मुकेश कुमार सिन्हा की हिंदी कहानी | Hindi Story of Mukesh Kumar Sinha
मुकेश कुमार सिन्हा की हिंदी कहानी | Hindi Story of Mukesh Kumar Sinha
‘हिन्दी रचनाकार’ और ‘कविता घर’ के समामेलन और एकीकरण में करायी गयी ‘रेलवे स्टेशन की कुर्सी लेखन प्रतियोगिता’ में आपका भाग लेना सराहनीय है और दोनों साहित्यिक परिवार की तरफ से आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं.
बात 26 वाले जनवरी के पूर्व संध्या की थी,
लड़के ने बिहार जाने वाली ट्रेन में स्लीपर क्लास में टिकट लिया और फिर हेड क्वार्टर कोटे से टिकट कन्फर्म करवा कर नई दिल्ली स्टेशन की एक कुर्सी पर आराम से पसर कर अम्मा को अकड़ कर बताया कि टिकट कन्फर्म करवा लिए हैं, उपरका सीट मिला है, खूब सुतते हुए आवेंगे, तब जाकर उसको लगा कि आह सरकारी बाबू बनना कितना सुकून वाली बात है । और कुछ नहीं तो दिल्ली में रहने वाले बिहारियों के लिए रेलवे टिकट का कन्फर्म हो जाना, कुछ ऐसा होता है जैसे धर्मशाला में ठहरने गए पर कमरा मिला 2-3 स्टार टाइप होटल का। और कभी अपने भाई बन्धु का रेलवे टिकट कन्फर्म करवा पाए तो कॉलर इतना खड़ा हो जाता है कि चेहरा भी छिप जाए ।तो लड़के ने कम्पार्टमेंट में दाखिल होते हुए, लाइफ का सारा टेंशन निचोड़ते हुए धपाक से बैग रखा और आंख तरेरते हुए दु-ठो अम्मा और तीन बच्चों को बताया सीट छोड़िए जल्दी से, हमरा कन्फर्म्ड सीट है।
समझे न।वो सभी भी तो बिहार से ही थे, बिहार ही जा भी रहे थे, अंखियों से गुर्राते हुए जबाब मिला ऊपरका सीट है आपका, शाम हो गया है, उपरे जाकर बैठिए, ज्यादा बकबकाइये मत । बेचारा लड़का दौड़ते हुए ट्रेन पकड़ने के दर्द से जो हलकान हो रहा था उपरका सांस ऊपर ही रखते हुए , तुरंत चिल्ल होके धीरे से बोला – चच्ची, अभी तो बैठने दो थोड़ी देर बाद, अपने बर्थ पर चला जाऊंगा । फिर कुछ खिसकते-खिसकाते हुए लड़के का प्लेटफॉर्म सीट पर अटक ही गया।बड़ा शांति जैसा माहौल था, 3-4 लोगो को मोबाइल पर टिपटिपाते देखते लग गया कि फेसबुक अपडेट शुरू हो गया है । लड़के ने भी ट्रेन/स्टेशन के वाईफाई के इस्तेमाल से जल्दी में अपडेट मारा- “सेफली रिचड अपटु ट्रेन कंपार्टमेंट”, विथ सेवेंटी वन अदर्स।अंग्रेजी भी ‘रिंकिया के पप्पा’ गाने लगी, ताबड़तोड़ लाइक कमेंट्स देख कर।एक गांव के दोस्त ने झटपट कमेंट मारा – अबे भुसकोल, उड़ो मत, आ कर दारू का इंतजाम करना है तुमको, याद रखना ।कुछ गांव वाली दोस्त जो बियाह गयी थी, पर थी मायके में ही, उसमें से, कोई एक चहक कर गुलाबी दिल दे बैठी, पर फिर ग्रामीण लोक लिहाज में उसको नीला कर गयी, ताकि बस लड़के तक लाइक का रंग-परिवर्तन पहुँच जाये । प्रेम तो बस ठहर ठहर कर अपना रंग दिखाना ही चाहता है, है न |
दुठो महिलाओं में से एक ठो, जिनको सिर्फ थोड़ा सा रेस्पेक्ट से बोलने भर से चलता, मने उन्हें चाची-आंटी कहना गुस्ताखी थी, वो कनखी से लड़के को ही देख रही हैं। ऐसे भी समय के साथ, महिलाएं सुंदर लगने लगती हैं, तिस पर जब वो सहयात्री हों जो अगले पूरे चौबीस घंटे साथ रहने वाली हैं, तो वाजिब भी है। ऊपर से अकेले सफर करते समय तो तनी ज्यादा ही खूबसूरत दिखना सम्भव भी था । पहली वाली मने बड़की चाची शुद्ध भोजपुरी में 19 मिनट से लगातार अपने पटना वाले दीदी को बता रही कि केतना दिक्कत से तुमसे मिलने आ रहे हैं। खैर ! तुम थोड़ी बुझोगी !