पूस की रात | संस्मरण | आशा शैली

एक संस्मरण याद आ गया, वही देखिए।

पूस की रात

बर्फबारी दोपहर से ही शुरू हो गई थी फिर भी पाँच-छः बजे तक जमी नहीं थी। जीव-जंतु, पशु कोई भी तो खुले में नज़र नहीं आ रहा था। वर्षा शुरू होते ही सब अपने अपने बसेरों में दुबक गये थे। हमारे पहाड़ी गाँव में सन्नाटा पसरा पड़ा था। हमने भी कोयलों को अंगीठी कमरे में ही रख ली थी। यह हर साल शीतकाल का नियम था कि हमारी रसोई सोने वाले कमरे में ही आ जाती और पूरे परिवार के बिस्तर भी। इससे ईंधन की बचत जो होती थी। घर बहुत बड़ा नहीं था, बस दो ही कमरे थे, हम दो और हमारे तीन बच्चे।

अंगीठी पर चावल चढ़ा रखे थे। दाल बन चुकी थी और चावल के कुकर में सीटी आने वाली थी तभी सड़क से किसी के पुकारने की आवाज़ आई,

“कोई है, कोई है?” हम पति-पत्नि ने बाहर की बत्ती जलाई तो नीचे सड़क पर एक साया दिखाई दिया जो मुँह उठाए आवाज़ें दे रहा था। हमारा घर सड़क के किनारे ही था। हमने देखा वह व्यक्ति बर्फ के बीच खड़ा काँप रहा था। अब तक बर्फ सात-आठ इंच जम चुकी थी। हमने उसको ऊपर आने को कहा तो वह बर्फ में गिरता पड़ता हमारे घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

बरामदे के पास आकर उसने अपने कपड़ों और जूतों से सूखी बर्फ झाड़ी और बरामदे में पड़े बड़े-से बक्से पर ही बैठने लगा। तब हमने देखा कि वह लंगड़ाकर चल रहा था। उसके दाँत मारे शीत के कटकटा रहे थे। उसने कांपते हुए ही बताया कि उसे पिछले गाँव में किसी ने रात काटने को जगह नहीं दी। वह दूर से पैदल आ रहा था और अभी शहर सोलह मील दूर था। वह इस इलाके में अजनबी था। किसी को नहीं जानता।

हमने उसे दूसरे कमरे में रजाई देकर बैठा दिया और कहा कि ‘खाना बन रहा है, आप आराम से सुबह चले जाना।’

चावल बन जाने पर मेरे पतिदेव ने थाली में दाल-भात डालकर बड़े बेटे को मेहमान को दे आने को कहा। हमारे घरों में तब भोजन थोड़ा बढ़ाकर ही बनता था। बेटा थाली देकर लौटा तो उसने बताया कि राहगीर ने थाली पकड़ते ही दोनों हाथों की अंगुलियाँ झट से उबलते चावलों में डाल दें और थाली से अपने चेहरे को सेकने लगा। इस पर मेरे पति बोले,

“हमारा कमरा अब गर्म हो गया है बच्चो। तुम खाना खाओ।” कहकर उन्होंने अंगीठी उठा ली और दूसरे कमरे में ले गये। मैं भी गर्म पानी लेकर गई और उस अजनबी के हाथ-पैर धुलवाए।

सुबह तक हिमपात थम चुका था, चाय पीकर वह अजनबी चला गया। फिर हमने उसे कभी नहीं देखा पर आज भी सर्दी में कंपकंपाती उसकी आँखें मुझे याद आती हैं।

वह मेरे पति से कह रहा था, “बाबू जी, आप न होते तो मैं सुबह कहीं मरा पड़ा होता।”

मेरे पति ने हँसते हुए कहा था, “राम जी हैं न, सबके रखवाले।”