Real story in hindi writer asha shailee- वह कौन था जो उस कमरे में गया था
Real story in hindiwriter asha shailee
वह कौन था जो उस कमरे में गया था
कभी-कभी जीवन में ऐसी घटनाएँ होती हैं जिन्हें हम चाहकर भी झूठला नहीं सकते। ऐसे समय हमारा सारा का सारा ज्ञान-विवेक, सारी विद्या और अनुभव धरा का धरा रह जाता है।
यह सृष्टि विचित्र रहस्यों से भरी पड़ी है। मेरे आदरणीय गुरु जी, डॉ. महाराज कृष्ण जैन हमेशा ऐसी कोई बात उठने पर झट से कह देते, ‘अरे! बहन जी, मत पड़िए इन बातों में।’ पर उन्हें मैं कभी यह बता नहीं पाई कि ऐसा होता है और न ही मैं अपने साथ हुई घटनाओं को झुठला पाई। आज मैं अपने जीवन की एक सत्य घटना पर बात करने जा रही हूँ। वैसे संस्मरण में सत्य ही तो होता है , ऐसा सत्य जो हमारे अनुभव से गुज़रा हो।
वैसे तो माता-पिता को अपनी प्रत्येक संतान प्रिय होती है, फिर भी कोई बच्चा थोड़ा अधिक ध्यान खींचता है या माता-पिता के अधिक निकट होता है या यह भी कह सकते हैं कि समय की मांग होती है। या यह भी हो सकता है कि जो हो रहा है, वह सहज स्वाभाविक रूप से हो रहा हो। जो भी हो, मेरा छोटा पुत्र महेंद्र विलक्षण बुद्धि का स्वामी था। कभी दूसरी श्रेणी में पास नहीं हुआ, फेल होना तो दूर की बात थी उसके लिए। तर्क-कुतर्क हर बात में आगे ही आगे। छोटी कक्षाओं से ही अध्यापकों से उलझना कोई बड़ी बात नहीं थी उसके लिए और कक्षा में नेतागीरी तो उसका शग़ल था। शैतान भी था ही। ख़ैर! हमारे गाँव गौरा में तब आठवीं तक स्कूल था। इसके बाद अब शहर तो जाना ही था।
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जब तक वह गाँव में पढ़ रहा था, तब तक तो उसे हमारा थोड़ा-घना भय रहता पर शहर जाकर वह और खुल गया। वैसे ही उसे साथी भी मिल गए। तब तक बड़े बेटे हेमन्त का विवाह हो गया था। वह महेंद्र की तरह खिलंदड़ा नहीं था, फिर विवाह के बाद उसका स्वभाव भी काफी बदल गया था, वह छोटे भाई के खर्चे आदि पर कुढ़ने भी लगा था।
हेमन्त, जहाँ पिता के साथ सेब के बाग़ और अन्य कारोबार देखता था वहीं महेंद्र जो मात्र अट्ठारह वर्ष का था, बिल्कुल भी गम्भीर नहीं था। आप सोच रहे होंगे यह तो हर घर में होता है। बेकार का रोना है यह। परन्तु यह बताना इस कहानी के लिए अति आवश्यक है क्योंकि मेरे पति दोनों भाइयों के बीच बढ़ती खाई के कारण अत्याधिक चिन्तित थे और यह घटना भी इसी चिन्ता से जुड़ी हुई है। बेटी तो मात्र दस वर्ष की थी और शिमला हॉस्टल में रहकर पढ़ रही थी। ऐसे ही समय में वह मनहूस दिन हमारी ज़िंदगी में आया और सब कुछ बिखर गया।
वह सन् 1982 के सितम्बर महीने की सोलह तारीख थी। भला वह तिथि भी कभी भुलाई जा सकती है? उसके अगले दिन वर्ष का अन्तिम श्राद्ध था। मेरे पति सेब बेचने के लिए ट्रक लेकर चण्डीगढ़ की मंडी गए हुए थे। वे उस दिन वापस आने वाले थे। कह कर गए थे कि ब्राह्मणों को श्राद्ध का न्योता दे देना और सारी तैयारी करके रखना हम समय पर लौट आएँगे। महेंद्र हॉस्टल से घर आया हुआ था। हर बच्चे की तरह ही उसे देर तक सोना अच्छा लगता था। घर में मैं थी, छोटे बेटे महेंद्र, बेटे-बहू के अतिरिक्त माघी और भास्कर नाम के दो गोरखा नौकर भी थे जिनमें से माघी काफी छोटे-से कद का था।
