संचार क्रांति और भाषिक उदासीनता | हिंदी दिवस विशेष
“संस्कृत माँ, हिंदी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है।” ◆डॉ फादर कामिल बुल्के।
विभिन्न मामलों में प्रगति के विविध सोपानों को तय करता हुआ हमारा देश भारत समृद्धि के पथ पर अग्रसर है। सूचना-क्रांति के इस युग में आज भौतिकता की दृष्टि से जितना समृद्ध हम आज हैं, उतना पहले कभी न थे। हम आध्यात्मिक दृष्टि से भले ही पिछड़ गए हैं, लेकिन कला, कर्म और कौशल को विकसित करके हमने स्वयं को सुखी बनाने का हर संभव प्रयास किया है। भौतिकता की दौड़ में जो सबसे खतरनाक है, वह है हमारी भाषिक उदासीनता।
भाषिक का अर्थ विशेष संदर्भ में भाषाओं के संबंध में है, लेकिन क्योंकि हम भारत में रहते हैं इसलिए यहां भाषा का अर्थ हिंदी भाषा के सन्दर्भ में ग्रहण किया जाना चाहिए। अपने 1000 वर्षों के इतिहास में क्रमशः संस्कृत – पालि – प्राकृत और अपभ्रंश से निकली हुई हिंदी स्वतंत्रता के पूर्व तक अपने मार्ग को प्रशस्त कर रही थी। परन्तु पता नहीं, कैसी वैमनस्य की हवा चली कि आजादी के बाद जो देश की संवैधानिक स्थितियां बनी, उसमें हमारे वरिष्ठ-कनिष्ठ नेताओं का हिंदी के प्रति मोह भंग होता गया। जबकि आजादी की लड़ाई में हिंदी का योगदान अविस्मरणीय है।
“अंग्रेजी के अल्पज्ञान ने हिंदी को पंगु बना दिया।” ◆अशोक कुमार गौतम।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में 14 सितंबर सन 1949 ई० को संविधान सभा की लंबी चर्चा हुई, तब उसी दिन शाम को राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकृति प्रदान की गई। इसलिए प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। संविधान का अनुच्छेद 343 (1) के तहत भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी, लिपि देवनागरी और गणितीय अंक अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार 0 1 2 3 4 5 6 7 8 9 मान्य होंगे। भाषा संबंधी उपबंध संविधान के अनुच्छेद 349 से 351 तक वर्णित है। महात्मा गांधी ने हिंदी के रूप में हिंदुस्तानी को अपनाने की बात कहकर प्रकारांतर से हिंदी पर बड़ा उपकार किया है।
“वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है, जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके।” ◆पीर मुहम्मद मूनिस।
हिंदी भाषियों ने भी हिंदी को बढ़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हिंदी का हतभाग्य यह रहा कि आजादी के बाद अभिजात्य वर्ग का अंग्रेजी के प्रति मोह बना रहा और अंग्रेजी का यह व्यापक मोह अभिजात वर्ग से नीचे की ओर अर्थात जनसामान्य में उतरता चला गया। आज स्थिति यह हो गई है कि हिंदी के प्रदेशों में भी कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों को न तो हिंदी माध्यम से शिक्षा देना चाहता है और न ही हिंदी पढ़ाना चाहता है। रही-सही कसर संचार व्यवस्थाओं ने तोड़ कर दी है। दुःख इस बात का है कि हम आज तक इंजीनियरिंग और मेडिकल के सम्पूर्ण पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम से तैयार नहीं कर पाए हैं। विद्यार्थियों में मेडिकल और यांत्रिकी की पढ़ाई हिंदी में नहीं हो सकती। मन में भ्रम समाया हुआ है कि विज्ञान की सम्पूर्ण पढ़ाई हिंदी में नहीं हो सकती अर्थात देशी भाषाएं इस कार्य के लिए नकारा है, जबकि ऐसा नहीं है।
संसार में बहुत से ऐसे देश हैं जो चिकित्सा, तकनीक, यांत्रिक और यहां तक मानविकी विषयों की पढ़ाई अपनी भाषा में करते हैं और आज संसार की दौड़ में सबसे आगे हैं। हम उपरोक्त विषयों की पढ़ाई अंग्रेजी में करके भी पीछे हैं। इससे सिद्ध होता है कि उन्नति और प्रगति के लिए अंग्रेजी अनिवार्य नहीं है, लेकिन संकल्प की अनिवार्यता अवश्य होनी चाहिए। अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है तो, हिंदी दिलों से दिलों को जोड़ने वाली स्नेहमयी भाषा है।
“राष्ट्रीय एकता की कड़ी हिंदी ही जोड़ सकती है।” ◆बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’।
भारत वासियों का एक बड़ा हिस्सा हिंदी बोलता है, एक छोटा हिस्सा अंग्रेजी प्रभाव वाला है, जो ऊँचे-ऊँचे पदों पर अथवा सरकार में बैठा और शासन करता है। इन्हीं नीति नियंताओं के कारण हिंदी की उपेक्षा कहीं न कहीं हो रही है। कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने घोषणापत्र में भाषा की बात नहीं करती है। कारण कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि शासक और शोषितों की भाषा हमेशा अलग अलग रहती है। अब तो आत्मचिंतन करने पर महसूस होता है कि हिंदी गरीबों की भाषा और अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों की भाषा बन गई है। हिंदी की प्रगति इसका रोजगार से न जुड़ना भी एक बाधा है। यह भी देखा गया है कि हिंदी का झंडा उठाने वाले घरों का वातावरण अंग्रेजीमय है। ऐसी स्थिति में हिंदी के प्रति न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
अशोक कुमार गौतम,
असि० प्रोफ़ेसर, साहित्यकार
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर रायबरेली
मो० 9415951459