अभिभावक और शिक्षण संस्थान की भूमिका।
कोविड 19: अभिभावक और शिक्षण संस्थान की भूमिका
क्या कभी किसी ने सोचा था कि वक्त का पहिया इतना लंबा रुकेगा? शायद ही किसी ने ऐसा सोचा होगा। वक्त का पहिया ऐसा रुका कि व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक जैसी गतिविधियों पर ताला लग गया।
‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’ अरस्तू का ये कथन गलत साबित होने की कगार पर आ गया। समाज शास्त्र की जैसे परिभाषा ही बदल गयी। ये सब कुछ आखिर सम्भव हो गया, विश्वव्यापी महामारी
कोविड19 के फैलने से।
कोविड 19 महामारी एक ऐसी महामारी है जिसने व्यक्ति का जीवन अस्त व्यस्त कर दिया। लेकिन वो कहते हैं ना कि किसी चीज़ का अंत ही आरम्भ बन जाता है। ठीक इसी प्रकार कोविड 19 महामारी के आने से हर गतिविधि एक नए रूप में सामने आई। जीवन जीने का नज़रिया ही बदल गया। इसी कड़ी में शिक्षा जैसी जरूरी आवश्यकता का भी स्वरूप बदल गया। नई पीढ़ी को परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार बनाने हेतु शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
लेकिन शिक्षा का स्वरूप इस भयंकर कोविड19 की महामारी काल में पूरा का पूरा बदल गया। महामारी ने विद्यार्थियों की पूरी दिनचर्या ही बदल कर रख दी। बेशक बच्चों के माता पिता पहले गुरु होते हैं। लेकिन विद्यालय में गुरु मंदिर के ऐसे पुष्प होते हैं जो भिन्न भिन्न प्रकार की अपनी महक के ज्ञान से बच्चों के मन मस्तिष्क में नित नई ऊर्जा भरते हैं।
शिक्षक ऐसे ईश्वरीय स्वरूप होते हैं, जो बच्चों में मानसिक, सामाजिक विकास की ऊर्जा भरते हैं। एक बच्चा जब छुटपन से विद्यालय जैसे मंदिर में कदम रखता है तब ईश्वर स्वरूप शिक्षक बच्चों की हर समस्या का समाधान करते हैं। शिक्षक बच्चों को मन , कर्म, वचन से जीवन की सभी प्रकार की चुनौतियों से डटकर सामना करने के लिए सशक्त बनाते हैं। बच्चों का एक लंबा वक्त शिक्षा के मंदिर में ही बीतता है। जिससे छोटे से बड़े कक्षा के हर स्तर के विद्यार्थियों को ईश्वर स्वरूप शिक्षक ही सँवारता है।
लेकिन वर्तमान समय में कोविड 19 की महामारी के समय में अभिभावक और शैक्षणिक संस्थानों में कुछ ऐसे मतभेद उभर कर समाज में सामने आए जो शिक्षक की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लगा चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि शिक्षा के मंदिर की शोभा विद्यार्थियों से है परन्तु बिना शिक्षक के शिक्षा का मंदिर अपंग कहलायेगा। विद्यार्थी और शिक्षक दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। विद्यार्थी बिना विद्यालय व्यर्थ और शिक्षक बिना शिक्षा व्यर्थ।
कोविड 19 महामारी के दौर में जब व्यक्ति का व्यक्ति से सम्पर्क बंद है तो प्रश्न ये उठा आखिर शिक्षा के स्वरूप का संचालन कैसे हो? बड़े स्तर पर समाधान निकला। डिजिटलाइजेशन के युग मे शिक्षा के संचालन का स्वरूप ही बदला गया, अपनाया भी गया।
एक लंबे वक्त बाद शिक्षा के संचालन स्वरूप का ढाँचा पूरी तरह बदल गया। हर वर्ग की पहुँच तक शिक्षा को संभव बनाया गया। जिसका पूरा श्रेय शिक्षक को ही जाता है। इसमें कोई संशय ही नहीं है। खुद से प्रश्न करें कि क्या शिक्षक के बिना ये सम्भव हो पाता ?
डिजिटलाइजेशन
डिजिटलाइजेशन के इस युग में हर वर्ग के शिक्षक ने बखूबी सीखते हुए खुद को हर सम्भव ढालते हुए शिक्षा के प्रसार में कोई कमी नहीं छोड़ी। लेकिन वो कहते हैं ना कि सकारात्मकता के साथ नकारात्मकता भी साथ साथ चलती है। कोविड 19 महामारी के दौर में शिक्षा का स्वरूप तो बदल गया लेकिन समस्याएं भी सामने आईं। वो ये कि बच्चों की क्लास ऑनलाइन चल रही है, बच्चा विद्यालय नहीं जा रहा तो फ़ीस क्यों दें ?
प्रश्न वाज़िब भी है। लेकिन अभिभावक एक प्रश्न खुद से करें कि जब बच्चा जिस कक्षा में पंजीकृत होता है तो क्या उसके बगैर उनका कार्य चल पाएगा ? अभिभावक अपनी स्वेच्छा से अपने बच्चे का विद्यालय में पंजीकरण कराते हैं। शिक्षण संस्थान योजनानुसार शिक्षा को डिजिटली शिक्षकों द्वारा प्रसार करवाते हैं। बच्चों की शिक्षा और साल खराब न हो इसलिए हर संभव प्रयास शैक्षणिक संस्थान अपने स्तर से करवाते हैं। फिर चाहे बच्चा किसी भी वर्ग का हो। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली हर वर्ग के लिए संभव कराई जाती है। फिर फीस ना देने का प्रश्न आखिर क्यों ? हाँ प्रश्न ये उठना वाज़िब है कि मनमुताबिक फीस वसूली आखिर क्यों ? यदि मन मुताबिक फीस प्राईवेट शिक्षण संस्थान ले रहें हैं तो हर वर्ग के अभिभावक को ये अधिकार है कि उसके खिलाफ आवाज़ उठाये।
अभिभावक के पास कई विकल्प मौजूद है कि वो अपने बच्चों को ऐसे मनमानी फीस वसूलने वाले शिक्षण संस्थान से अपने बच्चे को पृथक कर दें। लेकिन यदि अभिभावक बच्चों को विद्यालय स्तर पर शिक्षा का लाभ प्राप्त करा रहें हैं तो फीस देना आपका कर्त्तव्य बन जाता है।
कहते हैं वक़्त के साथ बदलना चाहिए। कोविड 19 महामारी में शिक्षा का स्वरूप पूरी तरह बदल गया है और ये बदलाव विद्यार्थियों के भावी भविष्य के लिए उत्तम है।
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आकांक्षा सिंह “अनुभा”
रायबरेली, उत्तरप्रदेश।