जो हार न माने, वो है- आशा/ डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

जो हार न माने, वो है-आशा


कुंजड़िन चेन-शु-चू के अनथक परिश्रम का उदाहरण

चीन की गौरव कही जाने वाली कुंजड़िन चेन-शु-चू के अनथक परिश्रम का उदाहरण देते हुए हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने एक लेख में कहा है कि मैं जब भी हिन्दी की अग्रणी लेखिका आशा शैली को देखता हूँ तो मुझे बरबस उस उद्यम साहसी, विनम्र, मितव्ययी और परोपकार की भावना से सराबोर कर्मयोगिनी का स्मरण हो आता है। जिसने स्वयं सब्जी बेच कर जरूरतमंदों के लिए पाँच करोड़ की धनराशि एकत्र कर ली थी। उन्होंने दोनों में बहुत साम्य अनुभव किया है। डॉ. मिश्र ने उन्हें ‘वन विमेन आर्मी’ कहा है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। वे जिस जीवट के साथ बिना किसी बाह्य सहायता के अकेले दम भाषा-साहित्य के क्षेत्र में अनवरत काम कर रही हैं, वह किसी अघोषित युद्ध से कम नहीं।
हालांकि धन-संग्रह करने के मामले में तो आशा शैली की चेन-शु-चू से बराबरी नहीं की जा सकती, परन्तु इतना जरूर है कि उन्होंने साधनविहीन ग्रामीण वातावरण में रहते हुए मामूली स्तर से अपनी लेखन यात्रा प्रारंभ की और आज साठ वर्षों के बाद उनके खाते में ढेर सारी कहानियाँ, लघु कथाएँ, कविताएँ, गजलें, उपन्यास आदि के अलावा एक संपादक के रूप में असंख्य उदीयमान लेखकों और कवियों का उत्साहवर्द्धन करके उनकी प्रतिभा को सँवार-माँज कर साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय फलक पर लाने का पुण्य जरूर संग्रहीत है।

आशा शैली की हिम्मत और उनका हौसला अभी भी बरकरार है

(जो हार न माने, वो है-आशा)


