प्रेम और स्नेह-आरती जायसवाल

आरती जायसवाल की कलम से हिंदी कविताप्रेम और स्नेह’ हमे सन्देश देती है कि हमे मानव जीवन प्रेम और स्नेह का साथ कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए प्रेम का मानव जीवन मे बड़ा महत्व है कविता पढ़कर आप इसको महसूस करेंगे आपको अच्छी लगे तो सोशल मीडिया में शेयर अवश्य करे

प्रेम और स्नेह‘*

प्रेम और स्नेह की वृष्टि

कभी देखी है तुमने ?

नहीं ये दर्शनीय वस्तुएँ नहीं हैं ,

ये शांत -शाश्वत व मधुर

अनुभूतियाँ हैं ,

इन्हें अनुभव ही किया जा सकता है।

ये आत्मा से उपजकर रोम -रोम से फूटती हैं

और वाणी से झरती हैं ।

दृष्टि से सभी को आप्लावित करती हैं

तथा सबको तुमसे जोड़ देती हैं।

क्या तुमने कभी

अनुभव किया है वह जोड़ ?

कि सभी तुमसे जुड़ गए हों

अदृश्य बंधन में बँधकर

सत्य कह रही हूँ ।

कि जब तुम ये अनुभूतियाँ प्राप्त कर लोगे

स्वयं को संसार में सर्वाधिक संपन्न समझोगे

जिसे किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता है।

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आरती जायसवाल

कुटिल चिकित्सक काला अन्तस- डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज

डॉ.  रसिक किशोर नीरज की कविता-” कुटिल चिकित्सक काला अन्तस” वर्तमान प्रकृति की महामारी से ग्रसित सामान्य, निर्धन परिवार जो अपनी बीमारी का इलाज धनाभाव में नहीं करा पाते तथा अस्पतालों और अच्छे चिकित्सकों का मनमानी शुल्क ना दे पाने के कारण जीवन रक्षा की भीख मांग रहे हैं इस कड़वे सत्य को उजागर करती है यह रचना:-

कुटिल चिकित्सक काला अन्तस

कतिपय रोग  ग्रस्त  होकर

सन्निकट मृत्यु के खड़े हुये

क्या  कोई  अवशेष   रहा

रोगों   से बिन  लड़े  हुये।

 

कल्पना नहीं थी अस्पताल में

आने    के   दिन   देखे     जो

भोग -भोगते   जन्म- जन्म के

ब्रह्मा   के  हैं    लेखे      जो।

 

थीं    भविष्य की  अभिलाषायें

खंडित       होता  मन  ही   मन

कुटिल चिकित्सक काला अन्तस

चेहरे      दिखते   सुंदर    तन।

 

सुंदरता  भावों  में   लेकिन

नहीं    क्रियाओं  में   देखी

निर्धन  की सेवा  है  उनको

नहीं  कभी   भाती    देखी।

 

क्षमता  हो न,  किंन्तु वह लेते

हैं  मनमानी   शुल्क   परीक्षा

रोगी  हो  असहाय  यहाँ   पर

माँगे  नव-जीवन की   भिक्षा।

 डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज की दूसरी कविता “कुछ मीठे स्वर की मृदु  ध्वनियाँ” प्रस्तुत है-

कुछ मीठे स्वर की  मृदु ध्वनियाँ

खोये  थे क्षण-क्षण जो मेरे

तेरी विरह व्यथा  यादों   में

लिख न सका वैसा जैसा था

देखा सपनों  के, वादों   में।

 

सभी विवादों  को माना   मैं

लेकिन  मौन नहीं सुख पाया

रहा   साध्य साधक तेरा   मैं

तेरी  ही  सुस्मृति  की काया।

 

बिल्कुल ही मैं  अपरिछिन्न  हूँ

  भिन्न- भिन्न    आशाएँ     मेरी

रूद्ध  पथिक  स्वागत  हित  तेरे

ही,  भावों   की  माला     मेरी ।

 

कुछ मीठे  स्वर की मृदु ध्वनियाँ

 अधरों   तक  आकर  रुक  जातीं

उच्छृंखल   मन की  अभिलाषा

 ‘नीरज’ मन  में कुछ  कह  जातीं।

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डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज

 
 

