tabo monastery in hindi/ताबो-आशा शैली

ताबो मठ कहाँ हैं

tabo monastery in hindi : हिमाचल प्रदेश के दूर-दराज़ के गाँव ‘‘ताबो’’ की चर्चा हिमाचल में हर ज़बान पर है। आइये एक नज़र देखें कि ताबो नाम का यह गाँव क्यों आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।  ताबो मठ किस राज्य में स्थित हैं  हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से 365किमी दूर और मनाली से 270कि.मी. दूर लाहुल-स्पिति जि. के मुख्यालय काज़ा से थोड़ा आगे जाने पर ‘ताबो’ नाम का यह गाँव आता है।
शिमला से ताबो जाने के लिए कुफ़री, नारकण्डा, रामपुर बुशहर, ज्यूरी, भाबा होते हुए समदो पहुँचा जा सकता है। यहाँ से 35/40 किमी दूर स्पिति नदी और सतलुज का संगम होता है। इसी स्पिति नदी के किनारे बसा है ‘ताबो’।

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दूसरे मार्ग से, कुल्लू मनाली होते हुए रोहताँग दर्रे को पार करके लोसर से थोड़ा पहले चन्द्रा नदी के किनारो-किनारे छोटा दर्रा-बड़ा दर्रा पार करके बाथता से 1400फ़ीट की ऊँचाई का कराकुर्रम दर्रा पार करके स्पिति घाटी में प्रवेश किया जाता है। हिमाचल प्रदेश की ऊँची पर्वत शृंखलाओं, चारां ओर ढलानों पर बर्फ़ अथवा रेतीली भूमि से घिरी स्पिति घाटी में स्पिति नदी के तट पर बायीं ओर 100 वर्ग गज भूमि पर चौकोर ईंटों से बना है ‘ताबो महाविहार’, जो ई0 सन् 996 में लामा राजा ज्ञान प्रभ के संरक्षण में महानुवादक रत्नभद्र के द्वारा निर्मित किया गया था। महाविहार के विषय में कुछ भी जानने से पहले रत्नभद्र्र के विषय में जानना भी परमावश्यक है।

की गोम्पा किस लिए प्रसिद्ध है

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रत्नभद्र का जन्म वर्तमान पश्चिमी तिब्बत के गुगे क्षेत्र में क्युवंग-रदनि में 958ई. में प्रित्यवन-छेने-पो-जेन-नु-बंड छुग (महाभदन्त ईश्वर कुमार) तथा माता कुन-जंङ-शेरब् तनामा (समन्त भद्रा प्रज्ञाशासनी) के घर हुआ। भोट भाषा में रत्नभद्र को रिन्-चेन्-त्साँग-पो के नाम से जाना जाता है। रत्न भद्र तत्कालीन उन 21 विद्यार्थियों में से एक थे जिन्होंने बौद्ध धर्म के सभी अंगों-अभिधर्म, प्रज्ञापारमिता, विनय, सूत्र, तंत्र इत्यादि का विशद अध्ययन किया, तथा पूरे ज्ञान को संग्रहीत व संकलित करके तिब्बती भाषा में उसका अनुवाद किया।
रत्नभद्र ने गुगे, पुरसङ, जम्मू-कश्मीर प्रान्त के लद्दाख़ हिमाचल प्रदेश के लाहुल स्पिति एवं किन्नौर आदि में असंख्य स्तूपों के साथ 108 बौ(बिहारों की स्थापना भी की थी। केवल मात्र किन्नर कैलाश के परिक्रमा पथ में ही पाँच विहार हैं। इन में कुछ क्षतिग्रस्त हैं (चारङ्-रिदङ् रिब्बा), विद्यमान छितकुल एवं ठँगे के विहारों का नवीकरण किया गया है। इस बात का ध्यान रखते हुए कि इनका मूल रूप नष्ट न हो।