सुबह सबसे पहले मैं उठी और नहाकर पूजा के लिए फूल तोड़ रही थी उस समय माघी उठकर अपने कमरे से बाहर आया। अभी मुश्किल से छः बजे होंगे। इतनी जल्दी उठना रोज़ का काम ही था। सेब तोड़ने वालों के लिए भी खाना बनाना होता। खाना अभी लकड़ी पर ही बनता था, गाँव में गैस नहीं आई थी।
अभी मैं माघी से रसोईघर में लकड़ियाँ लाने को कह ही रही थी कि महेंद्र कुमार जी, गुस्से में उफनते हुए अपने कमरे से बाहर निकले और बाहर आते ही उबलना शुरू कर दिया,
‘‘कितनी बार कहा है कि मुझे आठ बजे से पहले मत उठाया करो, पर नहीं। कोई नहीं सोचता कि मुझे रात को पढ़ना होता है। कौन आया था मेरे कमरे में?’’
मैं और माघी दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, क्योंकि अभी तक तो घर में हम दो ही जगे थे। मैंने माघी से पूछा, ‘‘क्यों रे! तू गया था क्या छोटे बाबू के कमरे में? क्यों गया था, तुझे पता था न वो गुस्सा करेगा??’’ माघी कुछ बोलता उससे पहले ही मेरा बेटा भिन्नाने लग गया, ‘‘मूर्ख समझा है क्या मुझे? अरे ये जरा-सा लड़का नहीं गया था, कोई बड़ा था। आप लोग मुझे चैन से पढ़ने भी नहीं देते। मेरी नींद पूरी नहीं होगी तो मैं कैसे पढ़ूँगा?’’
‘‘पर कौन जाता तेरे कमरे में? अभी तो हम दोनों ही जगे हैं। मैं गई नहीं, माघी गया नहीं तो कौन गया होगा। सपना देखा है तुमने और सुबह सवेरे सबका मूड खराब करने आ गए हो। जाओ, जाकर सो जाओ।’’ मैंने कहा तो माघी भी बोल पड़ा, ‘‘नहीं बीबी जी! मैं भाई जी के कमरे में नहीं गया। सच कह रहा हूँ।’’
महेंद्र फिर बिफर गया, ‘‘तो क्या मैं झूठ कह रहा हूँ? बड़े आदमी और छोटे कद का पता नहीं चलता क्या? मैं सो थोड़ी न रहा था। अच्छे से जाग रहा था, जब मैंने अन्दर आने वाले के पैरों की आवाज़ सुनी तो मुँह पर रज़ाई डालकर, जान-बूझकर आँखें बंद कर लीं। आने वाले ने मेरे मुँह पर से रज़ाई उठाई और आँखें बंद देखकर फिर वापस डाल दी और बाहर निकल गया। मुझे पता होता कि आप झूठ बोलेंगे तो मैं उसी वक्त न उठ जाता और आप को झूठ नहीं बोलना पड़ता।’’
‘‘पर बेटा, मैं सचमुच ही तुम्हारे कमरे में नहीं गई। तुम्हें पता नहीं क्यों वहम हो रहा है?’’ मैं भी हैरान थी कि वह इतनी दृढ़ता से लड़ने की हद तक अपनी बात पर कायम था, जबकि इतनी बहस के बाद भी न तो भास्कर जागा था और न ही हेमन्त और उसकी पत्नी। आखिरकार विश्वास और अविश्वास के बीच गोते खाते हम तीनों अपने काम में उलझ गए।
हेमन्त वगैरह के जागने पर हमने उनसे भी यह बात पूछी तो वे हँसने लगे। हेमन्त ने तो झट कह दिया, ‘‘कोई फिल्म-विलम देखी होगी जिसका असर है इस पर।’’ बात आई-गई हो गई। थोड़ी ही देर बाद, लगभग आठ बजे बाज़ार से हमारा पुराना ड्राइवर, बहुत निकट सम्पर्क के एक पिता-पुत्री और कुछ बाजार के और लोग घर पर आ गए तो हमें आश्चर्य हुआ कि आज सुबह-सवेरे ये सब लोग क्यों? तभी कुछ गाँव के लोग आने लग गए। काफी अजीब लग रहा था, तभी बाजार से आई एक लड़की ने जिसका नाम राजेश था, धीरे से कहा, ‘‘चाची जी! चाचा जी की गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया है। मैं बैंक से छुट्टी लेकर आई हूँ। शायद आपको मेरी जरूरत हो।’’
