कड़वा सच | मातृदिवस विशेष| अशोक कुमार गौतम

कड़वा सच

सच कड़वा होता है। ये कहावत तो सबने खूब सुना होगा, कहा होगा और देखा भी होगा। मैंने भी खूब देखा, सुना और कहा।
लेकिन आज मातृदिवस 14 मई के दिन एक सच की घटना जो झूठ के बेसन में खूब‌ लिपटी हुई है। आप चाहें तो कुछ और भी समझ सकते हैं लेकिन मेरी समझ में यही शब्द आया तो लिख दिया। फेसबुक हैप्पी मदर्स डे, लव यू माँ के साथ खींचीं गयी अनगिनत तस्वीरों से भरा पड़ा है। हम सबने कई सारी तस्वीरें खींचकर फेसबुक में भर दिया है। कई तश्वीरें फटे-पुराने, धूल-धूसरित अलबमों में लगी फोटोज को मोबाइल कैमरे में खींचकर सोशल मीडिया पर प्रसारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। नई-पूरानी फोटोज पोस्ट करने के बाद जो लाइक और शेयर, कामेंटस आ रहे हैं वे क्षणिक सुकून भी खूब दे रहे हैं। लेकिन एक बार हम अन्तरहृदय से चिंतन करें तो क्या सच में ये सब करने की जरूरत है।


माँ ही जगतजननी, जगतगुरु है। माँ ने ही जन्म दिया, जिसका कर्ज आजीवन नहीं उतार सकते, इसलिए ये सब ओछी बातें मन मे लानी ही नहीं चाहिए। अपार प्रसव पीड़ा से गुजरने के बाद , कभी कभी अपने भविष्य की चिंता छोड़कर शरीर भी चिरवा देती है कि मेरा लाल दुनिया में सुरक्षित आ जाय।
खुद भूखे रहकर गीले बिस्तर में कुकुरनिंदियाँ रूप में सोती है, बच्चे को सूखे बिस्तर में सुलाती है। तब उसके मन में कभी नहीं आता कि आज बेबी डे है। उसके लिए तो सम्पूर्ण जिंदगी में उसकी संतान बेबी ही नजर आती है।


फिर हम क्यों पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर मातृदिवस मनाकर माँ का अस्तित्व छोटा कर रहे हैं।
माँ किसी भी रूप में हो पूजनीय है- चाहे वो जन्मदात्री, गंगा माँ, भारत माँ, सरस्वती माँ, गुरु माँ आदि कोई भी हो। पर सबसे ऊंचा स्थान जन्मदात्री का ही रहेगा, जो सदियों से चला आ रहा है, आगे भी रहेगा।


हॉस्पिटल प्रशासन के निवेदन पर एक नर्स अपनी ड्यूटी निभाने पास के ही एक घर में गयी जहाँ नब्बे साल की बृद्धा अकेले घर में थी। पूंछने पर कहा सब बड़ी-बड़ी नौकरी में विदेशी बाबू बन गये हैं।ये बुढ़िया यहीं की यही। कहने पर कहते हैं, समय नहीं है। घर में कोई नौकर रख लो, वो देखभाल कर देगा। नर्स अपनी जिम्मेदारी पूरी करके चलने लगी तो उन्होंने पकड़कर रोते हुए कहा- जितनी देर से तू थी बेटा, बड़ा अच्छा लगा। ये घर कभी भरा रहता था.. आज उस भरे हुए घर की तस्वीर फोटो तक सिमट गयी हैं, फिर भी मेरा दिल की अंतिम साँसे उन पर टिकी हैं। काश अगर सबकी संतानें बुढापा का सहारा बन जाएं तो कोई मां अकेली नहीं रहेगी।
आज हम जितना बढ़-चढ़कर मातृदिवस (Mother’s Day) सम्पूर्ण भारत वर्ष या यूँ कहे अखिल विश्व में मना रहे हैं। यदि पूरे वर्ष उसका एक तिहाई भी मातृ दिवस/पिता दिवस मनाने लगें तो बृद्धाश्रम/अनाथालय खोलने की जरूरत ही न पड़े।
माँ का आशीर्वाद सदैव बना रहे।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार
रायबरेली
मो० 9415951459