साक्षात्कार: साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा का

साक्षात्कार: साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा का

  • डॉ कल्पना पांडेय ने पूछे जीवन से संबद्ध कुछ अनिवार्य प्रश्न साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा से और उनके उत्तर सार्थक और सारगर्भित…..

डॉ कल्पना पांडेय द्वारा साक्षात्कार

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डॉ. कल्पना पाण्डेय

प्रश्न 1.कभी-कभी जीवन में सब कुछ होते हुए भी व्यक्ति तन्हा क्यों महसूस करता है?

उत्तर: इस जीवन में किसी भी व्यक्ति को, उसके चाहे अनुसार सब कुछ नहीं मिल जाता । कहीं ना कहीं उसके जीवन में कोई अभाव अवश्य खटकता है। उसे प्राप्त विविध प्रकार के सुखों में ही कई प्रकार के कष्ट छिपे होते हैं। हम सबको केवल सुख है अच्छे लगते हैंऔर जरा सा दुख भी हमें अवसाद की तलहटी में ले जाता है और यही अवसाद हमारे एकाकीपन का कारण बन जाता है। किसी के भी अंतर्मन को बिना उसके कहे पढ़ने की क्षमता का नितांत अभाव रहता है। इसलिए मैं हमेशा कहती हूं हमें संवाद करते रहना चाहिए जब कोई जान ही नहीं पाएगा हमारे भीतर क्या चल रहा है तो उस कष्ट का निवारण भी नहीं हो सकता। अपने मन की व्यथा को किसी बहुत ही अपने और समझदार के सामने वर्णित कर देना ही इस प्रश्न का हल है।

प्रश्न 2.उंगलियों की तरह घरों के दास्तान उलझे सवालों की तरह क्यों है?

उत्तर: कल्पना जी आपके प्रश्न सचमुच बहुत ही अद्भुत हैं और अनिवार्य भी। उंगलियां अपने आप कभी नहीं उलझती, यदि हाथों को सीधे रखा जाए तो उंगलियां भी सीधे ही रहती हैं । जब भी दो हाथ मिल जाते हैं तो इन में उलझने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं । जैसे ही ये दो हाथ अलग हो जाते हैं तो उलझने भी दूर हो जाती हैं।
परिवारों के बीच उलझने पैदा होने के परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग कारण हो सकते हैं। किसी परिवार में शिक्षा का अभाव कई उलझे सवालों को पैदा कर देता है और कहीं कहीं आर्थिक अभाव इसका प्रमुख कारण बन जाता है। इन उलझे सवालों का हल भी बहुत ही जरूरी है सहज जीवन के लिए और इसके लिए आपसी संवाद नितांत अनिवार्य है।

प्रश्न 3. बेबसी क्या है ? सभी की ज़िंदगी में कहीं न कहीं घर कर बैठी है। क्या इसे दूर किया जा सकता है?

उत्तर: अपनी इच्छा के अनुसार कुछ ना कर पाने को हम बेबसी कहते हैं।इस बेबसी के मैंने कई रूप देखे हैं मैं आपको एक उदाहरण देती हूं हमारे ही परिवार में एक लड़की की शादी विदेश में कर दी गई थी यह सोचा गया था कि विदेश में यह लड़की बहुत सुख से रहेगी और समय आने पर परिवार के लोगों को विदेश में भुला सकेगी। शादी के कुछ समय के पश्चात ही वह लड़की बेबसी का शिकार हो गई वह इतनी बेबस हो गई कि अपने घर परिवार के साथ बात करना भी उसके लिए मुश्किल हो गया विदेश में उसके ससुराल के लोग उसे घर में बंद करके सुबह निकल जाते और उसके खाने के लिए कभी-कभी एक आलू उबला हुआ और पानी उसके पास रख दिया जाता। बेबसी ने उसको घेर लिया था और उसके पास ऐसा कोई साधन भी नहीं था जिससे वह अपने परिवार से संपर्क कर सके। एक दिन उसके घर के लोग उसके कमरे की खिड़की खुली छोड़ गए । जिसमें से उसने राह से जाते एक व्यक्ति को एक कागज पर अपने भारतीय परिवार का फोन नंबर लिख कर फेंक दिया था। उस अंजान ने बस नई ब्याहता लड़की की सहायता की । बाद में उस लड़की को वहां से बचाया गया और अपने देश में ले आया गया । ये एक लंबी प्रक्रिया थी लेकिन मैं कभी याद करती हूं उस लड़की की बेबसी तो मुझे बहुत दुख होता है। हम जीवन में कभी कभी जब बुरे लोगों में घिर जाते हैं और हमारी तमाम अच्छाइयां उन्हें बदल नहीं सकती तो हम बेबस हो जाने को बेबस हो जाते हैं। मुझे लगता है बेबसी कितनी भी हो कोई ना कोई अनजान, कोई ना कोई सहारा कभी ना कभी अवश्य आता है । मैं मानती हूं हर कठिनाई का हाल ,हर बेबसी का हल मिल ही जाता है।