रत्नभद्र स्वयं में एक आश्चर्य थे। आपको महानुवादक अथवा लोचारिन पोछे के नाम से याद किया जाता है, मूर्तिकला, भित्ति-चित्रकला, थङ्का (तत्कालीन पट- चित्रकला) के निर्माता, बौद्ध धर्म दर्शन, तन्त्र के ज्ञाता एवं स्थानीय लोकभाषा जंङ-जुङ, भोट व संस्तकृ के मूधर्न्य विद्वान थे।

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रत्नभद्र के बनावाए एक सौ आठ महाविहारों में से ताबो महाविहार ही एक ऐसा मठ है जो अपने पूर्ण गरिमा-मय प्राचीन रूप में विद्यमान है। इतना ही नहीं यह अपनी ऐतिहासिक स्मृति को तथ्यों सहित स्वयं प्रस्तुत कर रहा है। इस मठ की विशेषता केवल प्राचीन और ऐतिहासिक होना ही नहीं है वरन् इसका महत्व इसलिए भी अधिक आंका गया है कि यह दो राजमार्गों पर स्थित होने के कारण कलात्मक, सांस्कृतिक एवं व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र्र रहा है। 84/70/70/64/30 मीटर क्षेत्र में बने ताबो मठ के चारों ओर दो मीटर ऊँची दीवार बनी है। इस परिक्षेत्र में 9 मन्दिर बने हैं। इनमें से 5 मूलसंरचना के मन्दिर माने जाते हैं और चार बाद के। इन नौ कक्षों अथवा मन्दिरों के नाम इस प्रकार हैं।
1.सेर खाङग् अर्थात-स्वर्ण कक्ष
2.क्विल खोरखाङग्-गुहा मण्डल कक्ष
3.द्रोमतोन ल्हाखाङग् चैम्पा-द्रोमतोन का वृहत्त मन्दिर
4.सुगल्हा खाङग्-अकादमी कक्ष
5.ज्हैलमा या गोखाङग्-चित्रविधि का प्रवेश कक्ष
6.गोन-खाङग-महाकाल कक्ष
7.करव्यून ल्हाखाङग-लघुश्वेत मन्दिर
8.व्यमसपा चैम्पोल्हा खाङग् -महामैत्रैय मन्दिर
9.द्रोमतोन ल्हाखाङग् -द्रोमतोन मन्दिर

सुगल्हा खाङग् ताबो का प्रमुख एवं महत्वपूर्ण कक्ष रहा है। प्रवेश द्वार के भीतर दोनों ओर गच (प्रहरी) प्रतिमाएँ हैं। सामने ही महाविरोचन की एक ही आकार की चार प्रतिमाएँ एक-दूसरे की ओर पीठ किए बैठी हैं। मुख्य मूर्ति के दोनों ओर दो मूर्तियाँ हैं, जिन्हें रत्नभद्र और अतिशा की मूर्तियाँ माना जाता है।
सेर खाङग् के भित्ति चित्रों में स्वर्ण का प्रयोग हुआ है इसीलिए इसे स्वर्ण मन्दिर कहा जाता है। गोखाङग् अथवा गोन खाङग् में महाकाल अथवा वज्र भैरव का स्थापित होना सिद्ध करता है कि यह कक्ष तन्त्रशोध के लिए प्रयोग में लाया जाता था, क्योंकि इस कक्ष में आम आदमी का प्रवेश वर्जित था। यहाँ बुद्ध तथा गच (प्रहरी) प्रतिमाएँ हैं। क्विल खोर खाङग् में केवल मण्डप ही बचा है। भीतरी दीवारों में रहस्मय मण्डप चित्रित हैं। यह कक्ष पूरी तरह ताँत्रिक पद्धति पर आधारित हैं। मन्दिर के मुख्य देव विरोचन हैं तथा दायें-बायें अन्य देव चित्रित हैं। छत में अनेक पशु-पक्षी तथा गंधर्वों और किन्नरों का भी चित्रण हुआ है।
द्रोमतोन ल्हा खाङग् का समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा या होता रहा। यहाँ शाक्यमुनि अमिताभ व तारा आदि के चित्र भी हैं।
व्यमस-पा-छैम्पों (चैम्पो) ल्हाखाङग् मैत्रैय को समर्पित है। धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में मैत्रैय कमलासन पर विराजमान हैं ताबो के अधिकतर मन्दिरों में गर्भगृह हैं।
