परत दर परत-Dowry story in hindi-

Dowry story in hindi

परत दर परत

Dowry story in hindi : दो दिन से पानी की मोटर खराब थी। कल प्लम्बर ने बड़ी खुशामद के बाद जब सुबह आने का आश्वासन दिया तब जाकर सुजाता का मन कुछ शान्त हुआ था फिर भी जैसे एक अविश्वास-सा बना हुआ था, इसीलिए आज छः बजे से ही सुजाता घर के पिछले बरामदे में प्लम्बर की राह देखती चक्कर काट रही थी। यहाँ से पूरा नहीं तो आधा शहर तो दिखाई दे ही जाता था।
प्लम्बर के घर पर फोन भी तो नहीं था कि वह फोन करके पूछ ही लेती या याद दिला देती। अब तो चुपचाप इंतज़ार करना है। राह देखते-देखते जब साढ़े सात बज गए तो वह थककर कुर्सी पर बैठकर नीचे शहर की तलहटी में बहती सतलुज नदी की लहरों से मन बहलाने की कोशिश करने लगी।
शहर के कदमों में बहती सतलुज नदी कुल्लू और शिमला जिले की विभाजन रेखा का काम करती, शहर को गुंजाती पूरे जोर-शोर से बह रही थी। अचानक ही सुजाता को लगा कि पुल पर कुछ भीड़-सी है। अभी वह बात को समझने की कोशिश करती कि कुछ लोगों को उसने पुल की तरफ दौड़ते देखा। थोड़ी ही देर में पुलिस भी पहुँच गई वहाँ। सुजाता की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी। सोच रही थी कि बाहर जाकर बात का पता लगए, कि तभी पड़ोस की अर्चना भागती हुई आई, ‘‘आंटी……आंटी!’’ अर्चना हाँफ रही थी।
‘‘क्या हुआ अर्चना? तुम हाँफ क्यों रही हो?’’ पर अर्चना शायद खुद पर काबू पाने की चेष्टा कर रही थी, उसने पुल की तरफ इशारा किया।
‘‘हाँ, मैं भी देख ही रही हूँ, पर हुआ क्या है?’’ अब तक अर्चना अपनी साँसों पर काबू पाकर कुर्सी पर बैठ चुकी थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें फैलकर और भी बड़ी दिखाई दे रही थीं,

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‘‘आंटी, मधुर……मधुर की बहू ने…. पुल पर से सतलुज में छलांग लगा दी है। उसकी चप्पल और दुपट्टा वहाँ मिला है।’’
‘‘क्या कह रही है रे?’’ सुजाता चौंककर  खड़ी हो गई।
‘‘हाँ आंटी। उनके घर में तो बड़ी भीड़ है, वहाँ तो पुलिस वाले पहले गए थे, अब पुल पर आए हैं। ’’
‘‘तुझे किसने बताया?’’
‘‘मधुर आंटी के नौकर हरी ने। वह दुकान पर सफाई करने जा ही रहा था कि मधुर आंटी की बेटी गौरी पुल की तरफ से भागती हुई आई और उसने ही कहा कि नयना भाभी ने पुल पर से नदी में छलांग लगा दी है।’’
सुजाता की साँस अटक गई थी। उसे अपनी समस्या तो भूल ही गई। आँखों के आगे नयना का मासूम-सा चेहरा बार-बार घूमने लगा। अभी एक महीना ही तो हुआ था उस घर में शहनाई बजे।
नयना बतरा, उसकी बेटी आरती की नई टीचर थी। पिछले अभिभावक दिवस पर जब वह आरती के स्कूल पोर्टमोर में मीटिंग के लिए शिमला गई थी, तभी उसका नयना से परिचय हुआ था। अभी छः महीने पहले की ही तो बात है। मीटिंग से कुछ पहले ही प्रिंसिपल ने अभिभावकों को नए आए शिक्षकों का परिचय दिया जिनमें नयना बतरा भी थी। नयना बहुत हँसमुख और चंचल लग रही थी। बल्कि यूँ कहा जाए कि उसकी तो आँखें ही बोलती थीं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं थी। उस एक मुलाकात में ही वह सुजाता को अच्छी लगने लगी थी परन्तु दूसरे दिन सुजाता घर वापस लौट आई थी।
आरती पोर्टमोर के हॉस्टल में थी। वह जब भी माँ को फोन करती तो नयना मैडम के बारे में जरूर बात करती। तभी एक दिन आरती ने बताया कि उसकी मैडम अब रामपुर बुशहर ही आ रही है। उनकी शादी मधुर आंटी के बेटे शील से हो रही है,
‘‘मम्मी! आप जरूर मेरी मैम को मिलकर आना। ’’
हालांकि मधुर का घर उनके घर से ज्यादा दूर नहीं था पर सुजाता चाहकर भी नयना से मिलने का समय नहीं निकाल पाई। आज उसी नयना की आत्महत्या का समाचार था, जो उसके गले नहीं उतर रहा था। कितनी विचित्र बात थी, सुजाता कैसे विश्वास कर ले इस बात पर? आरती ने बताया था कि नयना मैडम जूडो-कराटे की चैम्पियन भी रही हैं और कॉलेज यूनियन की लीडर भी। ऐसी लड़की विवाह के एक महीने बाद ही आत्महत्या कर ले…..? असम्भव।
दोपहर को आरती का फोन आया, वह घटना की सत्यता के बारे संदिग्ध थी। सुजाता की पुष्टि पर वह रोने ही लग गई आर रोते-रोते बोली, ‘‘नहीं मम्मी, ऐसा नहीं हो सकता। हमारी मैम तो कहती थी कि आत्महत्या कायर लोग करते हैं। बहादुर तो मुसीबतों को सामना करते हैं। वो कैसे कर सकती हैं आत्महत्या? नहीं सब लोग झूठ बोल रहे हैं। हमारे स्कूल में भी सब ऐसा ही कह रहे हैं।’’ सुजाता ने बड़ी मुश्किल से बेटी को समझाया, पर सच क्या है इसका पता नहीं चल रहा था।
इस घटना को तीन दिन बीत गए थे। खबरें छन-छन कर आ ही रही थीं। फिर सुना गया कि नयना की माँ रामपुर पुलिस स्टेशन गई थी, अपनी बेटी की गुमशुदगी की रपट लिखाने पर पुलिस वालों ने रपट नहीं लिखी। अब तो हर रोज  कोई न कोई नई बात सामने आने लगी थी। फिर धीरे-धीरे मामला ठंडा पड़ता गया और लोग भूलने लगे नयना और मधुर को। तभी एक दिन पूरा शहर सन्नाटे में आ गया। मधुर, उसकी बेटी गौरी और बेटा शील दहेज अधिनियम के अन्तर्गत धर लिया गया। मामला क्या है जानने के लिए सुजाता ने शाम को मधुर की अभिन्न मित्र बेला को घेर लिया।
बेला, सुजाता के बगल वाले मकान में ही रहती थी। उसके पास टीवी नहीं था और वह रोज संध्या के भोजन से निपटकर सुजाता के पास टीवी देखने बैठा करती थी। उस रात भी भोजन से निवृत्त होकर जब बेला और सुजाता टेलीविजन के सामने बैठी सीरियल देख रही थीं तो सुजाता ने अचानक ही बात छेड़ दी,
‘‘बहन जी, कैसी है मधुर? आप गए थे उसे दखने?’’