Woman’s day 2022 kavita -इक नारी हूँ मैं

कल्पना अवस्थी की कलम से Woman’s day 2021 kavita इक नारी हूँ मैं हिंदी कविता हिंदुस्तान की महिलाओं को सम्पर्पित है आपको ये कविता अच्छी लगे तो शेयर करे सोशल मीडिया के द्वारा लेखिका की रचना देश की महिलाओं को एकजुट करती है

इक नारी हूँ मैं।

(Woman’s day 2021 kavita)


ना कभी हारी थी,ना कभी हारी हूँ मैं,

हाँ इक नारी हूँ मैं।

बचपन के खिलौने हँसकर छोड़ आई हूँ,

माँ के आँचल का रास्ता, ससुराल की

समझदारी की तरफ मोड़ लाई हूँ।

सबको खुश रखने की कोशिश लगातार की है,

बिन गलती के भी गलती स्वीकार की है।

करते हो तारीफ़ की इक लाचारी हूँ मैं,

हाँ इक नारी हूँ मैं ।

न्योछावर कर दी अपनी खुशियाँ औरों पर,

आखिर खुद के लिए कब जीती हूँ

हाँ इक नारी हूँ मैं ।

महादेव की तरह कि

थोड़ा थोड़ा हलाहल रोज़ पीती हूँ,

पर इक पल में मापदंड बना के कहोगे कि बेचारी हूँ मैं

हाँ इक नारी हूँ मैं।

हर गम,हर कष्ट,हर कहर से लड़ सकती हूँ मैं,

जिस दिन आई अपने अस्तित्व पर ,बहुत कुछ कर सकती हूँ मैं ।

बलात्कार,दहेज प्रथा,संस्कार, चरित्रहीन इन सबसे जोड़ा गया ,

जब जरूरत थी सबके साथ की

वहीं लाकर अकेला छोड़ा गया मुझे ।

अब नहीं डरती इस खोखली दुनिया से,

जो रोता हुआ छोड़ देती है

लोगों की कड़वी बातें अंतरमन को झकझोर देती हैं

सुन लो,अब नहीं जरूरत है मुझे इन झूठे पायदानों की,

सच दिखाकर,झूठ बेचती इन दुकानों की ।

कयोंकि अभी तक हिम्मत हारी नहीं हूँ मैं,

हाँ इक नारी हूँ मैं।

मत सोचना कि हालातों से टूट जाऊँगी,

नाकामयाबी के काँच सी फूट जाऊँगी।

बन लक्ष्मीबाई दुश्मनों से लड़ जाऊँगी,

जो डिग ना पाए उस पत्थर सी अड़ जाऊँगी।

मेरे बिना अधूरे ही रहोगे सोच लेना,

झूठ फ़रेब से की गई अदाकारी नहीं हूँ मैं

हाँ इक नारी हूँ मैं।

हाथरस हो या अजमेर सियासत करना बंद करो,

घुटन भर गई जीवन में बस अब मुझको स्वच्छंद करो।

कल्पना कहती अहंकारी नहीं,सम्मान की अधिकारी हूँ मैं

हाँ इक नारी हूँ मैं।

कल्पना अवस्थी 

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मुस्कराहट पर कविता-डॉ. सम्पूर्णानंद मिश्र

मुस्कराहट

Muskarahat-par-kavita

मुस्कराहट भर देती है
एक नई ऊर्जा मनुष्य में
नहीं होने देती है विचलित

मनुष्य को प्रतिकूलताओं में भी यह
समूल नाश करती है कुंठा,

हताशा और निराशा

जैसे संवेगात्मक भावों का
स्वस्थ रखती है तन मन को
नहीं आने देती है
किसी प्रकार के तनाव,

अवसाद को अपने भीतर कभी भी
पार कर लेता है मनुष्य आपदाओं की
गहरी दरिया को भी
इस नाव पर सवार होकर
नहीं होता है कभी अधीर

मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह
घोर अंधेरे में ढूंढ़ लेता है
प्रकाश की किरणों को
बना लेती है दिलों में
जगह अरिदल के केवल
एक मंदहास भी
नहीं कुछ खर्च होता है मुस्कराने में
मुस्कराहट के गर्भ से तो
सृजनशीलता ही जन्म लेती है
और निर्मित हो जाता है
एक नव प्रेम-परिधान
इसके धागे से ही।
लेकिन संजीवनी यह
एक ऐसी है मुस्कराहट
जो प्राण फूंक देती है
मृतकों में भी !

संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर

शैतान की मौत – हिंदी कविता

सीता राम चौहान पथिक दिल्ली की कलम से लिखी हिंदी कविता

शैतान की मौत 


देख कर जलती चिता को ,
एक उठता है  सवाल  ।
क्या यही इनसान  है    ॽ
जिसने  मचाया था बवाल ।
क्या  यही  औकात  है  ,
इनसान  के  तामीर की ।
खुद  पे  इतराता   रहा  ,
आवाज़  सुन  ज़मीर की ।
जब तलक  जिन्दा  रहा ,
ना खुद जिया – जीने दिया ।
नफ़रतो के  बीज  बोए  ,
ज़हर   पीने  को   दिया  ।
क्या  नहीं  ये  जानता  था ,
है ये  दौलत   बे वफ़ा  ॽ
खाने  पीने  में  मिलावट ,
जिन्दगी  कर  दी  तबाह ।
अब  ना  दौलत – हैकडी  ,
बस ख़ाक है इसका बिछौना ।
नेक नामी  की   नहीं   ,
अब तो  दामन  भी  घिनौना ।
अब  भी  ये  इनसान ,
क्यों  अंजाम  से है  बे-खबर ।
  बे -तहाशा  लूटता  है ,
लूट कर  भी  बे – सबर   ।
अब  तो  बन्दे ,  होश कर ,
 कुछ  नेकनामी  तो  कमा ।
सच्ची  दौलत  है  यही  ,
 खाते   में  इसको  कर  जमा ।
वरना तेरी  शान – शौकत  ,
धूल में  मिल  जाएगी  ।
 काफिला  लेकर  चला  है ,
शाम  कब  ढल  जाएगी  ।
अपनी बद – नियत से ,
अपने  पाक – दामन को बचा ।
आखिरी  ताकीद   है   ,
 खुद  को  बचा  या  पा  सज़ा ।
तेरे  हाथों में  खुदा  ने ,
ज़हर  – अमॄत  है  थमाए  ।
फैसला  तूझको  है  करना ,
पथिक अक्ल तुझको  आ जाए ।
  सीता राम चौहान पथिक दिल्ली 

 

खुद पर करो भरोसा तो ही सारी दुनिया जीतोगे

काव्य-
*खुद पर करो भरोसा तो ही सारी दुनिया जीतोगे*

खुदगर्ज़ी नातों और आस्तीनी साँपों से दूर रहो।
खुद का करो निर्माण,व्यर्थ के प्रलापों से दूर रहो।
‘डूबे हुए सूरज को’ यारों!
अँधियारा खा जाता है,
जगत्-रीति है जग ‘उगते सूरज’ को शीश झुकाता है।

सत्य की राह चलो, न छलो,
सबका ही सदा सम्मान करो।
दान बड़ा ही पुण्य किन्तु सुपात्रों को ही दान करो।
समुद्र में ‘वर्षा’ का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
जगत्-रीति है जग उगते सूरज को शीश झुकाता है।

‘पर-हित सरस धरम नहिं कोई’
यथाशक्ति उपकार करो।
झूठे,लोभी,पाखण्डी,
अन्यायी का पर ‘उपचार’ करो,
दुष्टों का पालन करना जग में अधर्म कहलाता है।
जगत्-रीति है जग उगते सूरज को शीश झुकाता है।

खुद पर करो भरोसा तो ही सारी दुनिया जीतोगे,
कितना भी हो मुश्किल लक्ष्य किन्तु तुम उसको पा लोगे।
कठिन क्षणों में अपना साया भी नहीं साथ निभाता है ।
जगत् रीति है जग उगते सूरज को शीश झुकाता है।

‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’
भाँति-भाँति के ज्ञान मिले।
जब जीवन हो कठिन डगर तब कोई नहीं संज्ञान मिले।
जिस पर करो भरोसा ज्यादा
वो ही पीठ दिखाता है।
जगत् रीति है जग उगते सूरज को शीश झुकाता है।

