चल ही जाती है।

तब उसने पूछा कि आपने ऐसा क्यों किया ?प्रेमी का जवाब तो क्या करता उधर लड़की भी तुमसे सुंदर,पैसे भी अच्छे मिल रहे थे और तो और शादी भी जल्दी हो गयी ।इधर क्या ? पता नहीं कितने साल तुम अपनी मां को संभालती और बाप तो था नहीं मिलता भी क्या ?अच्छा जब प्रेम किया था तब ये चीजें नहीं देखी थी कि ये उमा खूबसूरत नहीं है और फिर शादी की बात की ही क्यों थी ?तब तुम्हारा बाप नौकरी करता था और न तुम्हारे ऊपर मां का बोझ ढोने की जिम्मेदारी थी। खूबसूरती में नौकरी का क्या लेना- देना उमा ने पूछा ?हो -हो कर हंसते हुए बोला तुम भी उमा कितनी भोली हो अरे नौकरी करता तो मोटी रकम तो देता कमसे कम तेरा बाप ?अच्छा !छोटा सा उत्तर देकर कुछ क्षण उमा चुप रही और फिर एक जोरदार थप्पड़ मारते हुए कहा आज बहुत खुश हूं इसलिए कि मुझे समझ आ गयी।

पापा के जाने से भी आज दुखी नहीं खुश हूं कि शायद वो नहीं जाते तो मैं प्यार में अंधी होकर क्या कर बैठती। अनुतरित, आश्चर्यचकित ज़रुर हूं लेकिन खुश हूं।कहते हुए वहीं लाईन गुनगुने लगी’उसके साथ मेरा रिश्ता किराये के घर जैसा रहा, मैंने उससे सजाया तो बहुत लेकिन वो कभी मेरा न हुआ।।

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

Weekend Top

1

martyred shailendra pratap singh par kavita

जम्मू कश्मीर के सोपोर जिले मेँ आतंकी हमले मेँ शहीद सीआरपीएफ रायबरेली के जवान शैलेन्द्र प्रताप सिंह के लिए हिंदी विद्धान दयाशंकर जी की कविता martyred shailendra pratap singh par kavita

*शहीद सैनिक शैलेन्द्र सिंह को समर्पित*

बालक शैलेन्द्र का बाल्यकाल,

ग्रामांचल मध्य व्यतीत हुआ।

प्रारंभिक शिक्षा हेतु माता ने,

ननिहाल नगर को भेज दिया ।

अपने सीमित श्रम साधन से,

प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण किया।

चल पड़े कदम देश की सेवा को,
दायित्व भार जो मिला तुम्हे,

उसको पूरा करना होगा ।

है शत्रु खड़ा जो सीमा पर,
उसका रण-मद हरना होगा।

रण की वेदी पर कभी कभी,
कुछ पुष्प चढ़ाने पड़ते हैं।

कुछ महा वीर होते शहीद,
जो मातृभूमि हित लड़ते हैं।

वह मौन हो गया परमवीर,
अपने पीछें संदेश छोड़ गया ।

भावी    युवकों की  आंखों   को,
भारत की सीमा की ओर मोड़ गया।

स्वर गूंजा मत रोना मुझको तिरंगे में लिपटे होने पर,
मत     तर्पण     करना    आंखों   के   पानी   का।

करना है तो तर्पण करना,
सीमा पर प्रखर जवानी का ।

श्रद्धांजलि मुझको देते हो,
तो साथ शपथ लेनी होगी।

भारत की सीमा पर वीरों प्राणों की आहुति अपनी देनी होगी।
जो दीप जलाया है मैंने,
वह बुझे नहीं बरखा व तूफानों से।

उसकी लौ क्रीड़ा करती रहे सतत,

आजादी के परवानों से।
*दया शंकर*
राष्ट्रपति पुरस्कृत,साहित्यकार
पूर्व अध्यक्ष हिंदी परिषद रायबरेली