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‘‘हाँ भाभी! गई तो थी, पर हम लोग कर क्या सकते हैं बेचारी के लिए? ऐसी गन्दी बहू ले आई कम्बख़त कि जेल का मुँह देखने की नौबत आ गई पूरे परिवार को।’’
‘‘क्यों क्या हुआ…..?’’ सुजाता ने एकदम अनजान बनते हुए कहा।
‘‘तुम्हें नहीं पता क्या…., बहू की माँ ने दहेज का केस कर दिया है। बदमाश राण्ड, अपने यार के साथ खुद भाग गई और बेचारी मधुर के पूरे परिवार को फंसा गई।’’
‘‘पर बहन जी, मैंने तो सुना था कि पुलिस ने उसका केस ही दर्ज नहीं किया फिर ये कैसे हो गया?’’
‘‘अरे भाभी, तुम ना! बहुत सीधी हो। वो जो पी.डब्लयू.डी. मनिस्टर है न, वह उनके गाँव का है। बस वही आकर बैठ गया पुलिस वालों की छाती पर। अब तो केस सी.बी.आई. के पास चला गया है। पता नहीं क्या होगा।’’ बहन जी का स्वर चिन्ता में डूबा हुआ था।
‘‘परेशानी की क्या बात है बहन जी, अब और क्या होना है? सीबीआई तो दूध का दूध और पानी का पानी कर देगी।’’
‘‘यही तो परेशानी की बात है, यहाँ तो कोई सुनने वाला भी नहीं बेचारी का। आदमी पहले ही नहीं, बेटा भी जेल में है खुद तो अस्पताल में पड़ी है।’’
‘‘क्यों अस्पताल में क्यों?’’ सुजाता ने अनजान बनते हुए पूछा।
‘‘अरे, उसे तो पुलिस को देखते ही हार्ट अटैक पड़ गया था। पुलिस वाले ही उसे अस्पताल ले गए थे।’’ फिर थोड़ा रुक कर कहने लगीं, ‘‘बहू गई तो गई राण्ड, पर जाते-जाते बेचारी मधुर के 50 तोले के सोने के कंगन भी ले गई। इतना खर्चा शादी में किया ऊपर से यह मुसीबत। बेचारी मधुर तो मारी गई बेमौत।’’
‘‘हाँ, कह तो आप ठीक ही रहे हैं।’’ सुजाता ने कहा, ‘‘पर मैंने तो सुना है, कि नयना के ड्रेसिंग टेबल की दराज़ में 15000@- के नए नोट भी निकले हैं। अगर वह अपने पंद्रह हज़ार के नोट वहीं पर छोड़ गई तो मधुर के कंगन क्यों ले गई?’’
‘‘पहने हुए थे राण्ड ने। मधुर ने दिए थे उसे शादी में मुँह दिखाई।’’ बेला बहन जी अपना पूरा गुबार उस नयना पर निकाल रही थीं, जिसका अभी तक कोई सुराग भी नहीं मिला था।
हर दिन एक नई कहानी सुनने को मिल रही थी, कोई कहता, एक महीना हो गया शादी को आज तक किसी ने नयना की शक्ल भी नहीं देखी। कोई कहता, ससुराल वालों ने मार दी लड़की। यानि जितने मुँह उतनी बातें। सीबीआई. ने पूरे जोर-शोर से अपना काम शुरू कर दिया था। शहर के बहुत से बा-रसूख लोग धरे जा रहे थे रोज छान-बीन के चक्कर में।
ऐसे माहौल में शहर में एक बार फिर से जैसे भूकम्प आ गया हो, शोर मचा, मधुर के छोटे बेटे को खेल आ गई है। उस पर देवी का प्राकट्य हो गया है। कौतुहल वश सुजाता भी भीड़ में शामिल हो गई अन्यथा उसे इन सब बातों में कोई रुचि नहीं थी।
सुजाता ने देखा, घर में सारा शहर उमड़ा पड़ा था। पैर रखने को जगह नहीं मिल रही थी। बड़ी मुश्किल से कुछ लोगों को धकेलते हुए उसने एक ऐसे कोने में खड़े होने के लिए जगह बना ली जहाँ से मधुर का छोटा बेटा सुमेर बैठा हुआ साफ़ दिखाई दे रहा था।
सुजाता ने देखा, सुमेर पूजा करने की मुद्रा में लग रहा था। पालथी मार कर बैठे सुमेर के माथे पर बड़ा-सा रोली का तिलक लगा था, जिस पर चावल चमक रहे थे। हालांकि सुमेर की आयु मुश्किल से पंद्रह साल की थी, परन्तु इस समय उसके चेहरे पर पूर्ण गम्भीरता का साम्राज्य फैला हुआ था। सामने थाली में थोड़ी पूजा की सामग्री भी रखी हुई थी। भीड़ में एक पुलिस इंस्पेक्टर के साथ दो सिपाही भी खड़े थे। सम्भवतया सोच रहे थे कि क्या कर सकते हैं।
मधुर, गौरी और शील, तीनों ही पुलिस हिरासत में थे, घर में वयस्क के नाम पर केवल एक नौकर हरी था और थी परिवार की एक विवाहित बेटी जो घटना के बाद ही आई थी। वह भी हतप्रभ खड़ी थी। सुमेर थोड़ी-थोड़ी देर बाद सिर को गोल-गोल घुमाता कह रहा था, ‘‘काली! मैं काली हूँ। खुश हूँ। मुझे बलि मिली है, मैं खुश हूँ।…..और बलि चाहिए, और बलि।’’
