शब्द दर शब्द | रत्ना सिंह

पिछले कई दिनों से ठस पड़ा दिमाग आज चला भी तो कहां पहुंच गया ? जहां मैं जीवन में कभी न जाना चाहूं। अब क्या बताऊं? दिमाग को घसीटती रही और ये दौड़ता रहा । अनंत में मैं ही हारी और इसे जाने दिया। वहां जाना चाहिए था, वो और बात कि मैं जाना नहीं चाहती । अब दिमाग चल पड़ा था तो मैंने भी दो चार जोड़ी कपड़े रख बसेड़ा गांव की तरफ चल पड़ी।

अरे रुको एक तो मैं जाना नहीं चाहती तुम्हारी वजह से चल रही हूं तो तुम पहले ही भाग रहे हो । मैंने दिमाग को रोकते हुए कहा। वो मुस्कुराया और कहने लगा ‘जितना दूर खड़े-खड़े सब कुछ मैं भांप जाऊंगा उतना तुम कभी नहीं ‘। मैं अभी पहुंची भी नहीं थी कि वो वापस लौटकर रास्ते में मिला। अरे ! लौट क्यों आये ? क्या करूं ? सोचा जल्दी जल्दी तुमको भी लिवा चलूं। अच्छा वहां कुछ सुना ‌।

दिमाग इस बार खिलखिला कर हंसने लगा और बोला अब चलो खुद ही चलकर देख लो । करीब पन्द्रह किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद बसेड़ा गांव पहुंची। उनके आस -पास घर के हर एक सदस्य की मौजूदगी देख मैंने पूछा – कुछ नहीं ऐसा तो कभी नहीं सुना न देखा है हां कहावतें जरुर सुनी है। क्या कहावतें सुनी है ?

कुछ नहीं कहकर पास खड़ी बुआ,भाभी , चाची सब वहां से चली गयी। दिमाग अभी भी धक्का दे रहा था और मैंने उनके बिस्तर की तरफ बढ़ी अरे इंफेक्शन हो जायेगा मत जाओ।

एक न सुनकर वहां पहुंच गयी देखा तो उनके ऊपर और आस पास सफेद -सफेद कोई चीज रेंग रही है। डरते -डरते हाथ उठाकर अपने हाथ में लिया उनकी आंखों से आंसू टपक रहे थे मेरे मुंह से इतना ही निकला आपके जल्दी ठीक होने की कामना करुंगी । सबसे ज्यादा आपने हौसला बढ़ाया है ये कहकर कि ये लड़की देखना एक दिन सबको —–?आज उसके विलोम बोल रही हूं क्योंकि विलोम शब्द का भी बहुत महत्व है इसलिए —-। मैं कुछ बोलने ही जा रही थी कि दिमाग बाहर घसीट लाया और कान में फुसफुसाया जो समझ नहीं पायी हां जब उसने जोर से बोला काश ये बात ——।