बेचारा लड़का जैसे ही सीट पर टिका, ऊपर वाले बर्थ से 5 टाँगे माथे पर लटकी अनुभव होने लगी, मने दो लोगो ने अपनी दोनो टाँगे पसार रखी थी जबकि तीसरा एक मोड़ कर शायद अपने टखने को आराम दे रहा था | भारतीय रेल के कम्पार्टमेंट की यही खूबसूरती दिल जीत लेती है, कितना सामाजिक सा होता है सब-सब, माथे पर टंगी टाँगे भी कभी कभी बुरी नहीं लगती, अद्भुत सा नजारा | अगर लटके टांग से जूता माथे पर गिरे, तो चुपचाप जूता उठाकर देने का काम भी उसी का होता है, जिसके माथे पर जूता टन से गिरा था। खैर, ट्रेन सिर्फ 7-8 मिनट विलंब से चली तो लड़के के अंदर के गुलाबी अलिंद-निलय से हुर्रे की आवाज आई, फिर बेचारे लड़के ने दस रुपये में खरीदी हुई सिर्फ चीनी वाली चाय की सिप ही ली थी कि ट्रेन के खुलते ही सामने भुंजिया परांठा वाला टिपिन खोल दी बगल वाली आंटी। लेकिन पूछ नहीं रही कि एक परांठा लीजियेगा क्या ? कितना दर्द अनुभव हुआ, ये उसी को पता था।हां, कुछ पल ठहर कर खूबसूरत सी दिखने वाली महिला, जो लड़के को नवयुवती सी दिखने लगी थी, ने एक नमकीन परांठा बिना देखे बढाया तो लड़के को सुर्ख लाल जोड़े में ‘लाल फ़्रॉक वाली लड़की’ का अक्स नजर आया। फैंटेसी की दुनिया, कभी भी किसी भी पल जीवंत हो जाती है, नजरों का गुलाबीपन पल भर मे उतर आता है |
परांठे का पहला कौर ही लिया था कि ट्रेन नई दिल्ली से खुल कर अब शिवाजी ब्रिज पर धचके के साथ रुक कर शायद ये बताना चाह रही कि कइसन बेवकूफ बाबू हो कल हैप्पी रिपब्लिक डे वाला नरेंद्र मोदी का परेड बिन देखले बिहार जाओगे तो खाक बताओगे इहाँ का लेफ्ट राइट | धुत्त बुरबक !फिर जैसे-जैसे ट्रेन का सफर कुछ घंटों मे बीतता है, माहौल एकदम फेसबुक के दोस्त से क्लोज्ड या स्टार वाले दोस्त जइसन होने लगता है | आप कहाँ से हैं, क्या करते हैं से लेकर गलबहिया तक का ख्याल होने लगता है | सामान ऊपर रख दीजिये, जरा वो वाला बैग दीजिएगा या कौन सा मैगजीन पढ़ रहे हैं जैसे सँवाद या ऑर्डर दिए जाने लगे थे। सीमित जगह में जब पता हो कि साथ का समय भी सीमित है, तो अंदर से उठने वाले उद्वेग का संवेग भी ज्यादा ही रहता है, सब कुछ जल्दी, परिचय से नैन मटक्का तक। दौड़ती भागती ट्रेन में लाइट बुझने के बाद भी नाइट बल्ब वाले छाए में दो नजरें कब गुलाबी होने लगी, इसका कानोकान खबर नहीं था | मौन में ही करवट बदलने का अर्थ लड़के ने गुड नाइट समझा |जो मैडम कल सिर्फ एक परांठा बढ़ा कर, घी से तर परांठों को कनखियाते हुए हमें देख कर उदरस्थ कर रही थीं, आज पूरे दस रुपए की चाय अपने भैया के सामने खरीद कर लड़के को परोसी – लीजिये न । लड़के ने बदले में क्रेकजेक बिस्किट का डब्बा ये सोच कर बढ़ाया कि कोई कहे मीठा, कोई कहे नमकीन, क्रेकजेक के स्वाद में खो जाये सब लेकिन | कुछ घंटों के सफर का गुलाबी चश्मा शायद दोनों ने पहन ही लिया था, तभी तो नजरों मे गुलाबीपन सहेजे किसी ने किसी वजह से आदान-प्रदान कभी किताब तो कभी खान-पान का ज्यादा ही होने लगा था |अइसन में काहे नहीं ट्रेन लेट होने की कामना में लड़का भी हनुमान चालीसा मनो-मन पढ़ रहा था शायद । अगले स्टेशन पर लड़के ने इलाहाबादी अमरूद जो अंदर से दिल जैसा ही गुलाबी था, पूरे आधा किलो खरीद कर बढ़ा दिया। आखिर गिव एन्ड टेक का जमाना है बन्धु, साथ ही कुछ बातें तो समझनी होती है | दिल दा मामला था |