अब पुलिस इंस्पेक्टर सुमेर के पास आकर पूछने लगा, ‘‘बेटा…..मुझे बताओ, क्या हुआ है, किसकी बलि हुई है?’’ पर सुमेर जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। फिर बोलने लगा, ‘‘काली हूँ, काली। आधी बलि मिली है, और लूँगी….और लूँगी…..और बलि…..’’ और सिर को पूरे जोर से गोल-गोल घुमाने लगा।
अब एक बुजुर्ग महिला धरती पर माथा टेक कर बोली, ‘‘माता। यदि तू काली माँ है तो हमें बता, घर की नई बहू कहाँ चली गई और तुझे किसकी बलि दी गई है? बकरे की या मुर्गे की?’’
‘‘नहीं, मुझे नर बलि दी गई है। नई बहू की। नई बहू….हाँ…..हाँ नई बहू।’’ सुमेर का सिर बराबर घूम रहा था, अब उसने सिर को नीचे धरती से लगा दिया था। इंस्पेक्टर ने उसका सिर उठाना चाहा तो वह बिफर गया,
‘‘दूर रहो। वहाँ देखो जाकर, घास के नीचे। वहीं रखी थी मेरी बलि।’’ उसने बिना सिर उठाए ही कहा। इंस्पेक्टर ने तुरन्त सिपाहियों को इशारा किया। सिपाही उधर को हो लिए जहाँ घर की गाय के लिए घास रखा जाता था। ऊपर से थोड़ा-सा हरा घास उठाने के बाद नीचे की सूखी घास ऐसे दबी हुई था जैसे कोई वज़नदार चीज़ उस पर रखी गई हो। तभी एक सिपाही चिल्लाया ‘‘साब! साब, पायल।’’ यह पायल उसी घास में उलझी हुई थी। उसने पायल लाकर इंस्पेक्टर को दे दी। बड़े गौर से पायल को दखते हुए इंस्पेक्टर नौकर की तरफ घूमा। तो हरि ने आँखें झुकाकर कहा, ‘‘जी साब, ये बहू जी की ही है। ये उन्हें ढीली थी, कई बार निकल जाती थी। एक बार मुझे भी खोजने को कहा था मैंने तभी देखी थी।’’
अचानक सब का ध्यान फिर सुमेर की तरफ चला गया जो जोर-जोर से रोने लग गया था और रोते-रोते जमीन पर ही लेट गया। पर अब तक तो मामला पलट चुका था। पुलिस के संदेह की सूई परिवार की ओर घूम चुकी थी। इंस्पेक्टर ने सुमेर को गोद में उठा लिया तो वह कुछ नहीं बोला। उसे मानसिक चिकित्सा हेतु ले जाया गया। पुलिस की जीप निकली तो भीड़ भी छंटने लगी। घर आकर सुजाता और उलझ गई, क्या हुआ होगा? उसे लग रहा था कि सुमेर नाटक कर रहा है। उसे अवश्य ही बहुत कुछ पता है जो वह कह नहीं पा रहा। शायद इंस्पेक्टर को भी वही लगा हो जो उसे लगा है, इसीलिए वह सुमेर को ले गया है।
उधर हिरासत में गौरी अपने बयान पल-पल बदल रही थी। कभी वह कहती कि वह और नयना दोनों रोज नदी पर घूमने जाती थीं, कभी कहती उसने नयना को उधर जाते देखा तो उसका पीछा किया। शील ने पुलिस को बताया कि दो दिन बाद नयना को बीए के पेपर देने अपने मायके जाना था। अलबत्ता मधुर चुप थी।
बड़े लोग, बड़ी बातें। पर कुछ दिन बाद सब शान्त हो गया। मधुर का परिवार जमानत पर आ गया और मुकदमा चलता रहा।
दो साल गुज़र गए। इस बीच सुजाता ने गाड़ी ले ली थी। पड़ोस के गाँव का ही एक लड़का सुजाता ने ड्राइवर रख लिया थी गाड़ी के लिए, उसका नाम सोनू था। जब उसे कहीं जाना होता तो सोनू को बुला लेती।
एक दिन सोनू ने उसे बताया, ‘‘बीबी जी! मधुर की बेटी गौरी ने फांसी लगा ली है।’’
‘‘क्यों…?’’
‘‘जैसी करनी, वैसी भरनी। यह तो होना ही था।’’
‘‘पर क्यों होना था?’’ सुजाता थोड़ा खीज गई।
‘‘बीबी जी! जब बेगानी बेटियों को जहर देकर मारा जाता है तो अपनी बेटियों के बारे में भी सोचना चाहिए कि नहीं? सोनू ने उल्टा सवाल कर दिया।
‘‘पर तू कैसे कह रहा है कि बहू इन्होंने मारी है। कुछ निकला तो है ही नहीं।’’
‘‘निकलेगा कैसे, बड़े घरों के मामले ऐसे ही दबते हैं।’’ तू तो ऐसे कह रहा है जैसे सब कुछ तेरी आँखों के सामने हुआ हो।’’ सुजाता की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।