‘‘अरे नहीं! कुछ खास नहीं। बस ज़रा सी टक्कर लगी है।’’ लड़की के पिता ने बात सम्भालने की कोशिश की। मैं बात को समझने की कोशिश कर रही थी। तभी हमारा पुराना ड्राइवर मेरे सामने सिर झुकाकर चुपचाप खड़ा हो गया।
‘‘हाँ जी! पंडित जी, आप कुछ बोल नहीं रहे।’’ गाँव के हमारे घनिष्ट सम्पर्क के व्यक्ति साधुराम बोले।
‘‘क्या बोलूँ बजिया जी! गाड़ी पलट गई है, मैं बड़े बाबू को लेने आया हूँ।’’ पंडित बहुत घीरे से बोला। अब मेरा चौंकना स्वाभाविक था, ‘‘और वे खुद? गाड़ी पलटने का मतलब…..?’’
‘‘नहीं….नहीं बीबी जी! बाऊजी तो दिल्ली गए हैं, वे गाड़ी में थे ही नहीं। आप परेशान न हों।’’ बहुत पुराना ड्राइवर एकदम बेचैन-सा दिखाई दिया। मैं बहुत गौर से उसे देख रही थी। ‘‘बस गाड़ी सीधी करने के लिए मालिक का होना जरूरी है, इसलिए बड़े बाबू को मेरे साथ भेज दो।’’ उसने मुँह दूसरी तरफ कर लिया। उन दोनों में नौकर-मालिक का कम और दोस्ती का अधिक रिश्ता था। फिर थोड़ी ही देर बाद वे सब लोग घटना स्थल की ओर चले गए। घर में मेरे साथ रह गई बहू और राजेश या गाँव के लोग।
शायद गाँव में सब को पता चल चुका था कि क्या हुआ है। साधुराम मेरे पास आ बैठे तो राजेश वहाँ से उठ गई। वे धीरे से बोले, ‘‘बहन! जो होना था, हो गया। क्या कर सकते हैं।’’
मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था, कि ये लोग क्या कह रहे हैं और क्या कर रहे हैं। मुझे याद है, मैंने पीले गहरे संतरी रंग की चौड़े लाल बॉर्डर की साड़ी पहन रखी थी। न जाने क्यों मुझे आभास हुआ कि अब मुझे ये साड़ी नहीं पहननी चाहिए। तभी मेरे माथे पर लगी बिंदिया गिर गई। मैं उठने लगी तो सब मेरे गिर्द इकट्ठे हो गए। मैंने कहा, ‘‘मेरी बिंदिया गिर गई है। दूसरी लगाकर आती हूँ।’’ कोई कुछ नहीं बोला। बस राजेश की माँ ने पकड़कर वहीं बैठा लिया। अजीब-सा सन्नाटा घर में पसरा हुआ था। न कोई चाय की मांग कर रहा था न खाने की। इसी तरह दो दिन गुजर गए। दूसरे दिन बाज़ार से कुछ लोग और आ गए। घर में फोन मेरे कमरे में था जो वहाँ से हटा दिया गया था।
मुझे लग रहा था मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा, बड़ी अजीब सी बात है ऐसी किसी भी घटना के समय मुझे रोना नहीं आता। जब आरती गई तब भी ऐसा ही हुआ था। लोग मेरे गले लगकर रो रहे थे पर मैं चुप थी। बस एक सन्नाटा-सा लगता है, जो कुछ कोई कह दे कर दो। जो कुछ पूछा जाए उसका जवाब दे दो और बस। इस समय भी वही अजीब सन्नाटा सा मुझपर था। तीसरे दिन मुझे बताया गया कि हमारे पतिदेव उसी गाड़ी में थे। बस थोड़े घायल हैं और अस्पताल में हैं। अब मेरा हठ करना सहज था कि मुझे जाना है वहाँ। दुर्घटना हमारे घर से सौ किलोमीटर दूर हुई थी। अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा कि फोन मेरे कमरे से क्यों हटाया गया है। क्यों शहर और गाँव के लोगों का आना-जाना बना हुआ है। अब साधुराम, जिन्हें मेरे पति बजिया कहा करते थे और वे उन्हें, फिर मेरे पास आ बैठे और बड़े डरते-डरते कहने लगे, ‘‘बहन! बजिया घर से कब गए थे?’’
