saamaajik chunautiyaan/बाबा कल्पनेश

विषय-सामाजिक चुनौतियाँ

(saamaajik chunautiyaan)

saamaajik chunautiyaan:मानव सभ्यता के उदयकाल से ही मानव समाज को चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। इन चुनौतियों को पहचान कर इनके समाधान की दिशा में कदम बढ़ाना हमारे मनीषियों की दैनिक चिंतन चर्या रही है।आज का यह विषय निर्धारण को भी उसी तरह की चिंतन चर्या की संज्ञा से हम अभिहित कर सकते हैं।
मैं जब इंटर का विद्यार्थी था तब अपने गाँव में “हमारे कर्तव्य और अधिकार” शीर्षक से एक परिचर्चा गोष्ठी का आयोजन किया था।मेरे साथ में पढ़ने वाले गाँव के ही एक और विद्यार्थी रमाकर मिश्र जी थे।हम दोनों ने ही संयुक्त रूप से इस आयोजन की रूपरेखा तैयार की थी।पंडित गिरिजा शंकर मिश्र जी हमें हिंदी पढ़ाते थे। विषय प्रतिपादन के लिए हमनें गिरिजा शंकर जी को बुलाया था। आज यहाँ उस गोष्ठी की चर्चा करने का मेरा एक ही लक्ष्य है।वह यह कि आज का व्यक्ति अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए कर्तव्य से अधिक अपने अधिकार की बात करता है।जिस समय मैंने इस तरह की गोष्ठी का आयोजन किया था उसी समय इस तरह की सोच के दर्शन होने लगे थे,पर इतने निम्न स्तर तक सोच गिर नहीं पायी थी।यह सन् उन्नीस सौ अठहत्तर से अस्सी का वर्ष रहा होगा मतबल यह कि आज से करीब चालीस वर्षों के अंतराल में आज स्व-स्व अधिकार की बातें अधिकता से की जानें लगीं हैं। आज तक में व्यक्ति अपने अधिकार के प्रति जितना सचेष्ट हुआ है,अपने कर्तव्य से उतना ही लापरवाह हुआ है।

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इस विषय में नेताओं की गर्हित भूमिका देखने को मिली है।इन नेताओं ने पूरे भारतीय समाज को टुकड़े-टुकड़े में बाँटकर अपना उल्लू सीधा करने के हेतु से अलग-अलग व्यक्ति और अलग-अलग जाति विशेष से मिलकर उन्हें केवल अधिकार बोध की स्तरहीन प्रेरणा दे रहे हैं। ताजा उदाहरण हमारे सामने है किसान आंदोलन। किसान आंदोलन एक गहरा वितण्डावाद है।किसानों के कंधे पर अपनी बंदूक रख अपना कुछ भिन्न प्रकार का शिकार करना चाहते हैं।किसान आंदोलन के नाम पर राजधानी दिल्ली में जो कुछ हो रहा है सर्वथा अक्षम्य है।पर “नंगा नाचे चोर बलैया लेय।”
मैं भी किसान का ही बेटा हूँ। थोड़ी सी खेती है।बाह्य आमदनी कुछ नहीं आवास और भोजन की आवश्यकता तो सब के पास है।मेरे जैसे अल्पतम जीवन साधन वाले कितने लोग हैं पूरे भारत भर में।सत्य जनगणना की जाय कुल कृषक की 80% जनसंख्या मेरे जैसे किसानों की होगी। ऐसे किसानों की समस्या देखने की किस नेता को फुर्सत है।
प्रधान गाँव का हो या प्रदेश का कोई विधायक अथवा सांसद चुनाव के बाद सम्पन्नता का प्रतिनिधि-प्रतीक बन जाता है।चमचमाचम हो जाता है।ये अपने को जन सेवक कहते हैं। जन सेवा के नाम पर जमकर लूट करते हैं और जन समुदाय को कई विभक्तियों में बाँटने का कार्य करते हैं।

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आज की सामाजिक चुनौतियों में एक और विचित्र सी चुनौती उभरकर आई है।वह यह कि गलत को कोई गलत कहने को तैयार नहीं है। कोई भ्रष्टाचार में रत है तो उसकी कोई निंदा करने को तैयार नहीं है। उल्टे उसकी प्रशंसा की जाती है कि अच्छी कमाई करता है।लोग प्रशंसा के पुल ही बाँधते है।उसका कारोबार बड़ा अच्छा है। परिणाम स्वरूप वह श्रेष्ठता का प्रतिमान बन जाता है।फिर महाजनों येन गता स पंथा की स्थिति निर्मित होती है। ऐसे में सामाजिक चुनौतियों का सामना करना एक और टेढ़ी खीर है।
आज का विषय अत्यंत गहन है।यहाँ माघ मेले में नेट की समस्या तो है ही।एकाग्रता भी नहीं सध पा रही है।इस लिए पूर्ण विवेचन संभव नहीं। अपनी एक कविता की निम्न पंक्तियों के साथ बात को यही विराम देना उचित समझता हूँ।

“पालागी पंडित जी कहकर चमरौटी हर्षाता।
पसियाने का गोड़इत आकर सब को रात जगाता।।
दुआ-सलाम कर जुलहाने का नजदीकी पा जाता।
जात-पात के रहने पर भी मेल-जोल का नाता।।”

पर यह नाता आज खंडित हो गया है। यह सामाजिक दरार बढ़ाने वाले कौन से लोग हैं। पहचान करने की जरूरत है। परस्पर दूरियाँ बढ़ी हैं और गहरी बढ़ी हैं।कुछ लोग ऐसे भी हैं जो रोटी यहाँ की खाते है पर अपना रिश्ता अन्य देश से जोड़ते हैं। सामाजिक विसंगतियों की वृद्धि में इनका भी अहम योगदान है।

baba kalpnesh ke geet- कलम मेरी गही माता/बाबा कल्पनेश

कलम मेरी गही माता 

(baba kalpnesh ke geet)

कलम मेरी गहो माता सदा उर नेह की दाता।

चले यह नित्य करुणा पथ यही मुझको सदा भाता।।

भरम यह तोड़ती जग का उठाए प्रेम का छाता।

जगाए राष्ट्र भारत को बढ़ाए आत्म का नाता।।

निबलता देश की टूटे बनें सब वीर व्रत धारी।

चलें सब साथ होकर के सजे यह राष्ट्र फुलवारी।।

महक आकाश तक फैले यशी हों साथ नर-नारी।

मनुजता मूल्य पाए निज हटे जो मोह भ्रम भारी।।

सभी का श्रम बने सार्थक सभी को मूल्य मिल पाए।

नहीं  हों दीन भारत में कलम यह गीत लिख गाए।।

सुने नित विश्व सारा ही सभी को गीत यह भाए।

भरत का देश जागा है समय शुभ लौट कर आए।।

पुरातन शौर्य वह जागे भरत जब शेर से खेला।

वही यह राष्ट्र प्यारा है बनाकर विश्व को चेला।।

भरा करता रहा सब में मनुज के भाव का रेला।

लगे संगम किनारे जो अभी भी देख लें  मेला।।

नहीं कोई करे ऐसा यहाँ निंदित पड़े होना।

जगत अपमान दे भारी मिला जो मान हो खोना।।

जगे फिर दीनता हिय में पड़े एकांत में रोना।

लुटेरे लूट लें सारा हमारी निधि खरा सोना।।

जगे यह राष्ट्र-राष्ट्री सब सभी सम्पन्नता  पाएं।

सभी जन राष्ट्र सेवा में श्रमिक सा गीत  रच गाएं।।

निकल निज देश के हित में स्वयं अवदान ले आएं।

सदा हर जीव का मंगल रचें कवि गीत-कविताएं।।


२. हे राम

(baba kalpnesh ke geet )


 

हे राम जैसे आप हैं, यह जग कहाँ-कब मानता।

निज कल्पना के रूप में, कल्पित तुम्हे  है तानता।।

व्यवहार कर कुछ और ही,प्रवचन करे कुछ और ही।

जो वेद का व्याख्यान है, इस जगत लागे बौर ही।।

यह वेद को पढ़ता भले,पर कामना रत नित्य ही।

निज मापनी आकार में, निज को कहे आदित्य ही।।

यह ज्ञान का भंडार है, उर में सदा ही ठानता।

हे राम जैसे आप हैं, यह जग कहाँ है मानता।।

सम्मान दे माता-पिता,आचरण वैसा अब नहीं।

दुत्कार दे बैठे रहो,आदर नही कोई कहीं।।

आदेश कैसे मानता,ज्ञानी हुआ हर पूत है।

हनुमान को लड्डू खिला,बनता स्वयं हरि दूत है।।

यह देखता टीवी भले,निज बाप कब पहचानता।

हे राम जैसे आप हैं, यह जग कहाँ है मानता।।

ओंकार अथवा राम ही,जपता भले कर माल ले।

आशय नहीं पर मानता,गुरुदेव वाणी भाल ले।।

चंदन भले माला भले,आजान का स्वर तान ले।

कर्तव्य अपना जान ले,जो शास्त्र सम्मति मान ले।।

गुरु वाग केवल बोलता, पर कुछ कहाँ  है जानता।

हे राम जैसे आप हैं, यह जग कहाँ-कब मानता।।


  ३.  साध्य


कविता हमारी साध्य हो,साधन करें जो आज हो।

साधन हमारी भावना,हमको उसी की लाज हो।।

संसार सारा निज सखे,आओ इसे हम प्यार दें।

बोले सभी यह संत हैं, जिसपर हमें अति नाज हो।।

सब कुछ यहाँ परमात्मा, कुछ भिन्न जानो है नहीं। 

बस एक ही यह ज्ञान है,इस ज्ञान से ही काज हो।।

जो मंत्र गुरुवर से मिला,उसको हृदय में धार लें।

तब धन्य जीवन धन्य हो, निज शीश पर जग ताज हो।।

जो योग है वह जान लें, निज आत्म को विस्तार दें।

पाकर जिसे हर आदमी, मेटे उसे जो खाज हो।।

यह जीव-जीवन क्यों मिला,यह प्रश्न उत्तर खोज लें।

इस जग चराचर क्या भरा,हम जान लें जो राज हो।।

आओ लिखें वह गीतिका, जिसमें सरित सी धार हो।

हिय की कलुषता सब बहे,ऐसा सरस अंदाज हो।।

baba-kalpnesh-ke-geet

बाबा कल्पनेश

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