बाकी चार मन्दिर बाद में बने हैं जिनका निमार्ण काल (1008.1064) बताया जाता है। इन पाँचों भवनों के अपने-अपने तथागत हैं और हर तथागत के चार-चार देवता पाँचों को मिलाकर वृत, पाँचों वृत्तों को मिलाकर वज्र धातु मण्डल बनाया गया है। ये पाँच तथागत हैं महाविरोचन, अक्षोम्य, रत्नसंभव, अमिताभ और अमोघसि(। इन पाँचां अपने-अपने देवता हैं। आश्चर्य है कि सभी के नाम में आगे अथवा पीछे वज्र शब्द का प्रयोग हुआ है। सम्भवतया इसी कारण इस मण्डल को वज्रधातु मण्डल का नाम दिया गया है। उदाहरण के लिए महाविरोचन के साथ जो चार देवियाँ हैं उनके नाम सत्ववज्री, रत्नवज्री धर्मवज्री और कर्मवज्री हैं। अक्षोम्य के साथ वज्रसत्व, वज्रराज, वज्रराग और वज्रसाधु हैं। इसी प्रकार अन्य तीन तथागतों में भी वज्र नामी देवी देवता हैं। बाहरी परिक्रमा में भी आठ वज्र नामी देवियाँ हैं। चार द्वारपाल भी वज्र नामधारी हैं। इस मण्डल को महामण्डल कहा जाता है। इसे महामण्डल इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इसमें भद्र-कल्प के सभी हजार बुद्धों को दर्शाया गया है।
इस महामण्डल की दूसरी विशेषता है हजार बुद्धों का एक सा चित्रण। कला के इस अनोखे नमूने के भित्ति चित्रों में महात्मा बुद्ध के जीवन की झलकियाँ जातक कथाएं और बुद्ध उपदेश आदि उपलब्ध हैं जो छत के टपकने के कारण क्षति ग्रस्त हो गये हैं। दीवारों पर बहुत से लेख हैं जो फ्रेंक ने खोजे थे जिनमें ताबो की स्थापना के बारे में उल्लेख किया गया है। महाविरोचन के साथ उनकी देवियाँ नहीं हैं जो वर्णित हैं। सम्भवतया वे तोड़-फोड़ की शिकार हो गईं हैं।
बाद के बने चार मन्दिरों में से कर-अब्यूनल्हा-खाङग् श्वेत मन्दिर अथवा देवी मन्दिर के नाम से जाना जाता है। यह ‘ताबो’ मठ की सीमा से बाहर है। इस मन्दिर में भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध, मैत्रैय और मंजुश्री के चित्र हैं जो खराब हो गये हैं। इस भवन का निर्माण बाद में जोमो (भिक्षुणियों) के लिए हुआ।
मठ के ऊपर भिक्षुओं के आवास के लिए 19 गुफ़ाएँ थीं जिनमें से अब एक ही बची है इसे फ़ो-गोम्पा कहा जाता है। इस जनहीन गुफ़ा में पूजा न होने पर भी ‘ताबो’ आने वाला हर यात्री यहाँ आता अवश्य है। चार कमरों की इस गुफ़ा का टु-खाङग् (सभाग्रह) 7/50/4/20 मीटर है। यहाँ भी बुद्ध, शक्यमुनि एवं तारा आदि के चित्र हैं।
