सफर | Safar short story in hindi | Ratna Singh
सफर | Safar short story in hindi | Hindi story
पता नहीं क्यों मुझे घटना, घटना लगती है? चाहे पुरानी हो या नयी। मुझे अनेकों बार कहा गया , क्या वही घिसी-पिटी बात करती? कहे भी क्यों न। बात करीब चौबीस वर्ष पहले की है, जब आराध्या दो साल की थी। देश-दुनिया से कोसों दूर नाता, फिर भी उसे दुनिया जहांन की बातों में ऐसा लपेटा गया कि आज भी भूल नहीं पाती। आज शाम बालकनी में बैठकर चाय पी रही थी। आज भाई भी आफिस से देर में आयेगा। अस्पताल की नौकरी भी सुबह की आठ से दो करके आ गयी। इसलिए चाय में कोई हड़बड़ी नहीं, खाना वैसे भी दस के पहले कोई खायेगा नहीं। चाय की चुस्कियों के साथ-साथ एक कहानी पढ़ रही थी। तभी कहानी के एक पात्र की घटना आराध्या के जीवन की घटना से बिल्कुल मिलती-जुलती चल रही थी। आराध्या ने जबसे होश संभाला; तभी से उसे चारों तरफ यही सुनना पड़ता कि देखना ये अपनी कलूटी शक्ल के जैसे एक दिन सबका मुँह काला करेगी। गाँव और पड़ोसी तो सुनाते ही, घर के लोग उससे पहले सुना जाया करते। जब उसने पढ़ना शुरू किया तब कलेक्टर बनेगी। खा-खा कर इतनी मोटी हो रही है अब तो इसे ब्याह देना चाहिए। पता नहीं कब इसका —-बाप सुनता ही नहीं।
सबसे दिलचस्प बात तो ये कि आराध्या साइकिल लेकर स्कूल निकल जाती। घर आकर अपने कामों में लग जाती। किसी की बात का कोई असर नहीं और हो भी क्यों ? माँ-बाप का इतना साथ जो मिल रहा था। एक बात तो कभी नहीं भूल सकती, क्योंकि उसकी जिंदगी के शुरुआती दौर का जो साल था मैट्रिक की परीक्षा। कल उसका मैट्रिक अर्थात दसवीं का इम्तिहान और आज जोर-जोर से फिल्मी गानों और बीच-बीच में फब्तियों की आवाज़ –। वो फब्तियाँ कसी गयी थी जिंदगी मोड़ने के लिए, लेकिन आराध्या को ही बदल दिया और वो मैट्रिक में पहला स्थान ले आयी । सब लोग खड़े थे सिर्फ आराध्या और उसकी जिंदगी बैठी। शनैःशनैः समय व्यतीत हुआ, उसने पढाई पूरी कर ली। ईश्वर के आशीर्वाद से नौकरी भी लग गयी। अब वो नौकरी करने बाहर चली गयी, फिर भी बदलने वाले लोग पीछे लगे रहे
। ये बातें तो बहुत साधारण सपाट और उबाऊ लगेंगी, लेकिन कहने का उद्देश्य मात्र ये है कि आज जब उनकी तबियत खराब हुई तो सबसे पहला फोन आराध्या को लगाया कि बहुत बीमारी हूँ। आराध्या नौकरी की वजह से मीलों दूर थी फिर भी पूरी कोशिश की। उसकी सहेली वहीं पास में एक अस्पताल में काम करती है जिससे फोन करके बता दिया। फिर भी उनकी ऐंठन कम नहीं हुई। बेटी के आते ही किसी का एहसान नहीं चाहिए। जितना पैसा लगाना पड़ेगा लगाऊंगी, लेकिन आराध्या से क्यों कहा वो काली कलूटी क्या कर पायेगी। कुछ कर भी पाती तो अपनी शक्ल ही ठीक कर लेती।
आराध्या भी सहेली को मना कर अपनी नौकरी में लग गयी। दो-तीन दिन बीतने के बाद जब ऐंठन बेटी का फोन आया तो आराध्य आश्चर्यचकित- क्या हुआ ? कुछ नहीं! खाना पीना कुछ नहीं जा रहा है। डाक्टर ने घर ले जाने कह दिया। यार आराध्या कुछ करो। ठीक है, परेशान मत हो कुछ करती हूँ। लेकिन सुनो इनके नाक में नली लगवा देती हूँ, जिससे शरीर में थोड़ा- थोड़ा खाना जायेगा और शरीर को ताकत मिलेगी, हो सकता है स्वास्थ्य में सुधार आ जाये।
आराध्या लेकिन डॉक्टर उसके लिए भी तैयार नहीं है। कोई बात नहीं, गाड़ी में बिठाकर संगम अस्पताल ले जाओ फोन कर रही हूँ, नम्बर भी भेज देती हूं। वहाँ जाकर कह देना आराध्या ने भेजा है। फोन लगा कह दिया सहेली को यार कर देना इतना काम पैसे कितने? सहेली की आवाज -पैसे क्या होते हैं? आराध्या तू भी पागल हो गई है। अच्छा सुन शायद उनका ही फोन है, तू रख बाद में बात करती हूँ। ठीक है ठीक है और फोन कट गया। करीब आधे घंटे के बाद आराध्या ने दोबारा फोन किया।
सहेली, काम कर दिया है। वो लोग घर भी पहुँच गये होंगे। सब समझा भी दिया है। धन्यवाद आराध्या ने कहा तो सहेली का जवाब तू अबकी बार आयेगी तो पिटेगी। अच्छा सुनो यार मरीज बहुत ज्यादा है बाद में बात करेंगे। ऐंठन बेटी को भी फोन करके पूछ लिया। हाँ आराध्या सब ठीक है। नली से खाना और दवाई दे दिया है। अभी सो रही हैं। जब भी कोई जरूरत हो फोन कर लेना। ठीक है आराध्या, लेकिन ऐंठन की लकीर अभी भी बातों से झलक रही थी। आराध्या को लग रहा था कि वो अब काली कलूटी के सफर से बाहर निकल रही है।