दगा | अपने हैं सब जो दगा दे रहे हैं | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’

कल जो सगे थे,दगा दे रहे हैं,
लुच्चे-लफंगे, मजा ले रहे हैं।1।

इंसाफ कागज पर सबके लिए है,
नहीं न्याय देते,भगा दे रहे हैं।2।

रिश्वत मिले तो कलम दौड़ जाये,
नयी टिप्पणी फिर ,लगा दे रहे हैं।3।

सो भी न पाये थे,चैनों-सुकूॅ से
नाहक में मुझको जगा दे रहे हैं।4।

जिनके लिए सबसे लड़ता रहा मैं,
जुदाई की मुझको सजा दे रहे हैं।5।

सिरफिरे बन के आशिक,बहकने लगे,
इज्जत भी घर की ,लजा दे रहे हैं।6।

सियासत के माहिर,निर्लज्ज होकर,
आग लगती न जो,लगा दे रहे हैं।7।

सहारा तेरा बस यहॉ राम जी,
अपने हैं सब जो,दगा दे रहे हैं।8

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
रायबरेली (उ प्र) 229010
9415955693