कुटिल चिकित्सक काला अन्तस- डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज

डॉ.  रसिक किशोर नीरज की कविता-” कुटिल चिकित्सक काला अन्तस” वर्तमान प्रकृति की महामारी से ग्रसित सामान्य, निर्धन परिवार जो अपनी बीमारी का इलाज धनाभाव में नहीं करा पाते तथा अस्पतालों और अच्छे चिकित्सकों का मनमानी शुल्क ना दे पाने के कारण जीवन रक्षा की भीख मांग रहे हैं इस कड़वे सत्य को उजागर करती है यह रचना:-

कुटिल चिकित्सक काला अन्तस

कतिपय रोग  ग्रस्त  होकर

सन्निकट मृत्यु के खड़े हुये

क्या  कोई  अवशेष   रहा

रोगों   से बिन  लड़े  हुये।

 

कल्पना नहीं थी अस्पताल में

आने    के   दिन   देखे     जो

भोग -भोगते   जन्म- जन्म के

ब्रह्मा   के  हैं    लेखे      जो।

 

थीं    भविष्य की  अभिलाषायें

खंडित       होता  मन  ही   मन

कुटिल चिकित्सक काला अन्तस

चेहरे      दिखते   सुंदर    तन।

 

सुंदरता  भावों  में   लेकिन

नहीं    क्रियाओं  में   देखी

निर्धन  की सेवा  है  उनको

नहीं  कभी   भाती    देखी।

 

क्षमता  हो न,  किंन्तु वह लेते

हैं  मनमानी   शुल्क   परीक्षा

रोगी  हो  असहाय  यहाँ   पर

माँगे  नव-जीवन की   भिक्षा।

 डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज की दूसरी कविता “कुछ मीठे स्वर की मृदु  ध्वनियाँ” प्रस्तुत है-

कुछ मीठे स्वर की  मृदु ध्वनियाँ

खोये  थे क्षण-क्षण जो मेरे

तेरी विरह व्यथा  यादों   में

लिख न सका वैसा जैसा था

देखा सपनों  के, वादों   में।

 

सभी विवादों  को माना   मैं

लेकिन  मौन नहीं सुख पाया

रहा   साध्य साधक तेरा   मैं

तेरी  ही  सुस्मृति  की काया।

 

बिल्कुल ही मैं  अपरिछिन्न  हूँ

  भिन्न- भिन्न    आशाएँ     मेरी

रूद्ध  पथिक  स्वागत  हित  तेरे

ही,  भावों   की  माला     मेरी ।

 

कुछ मीठे  स्वर की मृदु ध्वनियाँ

 अधरों   तक  आकर  रुक  जातीं

उच्छृंखल   मन की  अभिलाषा

 ‘नीरज’ मन  में कुछ  कह  जातीं।

kutil-chikitsak-kaala-antas
डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज

 
 

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar
डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ की इलाहाबाद से वर्ष 2003 में प्रकाशित पुस्तक ‘अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संकलन में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गीत कारों ,साहित्यकारों ने उनके साहित्य पर अपनी सम्मति प्रकट करते हुए कुछ इस प्रकार लिखे हैं

भूमिका

कविता अंतस की वह प्रतिध्वनि है जो शब्द बनकर हृदय से निकलती है। कविता वह उच्छ् वास है जो शब्दों को स्वयं यति- गति देता हुआ उनमें हृदय के भावों को भरना चाहता है क्योंकि कविता उच्छ् वास है और उच्छ् वास स्वर का ही पूर्णरूप है, अतः यदि स्वर की कुछ अभिलाषाएँ हैं तो वे एक प्रकार से हृदय की अभिलाषाएँ ही हैं जो काव्य का रूप लेकर विस्तृत हुई हैं ।’अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संग्रह एक ऐसा ही संग्रह है इसमें कवि डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ ने अपनी अभिलाषाओं के पहले स्वर दिए फिर शब्द।