2

nahin thaharata hai vakt

नहीं ठहरता है वक्त

ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
यह वक़्त कभी ठहरा ही नहीं !
रफ्त़ा- रफ़्ता निकल जायेगा
उजाले कब तलक क़ैद रहेंगे
देखना ! कल सुबह
अपनी रिहाई के
गीत ज़रूर गायेंगे
माना कि
आज सारे जुगनूं
तम से संधि कर
उजालों को चिढ़ा रहे हैं
जब अंधकार की छाती चीरकर
कल
रश्मियां विकीर्ण हो जायेंगी
तो इन्हीं में से कुछ जुगनूं
आफ़ताब से भी हाथ मिलायेंगे
ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
ये वक्त कभी ठहरा ही नहीं!
आज आंजनेय के बध के लिए
बिसात बिछाई जा रही है
एक और सुरसा की ज़िंदगी
दांव पर लगाई जा रही है
लेकिन झूठ के वक्ष को चीरकर
जब
सत्य का सूर्य कल उदित होगा
तो देखना! यही अंधेरे
दिन में ही दिनकर
से हाथ मिलायेंगे
ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
ये वक्त कभी ठहरा ही नहीं

संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर

 

3

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar
डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ की इलाहाबाद से वर्ष 2003 में प्रकाशित पुस्तक ‘अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संकलन में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गीत कारों ,साहित्यकारों ने उनके साहित्य पर अपनी सम्मति प्रकट करते हुए कुछ इस प्रकार लिखे हैं

भूमिका

कविता अंतस की वह प्रतिध्वनि है जो शब्द बनकर हृदय से निकलती है। कविता वह उच्छ् वास है जो शब्दों को स्वयं यति- गति देता हुआ उनमें हृदय के भावों को भरना चाहता है क्योंकि कविता उच्छ् वास है और उच्छ् वास स्वर का ही पूर्णरूप है, अतः यदि स्वर की कुछ अभिलाषाएँ हैं तो वे एक प्रकार से हृदय की अभिलाषाएँ ही हैं जो काव्य का रूप लेकर विस्तृत हुई हैं ।’अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संग्रह एक ऐसा ही संग्रह है इसमें कवि डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ ने अपनी अभिलाषाओं के पहले स्वर दिए फिर शब्द।

 

कवि डॉ. रसिक किशोर ‘नीरज‘ ने इस संग्रह में कविता के विभिन्न रूप प्रस्तुत किए हैं। उदाहरणतया उन्होंने अतुकांत में भी कुछ कवितायें लिखी हैं एक प्रश्न तथा अस्मिता कविता इसी शैली की कविताएं हैं तथा पवन बिना क्षण एक नहीं….. वह तस्वीर जरूरी है…… किसी अजाने स्वप्नलोक में…… अनहद के रव भर जाता है…. पत्र तुम्हारा मुझे मिला….. खिलता हो अंतर्मन जिससे….
विश्व की सुंदर सुकृति पर….. मित्रता का मधुर गान……. चढ़ाने की कोशिश……. चूमते श्रृंगार को नयन…… बनाम घंटियां बजती रही बहुत…… जो भी कांटो में हंसते ……..जिंदगी थी पास दूर समझते ही रह गये…….. गीत लिखता और गाता ही रहा हूं……. श्रेष्ठ गीत हैं इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर की प्रति ध्वनियों को शब्द दिए हैं
डॉ. कुंंअर बैचेन गाज़ियाबाद
2. कविता के प्रति नीरज का अनुराग बचपन से ही रहा है बड़े होने पर इसी काव्य प्रेम ने उन्हें सक्रिय सृजनात्मक कर्म में प्रवृत्त कियाl यौवनोमष के साथ प्रणयानुभूति उनके जीवन में शिद्त से उभरी और कविता धारा से समस्वरित भी हुई ।वह अनेक मरुस्थलों से होकर गुजरी किन्तु तिरोहित नहीं हुई। संघर्षों से जूझते हुए भावुक मन के लिए कविता ही जीवन का प्रमुख सम्बल सिद्ध हुई
डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया

इस प्रकार रायबरेली के ही सुप्रसिद्ध गीतकार पंडित बालकृष्ण मिश्र ने तथा डॉ. गिरजा शंकर त्रिवेदी संपादक नवगीत हिंदी मुंबई ने और डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी बरेली आदि ने अपनी शुभकामनाएं देते हुए डॉ. नीरज के गीतों की प्रशंसा की है

(1). पारब्रह्म परमेश्वर

पारब्रह्म परमेश्वर तेरी
जग में सारी माया है।
सभी प्राणियों का तू
नवसृजन सृष्टि करता
तेरी ही तूलिका से
नव रूप रंग भरता।
कुछ रखते सत् विचार
कुछ होते अत्याचारी
तरह तरह के लोग यहाँँ
आते, रहते बारी-बारी ।
जग के रंगमंच में थोड़ा
अभिनय सबका आया है।
कहीं किसी का भेद
खेद हो जाता मन में
नहीं किसी की प्रगति
कभी देखी जन-जन में ।
सदा सदा से द्वेष
पनपता क्यों जीवन में
माया के चक्कर में
मतवाले यौवन में।
‘नीरज’ रहती नहीं एक सी
कहीं धूप व छाया है।।

(2).राम हमारे ब्रह्म रूप हैंं

राम हमारे ब्रह्म रूप हैं ,राम हमारे दर्शन हैं ।
जीवन के हर क्षण में उनके, दर्शन ही आकर्षण हैं ।।
हुलसी सुत तुलसी ने उनका
दर्शन अद्भुत जब पाया ।
हुआ निनाँदित स्वर तुलसी का
‘रामचरितमानस’ गाया।।
वैदिक संस्कृति अनुरंजित हो
पुनः लोक में मुखर हुई ।
अवधपुरी की भाषा अवधी
भी शुचि स्वर में निखर गई।।
कोटि-कोटि मानव जीवन में, मानस मधु का वर्षण है ।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं राम, हमारे दर्शन हैं।।
ब्रह्म- रूप का रूपक सुंदर ,
राम निरंजन अखिलेश्वर ।
अन्यायी के वही विनाशक,
दीन दलित के परमेश्वर ।।
सभी गुणों के आगर सागर ,
नवधा भक्ति दिवाकर हैं।
मन मंदिर में भाव मनोहर
निशि में वही निशाकर है।
नीरज के मानस में प्रतिपल, राम विराट विलक्षण हैंं।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं , राम हमारे दर्शन हैं।

(3).शब्द स्वरों की अभिलाषायें

रात और दिन कैसे कटते
अब तो कुछ भी कहा ना जाये
उमड़ घुमड़ रह जाती पीड़ा
बरस न पाती सहा न जाये।
रह-रहकर सुधियाँ हैं आतीं
अन्तस मन विह्वल कर जातीं
संज्ञाहीन बनातीं पल भर
और शून्य से टकरा जातीं।
शब्द स्वरों की अभिलाषायें
अधरों तक ना कभी आ पायें
भावों की आवेशित ध्वनियाँ
‘ नीरज’ मन में ही रह जायें।

(4). समर्पण से हमारी चेतना

नई संवेदना ही तो
ह्रदय में भाव भरती है
नई संवेग की गति विधि
नई धारा में बहती है ।
कदाचित मैं कहूँँ तो क्या कि
वाणी मौन रहती है
बिखरते शब्द क्रम को अर्थ
धागों में पिरोती है ।
नई हर रश्मि अंतस की
नई आभा संजोती है
बदल हर रंग में जलती
सतत नव ज्योति देती है।
अगर दीपक नहीं जलते
बुझी सी शाम लगती है
मगर हर रात की घड़ियाँ
तुम्हारे नाम होती हैं।
नया आलोक ले ‘नीरज’
सरोवर मध्य खिलता है
समर्पण से हमारी चेतना
को ज्ञान मिलता है ।