प्रश्न 4.क्या पैसा सोच को, चरित्र को दोहरे मानदंड में खड़ा कर देता है। अगर हांँ ,तो क्यों ?

उत्तर: यदि मैं अपनी बात करूं तो मैं इस बात से सहमत नहीं होती कि पैसा सोच को या चरित्र को दोहरे मानदंड में खड़ा कर देता है। लेकिन हम जिस युग में रहते हैं वहां पर भांति भांति के लोग, भांति भांति के चरित्र विद्यमान है । कुछ लोगों में पैसे की भूख रोटी की भूख से अधिक होती है। ऐसे लोग धन कमाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं । ऐसे लोगों के लिए दोहरे मानदंड बनाना और चरित्र में बदलाव लाना कोई बड़ी बात नहीं होती। देश में ही ऐसे लोगों के बहुत उदाहरण देखे जा सकते हैं।
आपने पूछा है क्यों ? तो इसके उत्तर में मैं इतना ही कह सकती हूं कि पैसे की भूख बिल्कुल वैसी ही है जैसे किसी गरीब आदमी को रोटी की भूख लगती है और जब उसको कुछ भी खाने को नहीं मिलता तो वह विध्वंसक भी हो जाता है। बस रोटी की भूख में और पैसे की भूख में इतना ही अंतर है कि पहली भूख रोटी खाने के बाद शांत हो जाती है लेकिन पैसे की भूख कभी शांत नहीं होती। यदि मन पर नियंत्रण कर लिया जाए तो व्यक्ति सब कुछ त्याग कर सकता है और यदि मन पर नियंत्रण ना हो पाए , तो मन बेलगाम घोड़े की तरह जीवन भर भागता ही रहता है।

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प्रश्न 5.सामंजस्य- तालमेल कभी-कभी उदारता, विनम्रता की कमज़ोरी समझी जाती है। लोग सीधे -सरल रास्तों को क्यों उलझनों से भरने की कोशिश करते हैं?

उत्तर: मुझे लगता है मनुष्य का स्वभाव प्रकृति की देन होता है । ईश्वर ने हमें हमारा स्वभाव सौगात के रूप में दिया है । हमारा स्वभाव ही हमारा वर्तमान और भविष्य निर्धारण करता है। ऐसे में जो व्यक्ति समाज के तालमेल को समझ नहीं पाता , वही व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सज्जनता को उसका भय समझता है या उसका स्वार्थ । बुरे स्वभाव के निकृष्ट व्यक्ति के साथ आप कितना भी अच्छा करते रहें, उसे लगता है इसमें अच्छा करने वाले का कोई ना कोई स्वार्थ छिपा होगा ।
बचपन से हम लोग यह सुनते और पढ़ते आए हैं कि चंदन कभी सुगंध नहीं छोड़ता और फूल कभी महक नहीं छोड़ते, इसी प्रकार अच्छे लोगों को भी सदा ही सज्जनता को अपनाए रहना चाहिए। दूसरे लोग जो भी सोचें इसकी परवाह किए बिना सज्जनता को छोड़ना नहीं चाहिए । अच्छाई करने वाले को इसी से संसार का सुख , संतुष्टि मिल जाती है।

प्रश्न 6.क्या जीवन में व्यवहारिकता के साथ नित्य प्रति थोड़ा समय आध्यात्मिक चिंतन – मनन को भी देना चाहिए?