फ्रैंक के अनुसार (1909) ताबो में उस समय लगभग 5 फुट ऊँचे पाण्डुलिपियों के दो ढेर थे। एक ढेर में सुन्दर लिखावट में सैकड़ों खुले पृष्ठ थे, जो प्रज्ञापारमिता की बारह पुस्तकों का तिब्बती अनुवाद प्रतीत होता था। फ्रैंक ने सिक्ख सेनापति जोरावर सिंह द्वारा इस महाविहार को क्षति पंहुचाए जाने से इन्कार किया है, किन्तु टुकी (1933) इस बात को नहीं मानते। इसके बाद भी फ्रैंक अधिक उचित प्रतीत होते हैं। क्येंकि जोरावर सिंह के हमलों और मुसलमान मूर्ति भंजकों के कारण हुए महाविनाश के बाद भी ताबो महाविहार को क्षति न पहुँचना इस बात का सबूत है कि यहाँ होने वाले साहित्यक कार्यों के कारण ताबो पूर्ण-रूपेण सुरक्षित रहा। फ्रैंक ने जिन प्रतियों की चर्चा की है वे सम्भवतया रिन-चैन-त्साँग-पो (रत्नभद्र) अथवा उसके साथियों के अनुवाद का परिणाम हैं। इनसे निश्चित ही बौद्ध धर्म तथा अनुभवकों को आसानी से समझा जा सकता है।
ताबो के ‘टु-खाङग्’’ (सभाग्रह) में जो पुस्तकें आज भी विद्यमान हैं वे हैं, ‘‘अध समयालंकार लोक, विनय संग्रह’ पंच सहस्रिका प्रज्ञापारमिता, सतसहस्रिका प्रज्ञा पारमिता, अष्ट सहस्रिका प्रज्ञा पारमिता, बौद्धवर्यावतार, सद्धर्मपुष्टिका’ ‘सत्यदयावतार’, संक्षिप्त मण्डल सूत्रावृत्ति’’।
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ ही दसवीं शताब्दि के अन्तिम चरण में परम्परित-प्रचलित चित्र कला शैली के अद्भुत और विलक्षण नमूने एक हजार वर्षों के बाद भी प्रमाणों सहित केवल इसी एक महाविहार में पूर्ण रूपेण सुरक्षित हैं। कालान्तर में चीन में विकसित चित्र कला का प्रभाव भी बाद में निर्मित 4 मन्दिरों में स्पष्ट है। इसके कक्षों में रचा गया साहित्य कालान्तर में ‘रत्न सिद्ध’ द्वारा संकलित तंजूर ग्रन्थ संग्रह का एक विशिष्ट भाग बना।
ताबो महाविहार को राजाश्रय के साथ ही अन्तर्देशीय व्यापारियों, धर्म प्रचारकों, कलाकारों एवं वास्तु शिल्पियों के आश्रय स्थल रहने के कारण ही अन्य समुदायों का भी सहयोग प्राप्त रहा।
जहाँ रत्नभद्र के बाद भी अन्य कला शैलियों के प्रमाण इस महाविहार के कक्षों में भित्ति चित्रों एवं आलेखों के रूप में मिलते हैं वहाँ मठ की सीमा के दायरे में कुछ स्तूप रत्नभद्र काल से पूर्व के भी बने हैं। इन स्तूपों के भीतरी भाग भी चित्रों से सुसज्जित हैं। इस से सिद्ध होता है कि रत्नभद्र से पूर्व भी ताबो बौद्ध धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। इस महाविहार के समान प्रचीन और निरन्तर क्रियाशील सम्भवतया शायद ही कोई और संस्थान हो। इसके बारे में बने भित्ति चित्रों में इतनी अधिक मुखरता है कि उनके परिशीलन से इनका इतिहास जाना जा सकता है। इस कार्य को मठ की दीवारों पर अंकित आलेखों ने और सरल कर दिया है।
कक्षों के आकार से स्पष्ट होता है कि यह महाविहार एकांत साधना के लिए नहीं बना था, अपितु सामूहिक कार्यकलापों के लिए इसका निर्माण हुआ था। इस बात का प्रमाण फ़र्श से ऊपर अचित्रित पट्टिका और कक्षों में प्रतिमाओं का न होना है। केवल ‘सुग-ल्हा-खाङग्’तथा ‘‘व्यसम-पा-चैन-पो-ल्हा-खाङग्’’ ही ऐसे मन्दिर हैं जहाँ प्रतिमाएँ स्थापित हैं वह भी ऐसे कि कक्ष का प्रयोग बैठक के लिए हो सके।
