‘हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा- अम्मा जी!’ संस्मरण 

संस्मरण 

‘हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा- अम्मा जी!’

नई-नई बहू मैं निर्जला व्रत पहली बार रखे थी! पूजा करने के लिए तैयार हुई तो अम्मा बार-बार मुझे देख कर बताती रहीं..” नथ पहनना ज़रूरी होता है। देखो बेंदी तिरछी है, ठीक कर लो। कान वाले झाले काहे नहीं पहिने?” उजबक ढंग से तैयार हुई मैं लॅंहगे की चुन्नी नहीं सॅंभाल पा रही थी। अम्मा ने मुस्करा कर कहा था- “धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी” सुनकर मुझे चैन मिला। पहला हर काम बड़ा कठिन लगता था। 

अम्मा “देखो बबलू दुलहिन! लहंगा लंबा है सॅंभल कर चलो।  भूख लगे तो पहले साल ही कुछ खा लो” आदि बातें बता कर सारी तैयारी करने लगतीं। 

घर पकवानों की सोंधी महक से भर जाता।ढेर सारा पुजापा बनता, साथ में तरह-तरह के व्यंजन भी बनते। अम्मा सुबह से भजन गुनगुनाते हुए काम में लग जाती थीं। अम्मा कमाल की कलाकार भी थीं। दीवार पर माता जी का चित्र बनातीं तो जैसे माॅं साक्षात मुस्करा पड़ती थीं। सूरज-चंन्द्रमा बनाने के साथ अम्मा का चेहरा भी चमक उठता था। 

दशहरे वाले दिन से घर की दीवार का एक कोना अम्मा की उंगलियों से सजने लगता। पापा कहते..”देखो टेढ़ी न हो जाए लाइन!”  वे दोनों दीवार पर अपने भावों के साथ परिवार की सुखद कामना रचाते रहते। पापा मुग्ध होकर अम्मा की कलाकारी देखते थे। उनके चेहरे के प्रशंसित भाव देखकर हम लोग भी बहुत खुश होते थे। मेरी आर्ट तो इतनी खराब थी कि.. क्या कहें। अम्मा के पास बैठ जाएं तो वे कहें, “माता जी की चुनरी तुम भी रंग दो।”  मैं झिझक जाऊॅं तो वे कहें-“भगवान भावना देखते हैं बहू!” 

इतने वर्षों बाद भी पहले साल की वे अनमोल स्मृतियाॅं मन में जस की तस  सिमटी हैं। समय बीतता रहा..पापा के जाने से जो धक्का लगा वो अम्मा की बीमारी से और बढ़ गया। कल अम्मा बोल भी नहीं सकीं। जीवन का यह बदलाव अंतर्मन को अनदेखी पीड़ा से भरता जा रहा है। बार-बार मन करता है भगवान से कहें -” अम्मा को स्वस्थ कर दीजिए भगवन्!” 

रश्मि ‘लहर’