उत्तर: जी बिल्कुल । मुझे लगता है नित्य प्रति, यदि दिन का प्रारंभ ईश्वर को याद करते हुए, प्रकृति की पूजा करते हुए, प्रकृति के साथ कुछ पल बिताते हुए, अध्यात्म के साथ जोड़ लिया जाए तो पूरा दिन और फिर पूरा जीवन सुखद और शांत रहता है ।आध्यात्मिक चिंतन हमारे मन को भी मजबूती देता है और जीवन में आने वाली आपदाओं से बचने, उभरने और उनसे पार निकल जाने की राह भी दिखाता है ।इसमें मैं अध्यात्म की पुस्तकें पढ़ने का आग्रह भी करना चाहती हूं । हमारे देश में ऐसे बहुत सारे ग्रंथ हैं जो हमें प्रकाशित करते हैं, अच्छा जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित करते हैं लेकिन इसमें पठन-पाठन के साथ साथ जीवन में उन्हें कार्यान्वित करना बहुत आवश्यक है।

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प्रश्न 7.आपके जीवन में मुलाकातें अहम भूमिका रखती हैं। ऐसी कुछ मुलाकातें जिन्होंने आपके जीवन को नई दिशा दी हो।

उत्तर: जी बिल्कुल सही कहा आपने। मुझे सबसे पहले जब 1984 में प्रधानमंत्री निवास में श्रीमती इंदिरा गांधी जी से मुलाकात करने का अवसर मिला था तो वह मेरे लिए बहुत ही गौरव के पल थे । मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसा हो सकता है और यह सब संभव हुआ मेरे लेखन के कारण। उन दिनों मैं वित्त मंत्रालय में वरिष्ठ अनुवादक के रूप में कार्य कर रही थी और मेरा पहला कहानी संग्रह “आज का ज़हर” प्रकाशित हुआ था । स्कूल टाइम में मैंने नेहरू जी के पत्र इंदिरा जी के लिए जो लिखे गए थे वे सब पढ़े थे । पता नहीं क्यों, मुझे उन सब पत्रों में लिखा हुआ अपने लिए भी लगने लगा था।
जीवन में मैं आदरणीय इंदिरा गांधी जी से बहुत प्रभावित रही हूं। एक बार मैंने पढ़ा था कि वे अपने जीवन में 18 घंटे काम करतु हैं और बहुत कम विश्राम करती हैं । मैंने उनका यह नियम अपना लिया था । मुझे लगता था कि मुझे भी कम से कम 18 घंटे तक पढ़ना है ,लिखना है और काम करने हैं। बस उनका यह मंत्र जो था पूरे जीवन भर मुझे शिक्षा देता रहा और फिर जब इस पुस्तक को उन्हें भेंट करने के लिए हमारे वित्त मंत्रालय के मित्र श्री बाल आनंद ने उन्हें पत्र लिखा और मुझे समय मिल गया प्रधानमंत्री निवास जाकर उनसे मिलने का। किसी बड़े व्यक्ति से मिलने की यह पहली मुलाकात थी जिसे मैं कभी नहीं भूलती । आज भी 18 घंटे काम करने और बहुत कम नींद लेने के नियम का पालन कर रही हूं।

प्रश्न 8. साहित्यिक जीवन कई बार ऐसे पड़ाव आए होंगे, जब आपको लगा हो कि पारिवारिक जिम्मेदारियांँ उपेक्षित हो रही हैं ।आपने उसका समाधान कैसे किया?

उत्तर: जीवन के प्रारंभ में कई बार हुआ मुझे लगा कि कुछ छूट रहा है । मैंने फौरन उन बाधाओं को समस्याओं को दूर कर दिया। मुझे लगता है जैसे ही कोई कठिनाई जीवन में आती है उसे ,उसी पल दूर कर दिया जाना चाहिए नहीं तो वह बहुत मुश्किलों से हल होती है।
मैंने परिवार और साहित्य दोनों को एक साथ रखा है ।न तो मैंने साहित्य को परिवार से अधिक तरजीह दी
न ही परिवार को साहित्य से बड़ा माना है । मेरे लिए ये दोनों हैं मेरे दो नेत्रों के समान रहे हैं जो सदा ही मेरे साथ रहे ,मेरे सहायक रहे । जब मेरे परिवार के सदस्य प्रधानमंत्री निवास में मेरे साथ इंदिरा जी को मिले थे तब उन्होंने स्वीकार कर लिया था कि साहित्य और लेखन का सम्मान पूरी दुनिया करती है और फिर मेरे परिवार ने मुझे पूरा सहयोग दिया कि मैं साहित्य के प्रति अधिक समर्पित रहकर अपना लेखन कार्य करती रहूं। इसमें मुझे मेरे पति सुभाष चडढा जी का बहुत सहयोग रहा जिसके लिए मैं उनका सदैव आभार प्रकट करती रहती हूं।
पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में मेरे पति, मेरे नानी जी और मेरे माता-पिता का भी बहुत योगदान रहा । मुझे जब-जब आवश्यकता हुई उन्होंने मुझे समय दिया, मेरा मार्गदर्शन किया और मुझे कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।