स्पष्टतया इस महाविहार का उद्देश्य साहित्य संकलन, सम्पादन, अनुवादक और संवर्धन आदि को सम्पन्न करना रहा है। यही कारण है कि टु-खाङग् में भी गच प्रतिमाएँ दीवार पर बहुत ऊँचे स्थापित की गई हैं। ताबो कक्ष मेंं बैठने वाले विद्वानों को असुविधा न हो। ताबो महाविहार के निमार्ण में येगदान देने वाले बहुत से विद्वानों, कलाकारों के नाम प्रकाश में आये हैं। इनमें काश्मीर के तन्त्र विशेषज्ञ ‘ज्ञानश्री’ नालाफ़ें, नीमशरण और कश्मीरी मूर्तिकार विधिक के नाम प्रमुख हैं।
1992 में इस क्षेत्र के सर्वोक्षण में चट्टानों पर खुदाई से बनी आकृतियों में स्वास्तिक का अंकन बहुतायत से पाया गया। स्वास्तिक का प्रयोग अतिप्राचीन काल में प्रभावी बौन धर्म के धार्मिक चिन्ह के रूप में किया जाता था। अतः चट्टानों पर खुदे स्वास्तिक चिन्हों से यह प्रमाणित होता है कि ताबो न केवल एक हजार वर्ष पूर्व रत्नभद्र के प्रयासों का फल है वरन् उससे पूर्व काल के चित्रित स्तूपों और बौन धर्म के प्रतीक स्वास्तिक चिन्हों के द्वारा युगों पुरानी कहानियाँ सुनी जा सकती हैं। कहीं भी इतने अधिक चिन्ह उस युग-धर्म अथवा सम्प्रदाय की हलचलों की कहानी कहते हैं।
इतना ही नहीं, इस महाविहार के मूल कक्षों में बने चित्र, शैली-शिल्प एवं विषय वस्तु के आधार पर नालन्दा के भित्ति चित्रों के समरूप लगते हैं। अतः इन्हें प्रचलित धारणानुसार कश्मीरी शिल्प शैली से नहीं जोड़ा जा सकता। कश्मीरी कला का प्रभाव केवल मात्र विधिक के मूर्तिकार होने से ताबो की प्रतिमाओं पर स्पष्ट परिलक्षित होता है।
भित्ति चित्रों में पाल चित्र शैली का प्रभाव पूर्ण तथा स्पष्ट है। इसके साथ ही रंगों में नीले रंग का बाहुल्य, घुमावदार, लहरीलेपन का रेखाँकन भाव-मंगिमाओं में तीखापन आदि बाद के बने कक्षों में चीनी चित्र कला के प्रभाव को स्पष्ट करते हैं और इन कक्षों के निर्माण काल का समय इंगित करते हैं।
सम्प्रति तीस से भी अधिक किशोर भिक्षुओं को शैक्षणिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने की व्यवस्था है। आज भी यहाँ बौद्धधर्म एवं बौद्धदर्शन तथा साहित्य का अध्ययन किया जाता है।
ताबो महाविहार की स्थापना के एक हजार वर्ष पूरे होने पर बौद्धधर्मावलम्बियों द्वारा 15 दिन का एक शिक्षा उत्सव आयोजित किया गया जिसमें प्रमुख दलाई लामा ने 1996 में ताबो में अध्ययन रत किशोर भिक्षुओं को रत्नभद्र्र की शृंखला से जोड़ने के लिए काल-चक्र की शिक्षा दी। इस उत्सव में भाग लेने देश-विदेश से लाखों बौद्ध यात्री, जिज्ञासु, पत्रकार एवं पर्यटक दोनों मार्गों से ताबो पहुँचे। भारी वर्षा के कारण स्थान-स्थान पर मार्ग अवरुद्ध होने के कारण बहुत सारा मार्ग पैदल तय कर साहसी लोग ताबो पहुँचे। 1996 में सम्पन्न हुए काल-चक्र को नमन करके हजारों बौद्ध लामाओं, लाखों श्रद्धालुओं और पर्यटकों ने इस शीत मरुभूमि को रमणीक तीर्थ स्थली की रज लेकर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये।