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संस्मरण | हिंदी साहित्य | आशा शैली

संस्मरण | हिंदी साहित्य | आशा शैली

पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के चर्चित उपन्यासकार प्रोफेसर गंगाराम राजी का सद्य प्रकाशित ऐतिहासिक उपन्यास एक थी रानी खैरागढ़ी हाथ आया। उपन्यास था, वह भी एक प्रोफेसर का लिखा हुआ, तो रोचकता भी होनी ही चाहिए। सो, उठते-बैठते पढ़ डाला।
मण्डी रियासत की रानी रही है यह रानी खैरागढ़ी सो उपन्यास मण्डी रियासत की तत्कालीन व्यवस्था के बखिए अच्छी तरह उधेड़ता पाया गया। उपन्यास का हर पात्र कमोबेश मंडयाली भाषा का प्रयोग करता दिखाई देता है जो स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी।
रानी खैरागढ़ी हिमाचल के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यदि झांसी की लक्ष्मी बाई नहीं तो उससे कम भी नहीं रहीं पर इनके बारे जानकारी बहुत कम उपलब्ध है क्योंकि इनकी फाइलें ब्रिटश सरकार ने जला दी हैं।
इनका नाम ललिता था किन्तु खैरागढ़ से सम्बंध होने के कारण ये रानी खैरागढ़ी पुकारी जाने लगीं। प्राप्त जानकारी के अनुसार रानी ने क्रान्तिकारियों की हर तरह से सहायता की है। रानी घोड़े पर सवार होकर रियासत के चक्कर लगाती थी। यह मण्डी रियासत के राजा भवानीसेन की पत्नी थीं अतः भवानीसेन की विवाह पूर्व घटनायें उपन्यास में बहुतायत में होना स्वाभाविक है।
अच्छी बात यह है कि इस उपन्यास में न तो घटनाक्रम के साथ और न ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गई है। बल्कि उन सब को तिथि सहित ज्यों का त्यों रखा गया है। सत्ता हथियाने के लिए क्या-क्या छल प्रपंच महलों में चलते हैं उन सब को भी उपन्यास में दर्शाया गया है परन्तु उपन्यास का अधिकांश भाग रियासत के भ्रष्ट अधिकारियों, जनता एवं अन्य विद्रोही क्रान्तिकारियों की गतिविधियों से भरा है। रानी के बारे में कम उल्लेख हुआ है, जबकि और अधिक उल्लेख रानी का हो सकता था। हालांकि यह सब आवश्यक भी था जो रानी के व्यक्तित्व का परिचय देता है, फ़िर भी रानी के व्यक्तित्व को और अधिक स्थान मिलना चाहिए था।
प्रोफेसर गंगाराम राजी ने उपन्यास में रानी को मैदानी भाग की कन्या बताया है जबकि मेरे विचार से यह सही नहीं है।
वर्तमान उत्तराखण्ड के गढ़वाल मण्डल में खैरागढ़ पहाड़ी रियासत रही है। रानी खैरागढ़ी के परिचय में उनकी एक पूर्वजा की चर्चा आती है जिन्होंने बहुत कम आयु में बहुत से युद्ध जीते थे।
इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हमें पता चलता है कि हिमाचल के राजपरिवारों के गढ़वाली राजपरिवारों से सम्बंध रहे हैं। गुरु गोविंद सिंह जी के समय में राजा भीमचन्द के बेटे का विवाह गढ़वाल के राजा फतेहशाह की बेटी से हुआ था। इस तरह ईसवी सन् 1661 में गढ़वाल मण्डल की खैरागढ़ रियासत के सामन्त की बेटी तीलू या तिल्लोत्तमा एक वीर रमणी हुई हैं और इतिहास में अपना नाम उसी तरह लिखवाने में सफल हुई हैं, जिस प्रकार महारानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेज सरकार से दो दो हाथ करके लिखवाया था।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए रानी खैरागढ़ी का सम्बंध गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्र से होना अधिक उचित लगता है, मैदान से नहीं। इतना ही नहीं, इन पहाड़ी रियासतों में और भी वीरांगनाओं के नाम मिलते हैं जिनके शौर्य के सामने शत्रु पानी मांगते दिखाई देते थे। ऐसी ही एक गढ़वाली रानी कर्णावती हुई हैं जिन्होंने मुगल सैनिकों के नाक काटे थे, इसलिए उन्हें नाककाटी रानी कहा जाने लगा था।
कुल मिलाकर एक अच्छे प्रयास की सराहना की ही जानी चाहिए। सबसे अच्छी बात यह है कि प्रोफेसर राजी ने इतिहास को ज्यों का त्यों परोसने की पहल की है, इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

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पूस की रात | संस्मरण | आशा शैली