‘‘और क्या, सब सामने ही तो था। लाश तो मैं ही फेंक कर आया था।’’
‘‘क्या कह रहा है रे?’’
‘‘हाँ बीबी जी।’’ सोनू रुआंसा हो गया, जब तक मैंने सी.बी.आई वालों को सब कुछ नहीं बता दिया, मेरे मन पर भारी बोझ रहता था, पर अब मैं हल्का महसूस कर रहा हूँ। मुझे हर समय लगता था, कि मैं भी इस हत्या में शामिल हूँ। मैंने तो जो सच था, बता दिया अब उनको सजा  मिले या न मिले मैं दोषी नहीं हूँ।’’
‘‘पर तू इस मामले में कहाँ से कूद गया। तू तो उन दिनों सरकारी गाड़ी चलाता था न?’’
‘‘हाँ जी, कच्ची नौकरी थी। जैसे आप बुला लेते हैं, वैसे ही साब भी बुला लेते थे इसीलिए फंस गया। अब मैं आपको ठीक से बता ही देता हूँ सारा मामला, पर चाय भी पियूँगा ।’’ वह पालथी मारकर वहीं जमीन पर बैठ गया। सुजाता को भी चाय की तलब तो लग ही रही थी, वह चाय बना लाई। चाय का कप सोनू को दिया और सामने ही कुर्सी पर बैठ गई। सोनू ने चाय का कप पकड़ा फिर बड़े मनोयोग से सारी कहानी सुनाने लगा,
‘‘उस दिन मेरे साहब की मेम साब, अपने सेब के बाग से बहुत देर में वापस आई थी इसलिए मुझे भी घर जाने में देर हो गई। घर जाकर खाना खाया और थका हुआ था तो गहरी नींद आ गई। रात आधी गुज़र गई थी कि दरवाजा भड़भड़ाने लगा। घर वाली मेरे उठने से पहले ही उठकर बाहर गई, लौटकर बोली ‘साब ने बुलाया है। मैं कुढ़ता हुआ कपड़े फंसाता बाहर निकल गया। कोठी पर पहुँचा तो साब ने कहा, ‘इसी समय शिमला जाना है।’ अब साब को जवाब कैसे देता चल पड़ा, पर तभी साब ने जीप बाजार में उतारने को कहा। मधुर बीबी जी के घर के पास पहुँचकर उन्होंने गाड़ी रुकवाई और घर में चले गए। रोज का काम था, हम छोटे लोग क्या कह सकते थे। मैंने सोचा शायद ये भी जाती होंगी, पर थोड़ी ही देर बाद शील बाबू और हमारे साहब, एक भारी-सी बोरी को दोनों तरफ से पकड़े बाहर आए और बोरी को जीप के पिछले हिस्से में पटक दिया और हम शिमला की सड़क पर हो लिए।’’ वह थोड़ा रुका, जैसे बोलते-बोलते थक गया हो।
‘‘सैंज से पहले ही साहब ने मुझे गाड़ी लूहरी वाली सड़क पर डालने को कहा तो मैंने गाड़ी नीचे वाली सड़क पर उतार दी। पुल के पास पहुँचकर साब ने गाड़ी रोकने को कहा।
गाड़ी रुकने पर साहब नीचे उतरे और बोरी को अकेले घसीटने लगे तो मैंने उनकी मदद करने के लिए बोरी को पीछे से पकड़ा, अब मुझे लगा कि बोरी में कुछ नरम-नरम सी चीज़ है। पर जब तक मैं कुछ सोचता-समझता बोरी सतलुज के पानी में थी। इतना ही नहीं जिस जगह बोरी फेंकी गई थी, वहाँ कुछ ही समय पहले एक जोड़ा मगरमच्छ लाकर छोड़े गए थे। फिर साब ने लॉगबुक भरी और स्टेशन शिमला लिख दिया। तीन दिन बाद जब हम वापस आए तब मामला मेरी समझ में आया। कैसे हैं न ये बड़े लोग, बस एक फ्रिज नहीं आया तो लड़की मार दी। वह भी पैसे तो आ ही गए थे, बहू ने उन्हें बताया नहीं था।’’
सुजाता आँखें फाड़े सोनू को देख रही थी कि तभी सोनू फिर बोल उठा, ‘‘बीबी जी, आपको पता ही नहीं, सुमेर को कोई देवी-वेवी नहीं आई थी। उन लोगों ने सुमेेर के सामने ही कोई जहरीली चीज बहू जी को जबरदस्ती पिलाई थी। वह चीखता रहा, ‘मत मारो भाभी को’ पर बड़े भैया ने उन्हें पकड़ा और गौरी ने कटोरी जबरदस्ती उनके मुँह से लगा दी। मधुर बीबी ने उनके बाल खींचे और मुँह खोला। बड़ा तेज जहर था थोड़ी ही देर में मर गई बेचारी। सुमेर ने तो नाटक किया था, ताकि सब पकड़े जाएँ।’’
‘‘हूँ…। तो यह सब सुमेर ने बताया होगा पुलिस को।’’ सुजाता ने एक ठंडी साँस भरते हुए कहा, ‘‘फिर भी छूट ही गए सब। हाँ भाई! पैसा है तो हर गुनाह माफ।’’
‘‘बीबी जी, इस दुनिया में तो छूट गए, पर भगवान के घर से कैसे छूटेंगे। आँख के सामने है।’’ कहता हुआ वह उठकर खड़ा हो गया।


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आशा शैली
इन्दिरा नगर-2, लालकुआँ,
जिला नैनीताल-262402

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Potee kee diray/सविता चडढा

पोती की डायरी

(Potee kee diray)


मेरी दादी को थोड़े-थोड़े दिन बाद अपने घर में लोगों, जिन्हें आप कवि, लेखक, साहित्यकार कहते है, को बुलाकर कविताएं पढ़वाना,उनकी काव्य गोष्ठियां, खातिर और सम्मान करना और कहानी पाठ करवाने की बुरी लत है । घर में ऐसा करने से उन्हें कोई मना नहीं करता। दादू बताते है, पिछले 30 से अधिक वर्षो से वे ऐसे आयोजन करती आ रही है । मैं भी 20 वर्ष की हो गयी हूँ और पिछले वर्ष से तो मैं इन सबकी साक्षी हूँ। एक जरुरी बात आपको कहनी होगी, मेरी दादी खुद बहुत अच्छी लेखिका है और बहुत सारे लोग उन्हें जानते हैं। इसलिए वे जब भी किसी को आमंत्रित करती हैं तो लेखक लोग उनके बुलावे का मान रखते ही हैं।

पिछले हफ्ते दादी ने बहुत ही उत्साह से मुझे बताया ” इस बार विदेश से दो लेखक आ रहे हैं, हो सकता हैं मेरे घर भी आ जाये। फेसबुक के जरिये उनसे काफी बातचीत हुई हैं । अपने देश के लोग हैं ।”

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दादी बहुत उत्साहित लग रही थी। मैं उन्हें कुछ कहना चाहती थी पर मन में सोचती रह गई और कह नहीं पाई । दादी की कई किताबें भी चाप चुकी है और हमारे घर आने वाली गोष्ठियों में देश के जाने माने साहित्यकार, लेखक, कवि, साहित्य को प्रेम, करने वाले राजनेता भी कई बार पधार चुके हैं पर दादी कभी इतनी उत्साहित नहीं हुई, इस बार क्यों ? खैर मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। वह प् हर दिन तैयारियों में लग गयी। छत से लेकर, हर दिवार पर अपने हाथ से कभी झाड़ू से, कभी कपड़े से दीवारों को साफ करने लगी । अपनी किताबों के रेक, उन्हें मिली बहुत सारी शील्डें , सारी किताबें साफ करने लगी। उन्हें हमेशा लगता है कि लोग उन्हें तंदरुस्त और स्वस्थ समझे, उनकी दुर्बलता कहीं प्रकट न हो जाये, मुझे लगता है ये भय ही उनके उत्साह का कारण बना रहता है ।

भारत में आने के बाद से, जगह जगह उस विदेशी लेखक मोहित का सम्मान हो रहा था। दादी सिर्फ एक बार उस लेखक से पिछले साल के पुस्तक मेले में मिली थी । दादी उसे मिलकर निमंत्रण देना चाहती थी। अपने घर से लगभग एक घंटे की दूरी पर होने वाले आयोजन में दादू-दादी दोनों मोहित को आमंत्रित करने गए, मैं भी उनके साथ थी । वह लेखक सब मित्रो को मिल रहा था। दादी ने कल के लिए निमंत्रण दिया और 3 बजे हमारे घर उसका कहानी पाठ का समय तय हो गया ।

दादू, मैं और दादी हम कार्यक्रम समाप्ति से पहले घर के लिए निकल पड़े थे। रास्ते में दादी कुछ नहीं बोल रही थी, दादी सोचती रही कैसे होगा, क्या-क्या करना है।

अगले दिन सुबह दादी जब मंदिर गयी तो लौटने पर उनके हांथो में फूल मालाओं का बैग था। बैग देखते ही मैंने पूछा था “आप तो कभी फूलों की माला नहीं लाती, इस बार क्यों ?”