मैं हैरानी से उनका चेहरा ताक रही थी क्योंकि गाड़ी में सेब की पेटिया भरते समय वे गाड़ी के पास खड़े थे। वे फिर खिसियाए से कहने लगे, एक्सीडेंट वाले दिन मैंने उनको घर से उतरकर सड़क पर जंगल की तरफ भागते देखा था। उन्होंने सफेद कुर्ता-पायजामा और पीले रंग का स्वेटर पहन रखा था। (ये उनके घर में पहनने के कपड़े थे।) मैं सोच भी रहा था कि बाबू तो चंडीगढ़ गया था, आया कब? फिर मैंने सोचा, शायद रात को आ गया हो। पर ये उस तरफ को भाग क्यों रहा है? फिर सोचा शायद कहीं पेट खराब हो तो जंगल को दौड़ लगा रहा है।’’
‘‘आप घर तक क्यों नहीं आए, मिलने? आप लोगों का तो बड़ा प्रेम था न?’’
‘‘मुझे खुद बड़ा अजीब लग रहा था। मेरे दिमाग में तुरन्त ही आ गया कि इनके तो घर में सारा इंतजाम है, जंगल क्यों जाएँगे? फिर मैं घर के दोनों तरफ गाड़ी देखने के लिए गया पर मुझे कहीं गाड़ी दिखाई नहीं दी। मुझे क्या पता था कि यह शमशान की ओर दोड़ लगा रहा है। मैं आवाज़ लगाता तो शायद वह बच जाता। मुझे क्या पता था।’’ तभी मैंने देखा मेरा छोटा पुत्र सिर पीट-पीटकर रो रहा था और कह रहा था, ‘‘अब समझ में आया, सुबह सवेरे मेरे कमरे में कौन आया था। मेरे बाप को मेरी चिन्ता रहती थी। बाजी (दोनों बेटे पिता को बाउजी कहते थे जो जल्दी कहने से बाजी बन जाता था।) कहते थे, ये बिगड़ रहा है। इसका क्या होगा? हाय! मेरा बाप मुझे देखने आया था, आखरी समय में। मुझे क्या पता था, कम से कम मैं मुँह न ढंकता, आँखें बंद न करता तो जाते हुए बाजी को देख तो लेता।’’
मैं आज भी सोचती हूँ कि वह क्या था? यदि महेंद्र को वैसा कुछ आभास न हुआ होता तो वह इस तरह का व्यवहार नहीं करता। खूब गुस्से में था, सुबह सवेरे। बिल्कुल लड़ने को तैयार। इसे आप नाटक तो नहीं कह सकते। फिर साधुराम ने जब उन्हें देखा तो वह वही समय था जो महेंद्र ने बताया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उनकी हृदयगति रुकने का वही समय था। बताइए, कैसे न विश्वास किया जाए कि कुछ तो है।
आशा शैली
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