आशा की शैली एक मिशन है – कुँवर प्रदीप निगम
आशा की शैली एक मिशन है
आशा जी से मेरा परिचय अभी तक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही है। साक्षात्कार का अवसर नहीं मिला। इसे साहित्यिक भेंट कहते हैं। ऐसे सम्बंधों में एक जिज्ञासा बनी रहती है कि जिसकी कलम इतनी तपस्वी है, वह निश्चित ही तपा हुआ सोना होगा।
शैल-सूत्र तो मैं वर्षों से पढ़ रहा हूँ लेकिन उसकी शैली के मानदण्ड, उसका विस्तार, तपस्या और उसकी अमर ज्योति का संज्ञान मुझे अप्रैल 3, 2013 को हुआ जब पोस्टमैन मुझे शैल-सूत्र का दिसम्बर 2012 अंक दे गया। इस विशेषांक का पृष्ठ खोलते ही मुझे अपने पुराने मित्र, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र का लेख ‘चन्दा पर खेती करने वाली आशा’ पढ़ा। इस विशेषांक को देखकर मैं समझा कि जिस को मैं सरिता समझ रहा था, वह गंगासागर तट निकला। मैं विचार करने लगा, कि अभी तक मैं आशा जी को मात्र कवयित्री/लेखिका/सम्पादक समझता था, लेकिन ऐसा नहीं है। उन्होंने तो सामाजिक संघर्ष की शिला पर एक पैर से खड़े होकर लम्बी अवधि तक घोर तपस्या की है। ऐसे क्रान्तिकारी क्षणों में ही कविता का जन्म होता है।
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मैंने छाया देवदार की, उपन्यास के अब तक प्रकाशित अंश पढ़े हैं। उसमें जमीदारी ऐंठ और अय्याशी के बीच कहीं न कहीं स्त्रीशक्ति और उनमें अधिकारों की सुलगती आंच दिखाई देती है। हालांकि तत्कालीन सामाजिक ढांचे में स्त्री की जो हालत रही, जो दुर्दशा हुई उसका प्रकारांतर से अभूतपूर्व दृश्य लेखिका ने उल्लिखित किया है। यह कथा तत्कालीन सामाजिक संरचना और समय के बदले हुए परिवेश हाशिये की जिन्दगी जी रहे सामाजिक न्याय से वंचित लोगों की पीड़ा और मूक संघर्ष को रेखांकित करती है। उपन्यास की नायिका समझती है कि ‘इन ऐंठुए आतंकी जमींदारों के लिए औरत का शरीर ही भगवान है। ये ऐंठुए जवान औरत के तलुवे चाटते हैं।’ मेरा आशय है कि लेखिका ने उस आतंकी मानसिकता और बेबस औरत की सामाजिक कमजोरी का बड़े ही सहज लहजे में आज के बदले हुए विकसित समाज को अहसास कराया है। इसे कहते हैं कलम की जादूगरी। आशा जी ने भी खौलते हुए स्वार्थी समाज को नज़दीक से देखा है और सामाजिक विसंगतियों को टक्कर भी दी है। इनके सामने ऐसे भी संकट आकर खड़े हो गए, जो इनके वर्चस्व को उखाड़ फेंकना चाहते थे लेकिन इनके भीतर बैठा कवि, इन्हें परामर्श देता रहा कि ‘ये कैंचियाँ हमें उड़ने से ख़ाक रोकेंगी, कि हम परों से नहीं हौसलों से उड़ते हैं।’ वही हौसले, आशा जी को उन कठिनाइयों के बीच से ले जाकर आज श्रमसाध्य कर्त्तव्यबोध में ले आई हैं। उन्हीं ‘हौसलों’ ने एक लेखिका के रूप में आशा जी को पहचान दी है और इन्होंने अब तक लेखन/सम्पादन से जुड़ी रहकर प्रखरता को प्राप्त किया है, तथा आज देश की वरिष्ठ साहित्यकार के रूप में सर्वविज्ञ हैं। इनकी कर्त्तव्यनिष्ठा, लगन और तप ने इनके चरण आगे बढ़ाये और पीछे मुड़कर देखने नहीं दिया। इनके साथ एक सिद्धांत और जुड़ गया कि, ‘ये और बात है आँधी हमारे वश में नहीं, मगर चिराग़ जलाना तो इख़्तियार में है।’ आशा जी चिराग़ जलाती रहीं, अंधियारे को रोशनी दिखाती रहीं और लबालब इनका आत्मविश्वास दृढ़ता के साथ खड़ा आवाज़ देता रहा, कि, ‘फानूस बन के जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे, वो शम्अ क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे।’ शायद यही संकल्प झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और अंतरिक्ष की यात्रा से वापस लौटी सुश्री सुनीता विलियम्स का भी रहा होगा।
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कल साधनारत महिला साहित्यकार द्वारा अपने कंधों पर एक बड़ा दायित्व वहन कर लेना विशेष अनुकरणीय है और वह है शैल-सूत्र का प्रबंधन, सम्पादन और निस्तारण। वह भी ऐसे समय में जब पीत-पत्रकारिता का वर्चस्व है और साहित्यिक खेमेबाजी से रचनात्मकता पंगु होती जा रही है। इस समय सकारात्मक सृजन नहीं हो पा रहा। जो हो रहा है उसे सामूहिक स्वीकृति नहीं मिल पाती। एक जोड़ता है तो दूसरा जानबूझकर तोड़ता है। नये रचनाधर्मी न केवल भ्रमित होते हैं, बल्कि उनके विकास की गति भी प्रभावित होती है। वैसे भी साहित्यिक पत्रिकाओं एवं पाठकों की भी संख्या कम होती जा रही है। उस पर खेमेबाजी के चलते कभी-कभी अच्छी रचनाएँ पाठकों तक नहीं पहुँच पातीं। धर्मयुग, सारिका, हिन्दुस्तान जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ पाठकों की कमी से नहीं, बल्कि प्रतिष्ठिनों की व्यवसायिकता के कारण बंद हुई हैं। दरअसल साहित्यिक पत्रिकाओं को विज्ञापन कम मिलने के कारण प्रकाशकों को यह सौदा घाटे का लगने लगा और पत्रिकाएँ बंद होने लगीं। यह परिस्थितियाँ विकाराल रूप से आशा जी के सामने भी हैं, फिर भी उनका हौसला देखिए कि पत्रिका समय से और शान से निकल रही है। इसे उनका मिश्नरी कार्य कहा जाना चाहिए। सच यह है कि साहित्यिक पत्रिकाओं को अखबारों की पीत-पत्रकारिता निगल रही है। अखबारों के साहित्यिक विशेषांक इस असाहित्यिकता के लिए जिम्मेदार हैं। विशेषांकों के उन पन्नों पर जो छापा जा रहा है, वह बिकाऊ तो है पर टिकाऊ नहीं। उनमें सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य नहीं हैं। उन विशेषांकों में अपसंस्कृति को मान्यता देने की कोशिश की जा रही है। इसके खिलाफ किसी ने आवाज़ नहीं उठाई।
ऐसी विषम परिस्थितियों में आशा जी द्वारा शैल-सूत्र का प्रकाशन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है क्योंकि इस पत्रिका की सामग्री टिकाऊ हैं इससे स्पष्ट होता है कि यह प्रकाशन इनकी कर्मठता, ईमानदारी, संकल्प और सहिष्णुता का परिणाम है। उनके इस संकल्प का अन्य प्रकाशकों को अनुकरण करना चाहिए। कोई आशा जी का अनुकरण करे या ना करे लेकिन जिस मिशन को लेकर वह चल रही हैं उसके प्रकाश से लोग अपनी राह आसान करते रहेंगे। यही उनका मिशन है। अंततः में आशा जी को एक शेर भेंट कर रहा हूँ,
जहाँ रहेगा वहाँ रोशनी लुटायेगा
किसी चिराग़ का अपना मकां नहीं होता।’
– कुँवर प्रदीप निगम, कानपुर देहात