आरती जायसवाल प्रतिष्ठित साहित्यकार,रायबरेली

कितना प्यारा कितना सुंदर मेरा गाँव -प्रदीप त्रिवेदी दीप

कितना प्यारा कितना सुंदर मेरा गाँव
लहराती गेहूं की बाली
बौरो से लदी आम की डाली
महुओ के पुष्पों की सोंधी
गंध उठ रही मतवाली
अच्छी लगती है बरगद की छांव
कितना प्यारा कितना सुंदर
मेरा गांव पीपल के पत्तों की फर फर
हवा बसंती चलती सर सर
धूल उड़ाती गलियारों में
लिपेपुते मिट्टी के घर
पोखर और नदी में बोझा ढोती नाव
कितना प्यारा कितना सुंदर मेरा गांव
मिश्री घोल रही बागों में
कोयल कूक भरी कानों
पपीहा गाते मोर नाचते
खोए सब मधुरिम तानो में
कभी गर्म तो कभी सर्द का लगता रहा अलाव
कितना प्यारा कितना सुंदर मेरा गांव
प्रदीप त्रिवेदी दीप

प्यार का गीत – बाबा कल्पनेश

प्यार का गीत – बाबा कल्पनेश
प्यार का गीत
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत,
जिसमें हार हुई हो मेरी और तुम्हारी जीत।
कई जन्म बीते हैं हमको करते-करते प्यार,
तन-मन छोड़े-पहने हमने आया नहीं उतार।
छूट न पाया बचपन लेकिन चढ़ने लगा खुमार,
कितने कंटक आए मग में अवरोधों के ज्वार।
हम दोनों का प्यार भला कब बनता अहो अतीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
तुम आयी जब उस दिन सम्मुख फँसे नयन के डार,
छिप कर खेले खेल हुआ पर भारी हाहाकार।
कोई खेल देख पुरवासी लेते नहीं डकार,
खुले मंच से नीचे भू पर देते तुरत उतार।
करने वाले प्यार भला कब होते हैं भयभीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
नदी भला कब टिक पायी है ऊँचे पर्वत शृंग,
और कली को देखे गुप-चुप रह पाता कब भृंग।
नयनों की भाषा कब कोई पढ़ पाता है अन्य,
पाठ प्यार का पढ़ते-पढ़ते जीवन होता धन्य।
जल बिन नदी नदी बिन मछली जीवन जाए रीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
कभी मेनका बन तुम आयी विश्व गया तब हार,
हुई शकुंतला खो सरिता तट लाए दिए पवार।
कण्वाश्रम पर आया देखा सिर पर चढ़ा बुखार,
भरत सिंह से खेल खेलता वह किसका उद्गार।
वही भरत इस भारत भू पर हम दोनों की प्रीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
श्रृद्धा मनु से शुरू कहानी फैली मानव वेलि,
अब भी तो यह चलता पथ पर करता सुख मय केलि।
इसे काम भौतिक जन कहते हरि चरणों में भक्ति,
आशय भले भिन्न हम कह लें दोनो ही अनुरक्ति।
कभी नहीं थमने वाली यह सत्य सनातन नीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
बाबा कल्पनेश

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar
डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ की इलाहाबाद से वर्ष 2003 में प्रकाशित पुस्तक ‘अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संकलन में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गीत कारों ,साहित्यकारों ने उनके साहित्य पर अपनी सम्मति प्रकट करते हुए कुछ इस प्रकार लिखे हैं

भूमिका

कविता अंतस की वह प्रतिध्वनि है जो शब्द बनकर हृदय से निकलती है। कविता वह उच्छ् वास है जो शब्दों को स्वयं यति- गति देता हुआ उनमें हृदय के भावों को भरना चाहता है क्योंकि कविता उच्छ् वास है और उच्छ् वास स्वर का ही पूर्णरूप है, अतः यदि स्वर की कुछ अभिलाषाएँ हैं तो वे एक प्रकार से हृदय की अभिलाषाएँ ही हैं जो काव्य का रूप लेकर विस्तृत हुई हैं ।’अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संग्रह एक ऐसा ही संग्रह है इसमें कवि डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ ने अपनी अभिलाषाओं के पहले स्वर दिए फिर शब्द।

 