वह हंस पड़ी, कुछ कहाँ नहीं। रसोई में खुद ही अपने लिए चाय बनाई, दो बिस्कुट के साथ चाय पीकर वह बोली जरा मेरे साथ बाजार तक चलो, सुबह के 10 बजे थे, मैंने कहा “दुकानें तो खुलने दो.” वह मुस्कराई, वह गुस्से में बहुत कम आती हैं, उन्हें क्रोधी लोग बिलकुल पसंद नहीं। मैं चुपचाप उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गई । दुकान पर अभी साफ सफाई हो रही थी ,उन्होंने चन्दन की दो बड़ी मालाएं खरीदी, दो खूबसूरत शाल लिए, मोतियों की मालाएं ली। थोड़ा आगे आने पर वे एक दुकान के सामने रुक गई। ये एक बेकरी की दुकान थी, ऊँची शानदार दुकान । दादी हर चीज का मुआयना करने लगी । आखिरी उन्होंने मसालेदार काजू का आर्डर दिया। ड्राई फ्रूट वाला नमकीन मिक्सचर लिया। सबसे सुंदर दिखने वाले स्वादिष्ट फ्रंटियर के बिस्कुट ख़रीदे। मैं चुपचाप उन्हें देख रही थी। वैसे तो हर बैठक की तयारी वे खुद करती हैं पर इस बार काजू, मिक्सचर भी। मैं चुप रही । वे रिटायर हैं और उन्हें पेंशन मिलती है, अपनी अधिकांश पेंशन वे यूं ही खर्च करती हैं। इतने पर भी वे रुकी नहीं। मिठाइयों में उन्होंने छोटे गुलाब जामुन ख़रीदे। ढोकला, समोसे, कचौड़ी, मट्ठी का आर्डर वे पहले ही दे चुकी थी।

घर पहुंचकर वह खाने की तैयारी में लग गयी। मेरी माँ भी उनका पूरा साथ दे रही थी पर आज उनकी तबियत ख़राब थी । पिछले दो दिन से मां का पेट ख़राब चल रहा है । डॉक्टर कह रहा था ड्रिप लगवा लो पर दादी ने घर में ही सब व्यवस्था कर दी थी, इलेक्ट्रॉल के कई पैकेट मंगवा दिए और माँ को कहा “कुछ नहीं होगा, मुझे तो अक्सर ऐसा होता रहता है। आज की बात है थोड़ा सहयोग दो।”

माँ पूरा साथ दे रही थी परन्तु दादी को पता था माँ ज्यादा देर रसोई में खड़ी नहीं हो पायेगी। दादी ने सारा खाना रेस्तरां से मंगवाया, मिक्स वेजिटेबल, दाल मक्खनी, फ्रूट रायता, मिस्सी और सादी रोटी। मम्मी ने मटर-पनीर और वेज-पुलाव घर ही बना लिया। एक बजे सब आ गए और खाना शुरू हो गया। किसी को पता नहीं चलने दिया कि खाना बाहर से मंगवाया है। दादी सब का ध्यान रख लेती है, वह बीच-बीच में कहती रही “मेरी बहु बहुत अच्छा खाना बनाती है। उसे पिज्जा भी बहुत अच्छा बनाना आता है । ” पता नहीं कोई उनकी बात सुन रहा था कि नहीं पर उन्होंने कई बार ये बात बोली। सबने खाने की जमकर तारीफ की और आये लेखक महोदय ने कहाँ ” कहानी पाठ से पहले ही चाय हो जानी चाहिए। थोड़ा गला अच्छा महसूस करेगा।” उनके साथ ही लंदन से पधारी एक बहुत ही शालीन, सौम्य, राजनीतिज्ञ और लेखिका जीनत साहिबा भी थी , उनके दिल्ली में रह रहे भाई-भाभी भी उनके साथ आए थे। जीनत जी ने कहा “मैं काफी लूंगी।” दादी ने फ़ौरन कहा , बहु कॉफ़ी बहुत अच्छी बनाती है। चाय -कॉफ़ी का दौर चल ही रहा था कि और लेखक कवि आने शुरू हो गए । मौसम थोड़ा ठंडा ही था, जनवरी का महीना, कोल्ड ड्रिंक छोटे-छोटे गिलास में डाले गए। पता नहीं कोई पियेगा के नहीं। दादी कहती “सब लोग चाय नहीं पीते, इसलिए कॉफ़ी, कोल्ड ड्रिंक सब रखने है।” बिसलेरी की छोटी पानी की बोतले भी मंगवाकर रख ली थी। साढ़े तीन बज गए तो सबने कहानी पाठ शुरू करने के लिए कहा। दादी ने माइक संभाल लिया और आये सभी अथितियों का स्वागत किया । आये सब लेखकों का परिचय कराया गया मोहित और जीनत का फूलमाला, चन्दन की माला, मोतियों की माला, शाल, अभिनन्दन पत्र भेंट कर स्वागत किया गया। देश की प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक आशुतोष भी मुख्य अथिति के रूप में आये हुए थे. उनका भी फूल माला, शाल मोतियों की माला भेंट कर स्वागत किया। दादी घर आये मेहमानों को बहुत ही आदर-सत्कार देना चाहती थी. उन्होंने अपने पोते राज को अपनी नई पेंटिंग पर उपस्थित मेहमानों के हस्ताक्षर करवाने के लिए आमंत्रित किया। मोहित और जीनत साहिबा और आशुतोष जी ने चित्र पर हस्ताक्षर किये। समय की गति को देख अब मोहित को कहानी पाठ के लिए निवेदन किया गया ।