परांठे, मिक्सचर, तिल के लड्डू, अंगूर, अमरूद का भोग लग चुका था, चाय तो बस बहे ही जा रही थी, पर ट्रेन सिर्फ भागिए रही थी या थमी हुई थी, इस ओर ध्यान ही नहीं था । लड़का सीधे कुछ कह तो नहीं पा रहा था, पर कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाने के तरह सोचते हुए “लाल फ्रॉक वाली लड़की” प्रेम कहानी, लड़की के ओर बढ़ा दिया| लड़की ने आंखो से पूछा – ऐसी हूँ क्या ?लड़का बेशक लड़की के तरफ आकर्षित था, पर एक और साहित्यकार टैप के दोस्त से दोस्ती गांठते हुए उनसे कथादेश की प्रति मांग बैठा | ट्रेन यात्रा अखबारों-किताबों के अदला बदली के लिए बेहद मुफीद जगह होती है, बेशक उसके बाद किताब सरकते सरकते कुछ ज्यादा दूर ही पहुँच जाये । फिर ट्रेन के स्लीपर क्लास में यात्रा करने वाले यात्रियों के लिए किताबों के साथ वाला व्यक्ति थोड़ा एरिस्टोक्रेट टाइप तो लगता ही है | लड़का भी इसी बहाने बिना ये समझे कि कुछ घंटे बाद ‘हम यहाँ, तुम यहाँ’ होंगे, पर उसका धड़कता दिल चाहते न चाहते लड़की को इम्प्रेस करने के बहाने ढूंढ रहा था |ट्रेन बस 8 घंटे ही विलंब हो चुकी थी, मुगलसराय नहीं पंडित दिन दयाल उपाध्याय नगर स्टेशन आने वाला था, पूरे ट्रेन से 3600 फेसबुक स्टैट्स डल चुके थे – “फीलिंग अनोएड, ट्रेन लेट” विथ थाउजेंड अदर्स, टाइप के फूल अंग्रेजी में ।तीन चार लोगो ने तो रेल मंत्री को टैग कर के ट्वीट भी किया, काहे की लैटरीन में डब्बा नहीं था । वैसे ये बुझाता नही है कि एयर कंडिशनड डब्बे में चेन लगा डब्बा अगर प्रोवाइडेड है तो स्लीपर क्लास में काहे यूज्ड बिसलरी बोतल यूज करना पड़ता है।
खैर, इन सबसे इतर लड़का तो बस रियल वाले गुलाबी आबोहवा में व्यस्त था | बेशक उस ट्रेन वाली सह-यात्रिणी की अम्मा को भी खटकने लगा था ये एकदम वाली नजदीकी। पर कभी कभी अम्मा भी विलेन न बन कर ये महसूसना चाहती हैं कि गर कुछ 20-25 वर्ष पहले की घटना होती तो कैसे उनके चेहरे पर चमक दौड़ती। आश्वस्ति का आलम ये था कि जैसे परमिशन हो, खींच लो सफर भर गुलाबी रेखाएँ। आखिर लड़का उनके लिए भी सुविधाओं से लैस होकर कभी बिसलरी तो कभी चाय आदि ला ही रह था।ट्रेन शायद 10 बजे रात तक पटना पहुंच जाएगी, दोपहर के तीन बज चुके थे, बात सिर्फ नजरों के सफर तक ही जारी था | लड़का रुके हुए ट्रेन से बाहर घुघनी खाने की कोशिश में था, थोड़ा ज्यादा प्याज नहीं मूली डलवा कर, काहे कि पियाज बहुत महंगा है साहब । लड़के को एक ज्ञान और मिला कि ये घुघनी इसलिए काला है क्योंकि इसमें चाय की पत्ती डाली गई है । लड़के ने खिड़की से दिखा कर बस आंखो से पूछा चाहिए, लड़की ने नजरों से घूमा कर पूरे अपनेपन से कहा – चाय भेज दो | उफ्फ्फ पर बड़की आंटी को लेमन टी चाहिए। लड़के ने मुसकियाते हुए लड़की को कह ही दिया, काश चाय की केतली के साथ तुमरे साथ सफर करता | प्यार मे तो हर झूठ इतना पावन होता है जैसे सीप के लिए हो स्वाति बूंद, है न | लड़के ने चाय बाहर से अंदर की ओर बढ़ाई तो लड़की ने स्नेह से कहा, अंदर आ जाओ, ज्यादा हीरो मत बनो |