कवि डॉ. रसिक किशोर ‘नीरज‘ ने इस संग्रह में कविता के विभिन्न रूप प्रस्तुत किए हैं। उदाहरणतया उन्होंने अतुकांत में भी कुछ कवितायें लिखी हैं एक प्रश्न तथा अस्मिता कविता इसी शैली की कविताएं हैं तथा पवन बिना क्षण एक नहीं….. वह तस्वीर जरूरी है…… किसी अजाने स्वप्नलोक में…… अनहद के रव भर जाता है…. पत्र तुम्हारा मुझे मिला….. खिलता हो अंतर्मन जिससे….
विश्व की सुंदर सुकृति पर….. मित्रता का मधुर गान……. चढ़ाने की कोशिश……. चूमते श्रृंगार को नयन…… बनाम घंटियां बजती रही बहुत…… जो भी कांटो में हंसते ……..जिंदगी थी पास दूर समझते ही रह गये…….. गीत लिखता और गाता ही रहा हूं……. श्रेष्ठ गीत हैं इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर की प्रति ध्वनियों को शब्द दिए हैं
डॉ. कुंंअर बैचेन गाज़ियाबाद
2. कविता के प्रति नीरज का अनुराग बचपन से ही रहा है बड़े होने पर इसी काव्य प्रेम ने उन्हें सक्रिय सृजनात्मक कर्म में प्रवृत्त कियाl यौवनोमष के साथ प्रणयानुभूति उनके जीवन में शिद्त से उभरी और कविता धारा से समस्वरित भी हुई ।वह अनेक मरुस्थलों से होकर गुजरी किन्तु तिरोहित नहीं हुई। संघर्षों से जूझते हुए भावुक मन के लिए कविता ही जीवन का प्रमुख सम्बल सिद्ध हुई
डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया

इस प्रकार रायबरेली के ही सुप्रसिद्ध गीतकार पंडित बालकृष्ण मिश्र ने तथा डॉ. गिरजा शंकर त्रिवेदी संपादक नवगीत हिंदी मुंबई ने और डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी बरेली आदि ने अपनी शुभकामनाएं देते हुए डॉ. नीरज के गीतों की प्रशंसा की है

(1). पारब्रह्म परमेश्वर

पारब्रह्म परमेश्वर तेरी
जग में सारी माया है।
सभी प्राणियों का तू
नवसृजन सृष्टि करता
तेरी ही तूलिका से
नव रूप रंग भरता।
कुछ रखते सत् विचार
कुछ होते अत्याचारी
तरह तरह के लोग यहाँँ
आते, रहते बारी-बारी ।
जग के रंगमंच में थोड़ा
अभिनय सबका आया है।
कहीं किसी का भेद
खेद हो जाता मन में
नहीं किसी की प्रगति
कभी देखी जन-जन में ।
सदा सदा से द्वेष
पनपता क्यों जीवन में
माया के चक्कर में
मतवाले यौवन में।
‘नीरज’ रहती नहीं एक सी
कहीं धूप व छाया है।।

(2).राम हमारे ब्रह्म रूप हैंं

राम हमारे ब्रह्म रूप हैं ,राम हमारे दर्शन हैं ।
जीवन के हर क्षण में उनके, दर्शन ही आकर्षण हैं ।।
हुलसी सुत तुलसी ने उनका
दर्शन अद्भुत जब पाया ।
हुआ निनाँदित स्वर तुलसी का
‘रामचरितमानस’ गाया।।
वैदिक संस्कृति अनुरंजित हो
पुनः लोक में मुखर हुई ।
अवधपुरी की भाषा अवधी
भी शुचि स्वर में निखर गई।।
कोटि-कोटि मानव जीवन में, मानस मधु का वर्षण है ।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं राम, हमारे दर्शन हैं।।
ब्रह्म- रूप का रूपक सुंदर ,
राम निरंजन अखिलेश्वर ।
अन्यायी के वही विनाशक,
दीन दलित के परमेश्वर ।।
सभी गुणों के आगर सागर ,
नवधा भक्ति दिवाकर हैं।
मन मंदिर में भाव मनोहर
निशि में वही निशाकर है।
नीरज के मानस में प्रतिपल, राम विराट विलक्षण हैंं।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं , राम हमारे दर्शन हैं।

(3).शब्द स्वरों की अभिलाषायें

रात और दिन कैसे कटते
अब तो कुछ भी कहा ना जाये
उमड़ घुमड़ रह जाती पीड़ा
बरस न पाती सहा न जाये।
रह-रहकर सुधियाँ हैं आतीं
अन्तस मन विह्वल कर जातीं
संज्ञाहीन बनातीं पल भर
और शून्य से टकरा जातीं।
शब्द स्वरों की अभिलाषायें
अधरों तक ना कभी आ पायें
भावों की आवेशित ध्वनियाँ
‘ नीरज’ मन में ही रह जायें।

