आज फिर कुछ याद आया / आशा शैली
जिस दिन से ‘लोनली मदर’ फिल्म की शूटिंग हुई है, जीवन में कई नए अध्याय खुलने लगे हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि मैं भी अभिनय कर सकती हूँ। बचपन में छटी कक्षा में एक अवसर मिला था, परन्तु घर से स्वीकृति नहीं मिली। गोल मेज़ कान्फ्रेंस में महात्मा गांधी का अभिनय करना था। अध्यापकों को मेरे उच्चारण आदि के कारण विश्वास था कि मैं निभा लूँगी। परन्तु होता यह है जब जो भाग्य में न हो, नहीं मिलता। और अब? ये बैठे-ठाले हो गया।
बात का सिरा पकड़ने के लिए कई साल पीछे जाना पड़ता है, जाने अनजाने। शायद दस या बारह साल हो गए, शक्ति फार्म से अजय कुमार ‘तड़प’ का फोन आया, ‘‘दीदी! कोई आप से बात करना चाह रहा है।’’ मेरे कहने पर उसने फोन दूसरे को पकड़ाया तो उधर से आवाज़ आई, ‘‘दीदी! में एक पत्रिका निकाल रहा हूँ आप की रचना चाहिए।’’ यह प्रताप दत्ता थे। मैंने रचना भेज दी। छप गई और फिर प्रताप दत्ता ससम्मान पत्रिका देने मेरे पास आए। यह मेरी प्रताप से पहली मुलाकात थी। पत्रिका का नाम विराज था, पत्रिका थी तो बहुत अच्छी पर इसके बाद वे पत्रिका नहीं निकाल पाए।
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उसके बाद जब वे फिर मेरे पास आए तो प्रताप ने अपनी कुछ रचनाएँ मुझे दीं शैलसूत्र के लिए। अच्छे रचनाकार हैं। समृद्ध शब्द सम्पदा के स्वामी। पर बांग्लाभाषी होने के कारण थोड़ा व्याकरण गड़बड़ा जाता है जो स्वाभाविक है। प्रताप ने मुझे बताया कि वे स्वभावतः फिल्म निर्माण में अधिक रुचि रखते हैं। इस समय उन्होंने लैपटॉप पर मुझे अपने द्वारा निर्मित एक बांग्ला फिल्म भी दिखाई और मुझ से इस क्षेत्र में सहायता करने को कहा। मैं तो सिर्फ फिल्म देखने भर से सम्बंध रखती थी। मैंने हँसी हँसी में कह दिया, ‘‘प्रताप, भाई कोई दादी-नानी का रोल हो तो बता देना। हाँ मेरी कहानी या गीत ग़ज़ल ले सकते हो। इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानती।’’
उस दिन तो प्रताप थोड़ी देर बैठकर चले गए, फिर एक दिन दोबारा फोन पर वही बात उठाई तो मेरे मन में एकदम मंजू पाण्डे ‘उदिता’ जी का नाम आया। मंजू को इस क्षेत्र में अत्याधिक रुचि थी, यह मुझे पता था। उनका इस क्षेत्र के कई लोगों से सम्पर्क भी था। बस मैंने मंजू पाण्डे को फोन लगाया, वो घर पर ही थी। हम दोनों जा धमके उनके घर। परिचय कराया मैंने। मंजू की बात उनसे तय हो गई और इन दोनों ने कुछ काम भी किया। कलकत्ता से फिल्म लाइन के कई लोग जब भी आए तो प्रताप मेरे पास भी उन्हें लेकर आए।
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एक दिन फिर प्रताप ने कहा, ‘‘दीदी! हम फिल्म के लिए सितारगंज में साक्षात्कार ले रहे हैं। आप कुछ समय देंगी?’’ तब मैं सितारगंज में अपने भाई के घर चली गई। वहाँ मेरे भाई का पौत्र भी साक्षात्कार देने को तैयार हो गया। जिस पात्र का अभिनय करना था, लड़के ने अच्छा काम किया। यूँ ही बस मजे-मजे में जितने लोग थे सबने कैमरे के सामने खुद को जांचा परखा। मुझे भी सबने कहा, ‘‘आप भी तो आएँ।’’ पर मैं नहीं गई। मुझे यह सब बचकाना लग रहा था। बाद में भी कुछ लोग प्रताप से जुड़े रहे, मंजू पाण्डे निरंतर प्रताप के सम्पर्क में रही। अपने तमाम घरेलू और व्यवसायिक उतार-चढ़ाव के बाद भी कभी-कभी प्रताप फोन कर लेता। इस बीच नैनीताल फिल्म मेले में प्रताप को चार एवार्ड मिले। जिनका मुझे बाद में पता चला। शायद प्रताप को समझ में आ गया था कि मुझे इस क्षेत्र में कोई रुचि नहीं है। हाँ मैं अपनी कहानियों को जरूर लगवाना चाहती थी, पर शायद मेरी कहानियाँ फिल्म के हिसाब से फिट नहीं बैठतीं।
रहा माँ का रोल! तो यह करिश्मा तो इतना अचानक हुआ कि मैं खुद ही समझ नहीं पाई, कि हो क्या रहा है। प्रताप का फोन आया, ‘‘दीदी मैं आप से मिलना चाहता हूँ।’’
मुझे खटीमा जाना था। डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ की दो पुस्तकों का विमोचन था। सितारगंज रास्ते में है, तो मैंने इन्हें वहीं बुला लिया। थोड़ी ही देर में प्रताप , फिल्म के मुख्य पात्रों के साथ मेरे मायके में थे। यहीं उन्होंने मुझे बताया कि मुझे उस लघुफिल्म में मुख्य भूमिका करनी है। मैं सकपका गई, ‘‘ये क्या कर रहे हो प्रताप। मैंने तो कभी इस बारे में गम्भीरता से सोचा ही नहीं था। हँसी मज़ाक की बात को तुम कहाँ ले गए।’’ पर उन लोगों ने मेरी बात ही नहीं सुनी और अंततः माबदौलत घेर लिए गए और 12/13 जून शूटिंग के लिए तय हो गई। हमारी बात 10 तारीख को हुई और शूटिंग यानि बीच में केवल दो दिन। न कोई तैयारी न रिहर्सल।
तब तक मेरे संज्ञान में मंजू पाण्डे ‘उदिता’ किसी कार्यक्रम में गई हुई थीं। बारह तारीक को शूटिंग से पहले वे भी पहुँच गईं। उन्हें वृद्धाश्रम की डॉ. बनना था। यानि चट मंगनी और पट ब्याह। मुख्य पात्र मैं ही थी। दो दिन बाद मैं घर आ पाई और हम बन गए, फिल्मी कलाकार।