आज हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, डोगरी, बांग्ला और उड़िया पर बराबर अधिकार रखने वाली आशा शैली न केवल लेखन तक सीमित हैं, बल्कि इन्होंने संपादन-प्रकाशन के क्षेत्र में भी अच्छा-खासा स्थान बनाया है। जिसके अंतर्गत यह वर्ष 2007 से हिन्दी कथा-साहित्य को समर्पित एक त्रैमासिक पत्रिका ‘शैल-सूत्र’ का नियमित प्रकाशन कर रही हैं, जिसमें नवोदित रचनाकारों के अलावा स्थापित लेखकों-कवियों की रचनाओं का भी समावेश होता है। इसके अतिरिक्त आत्मजा आरती की स्मृति को हर पल अपने ही आसपास महसूस करने के निमित्त ये ‘आरती प्रकाशन’ का भी संचालन करती हैं। इसके लिए काफी भाग-दौड़ करके इन्होंने आइ.एस.बी.एन. नंबर भी हासिल करने के बाद अब तक दर्जनों स्तरीय पुस्तकों का प्रकाशन सफलतापूर्वक किया है। ऐसा लगता है कि जीवन भर समय-समय पर कवि सम्मेलनों, साहित्यिक गोष्ठियों, परिचर्चाओं के आयोजन में इन्होंने जो आनंद लिया उसी से इन्हें आगे बढ़ने की ऊर्जा प्राप्त होती रही है। जीवन के एक कम अस्सी पड़ाव पार चुकी एकांत साधना-रत इस जीवट भरी महिला के भीतर बैठी लेखिका अभी भी पूरे दम-खम के साथ अपने सनातन धर्म का पालन करने में सक्रिय है।
मात्र चौदह वर्ष की अल्प-वय में दाम्पत्य-सूत्र से आबद्ध होने के तीन वर्ष उपरांत ही पति के साथ पाई-पाई जोड़कर परिश्रम पूर्वक हिमांचल के एक पर्वतीय गाँव में जमीन खरीद कर तैयार किये गये बाग में सेब, नाशपाती, अखरोट, प्लम, खुबानी, चेरी, बादाम आदि फल व सब्जियाँ पैदा कर लोगों को बाँटने के अलावा गाय पालने तथा तीन बच्चों की परवरिश के साथ-साथ साहित्य की अनवरत साधना में सुखानुभूति प्राप्त करना कोई मामूली काम न था। उस पर भी चालीस की वयःसंधि में पति का वियोग और फिर उसके दस वर्ष के अंतराल पर किसी वज्रपात की तरह युवा पुत्री की आकस्मिक मृत्यु का आघात इस भाव-प्रवण कवियित्री के हृदय को छलनी करने को पर्याप्त था। लेकिन धुन, धैर्य और साहस की धनी इस माँ ने प्रकृति का वह आघात भी सह लिया और बिना रुके साहित्य-साधना में लीन रही।
छठी कक्षा की पढ़ाई के दौरान पहली बार जब कुछ लिखा तो उसे सहपाठियों-अध्यापकों ने नहीं सराहा। फिर लिखी एक ग़ज़ल को दिल्ली के मिलाप ने 1960 में छापा। तब से शुरु हुई साहित्य-साधना में इनका रचना-संसार दर्जनों कहानियों के साथ-साथ ‘एक और द्रौपदी’ (काव्य संग्रह), काँटों का नीड़ (कविता संग्रह), ढलते सूरज की उदासियाँ (कविता संग्रह), प्रभात की उर्मियाँ (लघु कथा संग्रह), शज़रे तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह), पीर पर्वत (गीत संग्रह), सागर से पर्वत तक (ओड़िया से हिन्दी में काव्यानुवाद), गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जीवनियाँ), साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित दादी कहो कहानी (लोक कथा संग्रह), सूरज चाचा (बाल कविता संग्रह), हमारी लोक कथाऐं (भाग1 से 6 तक), हिमाचल बोलता है (हिमाचली कला-संस्कृति पर आधारित और किताब घर से प्रकाशित), अरु एक द्रौपदी (एक और द्रौपदी का बांग्ला अनुवाद) आदि-इत्यादि तक फैला हुआ है। एक हिमाचली दलित कन्या ‘बीरमा’ और पंजाब के एक बहुचर्चित राजपरिवार के शीर्ष पुरुष के ताने-बाने को लेकर रचा गया इनका उपन्यास ‘छाया देवदार की’ बेहद चर्चित रहा। इसके अलावा एक बाल उपन्यास ‘कोलकाता से अंडमान तक’ तथा कहानी संग्रह ‘द्वंद्व के शिखर’, चीड़ के वनों में लगी आग आदि 28 पुस्तकें उपलब्ध एवं अन्य बहुत सी पुस्तकें अभी प्रकाशनाधीन हैं। ‘आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी’ और स्त्री संघर्ष एक चिन्तन जैसी पौस्तकें एवं स्त्री-विमर्श को रेखांकित करने वाले अनगिनत सम-सामयिक लेख उनकी बौद्धिक प्रखरता का परिचय देते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशों से प्रकाशित होने वाली अनेक हिंदी उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में भी इनकी कहानियाँ सम्मानपूर्वक छपती रहती हैं।

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इस प्रकार पति के आकस्मिक परलोक गमन के दस वर्ष के अंतराल पर ही युवा पुत्री का भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाना, स्वर्णिम भविष्य की कल्पना से संजोये दो-दो पुत्रों के लिए बहुएँ ढूंढ कर उनके घर बसाने के बाद उनसे घनघोर उपेक्षा ही नहीं बल्कि घृणा, तिरस्कार, अपमान, आक्षेप, अपने ही बनाए घर से अपने ही पुत्रों द्वारा बेघर कर दिया जाना, फिर सिर छिपाने को एक आशियाने की तलाश में विभिन्न कस्बों, शहरों और प्रदेशों की ठोकरें खाना, पुत्रों के साथ विभिन्न न्यायालयों में मुकदमेबाजी के झंझटों के अलावा और भी न जाने क्या-क्या झेलने के बीच भी अनवरत उच्चस्तरीय साहित्य-सृजन के साथ-साथ उदीयमान लेखकों व कवियों का उत्साहवर्द्धन-मार्गदर्शन करना कोई आसान काम नहीं है।

2 अगस्त, 1942 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) के एक छोटे से गाँव अस्मान खट्टड़ से शुरू हुआ जीवन का सफर देश विभाजन के बाद जगाधरी, अंबाला, हल्द्वानी, खतौली, सितारगंज, लालकुआँ आदि अनेक जगहों में होते हुए निरंतर यायावरी में बीता। बीच के कुछ वर्ष हिमाचल के गाँव गौरा में घर-गृहस्थी में बीते परंतु पारिवारिक झंझटों ने शिमला के वर्किंग वीमेन हॉस्टल की शरण लेने को विवश कर दिया। जिंदगी के थपेड़ों ने आज इन्हें उत्तराखण्ड में नैनीताल जिले के एक गाँव में अनेक घर बदलते रहने के बाद किराये के एक दो कमरे वाले घर में ला पटका है। इतना सब झेलने के बावजूद भी न तो इन्होंने और न ही इनकी लेखनी ने कभी हार मानी और न विश्राम ही लिया।

मानव जीवन में दो रंग बहुत गहराई तक परस्पर घुले-मिले हैं–आशा और शैली। आशा है मनुष्य के जीने की डोर जो उसे स्वर्णिम भविष्य की उम्मीदों से बाँधे रखती है, उसकी खुली आँखों के सपनों का आधार। मानव आशाओं के पंख पर ही तो सवार होकर नित निरंतर जीवन-यात्रा पर निकल पड़ता है और उसके अंतिम छोर पर पहुँचने तक यह क्रम यूँ ही अनवरत चलता रहता है। और शैली है उसके जीने का ढंग, कला और जिंदगी के प्रति उसका अपना नजरिया। उसके अपने बनाये नियम, कायदे; जिनका वह स्वयं पालन करता है और किसी हद तक चाहता भी है कि दूसरे भी कमोवेश उनको अपनाऐं। आशा और शैली का यह मिला-जुला स्वरूप ही तो मनुष्य की अपनी पहचान है। लेकिन जब ये दोनों शब्द एकाकार हो जायें तो? एक ऐसा व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है जिसमें जिजीविषा, हौसला, उल्लास, कठोर श्रम, सद्भाव, सेवा-सत्कार, प्रेम, करुणा, शालीनता, ज्ञान-पिपासा, जीवन को अनंत मानने वाले आध्यात्मिक चिंतन से पगा सनातनी सुरुचिपूर्ण संस्कारों के साथ-साथ नियमित जीवन-चर्या आदि का बेहतरीन सम्मिश्रण। विगत साठ सालों से साहित्य-साधना में लीन आशा शैली को उनके पाठक, मित्र और मिलने वाले सभी इसी रूप में जानते-पहचानते हैं।

एक का अस्सी की वयःसंधि में भी युवाओं सी ऊर्जा से लबरेज आशा शैली आज भी लगातार भारी अर्थाभाव के बावजूद छंद, गीत, ग़ज़ल, कविता, लघुकथा, कहानी, उपन्यास, वैचारिक आलेख आदि लिखने में स्वयं को व्यस्त रखती हैं। इनकी रचनाओं में प्रेम, भक्ति, विरह, वैराग्य, आक्रोश, व्यंग्य, हास्य आदि जीवन के हर रंग और रस का समावेश होता है। ‘शैल-सूत्र’ तथा आरती प्रकाशन से प्रकाशनार्थ आने वाली सारी सामग्री को अपने कंप्यूटर पर स्वयं टाइप करके ले-आउट, डिजायन और फिर मुद्रण आदि कार्य स्वयं करने से इनके बहुमुखी व्यक्तित्व और प्रतिभा का पता चलता है।

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इसके साथ-साथ देश भर में जहाँ कहीं से भी साहित्यिक गोष्ठी, कवि सम्मेलन, परिचर्चा आदि के लिए इन्हें बुलावा आता है, ये चल पड़ती हैं, अक्सर अपने खुद के खर्चे पर। वहाँ व्यवस्था चाहे जैसी भी हो इन्होंने सदैव आयोजकों के प्यार व सम्मान को ही तरजीह दी है।

लगभग साठ वर्षों की साहित्य-साधना और निजी जिंदगी के कष्ट-साध्य समय में आशा शैली को कभी भी किसी भी पुरस्कार के लिए लालायित नहीं देखा गया। अलबत्ता देश भर में फैले विभिन्न भाषा-भाषी अपने पाठकों, प्रशंसकों, संगठनों को लुटाया प्यार इन्हें कई गुना प्रतिफलित हुआ है। तमाम तरह के पुरस्कारों, अभिनंदन के प्रतीक चिह्नों और मानद उपाधियों के माध्यम से। जिनमें हिन्दी जगत की अनेक नामचीन संस्थाएँ भी शामिल हैं। उन्हीं ढेर सारे पुरस्कारों-सम्मानों से इनका कमरा अटा पड़ा है। विरासत में मिले गहन संस्कारों से बँधी आशा जी सैटिंग-गैटिंग और सोर्स-फोर्स-घूस-घूँसे तथा तमाम तरह के जुगाड़ों से भरे वर्तमान माहौल में ऐसा करके कोई भी पुरस्कार हासिल कर लेने को कतई गलत मानती हैं। आध्यात्मिक विचारों से भरपूर सादगी भरा इनका जीवन जरूरतमंदों को देते रहने का एक कभी खत्म न होने वाले सिलसिले की तरह है। फिर ऐसी कर्मयोगिनी किसी से कुछ लेने के विषय में तो सोच भी नहीं सकती।
संयोग-वियोग, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, लाभ-हानि और भी न जाने कैसे दृश्य मानव जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं और आगे भी रहेंगे। यह क्रम निरंतर जीवन-यात्रा में आता रहता है; लेकिन धीरमति, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति इनसे सदैव अप्रभावित रहते हुए अपना कर्म करने में जुटे रहते हैं, बल्कि रुकावटों, कष्टों और संघर्षों को वे और भी अधिक शक्ति-अर्जन का अवसर जान उल्लासपूर्वक आगे बढ़ते रहते हैं। यही वह सद्गुण आशा शैली में है जो उन्हें हर समस्या से पार पाने और आगे बढ़ने में सहायता करता है। शालीनता, ज्ञान-पिपासा, वाक्पटुता और व्यवहार-कौशल से भरपूर आशा जी के उदारमना अति अनुकरणीय व्यक्तित्व में एक विचित्र आकर्षण है, जिससे पहले ही संपर्क में व्यक्ति आबद्ध हो जाता है।
देश के अग्रणी लेखक डॉ. राष्ट्रबंधु ने आशा शैली के सम्बंध में लिखा है़ ‘वह अंदर से चाहे जितनी कमजोर और निराश हों लेकिन उनके अधरों पर सदा मुस्कान खेलती है। उनमें कहीं भी अबला की कोई शिथिलता नहीं दिखाई देती… बहुत बहादुर औरत हैं आशा जी, गज़ब की हिम्मत है उनमें।’
आशा शैली की हिम्मत और उनका हौसला अभी भी बरकरार है जैसे वे अभी-अभी युवावस्था की दहलीज पर खड़ी जीवन के अनंत संघर्षों को मुस्कराते हुए झेलने को तत्पर हों पूरी जिजीविषा के साथ। वे अभी भी साहित्य-साधना के नये सोपानों की ओर अग्रसर हैं। थकना-हारना तो जैसे वे जानती ही नहीं। लगता है इन्होंने अपने नाम को सार्थक बनाते हुए यह जीवन-मंत्र अपना लिया है, ‘जो हार न माने वो है आशा’।


डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
देहरादून

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