 

कवि डॉ. रसिक किशोर ‘नीरज‘ ने इस संग्रह में कविता के विभिन्न रूप प्रस्तुत किए हैं। उदाहरणतया उन्होंने अतुकांत में भी कुछ कवितायें लिखी हैं एक प्रश्न तथा अस्मिता कविता इसी शैली की कविताएं हैं तथा पवन बिना क्षण एक नहीं….. वह तस्वीर जरूरी है…… किसी अजाने स्वप्नलोक में…… अनहद के रव भर जाता है…. पत्र तुम्हारा मुझे मिला….. खिलता हो अंतर्मन जिससे….
विश्व की सुंदर सुकृति पर….. मित्रता का मधुर गान……. चढ़ाने की कोशिश……. चूमते श्रृंगार को नयन…… बनाम घंटियां बजती रही बहुत…… जो भी कांटो में हंसते ……..जिंदगी थी पास दूर समझते ही रह गये…….. गीत लिखता और गाता ही रहा हूं……. श्रेष्ठ गीत हैं इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर की प्रति ध्वनियों को शब्द दिए हैं
डॉ. कुंंअर बैचेन गाज़ियाबाद
2. कविता के प्रति नीरज का अनुराग बचपन से ही रहा है बड़े होने पर इसी काव्य प्रेम ने उन्हें सक्रिय सृजनात्मक कर्म में प्रवृत्त कियाl यौवनोमष के साथ प्रणयानुभूति उनके जीवन में शिद्त से उभरी और कविता धारा से समस्वरित भी हुई ।वह अनेक मरुस्थलों से होकर गुजरी किन्तु तिरोहित नहीं हुई। संघर्षों से जूझते हुए भावुक मन के लिए कविता ही जीवन का प्रमुख सम्बल सिद्ध हुई
डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया

इस प्रकार रायबरेली के ही सुप्रसिद्ध गीतकार पंडित बालकृष्ण मिश्र ने तथा डॉ. गिरजा शंकर त्रिवेदी संपादक नवगीत हिंदी मुंबई ने और डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी बरेली आदि ने अपनी शुभकामनाएं देते हुए डॉ. नीरज के गीतों की प्रशंसा की है

(1). पारब्रह्म परमेश्वर

पारब्रह्म परमेश्वर तेरी
जग में सारी माया है।
सभी प्राणियों का तू
नवसृजन सृष्टि करता
तेरी ही तूलिका से
नव रूप रंग भरता।
कुछ रखते सत् विचार
कुछ होते अत्याचारी
तरह तरह के लोग यहाँँ
आते, रहते बारी-बारी ।
जग के रंगमंच में थोड़ा
अभिनय सबका आया है।
कहीं किसी का भेद
खेद हो जाता मन में
नहीं किसी की प्रगति
कभी देखी जन-जन में ।
सदा सदा से द्वेष
पनपता क्यों जीवन में
माया के चक्कर में
मतवाले यौवन में।
‘नीरज’ रहती नहीं एक सी
कहीं धूप व छाया है।।

(2).राम हमारे ब्रह्म रूप हैंं

राम हमारे ब्रह्म रूप हैं ,राम हमारे दर्शन हैं ।
जीवन के हर क्षण में उनके, दर्शन ही आकर्षण हैं ।।
हुलसी सुत तुलसी ने उनका
दर्शन अद्भुत जब पाया ।
हुआ निनाँदित स्वर तुलसी का
‘रामचरितमानस’ गाया।।
वैदिक संस्कृति अनुरंजित हो
पुनः लोक में मुखर हुई ।
अवधपुरी की भाषा अवधी
भी शुचि स्वर में निखर गई।।
कोटि-कोटि मानव जीवन में, मानस मधु का वर्षण है ।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं राम, हमारे दर्शन हैं।।
ब्रह्म- रूप का रूपक सुंदर ,
राम निरंजन अखिलेश्वर ।
अन्यायी के वही विनाशक,
दीन दलित के परमेश्वर ।।
सभी गुणों के आगर सागर ,
नवधा भक्ति दिवाकर हैं।
मन मंदिर में भाव मनोहर
निशि में वही निशाकर है।
नीरज के मानस में प्रतिपल, राम विराट विलक्षण हैंं।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं , राम हमारे दर्शन हैं।

