अमर शहीद वीर पांड्या कट्टाबोम्मन : दक्षिण भारत के रोबिन हुड

भारत को फ्रांसीसी, डचों, पुर्तगालीयों व अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए देश के कोने-कोने से वीर पुरुषों और वीरांगनाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हुए प्राण न्योछावर कर दिया। तब सन 1857 से प्रारम्भ हुई स्वाधीनता के संघर्ष की यात्रा लगभग 90 वर्ष बाद 15 अगस्त सन 1947 को स्वतंत्रत भारत के रूप मे दिखाई दी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक के असंख्य वीरों ने अपने लहू के एक एक बूँद से फिरांगियों के खिलाफ जंग-ए-आजादी की लड़ाई लड़ी है।
    दक्षिण भारत के रोबिन हुड कहे जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीरपाड्या कट्टाबोम्मन का जन्म 03 जनवरी सन 1760 को मद्रास प्रेजिडेंसी के तहत तमिलनाडु के पंचलकुरिचि नामक ग्राम के तमिल समुदाय में हुआ था।
     पिता जगवीरा कट्टाबोम्मन व माता श्रीमती अरुमुगाथमल राजसी परिवार से संबंधित थे। अंग्रेजों को उनकी रियासत पर नजर लग चुकी थी। किसी भी हाल में अंग्रेज जगवीरा का साम्राज्य समाप्त कर उन्हें अपना गुलाम बानाना चाहते थे, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका।
वीरपांडिया कट्टाबोम्मन को तमिलनाडु के पंचलकुरिचि और पलायकर (तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश, कर्नाटक ) का शासक नियुक्त किये जा चुका था। पॉलिकर वो अधिकारी होते थे, जो विजय नगर साम्राज्य के तहत कर Tax वसूलते थे।
     ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने वीरपाण्डेया को अपना साम्राज्य देने का सन्धि प्रस्ताव भेजा किन्तु, शासक वीरपांडीया ने ब्रिटिश प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। कुछ दिन बाद षड़यंत्र के तहत फिरंगियों ने पदुकोट्टई और टोंडाईमन रियासत के राजाओं के साथ मिलकर वीरपंड्या कट्टाबोम्मन को पराजित कर दिया। पॉलिगर का यह प्रथम युद्ध कहा जाता है। पॉलिगर या पालियाक़र का युद्ध तमिलनाडु में तिरुनेवल्ली के शासक और ब्रिटिश हुकूमत के मध्य लड़ा गया। अंततः ब्रिटिश सेना की जीत के साथ ही दक्षिण भारत में अंग्रेजों ने पैर पसारकर अपनी पैठ मजबूत कर ली। अब धीरे धीरे अंग्रेज दक्षिण भारत में अपनी शासन-सत्ता चलाने लगे थे।
     अंग्रेजों ने दक्षिण भारत के मद्रास प्रेजिडेंसी परिक्षेत्र में अब तेजी से अपना साम्राज्य विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया, साथ ही कर Tax वसूली की गोपनीय योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया।
     हम स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत सन 1857 से मानते हैं, किन्तु इससे भी कई दशक पूर्व तिलका मांझी, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन आदि क्रन्तिकारी स्वाधीनता संग्राम का आगाज कर चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्रांति की शुरुआत सन 1857 से लगभग 60 वर्ष पूर्व सन 1787 में अंग्रेजों के खिलाफ शंखनाद कर दिया था।
     पॉलिगार का युद्ध के समय वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों से कहा कि- ‘हम इस भूमि के बेटे बेटियाँ हैं। हम प्रतिष्ठा और सम्मान कि दुनिया में रहते हैं। हम विदेशियों के सामने सर नहीं झुकाते। हम मरते दम तक लड़ेंगे।’ इस प्रकार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने फिरंगियों को अपने पूर्वजों का शासन और अपना संघर्षशील मंतव्य प्रकट कर दिया था।
     ईस्ट इण्डिया कंपनी ने सर्वप्रथम कर Tax संग्रह की आपस में योजना बनाई। तत्पश्चात कर्नाटक में अर्कोट के नवाब से कर संग्रह की एक प्रकार से नौकरी रूप में अनुमति माँगी। अनुमति मिलते ही जनता पर अधिक कर Tax थोपना शुरू कर दिया। धीरे धीरे ब्रिटिश कम्पनी ने अपनी आय और प्रभुसत्ता बढ़ाने के साथ ही स्थानीय रियासतों के राजाओं की शक्तियाँ क्षीण कर दी। ठेकेदारी भी स्वयं करवाने लगे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब पूरी तरह से अंग्रेजी हुकूमत की कूटरचित चालें समझ चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब अंग्रेजी हुकूमत और अंग्रेजों के खिलाफ दक्षिण भारतीय लोगों को एकत्रित करके छोटी-छोटी बैठकें करने लगे, तो कभी-कभी रैलियाँ भी निकालते थे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्षेत्रीय रियासत के राजाओं से जन-बल व धन की मदद मांगी। राजा शिवकाँगा और राजा रामनाद आदि साथ खड़े हो गए, क्योंकि भविष्य में उन पर भी खतरा का बादल मंडरा सकता था।
     वीरापांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों को कर Tax देने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों के मन में तो विश्वासघात की कूटनीति चल ही रही थी। पंचालकुरिचि में एक मीटिंग के दौरान वीरपांड्या कट्टाबोम्मन और अंग्रेज अफसर क्लार्क के मध्य वाद-विवाद इतना बढ़ गया कि कट्टाबोम्मन ने अंग्रेज अफसर की मीटिंग के दसरान ही हत्या कर दी। इससे ब्रिटिश अधिकारीयों के अंदर खौफ़ भर गया, किन्तु अंदर ही अंदर षड़यंत्र करने लगे।
     कुछ समय बाद अंग्रेजों ने उचित अवसर देखकर पंचालकुरिचि पर जोरदार धावा बोलकर वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के 17 सैनिक साथियों को गिरफ्तार कर लिया। फिरंगियों ने वीरपांड्या के सबसे विश्वासपात्र थानापति पिल्लई का सिर काटकर पेड़ से लटका दिया। उसके बाद निर्दयी फिरंगियों एक-एक कर शेष सभी साथियों को मार डाला। इस हमले में वीरपांड्या कट्टाबोम्मन बचकर निकल गए थे, किन्तु अपने 17 साथियों की दर्दनाक मृत्यु पर बहुत रोये थे।
     अंग्रेज हुक्मरान लगातार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन को खोजने में लगे थे। जल, जंगल गाँव सब जगह की खाख छान रहे थे। अंत में 24 सितंबर सन 1799 को वीरपांड्या को धोखे से गिरफ्तार कर लिया। वीर सपूत पर फर्जी मुकदमें चलाकर एक माह के अंदर ही निर्णय सुनाकर कायाथारू (तमिलनाडु) में 16अक्टूबर सन 1799 को फाँसी पर लटका दिया। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के ख़ास विश्वासपात्र साथी सुब्रमण्यम पिल्लई  को भी फाँसी दे दी थी।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन की फाँसी के बाद भी दक्षिण भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की लौ धीमी नहीं पड़ी। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के भाई ओम मदुरई मोर्चा सँभालते हुई अंग्रेजों से लड़ते रहे, किन्तु ब्रिटिश हुक़ूमत के आगे उनकी भी न चली। जल्द ही गिरफ्तार करके आजीवन कारावास कि सजा देकर जेल में कैद कर दिए गए।
    वीरपांड्या कट्टाबोम्मन  की स्मृतियों को ताज़ा रखने के लिए वहाँ का किला का नाम, डाक टिकट, शहीद स्मारक, नौसेना का कट्टाबोम्मन जहाज आदि के नाम दिए गए हैं।

डॉ अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर,
(अध्यक्ष हिंदी विभाग)
रायबरेली  उ•प्र
मो.  09415951459