भारतीयता की पोषक हिन्दी और इसका वैश्विक स्वरूप/ रश्मि लहर
भारतीयता की पोषक हिन्दी और इसका वैश्विक स्वरूप/ रश्मि लहर
प्राचीन काल में भारत में प्रमुख रूप से आर्य परिवार एवं द्रविण परिवार की भाषाएं बोली जाती थीं । उत्तर भारत की भाषाएं आर्य परिवार की तथा दक्षिण भारत की भाषाएं द्रविण परिवार की थीं । उत्तर भारत की आर्य भाषाओं में संस्कृत सबसे प्राचीन है जिसका प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है, इसी की उत्तराधिकारिणी हिन्दी है ।
आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते हैं वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है । हिन्दी वस्तुतः फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है हिन्दी या हिंद से सम्बंधित । हिन्दी शब्द की निष्पत्ति सिन्धु-सिंध से हुई है क्योंकि ईरानी भाषा में ‘स’ को ‘ह’ बोला जाता है। इस प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है । कालातंर में हिंद शब्द सम्पूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा है । इसी ‘हिंद’ शब्द से हिन्दी बना ।
आधुनिक आर्य भाषाओं में, जिनमें हिन्दी भी है, का जन्म 1000 ई. के आस पास ही हुआ था किन्तु उसमें साहित्य रचना का कार्य 1150 ई. या इसके बाद आरंभ हुआ । हिन्दी भाषा का विकास अपभ्रंश के शौरसेनी, मागधी और अर्ध मागधी रूपों से हुआ है।
वैश्वीकरण, ग्लोबलाइजेशन या भूमण्डलीयकरण का अर्थ है विश्व में चारो ओर अर्थव्यवस्थाओं का बढ़ता हुआ एकीकरण। निःसंदेह यह एक आर्थिक अवधारणा है जो आज एक सांस्कृतिक एवं बहु-अर्थों में भाषाई संस्कार से भी जुड़ चुकी है । वैश्वीकरण आधुनिक विश्व का वह स्तंम्भ है जिस पर खड़े होकर दुनिया के हर समाज को देखा, समझा और महसूस किया जा सकता है। वैश्वीकरण आधुनिकता का वह मापदण्ड है जो किसी भी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र को उसकी भौगोलिक सीमाओं से परे हटाकर एक समान धरातल उपलब्ध कराता है, जहाँ वह अपनी पहचान के साथ अपने स्थान को मजबूत करता है । इसके प्रवाह में आज कोई भी भाषा और साहित्य अछूता नहीं रह गया है, वह भी अपनी सरहदों को पारकर दुनिया भर के पाठकों तक अपनी पहचान बना चुका है, जिसमें दुनिया भर के प्रबुद्ध पाठक भी एक दूसरे से जुड़ चुके हैं और साहित्य का वैश्विक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन संभव हो पा रहा है ।
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असंख्य अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के विद्वानों ने न केवल हिन्दी को अपनाया वरन उन्होने हिन्दी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित भी कराना चाहा और सभी जगह घूम-घूमकर हिन्दी का बिगुल बजाया साथ ही विदेशों में भी जाकर हिन्दी की पुरजोर वकालत की और अंतराष्ट्रीय परिदृश्य में हिंदी का परचम लहराया । इस सम्बंध में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का योगदान महत्वपूर्ण है । गुजराती भाषी महात्मा गाँधी ने कहा था “हिन्दी ही देश को एक सूत्र में बाँध सकती है । मुझे अंग्रेजी बोलने में शर्म आती है और मेरी दिली इच्छा है कि देश का हर नागरिक हिन्दी सीख ले व देश की हर भाषा देवनागरी में लिखी जाए” गाँधी का मानना था कि हर भारतवासी को हिन्दी सीखना चाहिए। इसी तरह मराठी भाषी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने एक अवसर पर कहा था “हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी ।” स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, सुभाषचंद्र बोस, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, केशवचंद्र सेन आदि अनेक अहिन्दी भाषी विद्वानों ने हिन्दी भाषा का प्रबल समर्थन किया और हिन्दी को भारतवर्ष का भविष्य माना । स्वामी विवेकानन्द ने तो सन 1893 ई. में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में ‘पार्लियामेंट आफ रिलीजन’ में अपने भाषण की शुरूआत भाइयों और बहनों से करके सब को मंत्रमुग्ध कर दिया था । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिन्दी में रचकर हिन्दी को एक प्रतिष्ठा प्रदान की । कवि राजनेता और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने जनता सरकार के तत्कालीन विदेशमंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में पहला भाषण देकर इसके अंतराष्ट्रीय स्वरूप और महत्व में अत्यंत वृद्धि की।