(4). समर्पण से हमारी चेतना

नई संवेदना ही तो
ह्रदय में भाव भरती है
नई संवेग की गति विधि
नई धारा में बहती है ।
कदाचित मैं कहूँँ तो क्या कि
वाणी मौन रहती है
बिखरते शब्द क्रम को अर्थ
धागों में पिरोती है ।
नई हर रश्मि अंतस की
नई आभा संजोती है
बदल हर रंग में जलती
सतत नव ज्योति देती है।
अगर दीपक नहीं जलते
बुझी सी शाम लगती है
मगर हर रात की घड़ियाँ
तुम्हारे नाम होती हैं।
नया आलोक ले ‘नीरज’
सरोवर मध्य खिलता है
समर्पण से हमारी चेतना
को ज्ञान मिलता है ।

(5).नाम दाम के वे नेता हैं

कहलाते थे जन हितार्थ वह
नैतिकता की सुंदर मूर्ति
जन-जन की मन की अभिलाषा
नेता करते थे प्रतिपूर्ति।
बदले हैं आचरण सभी अब
लक्षित पग मानव के रोकें
राजनीति का पाठ पढ़ाकर
स्वार्थ नीति में सब कुछ झोंके।
दुहरा जीवन जीने वाले
पाखंडी लोगों से बचना
शासन सत्ता पर जो बैठे
देश की रक्षा उनसे करना।
पहले अपनी संस्कृति बेची
अब खुशहाली बेंच रहे हैं
देश से उनको मोह नहीं है
अपनी रोटी सेक रहे हैं।
देशभक्ति से दूर हैं वे ही
सच्चे देश भक्त कहलाते
कैसे आजादी आयी है
इस पर रंचक ध्यान न लाते।
कथनी करनी में अंतर है
सदा स्वार्थ में रहते लीन
नाम धाम के वे नेता हैं
स्वार्थ सिद्धि में सदा प्रवीन।

(6). आरक्षण

जिसको देखो सब ऐसे हैं
पैसे के ही सब पीछे हैं
नहीं चाहिए शांति ज्ञान अब
रसासिक्त होकर रूखे हैं।
शिक्षा दीक्षा लक्ष्य नहीं है
पैसे की है आपा धापी
भटक रहे बेरोजगार सब
कुंठा मन में इतनी व्यापी ।
आरक्षण बाधा बनती अब
प्रतिभाएं पीछे हो जातीं
भाग्य कोसते ‘नीरज’ जीते
जीवन को चिंतायें खातीं ।
व्यथा- कथा का अंत नहीं है
समाधान के अर्थ खो गये
आरक्षण के संरक्षण से
मेधावी यों व्यर्थ हो गये।
सत्ता पाने की लोलुपता ने
जाने क्या क्या है कर डाला
इस यथार्थ का अर्थ यही है
जलती जन-जीवन की ज्वाला।

nahin thaharata hai vakt

नहीं ठहरता है वक्त

ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
यह वक़्त कभी ठहरा ही नहीं !
रफ्त़ा- रफ़्ता निकल जायेगा
उजाले कब तलक क़ैद रहेंगे
देखना ! कल सुबह
अपनी रिहाई के
गीत ज़रूर गायेंगे
माना कि
आज सारे जुगनूं
तम से संधि कर
उजालों को चिढ़ा रहे हैं
जब अंधकार की छाती चीरकर
कल
रश्मियां विकीर्ण हो जायेंगी
तो इन्हीं में से कुछ जुगनूं
आफ़ताब से भी हाथ मिलायेंगे
ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
ये वक्त कभी ठहरा ही नहीं!
आज आंजनेय के बध के लिए
बिसात बिछाई जा रही है
एक और सुरसा की ज़िंदगी
दांव पर लगाई जा रही है
लेकिन झूठ के वक्ष को चीरकर
जब
सत्य का सूर्य कल उदित होगा
तो देखना! यही अंधेरे
दिन में ही दिनकर
से हाथ मिलायेंगे
ए मुसाफ़िर सब बीत जायेगा
ये वक्त कभी ठहरा ही नहीं

संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर