उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है| हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’

उर-ऑगन की तुलसी ,तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।

अधरों पर मृदु हास तुम्हारा मुखरित है,
लोल कपोल खिले सुमनों सा मुकुलित है।
कजरारी पलकों के चौखट में कैद आज,
बन स्नेह सुधा की निर्झरिणी प्रवहित है।
अनुपल भाव सुमंगल उर भरने वाली,
पुण्य-प्रदा तू जीवन की पहचान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है,
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।1।

झील सरीखी गहरी तेरी सुधियों में,
मस्त भ्रमर-मन लिपट न जाए कलियों में।
पूछेंगे सब लोग तुम्हारा नाता मुझसे,
और मनायेंगे खुशियॉ फिर गलियों में।
स्नेह-गंग की चपल तरंगों सी बल खाकर,
मिल जाऊॅगा सागर में अब ठान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।2।

छली चॉद सा रूप बदलना मुझे तनिक ना भाया,
मुखर चॉदनी ने चुपके से तन-मन आग लगाया।
नव प्रभात की किरण सुनहरी सन्ध्या दीपक-बाती,
धड़कन की हर सॉस तुम्हारी,कैसा रूप सजाया।
सपनों की अमराई में जब-जब कोयल कूके,
मधुरिम स्वर की मलिका तुम हो जान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।3।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010