प्रश्न 9. सम्मान और पुरस्कारों की जैसे बहार आ गई है । क्या यह साहित्यिक मूल्यों को पतन की ओर ले जा रहा है या उन प्रतिभाओं को संबल प्रदान कर रहा है, जिनके अंदर सर्जना शक्ति का संचार हो रहा है ।

उत्तर: सम्मान और पुरस्कार साहित्य के उत्थान के लिए अनिवार्य नहीं है । साहित्यकार कभी भी पुरस्कारों के लिए या सम्मान प्राप्त करने के लिए नहीं लिखता दूसरी ओर यह भी सत्य है कि जब उसके लेखन को, उसके कार्य को पुरस्कार और सम्मान के माध्यम से सराहा जाता है तो वह साहित्य साधना के प्रति अधिक समर्पित होकर काम करने के लिए प्रेरित होता है।
आपने साहित्यिक पतन की जो बात की है वह भी कुछ हद तक सही है । आज साहित्य को नहीं बल्कि व्यक्ति को सम्मानित किया जा रहा है । होना यह चाहिए की लिखित साहित्य के माध्यम से व्यक्ति का सम्मान किया जाए परंतु आज व्यक्ति का सम्मान अधिक हो रहा है। तभी साहित्यिक मूल्यों का पतन धीरे-धीरे होने लगा है। लेकिन हर जगह साहित्यिक मूल्यों का पतन नहीं हो रहा। हमारे देश की कई संस्थाएं लेखक के लेखन को ही महत्व दे रही हैं और प्रकाशित पुस्तकों के आधार पर उन्हें सम्मान मिल रहे हैं । इसलिए हमें निराश होने की आवश्यकता कदापि नहीं है और जैसा कि मैंने पहले भी कहा हर लेखक सम्मानों के लिए नहीं लिखता । यह संस्थाओं का दायित्व है कि वह प्रकाशित साहित्य को देखें, परखे और उसी के अनुसार निर्णय लिए जाएं। यह भी देखने में आ रहा है कुछ लोग शोर-शराबा करके , झगड़ा करके अपने को सम्मानों की सूची में लाने के प्रयास में लगे रहते हैं और वे कामयाब भी हो जाते हैं ।मुझे लगता है यह साहित्यिक मूल्यों की गिरावट है। यदि वह व्यक्ति पहले ही योग्य था तो उसे पुरस्कार दे दिया जाना चाहिए था, उसके कहने पर, उसके भय से जब उस को सम्मान दिया जाता है तो यह भी विचारणीय हो जाता है।

प्रश्न 10.व्यावसायिकता के इस दौर में हमें कहांँ तक साहित्य में समझौते करने चाहिए ?

उत्तर: साहित्य में समझौतों की आवश्यकता नहीं होती। हम जो भी लिखना चाहें, जैसा भी साहित्य अपने पाठकों को देना चाहते हैं , वह हमारी अपनी सोच , हमारा अपना निर्णय होता है। अपने लिखित साहित्य को प्रकाशित करने , पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के लिए कभी-कभी कुछ समझौते करने पड़ते हैं। व्यावसायिकता के आज के दौर में पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर काफी चिंता है । लेखक को अपने पैसे देकर पुस्तकें प्रकाशित करवाने की जो प्रक्रिया हमारे देश में है इसका निदान होना अनिवार्य है। मैं सरकार से अनुरोध करना चाहूंगी कि वे लेखक की समाजोपयोगी सामग्री के प्रकाशन के लिए अनुदान प्रदान करने की नई योजना बनाए।


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