(5).नाम दाम के वे नेता हैं

कहलाते थे जन हितार्थ वह
नैतिकता की सुंदर मूर्ति
जन-जन की मन की अभिलाषा
नेता करते थे प्रतिपूर्ति।
बदले हैं आचरण सभी अब
लक्षित पग मानव के रोकें
राजनीति का पाठ पढ़ाकर
स्वार्थ नीति में सब कुछ झोंके।
दुहरा जीवन जीने वाले
पाखंडी लोगों से बचना
शासन सत्ता पर जो बैठे
देश की रक्षा उनसे करना।
पहले अपनी संस्कृति बेची
अब खुशहाली बेंच रहे हैं
देश से उनको मोह नहीं है
अपनी रोटी सेक रहे हैं।
देशभक्ति से दूर हैं वे ही
सच्चे देश भक्त कहलाते
कैसे आजादी आयी है
इस पर रंचक ध्यान न लाते।
कथनी करनी में अंतर है
सदा स्वार्थ में रहते लीन
नाम धाम के वे नेता हैं
स्वार्थ सिद्धि में सदा प्रवीन।

(6). आरक्षण

जिसको देखो सब ऐसे हैं
पैसे के ही सब पीछे हैं
नहीं चाहिए शांति ज्ञान अब
रसासिक्त होकर रूखे हैं।
शिक्षा दीक्षा लक्ष्य नहीं है
पैसे की है आपा धापी
भटक रहे बेरोजगार सब
कुंठा मन में इतनी व्यापी ।
आरक्षण बाधा बनती अब
प्रतिभाएं पीछे हो जातीं
भाग्य कोसते ‘नीरज’ जीते
जीवन को चिंतायें खातीं ।
व्यथा- कथा का अंत नहीं है
समाधान के अर्थ खो गये
आरक्षण के संरक्षण से
मेधावी यों व्यर्थ हो गये।
सत्ता पाने की लोलुपता ने
जाने क्या क्या है कर डाला
इस यथार्थ का अर्थ यही है
जलती जन-जीवन की ज्वाला।

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प्यार का गीत – बाबा कल्पनेश

प्यार का गीत – बाबा कल्पनेश
प्यार का गीत
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत,
जिसमें हार हुई हो मेरी और तुम्हारी जीत।
कई जन्म बीते हैं हमको करते-करते प्यार,
तन-मन छोड़े-पहने हमने आया नहीं उतार।
छूट न पाया बचपन लेकिन चढ़ने लगा खुमार,
कितने कंटक आए मग में अवरोधों के ज्वार।
हम दोनों का प्यार भला कब बनता अहो अतीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
तुम आयी जब उस दिन सम्मुख फँसे नयन के डार,
छिप कर खेले खेल हुआ पर भारी हाहाकार।
कोई खेल देख पुरवासी लेते नहीं डकार,
खुले मंच से नीचे भू पर देते तुरत उतार।
करने वाले प्यार भला कब होते हैं भयभीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
नदी भला कब टिक पायी है ऊँचे पर्वत शृंग,
और कली को देखे गुप-चुप रह पाता कब भृंग।
नयनों की भाषा कब कोई पढ़ पाता है अन्य,
पाठ प्यार का पढ़ते-पढ़ते जीवन होता धन्य।
जल बिन नदी नदी बिन मछली जीवन जाए रीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
कभी मेनका बन तुम आयी विश्व गया तब हार,
हुई शकुंतला खो सरिता तट लाए दिए पवार।
कण्वाश्रम पर आया देखा सिर पर चढ़ा बुखार,
भरत सिंह से खेल खेलता वह किसका उद्गार।
वही भरत इस भारत भू पर हम दोनों की प्रीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
श्रृद्धा मनु से शुरू कहानी फैली मानव वेलि,
अब भी तो यह चलता पथ पर करता सुख मय केलि।
इसे काम भौतिक जन कहते हरि चरणों में भक्ति,
आशय भले भिन्न हम कह लें दोनो ही अनुरक्ति।
कभी नहीं थमने वाली यह सत्य सनातन नीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
बाबा कल्पनेश