अँगूठी ने खोला भेद | हिमाचल प्रदेश की लोककथा | आशा शैली

अँगूठी ने खोला भेद | हिमाचल प्रदेश की लोककथा | आशा शैली

महासवी लोककथा का स्वरूप

लोककथा के इतिहास को खंगालने लगें तो हम देखते हैं कि लोककथा की परम्परा धरती के हर कोने में रही है, यह निर्विवाद सत्य है। लेखन की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही कहानी कहने-सुनने की उत्सुकता ने ही इस कला को जन्म दिया है। लोककथा का स्वरूप आमतौर पर लोक हितकारी ही रहा है, सम्भवतया लोककथा का उद्भव लोकहित को दृष्टि  में रखकर किया गया हो।
कहा नहीं जा सकता कि इसका आरम्भ कब हुआ होगा, प्रमाण के लिए हमें वेदों तक दृष्टि दौड़ानी पड़ेगी, जहाँ ऋषिगण गुरुजनों से प्रश्न पूछते हैं तो गुरुजन उत्तर में एक कहानी सुना देतो हैं। मैंने अपनी पुस्तक दादी कहो कहानी के लिए देश के विभिन्न भागों की लोकथायें एकत्र करते समय देखा है कि अधिकतर लोककथायें लगभग हर क्षेत्र में थोड़े-थोड़े बदलाव के साथ उपस्थित रहती हैं, फिर भी क्षेत्र विशेष का प्रभाव हर लोककथा पर देखा जा सकता है। पहाड़ों में प्रचलित लोककथाओं में आपको पर्वत शृंखलाओं, गहरे नालों-खाइयों, प्रचलित परम्पराओं, देव परम्पराओं अथवा पहाड़ी फल-फूलों का वर्णन अवश्य ही मिलेगा। वहीं सामान्यतः मैदानी क्षेत्रों की लोककथाओं में इनका अभाव देखने में आता है।
राजा-रानियों की लोककथायें भी प्रायः पूरे देश में प्रचलित होती हैं। यहाँ मैं शिमला जिला के अपर महासू क्षेत्र की कुछ लोककथाओं को संदर्भ हेतु लूँगी। दूसरे क्षेत्रों में इनका प्रसार है या नहीं, यह मेरे विचाराधीन नहीं है।