(3).शब्द स्वरों की अभिलाषायें

रात और दिन कैसे कटते
अब तो कुछ भी कहा ना जाये
उमड़ घुमड़ रह जाती पीड़ा
बरस न पाती सहा न जाये।
रह-रहकर सुधियाँ हैं आतीं
अन्तस मन विह्वल कर जातीं
संज्ञाहीन बनातीं पल भर
और शून्य से टकरा जातीं।
शब्द स्वरों की अभिलाषायें
अधरों तक ना कभी आ पायें
भावों की आवेशित ध्वनियाँ
‘ नीरज’ मन में ही रह जायें।

(4). समर्पण से हमारी चेतना

नई संवेदना ही तो
ह्रदय में भाव भरती है
नई संवेग की गति विधि
नई धारा में बहती है ।
कदाचित मैं कहूँँ तो क्या कि
वाणी मौन रहती है
बिखरते शब्द क्रम को अर्थ
धागों में पिरोती है ।
नई हर रश्मि अंतस की
नई आभा संजोती है
बदल हर रंग में जलती
सतत नव ज्योति देती है।
अगर दीपक नहीं जलते
बुझी सी शाम लगती है
मगर हर रात की घड़ियाँ
तुम्हारे नाम होती हैं।
नया आलोक ले ‘नीरज’
सरोवर मध्य खिलता है
समर्पण से हमारी चेतना
को ज्ञान मिलता है ।

(5).नाम दाम के वे नेता हैं

कहलाते थे जन हितार्थ वह
नैतिकता की सुंदर मूर्ति
जन-जन की मन की अभिलाषा
नेता करते थे प्रतिपूर्ति।
बदले हैं आचरण सभी अब
लक्षित पग मानव के रोकें
राजनीति का पाठ पढ़ाकर
स्वार्थ नीति में सब कुछ झोंके।
दुहरा जीवन जीने वाले
पाखंडी लोगों से बचना
शासन सत्ता पर जो बैठे
देश की रक्षा उनसे करना।
पहले अपनी संस्कृति बेची
अब खुशहाली बेंच रहे हैं
देश से उनको मोह नहीं है
अपनी रोटी सेक रहे हैं।
देशभक्ति से दूर हैं वे ही
सच्चे देश भक्त कहलाते
कैसे आजादी आयी है
इस पर रंचक ध्यान न लाते।
कथनी करनी में अंतर है
सदा स्वार्थ में रहते लीन
नाम धाम के वे नेता हैं
स्वार्थ सिद्धि में सदा प्रवीन।

(6). आरक्षण

जिसको देखो सब ऐसे हैं
पैसे के ही सब पीछे हैं
नहीं चाहिए शांति ज्ञान अब
रसासिक्त होकर रूखे हैं।
शिक्षा दीक्षा लक्ष्य नहीं है
पैसे की है आपा धापी
भटक रहे बेरोजगार सब
कुंठा मन में इतनी व्यापी ।
आरक्षण बाधा बनती अब
प्रतिभाएं पीछे हो जातीं
भाग्य कोसते ‘नीरज’ जीते
जीवन को चिंतायें खातीं ।
व्यथा- कथा का अंत नहीं है
समाधान के अर्थ खो गये
आरक्षण के संरक्षण से
मेधावी यों व्यर्थ हो गये।
सत्ता पाने की लोलुपता ने
जाने क्या क्या है कर डाला
इस यथार्थ का अर्थ यही है
जलती जन-जीवन की ज्वाला।