बेवजह का ऑर्डर कितना दिल पर मुक्का मारता है, ये लड़के के चेहरे की मुस्कुराहट बता रही थी।सफर कब हमसफर बना देता है, पता भी नहीं चलता | असहजता का दायरा सिकुड़ कर सहज हो चुका था |समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, शुरू करो अंताक्षरी लेकर हरी का नाम, – विलंबित ट्रेन ने एक और वजह दिया तो बच्चो के साथ कुछ बड़े जैसे बच्चे यानि उस कम्पार्टमेंट के मुख्य पात्र लड़का – लड़की भी गाने में हिस्सेदारी लेने लगे, और तो और दोनों और से लगातार प्रेम संगीत के धुन, बेसुरा ही सही, लगातार सवाल-जवाब के तरह बजने लगे | बातों और जज़्बातों को जैसे समय के पंख लग गए, घंटे यूं बीतने लगे जैसे वो पल दो पल की बात हो | “दिल का रस्ता, दौड़ने लगा सफर के रास्ते, बिन कहे लगा ऐसा की तू मेरे वास्ते, मैं तेरे वास्ते”| कब गाने के बोल के माध्यम के बीच दो अनजानी हथेली चिपकी ये भी कहाँ किसी को दिखा। सांझ का समय दो अंजाने आशिक गाते हुए – कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया !ट्रेन दानापुर पहुँचने वाली है, ऐसा सुनते ही, एकदम से लड़के ने लड़की की ओर निहारा तो लड्की ने भी लड़के को प्रेम के चाशनी में डूबे नजरों से बस देखते हुए, अंततः जोर से हथेली पकड़ते हए जतला ही दिया, काश ये सफर लगातार जारी रहे |
ट्रेन बिहटा से भी खुल चुकी थी, लड़की को अनुभव हुआ जैसे कोई मुड़ातुड़ा कागज पकड़ाया गया हो। दम साधे उसने जोर से भींच लिया। लड़का, लड़की के सारे समान का रखवाला बनकर लाइन लगाकर रख रहा था। रखते हुए धीरे से कहा भी नम्बर दिए हैं, फोन करोगी न ….।हर प्रश्न का जबाब नहीं होता, लड़की ने बस फिर से उसकी हथेली पकड़ ली । लेट ट्रेन सचिवालय हाल्ट पर थमते हुए बताई, सिग्नल नहीं मिला है, कुछ क्षण और दोनो निहार सकते हैं । जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर, कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं के तर्ज पर दोनो ट्रेन के सफर को यादगार बनाये स्टेशन पर ट्रेन के लगने का इंतजार कर रहे थे। दोनो की एक एक हथेली बिना डर के जुड़ी थी। लड़की के दूसरे हथेली में लड़के का पता/मोबाइल नम्बर सांसे ले रहा था। लड़के ने लड़की के हथेली को होंठों तक लाकर, चुपके से बोसा लिया। ट्रेन फिर एक धचके से रुकी, ऐसा लड़की ने अनुभव किया ।ट्रेन एक नम्बर प्लेटफॉर्म पर लग चुकी थी, लड़की के परिवार को लिवाने कुछ मुस्टंडे जैसे रिश्तेदार आ चुके थे। प्रेम पर डर का मक्खन ऐसा चढ़ा कि लड़के ने थोड़ी सी दूरी बनाई।
पर सोच ये थी कि फोन तो आएगा ही …ऑटो पर बैठते हुए पता नहीं कब लड़की का मुट्ठी खुल गया और …… और लड़का 26 जनवरी से आजतक मोबाइल फूल चार्ज करके इस इंतजार में रहता है कि बस फोन आने ही वाला है।एक यादगार सफर ने बस इतना बताया, हर सफर को मुकाम बेशक न मिले, पर सफर सफरिंग नहीं होता है। गुलाबी यादों में लाल फ्रॉक वाली लड़की का चेहरा जो बदल चुका था ।।।।।लॉक डाउन पीरियड में समय काटने के लिए एक बेहद गुलाबी स्मृति लड़के के पास थी। शायद लड़की के पास भी होगी…. है न!.वैसे भी किसी भी कथानक में नाटक और हीरोइस्म रोजमर्रा की परेशानियों से गुथा होता है, सुखद अंत, अरे भाई हैप्पी एंडिंग की बात करें तो वह इतने दबे पाँव आती है कि हो सकता है आप उसके परदे पर आने से पहले ही सिनेमा हॉल से निकल चुके हों……., या फिर अंतिम मिनट में निर्देशक मनमानी कर जाए, तो ऐसे समझें कि हर कहानी को अंत तक खींचने के लिए नहीं लिखा जाता है, समझे न बुरबक ~मुकेश~
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मुकेश कुमार सिन्हा मोबाइल. +91-9971379996लोधी कॉलोनी, नई दिल्ली ब्लॉग : www.jindagikeerahen.blogspot.comमेल : mukeshk.sinha@nic.in