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कहानी शुरू हुई । बहुत ही सवेंदनशीलता और आकर्षक आवाज़ के साथ कहानी शुरू हुई। विषय कुछ खास नहीं था अस्पताल के एक कमरे में बीमार पति के साथ बिताये एक पत्नी के 15 दिन और बीमार पति की माँ की उपस्थिति का भरपूर चित्रण था कहानी में। कहानी पढ़ते हुए लेखक कभी सिसक रहा था, कभी हिचकियाँ ले रहा था, लग रहा था मानों रो रहा है, उसकी आंखे भी रुआंसी हो रही थी, कहानी पढ़ते हुये 10 मिनट हो गए थे कि दादी को मेरी माँ दिखी जो दो दिन से कॉफ़ी अस्वस्थ थी, वह खुद को रोक नहीं पायी और माँ के पास आकर उसे कुछ कहा और कहानी पाठ में उपस्थित एक लेखिका सरस्वती को नमस्तें कर ली। कहानी पाठ करने वाले लेखक मोहित ने अपना चश्मा गुस्से से उतार कर टेबल पर दे मारा और चीखते हुए बोला ” WHAT THE HELL ” हो गई कहानी” वह आगे कहानी नहीं पढ़ना चाहता था। दादी और हम सब हक्के-बक्के रह गए। दादी ने माफ़ी मांगी और कहा” जरुरी काम से मुझे उठना पड़ा, आप कहानी पढ़िए। खैर मोहित ने बहुत मुश्किल से खुद को शांत करने की कोशिश की, खुद ही अपने सर पर चार-पांच थपड लगाए और जब चश्मा पहनने लगे तो वह टूट चुका था, उसकी एक डंडी नदारद थी। लेखक उठा और अपने झोले से नया चश्मा निकाल कर कहानी पढ़ने लगा।

जहाँ तक मुझे लगता है इस ख़राब नाटक के बाद किसी की रूचि कहानी सुनने में नहीं होगी परन्तु हम भारतीय मुखौटा लगाने में माहिर है, कहानी पाठ चलता रहा। कहानी के दौरान कई बार लेखक चीखा, रोया, जोर-जोर से बोलता रहा ताकि कहानी प्रभावशाली बने । कहानी तो प्रभावशाली थी ही लेकिन लेखक के कहानी वाचन की शैली ने उसे हास्यापद बना दिया था। यहाँ तो सब लिखने वाले ही कहानी सुन रहे थे।

कहानी ख़त्म हुई तो सबने कुछ न कुछ कहा । सबसे पहले दादी ने कहा “मै आपको बड़ी बहन होने के नाते एक सलाह देना चाहती हूँ , आप अपनी सेहत का ध्यान रखें। कहानी पढ़ते हुए इतने उतार-चढ़ाव आपको नुकसान पहुंचा सकते है। पाठक और प्रशंसा से बड़ी अपनी सेहत है उसे ध्यान में रखिये। “

मैँ देख रही थी दादी सीधे-सीधे बहुत कुछ कह सकती थी परन्तु सयंम से उन्होंने अपनी बात की और कहानी की प्रशंसा भी की। उपस्थित लेखकों ने भी दादी की बात से सहमति जताई और उनको क्रोध पर नियंत्रण करने की सलाह दी। एक से लेकर 15 तक सभी ने कहानी की प्रशंसा की।

जीनत साहिबा को जब सम्बोधन के लिए बुलाया गया तो उन्होंने “दादी को इस आयोजन की बधाई दी और उपस्थित अतिथियों को इस कहानी के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा ये कहानी मोहित जी की नहीं है, ये विषय मैंने ही इन्हें बताया था, कहानी का नायक मेरा भांजा है और नायिका मेरे भांजे की पत्नी। इस कहानी की माँ मेरी बहन है। जब मैंने ये घटना इन्हें सुनाई तो मोहित ने मुझसे ये कह दिया था, आप इस विषय पर कहानी नहीं लिखोगी मैं लिखूंगा। मोहित ने बहुत ही खूबसूरती से इस विषय पर लिखा है। पात्रो के नाम बदले है। वास्तविक नाम आप सुनेंगे तो कहानी से तारतम्य बिठा नहीं पायेंगे।”

वह कुछ सोचने लगी फिर उन्होंने वास्तविक पात्रों के नाम बताये, वे नाम इस्लामिक नाम थे और कहानी के नाम पंजाबी थे।

सबसे अंत में पत्रिका के संपादक और सवेंदनशील कवि, लेखक आशुतोष ने दादी का बहुत आभार किया और लेखक मोहित को कहानी पाठ और अभिनन्दन पर बधाई दी। दादी ने घर आये सभी अतिथियों को विदा किया लेकिन आठ दस लोग अभी बैठे हुए थे और फिर से चाय बन रही थी। वे लोग दादी का चेहरा देख रहे थे पर वे ऐसे शांत थे मानो कुछ हुआ ही न हो। सब लोग दादी के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। दादी सबके मन की बात शायद समझ गई थी, वे बोली “आज मेरी क्या सच में कोई गलती थी जो मोहित जी कहानी पाठ के दौरान क्रोधित हो गए।”

वह सच में जानना चाहती थी। गोष्ठी के बाद रुके हुए पांच पुरुष और पांच महिलाएं थी उन्होंने दादी को कहा ” आपकी कोई गलती नहीं थी। ये तो उस लेखक का क्रोध या उसका अहंकार था। भला उसके कहानी पाठ के दौरान क्या कोई अपनी जगह से उठ नहीं सकता। नौटंकी साला।” एक ने कहाँ। दूसरे ने कहाँ “कहानी भी कोई ख़ास नहीं थी।”

तीसरे ने कहाँ “कहानी सुनाने और कहानी पढ़ने में अंतर होता है। ये तो कहानी अभिनीत कर रहे थे या कहानी का मंचन। हर पात्र के अनुसार कभी सिसकिया, कभी रोने का अभिनय, कभी चीखना, कभी हिचकियाँ। बहुत बुरा कथा वाचन था।”

महिलाएं तो बहुत आहत थी । एक तो होस्ट दूसरी महिला, तीसरा जिसके घर में वह कहानी पाठ कर रहा है, उसके साथ ही ऐसी बदसलूकी, गुस्से से अपना चश्मा तोड़ लेना। पुस्तक मेले में कैसे लड़कियों के साथ दांत फाड़कर बतिया रहा था, साला फरेबी मक्कार।” एक ने कहाँ।

