झांसी की रानी – रूबी शर्मा

यह भारत भूमि सिर्फ वीरों की जननी नहीं है यहाँ पर अनेक विदुषी एवं वीर बालाओं ने जनम लेकर इसके गौरवमय इतिहास को और भी स्वर्णिम बनांया है। भारत के इतिहास में १९ नवंबर का दिन बहुत ही गौरवपूर्ण है ।इस दिन परम विदुषी ,कुशल,राजनीतिज्ञ ,वीरांगना,व्यवहार कुशल एवं अनुपम सुंदरी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म दिवस हम मनाते हैं। भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ मे आदर्श वीरांगना थीं। सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है। प्रलोभन उसे कर्तव्य -पालन से विमुख नहीं कर सकते
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म १९ नवंबर १८३५ को काशी में हुआ था। इनके पिता मोरोपंत तथा माता भागीरथी बाई थी । इनके पितामह बलवंतराव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। उन्हें बचपन में सब ‘मनु’ कहकर बुलाते थे। बचपन से ही इनमे अपार साहस और वीरता थी। वे सामान्य बच्चो के खेल न खेलकर अस्त्र -शस्त्रों से खेलती थीं। इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव से १८५० ई. मे हुआ। १८५१ में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने -कोने मे आनन्द की लहर प्रवाहित हुई । लेकिन चार माह पश्चात् उस बालक का निधन हो गया। पूरी झाँसी शोक सागर मे डूब गयी। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पंहुचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और २१ नवंबर १८५३ मे उनका निधन हो गया।
महाराज की मृत्यु रानी के लिए असहनीय थी लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं , उन्होंने विवेक नहीं खोया। उन्होंने राजा के जीवन काल में ही अपने बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेज़ी सरकार को सूचना दे दी थी , परन्तु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। लार्ड डलहौजी ने अपनी राज्य हड़पने की नीति के अंतर्गत झांसी को अंग्रेजी राज्य मे मिलाने की घोषणा कर दी। रानी ने कहा , मै अपनी झांसी नहीं दूँगी। ७ मार्च १८५४ को झांसी पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया। रानी ने पेंशन अस्वीकार कर दी। रानी ने अंग्रेज़ो के विरुद्ध क्रांति कर दी। रानी ने महिलाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें युद्ध करने के लिए तैयार किया। उस समय पुरे देश के राजा महाराजा अंग्रेज़ो से दुखी थे। सबने रानी का साथ दिया। मंगलपांडे , नाना साहब ,तात्याटोपे ,बेगम हज़रत महल ,बेगम जीनतमहल , बहादुर शाह ,आदि सभी रानी के इस कार्य में सहयोग देने लगे। एक साथ सभी ने ३१ मई १८५७ को अंग्रेज़ो के विरुद्ध क्रांति करने का बीड़ा उठाया लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की ज्वाला स्थान- स्थान पर भड़क उठी। सभी बहुत ही साहस एवं वीरता पूर्वक युद्ध करते रहे । भयंकर युद्ध हुआ। अंग्रेज कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया।
२३ मार्च १८५८ को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरभ हुआ। रानी ने खुले रूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। झलकारी बाई ,मुन्दरबाई जैसी वीरांगनाओं ने भी अपार साहस दिखाया। रानी अपनी सेना के साथ अंग्रेज़ो से अपार साहस और निर्भीकता पूर्वक युद्ध करती रही। उनके पराक्रम को देखकर अंग्रेज़ अधिकारी दंग रह गये । उन्होंने पहली बार ऐसी वीरांगना देखी थी मन ही मन वे रानी के शौर्य की प्रशंसा भी करते थे लेकिन शत्रु होने की वजह से युद्ध भी।
अदभुत पराक्रम के पश्चात् रानी युद्ध मे घायल हो गयी और वीरगति को प्राप्त हुई लेकिन रानी ने कभी अंग्रेज़ो की दासता स्वीकार नहीं की थी।

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     रूबी शर्मा

कुंकुम सा काशमीर -डॉ.संतलाल

डॉ.संतलाल की कलम से कश्मीर की संस्कृति का अर्थ ,कश्मीर की संस्कृति एवं परम्पराओं से हैं. कश्मीर, उत्तर भारत का क्षेत्र (जम्मू-कश्मीर से मिलकर), उत्तर-पूर्व पाकिस्तान (आजाद कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान से मिलकर) और अक्साई चिन जो चीनी कब्जे वाले क्षेत्र हैं। कुंकुम सा काशमीर
कश्मीर की संस्कृति में बहुरंगी मिश्रण है एवं यह उत्तरी दक्षिण एशियाई के साथ साथ मध्य एशियाई संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित हैं। अपनी प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ कश्मीर अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है; यह मुस्लिम, हिंदू, सिख और बौद्ध दर्शन एक साथ मिल कर एक समग्र संस्कृति का निर्माण करते हैं जो मानवतावाद और सहिष्णुता के मूल्यों पर आधारित हैं एवं सम्मिलित रूप से कश्मीरियत के नाम से जाना जाता है।
कश्मीरी लोगों की सांस्कृतिक पहचान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा कश्मीरी (कोशूर) भाषा है। इस भाषा को केवल कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों द्वारा कश्मीर की घाटी में बोली जाती है। कश्मीरी भाषा के अलावा, कश्मीरी भोजन और संस्कृति बहुत हद तक मध्य एशियाई और फारसी संस्कृति से प्रभावित लगता है। कश्मीरी इंडो-आर्यन (दर्डिक उपसमूह) भाषा है जो मध्य एशियाई अवेस्तन एवं फारसी के काफी करीब हैं। सांस्कृतिक संगीत एवं नृत्य जैसे वानवन, रउफ, कालीन / शाल बुनाई और कोशूर एवं सूफियाना कश्मीरी पहचान का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। कश्मीर में कई आध्यात्मिक गुरु हुए हैं अपने देश से से पलायन कर कश्मीर में बस गए। कश्मीर भी कई महान कवियों और सूफी संत भी हुए जिनमे लाल देद, शेख-उल-आलम एवं और भी कई नाम हैं। इसलिए इसे पीर वैर (आध्यात्मिक गुरुओं की भूमि)के नाम से भी जाना जाता हैं। यहाँ पर यह ध्यान देने की बात हैं की कश्मीरी संस्कृति मुख्य रूप से केवल कश्मीर घाटी में चिनाब क्षेत्र के डोडा में ज्यादातर देखी जाती हैं। जम्मू और लद्दाख की अपनी अलग संस्कृति हैं जो कश्मीर से बहुत अलग हैं।

कुंकुम सा काशमीर

 

धवल किरीट सोहै कुंकुम सा काशमीर ,

मातृ  भूमि पद जल सागर उलीचा है।

भारत की भाग्य रेखा नदियाँ हमारी बनी,

सुधा सम सलिल सों कण कण सींचा है।

एकता की सूत्र धार भेद भाव से परे हैं,

प्रान्त प्रान्त में प्रवाह रेखा नहीं खींचा है।

भिन्न रूप रस गंध भिन्न भिन्न क्यारियाँ हैं,

भिन्न भिन्न सुमनों का भारत बगीचा है ॥

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डॉ.संतलाल