श्रीधर पाठक : राष्ट्रप्रेम और प्रकृति उपासक | Shridhar Pathak
श्रीधर पाठक : राष्ट्रप्रेम और प्रकृति उपासक | Shridhar Pathak
द्विवेदी युग के प्रखर कवि श्रीधर पाठक का जन्म 11 जनवरी सन 1860 ई० को जोन्धरी, जनपद आगरा में हुआ था। इनके पूर्वज पंजाब प्रांत से आकर आगरा में बस गए थे। पिता लीलाधर श्रीमदभगवत भक्त थे, तो वही बाबा श्री कुशलेश पाठक हिंदी के प्रमुख कवि थे। इसलिए कहा जाता है कि श्रीधर पाठक को कविताई विरासत में मिली थी। श्रीधर पाठक की शिक्षा का प्रारंभ संस्कृत भाषा से हुआ। इसके बाद अंग्रेजी और फारसी का अध्ययन किया। सन 1875 ई० में एंट्रेंस परीक्षा में पूरे प्रान्त में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। सन 1879 में मिडिल और सन 1881 में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। परास्नातक में प्रवेश लिया, किंतु प्रिंसिंपल से विवाद हो जाने के कारण वकालत की भी पढ़ाई की। घर की आर्थिक स्थिति दयनीय होने के कारण जीविकोपार्जन के लिए कुछ दिन सरकारी अध्यापक पद पर नौकरी की। बाद में कोलकाता में सेशंस कमीशन में जनगणना आयुक्त के पद पर अंग्रेजों की सरकारी नौकरी कर ली, किंतु तन-मन में स्वदेश भारत ही बसा था। पाठक जी अपने दायित्वों का निर्वहन सत्य निष्ठा के साथ करते थे। इसके बाद इलाहाबाद (प्रयागराज) में गवर्नर कार्यालय में नौकरी करने लगे, फिर स्थानांतरित होकर नैनीताल चले गए। नैनीताल का सुरम्य, प्राकृतिक, मनोहारी वातावरण होने के कारण पाठक जी यह जन्नत जैसा स्थान छोड़ना नहीं चाहते थे। यही कारण है कि नैनीताल की प्राकृतिक वादियों और कल्पनाओं ने श्रीधर को कवि बना दिया था। बाद में आगरा में स्थानांतरित होकर आ गए और वहीं आगरा में ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। हिंदी साहित्य का पाँचवां सम्मेलन सन 1915 में लखनऊ आयोजित किया गया, जिसके अध्यक्ष श्रीधर पाठक थे और वहीं आपको कवि भूषण की उपाधि दी गई। बाद में पाठक जी अध्यात्म, शिक्षा, ज्ञान का केंद्र, संगम नगरी इलाहाबाद (प्रयागराज) के लूकरगंज में अपना निजी आवास बनाकर रहने लगे और अपने मंदिर रूपी आवास का नाम रखा- पद्मकोट। अंत में पाठक जी 13 सितंबर सन 1928 को मंसूरी में हमेशा-हमेशा के लिए चिरनिद्रा में लीन हो गए।
राष्ट्रकवि श्रीधर पाठक की प्रमुख रचनाएं-
मनोविनोद, जगत सच्चाई सार, कश्मीर सुषमा, वनाष्टक, देहरादून, भारत गीत, गोखले गुणाष्टक, एकांतवासी योगी, ऊजड़ग्राम, शान्त पथिक, ऋतुसंहार आदि हैं। जिस समय श्रीधर पाठक ने साहित्य जगत में कदम रखा, उस समय ब्रजभाषा और खड़ी बोली में प्रतिद्वंदिता चल रही थी। दोनों भाषाएं और उनके समर्थक एक-दूसरी भाषा को पिछाड़ने में लगे थे। भाषाई शह-मात के खेल में पाठक ने भी प्रारम्भ में ब्रज भाषा में रचनाएं लिखा, फिर गहन चिंतन-मनन किया कि ब्रजभाषा से लंबी दूरी तय नहीं की जा सकेगी। ब्रज भाषा को छोड़कर अंत में खड़ी बोली को काव्य का विषय बनाया। खड़ी बोली का समर्थन करते हुए गोल्ड स्मिथ का काव्य “दि हर्मिट” का अनुवाद “एकांतवासी योगी” नामक काव्य पुस्तक में किया। हिंदी के समर्थक विद्वान ‘पिकॉट’ ने एकांतवासी योगी अनुवाद पर पाठक जी के लिए लिखा था कि- आपका अनुवाद आपकी प्रतिभा की विजय है। काव्य संग्रह की प्रमुख पंक्ति-
“प्राण पियारे की गुणगाथा, साधु कहाँ तक मैं गाऊँ।
गाते गाते चुके नहीं वह, चाहे मैं ही चुक जाऊँ।।”
“भारत गीत’ काव्य संग्रह में पाठक जी की राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कविताएं संग्रहित हैं। यह ग्रंथ में भारत की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, समृद्धि सौहार्द और आज की गौरवगाथा भी है। पाठक जी गोपालकृष्ण गोखले के प्रबल समर्थक और उनके अनुयाई थे। इसलिए पाठक जी ने गोपालकृष्ण गोखले की मृत्यु के पश्चात “गोखले गुणाष्टक” काव्य संस्कृत भाषा में लिखा। पाठक जी देश प्रेम औऱ राजधर्म में बखूबी अंतर समझते थे, उसका निर्वहन भी करते थे। तभी तो “भारत उत्थान” कविता में देशप्रेम, राष्ट्रभक्ति की भावना वर्णित की है तो “जार्ज वंदना” में राजधर्म निभाया है।
तत्कालीन कवियों में पाठक जी ने ही राष्ट्र प्रेम के साथ-साथ प्राकृतिक प्रेम से संबंधित कविता वनाष्टक, कश्मीर सुषमा लिखा है। सन 1900 ई० से लेकर बाद के दशकों में स्वतंत्रता संग्राम की लौ हर तरफ जल रही थी। भारत के वीर सपूत तन-मन-धन से येन केन प्रकारेण भारत माता को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना चाहते थे। यही उनका एकमात्र उद्देश्य था।
द्विवेदी युग का प्रारंभ हो चुका था। सभी कवि औऱ लेखक अपनी लेखनी से वीर सपूतों के हृदयस्थल में प्राण प्रतिष्ठा, जोश भरने का कार्य कर रहे थे। मानो सोई हुई जनता को जगा रहे थे। इसके अलावा इन साहित्यकारों का कोई दूसरा उद्देश्य ना था। उस समय राष्ट्रकवि श्रीधर पाठक ने देश प्रेम के साथ साथ प्रकृति प्रेम से संबंधित रचनाएं भी लिखी हैं। ‘कश्मीर सुषमा’, ‘वनाष्टक’ में इतनी मनोहारी कविताएँ लिखी हैं मानो स्वर्ग से सुन्दर कश्मीर की आँखों देखी अनुभूति करा दी है। वनाष्टक कविता में समाहित शरद ऋतु का मनोहारी वर्णन-
“काली घटा कि घमंड घटा नभ मंडल तारक वृन्द खिले।
उजियाली निशा छविशाली दिशा अति सो हैं फूलें फले।।”
मलिक मोहम्मद जायसी जी ने जिस प्रकार “बारहमासा” में हिंदी के बारह महीनों का अद्भुत वर्णन किया है, वैसे ही पाठक जी ने भी ऋतुओं का मानो सजीव वर्णन किया है। जिसको पढ़ने कर ऐसा लगता है कि हम वास्तव में उसी ऋतु की कल्पना में पहुँच चुके हैं। प्रस्तुत है वनाष्टक में ही समाहित ग्रीष्म ऋतु से संदर्भित कविता की पंक्तियाँ-
“जलहीन जलाशय, व्याकुल हैं पशु पक्षी, प्रचंड है भानुकला।
किसी कानन कुंज के धाम में, प्यारे करैं विसराम चलौ तो भला।।”
“ऋतुसंहार” रचना का अलग ही महत्व है, क्योंकि इसमें संस्कृत के प्रकांड विद्वान आचार्य महाकवि कालिदास के नाटक के प्रारंभिक 3 सर्गों का अनुवाद श्रीधर ने ब्रज भाषा में किया है। श्रीधर पाठक ने लगभग सभी रचनाओं में अध्यात्म, योगी, तपी, राष्ट्रभक्ति, राजभक्ति, भारत की पवित्रता, प्राकृतिक चित्रण, सुख शांति, वैभव आदि का वर्णन किया है, साथ ही अपने जीवन के लक्ष्य भी भक्तिकालीन कवियों की तरह ही मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं।
श्रीधर पाठक के समय देश में भौतिक सुख साधन का अभाव था, किंतु प्रेम, सौहार्द, ममता व आपसी सामंजस्य अवश्य था। श्रीधर पाठक ने “गुनवंत हेमंत” काव्य संग्रह में खेत खलियान, मूली गाजर, गेहूँ सरसों, रहट से पानी निकालना, फूल पौधे आदि का मनोहारी वर्णन किया है। गुनवंत हेमंत का शाब्दिक अर्थ सुंदर प्रकृति और मानवीय कारणों से परिपूर्ण वसंत। कहा जा सकता है उपर्युक्त नाना विषय रूपी मोतियों को एक माला में पिरोने का प्रयास किया है-
“जहाँ तहाँ रहट परोहे चल रहे।
बटहे जल के चारों ओर निकल रहे।
जो गेहूँ के खेत सरस सरसों धनी।
दिन दिन बढ़ने लगी विपुल शोभा सनी।
सुंदर सौंफ और कुसुम की क्यारियाँ।
सोआ पालक आदि विविध तरकारियाँ।
अपने अपने ठौर सभी ये सोहते।
सुंदर शोभा से सबका मन मोहते।“
भारतेंदु युग के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र और महात्मा गाँधी ने निज भाषा हिंदी को देश की उन्नति और देश की प्रगति का संकेत माना है। उसी प्रकार द्विवेदी युगीन कवि श्रीधर पाठक ने भी निज भाषा का महत्व बताते हुए लिखा है-
“निज भाषा बोलहु लिखहु पढ़हु गुनहु सब लोग।
करहु सकल विषयन विषै निज भाषा उपयोग।।”