मै सोच रही थी, ये कैसे लेखक है जो उसके सामने तो उसकी प्रशंसा में बिछे जा रहे थे और उसके जाते ही सब….. । मैं समझ नहीं पा रही थी यह मोहित का अहंकार था या उपस्थित लेखकों की ईर्ष्या, दूसरे के व्यव्हार को समझना बहुत कठिन है। दादी को उस रात हमारे घर में सबने डांटा ” कौन हैं ये मोहित , क्यों बुलाया उसे।”

दादी सबको समझा रही थी “मैंने कहाँ पढ़ा है इसे, मैं तो कुछ नहीं जानती । फेसबुक में कुछ लेखकों ने हुड़दंग मचा रखा है। हर रोज उछल कूद, लगता है बस ये ही महान लेखक है । मैं भी उसके झांसे में आ गयी। सोचा था की मोहित की कहानी के साथ मैं भी अपनी कहानी पढूंगी , पर मोहित ने आते ही मना कर दिया था, ये कहकर कि आज तो मैं ही अकेला कहानी पाठ करूँगा, पर इसने तो माहौल ही ख़राब कर दिया। “

अब अंत मेँ बारी थी मेरे पापा की, वह आज तक कभी दादी के सामने नहीं बोले थे। आज वह भी दादी से गुस्से में पूछ रहे थे “आपने उस मोहित के साथ फोटो खिंचवाने के लिए मुझे क्यों कहा।”

दादी ने जवाब दिया था ” जो घर आते है, उन्हें अच्छा लगता है और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।”

आपको पता है मोहित ने अपने पास बुलाते हुए मुझे क्या कहा ” Let your mother be happy.” बतमीज़ लेखक, ऐसे आदमी को तो….अपने दांत पीसते मेरे पापा बाहर चले गए। …………….. ।
पापा बाहर चले गए तो दादी चेहरा फक्क हो गया । शायद वो अब भी सोच रही थी “दिखने में तो मोहित ऐसा नहीं लगता , आज क्या हो गया उसे। दादी को पता ही नहीं चल पाया, उसे क्या हो गया था। “

अगली सुबह दादी की बहन का फ़ोन आया, वह भी कल की गोष्टी में शामिल थी, उसने उस लेखक के व्यव्हार की जी भरकर भर्त्सना की । फिर उसके बाद एक, दो, तीन, चार कई लेखकों के फ़ोन आते रहे, दादी को सब सांत्वना दे रहे थे और कह रहे थे अच्छा हुआ, आपने क्रोध नहीं किया।”

छोटी दादी ने तो यहाँ तक कह दिया था “मेरे घर कोई ऐसा करता तो मैं कह देती “कहानी गई भाड़ में, Get out from my home.”

पत्रिका के संपादक श्री आशुतोष का फ़ोन आया, दादी की बात मैं सुन पा रही थी पर वे क्या कह रहे थे मेँ सुन नहीं पाई, आखिर मैंने पूछा “क्या कह रहे थे आशुतोष ।”

“कल के किये दुःख जाहिर कर रह रहे थे। जो बातें उन्होंने कही है वे मार्गदर्शन करने वाली है। कई बार उम्र में छोटे भी बड़ी-बड़ी बातें कर हमें प्रकाशित कर जाते है। ” दादी ने मुझे कुछ नहीं बताया पर 20-25 मिनट होने वाली बात में बहुत कुछ ऐसा था जो दादी ने छिपा लिया था।

अभी मैं बात ही कर रही थी कि विदेशी लेखक मोहित जी का फ़ोन आ गया । कल के व्यव्हार के लिए क्षमा तो वे कल ही मांग गए थे । आज वो दादी की किसी कहानी पर अपनी राय बता रहे थे। कहानी को ऐसे लिखे, कहानी को ऐसे पढ़ो ….। दादी को बहुत लोगों ने पढ़ा -सुना है । प्रसाद विमल ने तो दादी को कहा था” तुम जैसा लिखती हो वैसा ही लिखती रहो। उनकी किताबों पर बड़े बड़े लेखकों ने लिखा है । “

मैने दादी को इतना कहते सुना था “आपका शक्रिया आप मेरे घर कहानी पढ़ने आये, अब मेरे पास आपकी दो-चीज़े हमेशा सुरक्षित रहेंगी , एक तो आपका दिया परफ्यूम और दूसरा आपकी ऐनक की टूटी हुई डंडी। जो अगले दिन कमरे की सफाई में मुझे मिल गयी ।

मुझे दादी की कविता की ये पंक्तियां अक्सर याद आ जाती हैं और बहुत अच्छी लगती हैं , शायद इन पंक्तियों में दादी, दूसरों को दुख देने वाले, बुरी सोच रखने वाले ही अधिक दुख में रहते हैं, को प्रकट कर रही हैं, “पांडव बनवास में इतने दुखी नहीं रहे, जितना दुर्योधन अपने महलों में रहा।” मैंने देखा दादी शांत चित्त होकर कुछ लिखने बैठ गई थी पर मैं लेखकों की दुनिया और साहित्य प्रेमियों के कल के अभिनीत मुखोटों को देख कर बहुत हैरान हूँ। मैंने अपने मन की बात लिख तो ली है, डर भी लग रहा है , कहीं लेखक वर्ग और दादी इसे पढ़कर नाराज़ न हो जाएँ।
क्या केवल लेखक को ही लिखने का हक़ है?

Potee- kee- diray

सविता चडढा,

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