व्यंग से दोस्ती तक | रत्ना सिंह | Hindi Short Story
आज से लगभग पच्चीस साल पहले मैं मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुई। बहुत ही साधारण मेरे जीवन व्यतीत हुआ। जिस तरह से जीवन में उतार चढाव आते रहे लेकिन मेरे लिए वो सब बातें भी बहुत ही साधारण रहीं यही कोई सातवीं या आठवीं कक्षा की बात है जब मैं एक सुबह स्कूल गयी आज यूनिफार्म कुछ ज्यादा ही सिकुड़ गयी (कुछ इस तरह जैसे तकिये से निकालकर पहना हो )आज मां की भी ग़लती थी या मेरी ।
मेरी ही ग़लती रही होगी क्योंकि आठवीं तक तो इतनी समझ आ ही जाती है कि कम से कम यूनिफॉर्म तो ठीक कर लूं। मां भी कितना ध्यान रखें और उन्होंने कहा तो था कि श्रद्धा कपड़े सूख गये उठाकर रखो फिर आकर ——। लेकिन मैं तो ऐसे ही बस—-। हां तो वो सुबह ऐसी कि स्कूल में प्रार्थना के बाद मुझे टीचर ने सब बच्चों के सामने खड़ा किया और कहा जरा इस लड़की को देखो इसका नाम है श्रद्धा। इसको समय नहीं मिला कि कपड़े प्रेस कर लें । ऐसा लग रहा है कि —-।
तब तक सब बच्चे ठहाका लगाकर हंसने लगे। टीचर ने भी दो डंडे कसकर लगाये और नालायक की संज्ञा देकर क्लास में जाने कह दिया। उस दिन मैं पूरा दिन बच्चों के व्यंग का शिकार रही । घर आकर मां को बताया तो मां ने नम आंखों से कहा -बेटा श्रद्धा रोज तुम्हारे कपड़े तह करके बिस्तर के नीचे रख देती हूं जिससे उनमें इतनी सिलवटें नहीं पड़ती कल जब कपड़े उठाकर लायी तो बता देती ध्यान से उतर गया। क्या करें पापा की तनख्वाह बहुत कम है सब फीस में चला जाता है खूब पढ़- लिखकर बड़े हो जाना नौकरी करना तो एक प्रेस जरुर खरीदना । ठीक है मां जरुर और मैं मां के लिपट गई। हर दिन स्कूल जाती बच्चों के व्यंग का शिकार होती । समय के साथ -साथ सब बदला और एक दिन इनकम टैक्स में नौकरी मिल गयी। अब उन पुराने टीचर और बच्चों की दोस्ती का शिकार बन गयी हूं।