14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा घोषित किया । तब से लेकर अब तक हिन्दी के स्वरूप में उत्तरोत्तर विकास औए परिवर्तन हुआ है । आज हिन्दी भी वैश्वीकरण की बयार से अछूती नहीं है । आज हम यह कह सकते हैं कि हिन्दी भाषा एक बार फिर नई चाल में ढल रही है ।
मैं कहना चाहूँगी कि आज हिन्दी भारत के साथ-साथ विश्व भाषा बनने को तैयार है । आज हिन्दी बाजार और व्यापार की प्रमुख भाषा बनकर उभरी है । हिन्दी आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी मजबूत जगह बना चुकी है । अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्पष्टतया घोषणा की कि “हिन्दी ऐसी विदेशी भाषा है जिसे 21वीं सदी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिका के नागरिकों को सीखना चाहिए” । अमेरिका में भी आज हिन्दी भाषा का प्रयोग बढ़ा है । इस प्रकार हम कह सकते हैं आज हिन्दी अंतराष्ट्रीय स्तर पर किसी पहचान की मोहताज नहीं है वरन उसने विश्व परिदृश्य में एक नया मुकाम हासिल किया है ।
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आज अप्रवासी भारतीय पूरे विश्व में फैले हैं । एक आँकड़े के अनुसार इनकी संख्या पूरे विश्व में लगभग 2 करोड़ हैं । जिनके मध्य हिन्दी का पर्याप्त प्रचार प्रसार है । विश्व में हिन्दी शिक्षण को बढ़ावा देने के लिए निजी संस्थाएं, धार्मिक संस्थाए और सामाजिक संस्थाएं तो आगे आ ही रही है, सरकारी स्तर पर विद्यालय एवं विश्वविद्यालय द्वारा भी हिन्दी शिक्षण का बखूबी संचालन किया जा रहा है । उच्च अध्ययन संस्थानों में भी अध्ययन – अध्यापन एवं अनुसंधान की अच्छी व्यवस्था है । इस सम्बंध में अमेरिकी विद्वान डा. शोमर का कहना है कि “अमेरिका में ही 113 विश्वविद्यालयों और कालेजों में हिन्दी अध्ययन की सुविधाएं उपलब्ध हैं । जिनमें से 13 तो शोध स्तर के केंद्र बने हुए हैं ।“ आँकड़े बताते हैं कि इस समय विश्व के 143 विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षा की विविध स्तरों पर व्यवस्था है ।
भारत के बाहर जिन देशों में हिन्दी को बोलने, लिखने-पढ़ने तथा अध्ययन और अध्यापन की दृष्टि से प्रयोग होता है उनको अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से निम्न वर्गों में बाँटा जा सकता है –
- जहाँ भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या में रहते हैं, जैसे पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यामांर, श्रीलंका व मालदीव आदि ।
- भारतीय संस्कृति से प्रभावित दक्षिण पूर्वी एशियाई देश जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, चीन, मंगोलिया, कोरिया तथा कनाडा ।
- जहाँ हिन्दी को विश्व की आधुनिक भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है, जैसे अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूरोप के देश ।
- अरब तथा अन्य इस्लामी देश जैसे संयुक्त अरब अमीरात (दुबई), अफगानिस्तान, कतर, मिश्र, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि ।
अंत में मैं यह कह्ना चाह्ती हूँ कि भारतीयता की पोषक हिन्दी और इसका वैश्विक स्वरूप आज अपने श्रेष्ठ रूप में परिलक्षित हो रहा है । हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने के लिए प्रयत्नशील है । 21वीं सदी के पहले दशक में हिन्दी भाषा में जो परिवर्तन हुए हैं वे साधारण नहीं है । आज हिन्दी का स्वरूप ग्लोबल हो चला है । भाषा और व्याकरण में नए प्रयोग किये जा रहे हैं । साथ ही आज हिन्दी का महत्व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ रहा है ।