अँगूठी ने खोला भेद लोककथा 

एक दिन भोले शंकर के किसी भक्त ने मन्दिर में शिवलिंग पर सोने की अँगूठी चढ़ाई। शिव शंकर और पार्वती उस समय मानव रूप धरकर मन्दिर के नज़ारे ले रहे थे। शिवजी ने वह अँगूठी उठा कर ध्यान से देखी फिर वह पार्वती को दे दी। पार्वती उपहार प्राप्त करके बड़ी प्रसन्न हुई।
थोड़े दिनों बाद ही गाँव में मेला था। पार्वती के मन में आया कि वे भी मेले में मनुष्य रूप में भाग लें। पार्वती ने बहुत आग्रह किया कि भोलेबाबा मेले में चलें। घेरा बाँधकर नाचते युवक-युवतियों के साथ वे भी नाचना चाह रही थीं लेकिन भोले शंकर को वे किसी भी तरह न मना सकीं।
भोले बाबा को इन सब हंगामों से क्या लेना-देना। वे तो अपने घोटे के आनन्द में मगन श्मशानों में भटकते प्रसन्न रहते, लेकिन अब उनके सामने समस्या खड़ी हो गई, क्योंकि पार्वती रूठ गई थी। अब इन्कार कर दिया तो मेले में कैसे जाते! हेठी न हो जाती पत्नी के सामने। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने पार्वती को अकेले जाने को कह दिया, किन्तु नाटी ;नृत्यद्ध में नाचने से मना कर दिया था। पार्वती ने इसे स्वीकार कर लिया।
सुबह सवेरे उठकर पार्वती ने गेहूँ की मोड़ी ;भुने दानेद्ध भूनी, उस में अखरोट तोड़ कर मिलाए और सज संवर कर मेले चल दी। मेले में घूमती युवतियों ने उन्हें साथ ले लिया। फिर वे सब मिलकर झूला-झूलने चलीं। गरमा-गरम जलेबियाँ खाने के बाद सभी युवतियों ने नाटी की ओर चलने की योजना बनाई तो पार्वती को पति को दिया वचन याद आ गया वह कुछ युवतियों के साथ एक किनारे बैठ कर नाटी देखने लगी।
नाटी धीरे-धीरे तेजी पकड़ती जा रही थी, तभी साथ की लड़कियों ने पार्वती का हाथ पकड़कर उन्हें नाटी में घसीट लिया। अब क्या था, ढोल और शहनाई के साथ एक के बाद एक रसीले गीत नाटी को गति दे रहे थे। सभी जोड़े बे-सुध होकर नाच रहे थे। पार्वती का हाथ जिस युवक ने पकड़ रखा था उसे पार्वती की अंगुली में पहनी अँगूठी चुभने लगी तो उसने देखा अंगूठी बहुत सुन्दर थी। अँगूठी कुछ ढीली तो थी ही युवक ने नृत्य के झटके के बहाने पार्वती की वह अँगूठी झटक कर निकाल ली। पार्वती को पता ही न चला, मुद्रिका कब उसके हाथ से निकल गई।
जब वह घर लौटीं तो शिव भोले वैसे ही ध्यान मग्न मिले। उल्लसित मुख लिए जब पार्वती उनके निकट जा कर बैठ गई तो उनका ध्यान भंग हुआ। पूछने लगे, ‘‘कैसा रहा मेला?’’
‘‘बहुत आनन्द आया। आपको कहा था चलिए लेकिन आप कहाँ मानते हैं हमारी बात!’’ पार्वती ने उलाहना दिया।
‘‘खूब नाची होगी तुम तो?’’ शिव जी ने फिर पूछा
‘‘कहाँ! आपने मना जो कर दिया था। मन तो मेरा कर रहा था, लेकिन मैं तो बँधी हुई थी न आपको दिए हुए अपने वचन से।’’
‘‘अच्छा किया! अब जरा मेरे पाँव धो डालो।’’
‘‘अभी आती हूँ।’’ यह कहकर पार्वती तुरन्त उठकर चली गई छोटी गागर में पानी और डबरा ;परातद्ध लेकर लौट आई और शिवजी के पाँव धोने लगी।
‘‘पार्वती तुम्हारी अँगूठी कहाँ है?’’ अचानक शिव भोले ने उसके हाथ में अँगूठी न देख कर कहा।
‘‘अरे!’’ अब पार्वती को पता चला कि उसके हाथ में अँगूठी नहीं है, ‘‘वह…।’’ उसने हाथ देखते हुए कहा, ‘‘पता नहीं कहाँ गिर गई।
‘‘सच बताओ, कहाँ गिरी?’’ शिव भी हठ पर उतर आए, ‘‘नाची होगी तुम, किसी ने हाथ से निकाल ली होगी।’’
‘‘नहीं, मैंने कहा न? मैं नहीं नाची। कहीं गिर गई होगी।’’
‘‘पार्वती! यह देखो अँगूठी। मेरे पास है,’’ शिवजी हँस पड़े, ‘‘तुम्हारी आदत नहीं बदली। कहना भी नहीं मानती और झूठ भी बोलती हो। पर मैं भला किसी दूसरे के साथ तुम्हें कैसे नाचने देता। जब मैंने झटका दिया था तब भी तुम्हें पता नहीं चला कि हाथ से अँगूठी निकल गई है, लेकिन एक बात है। आज तुम नाची बड़े कमाल का हो। भई हमें तो आनन्द आ गया मेले में जाकर।’’
‘‘आप बड़े दुष्ट हैं।’’ कहकर पार्वती ने गागर का सारा पानी शिवजी के ऊपर उंडेल दिया।
इस लोककथा में हिमाचल के उन्मुक्त जीवन, मेले त्योहार और पति-पत्नी के हास-परिहास का परिचय मिलता है और यह भी पता चलता है कि हिमाचल का जनमानस देवों को अपने जैसा, अपने बीच का ही इन्सान ही समझते हैं कुछ और नहीं।


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आशा शैली

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