एक संस्मरण याद आ गया, वही देखिए।

पूस की रात

बर्फबारी दोपहर से ही शुरू हो गई थी फिर भी पाँच-छः बजे तक जमी नहीं थी। जीव-जंतु, पशु कोई भी तो खुले में नज़र नहीं आ रहा था। वर्षा शुरू होते ही सब अपने अपने बसेरों में दुबक गये थे। हमारे पहाड़ी गाँव में सन्नाटा पसरा पड़ा था। हमने भी कोयलों को अंगीठी कमरे में ही रख ली थी। यह हर साल शीतकाल का नियम था कि हमारी रसोई सोने वाले कमरे में ही आ जाती और पूरे परिवार के बिस्तर भी। इससे ईंधन की बचत जो होती थी। घर बहुत बड़ा नहीं था, बस दो ही कमरे थे, हम दो और हमारे तीन बच्चे।

अंगीठी पर चावल चढ़ा रखे थे। दाल बन चुकी थी और चावल के कुकर में सीटी आने वाली थी तभी सड़क से किसी के पुकारने की आवाज़ आई,

“कोई है, कोई है?” हम पति-पत्नि ने बाहर की बत्ती जलाई तो नीचे सड़क पर एक साया दिखाई दिया जो मुँह उठाए आवाज़ें दे रहा था। हमारा घर सड़क के किनारे ही था। हमने देखा वह व्यक्ति बर्फ के बीच खड़ा काँप रहा था। अब तक बर्फ सात-आठ इंच जम चुकी थी। हमने उसको ऊपर आने को कहा तो वह बर्फ में गिरता पड़ता हमारे घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

बरामदे के पास आकर उसने अपने कपड़ों और जूतों से सूखी बर्फ झाड़ी और बरामदे में पड़े बड़े-से बक्से पर ही बैठने लगा। तब हमने देखा कि वह लंगड़ाकर चल रहा था। उसके दाँत मारे शीत के कटकटा रहे थे। उसने कांपते हुए ही बताया कि उसे पिछले गाँव में किसी ने रात काटने को जगह नहीं दी। वह दूर से पैदल आ रहा था और अभी शहर सोलह मील दूर था। वह इस इलाके में अजनबी था। किसी को नहीं जानता।

हमने उसे दूसरे कमरे में रजाई देकर बैठा दिया और कहा कि ‘खाना बन रहा है, आप आराम से सुबह चले जाना।’

चावल बन जाने पर मेरे पतिदेव ने थाली में दाल-भात डालकर बड़े बेटे को मेहमान को दे आने को कहा। हमारे घरों में तब भोजन थोड़ा बढ़ाकर ही बनता था। बेटा थाली देकर लौटा तो उसने बताया कि राहगीर ने थाली पकड़ते ही दोनों हाथों की अंगुलियाँ झट से उबलते चावलों में डाल दें और थाली से अपने चेहरे को सेकने लगा। इस पर मेरे पति बोले,

“हमारा कमरा अब गर्म हो गया है बच्चो। तुम खाना खाओ।” कहकर उन्होंने अंगीठी उठा ली और दूसरे कमरे में ले गये। मैं भी गर्म पानी लेकर गई और उस अजनबी के हाथ-पैर धुलवाए।

सुबह तक हिमपात थम चुका था, चाय पीकर वह अजनबी चला गया। फिर हमने उसे कभी नहीं देखा पर आज भी सर्दी में कंपकंपाती उसकी आँखें मुझे याद आती हैं।

वह मेरे पति से कह रहा था, “बाबू जी, आप न होते तो मैं सुबह कहीं मरा पड़ा होता।”

मेरे पति ने हँसते हुए कहा था, “राम जी हैं न, सबके रखवाले।”

संस्मरण | आज फिर कुछ याद आया / आशा शैली

आज फिर कुछ याद आया / आशा शैली

जिस दिन से ‘लोनली मदर’ फिल्म की शूटिंग हुई है, जीवन में कई नए अध्याय खुलने लगे हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि मैं भी अभिनय कर सकती हूँ। बचपन में छटी कक्षा में एक अवसर मिला था, परन्तु घर से स्वीकृति नहीं मिली। गोल मेज़ कान्फ्रेंस में महात्मा गांधी का अभिनय करना था। अध्यापकों को मेरे उच्चारण आदि के कारण विश्वास था कि मैं निभा लूँगी। परन्तु होता यह है जब जो भाग्य में न हो, नहीं मिलता। और अब? ये बैठे-ठाले हो गया।

बात का सिरा पकड़ने के लिए कई साल पीछे जाना पड़ता है, जाने अनजाने। शायद दस या बारह साल हो गए, शक्ति फार्म से अजय कुमार ‘तड़प’ का फोन आया, ‘‘दीदी! कोई आप से बात करना चाह रहा है।’’ मेरे कहने पर उसने फोन दूसरे को पकड़ाया तो उधर से आवाज़ आई, ‘‘दीदी! में एक पत्रिका निकाल रहा हूँ आप की रचना चाहिए।’’ यह प्रताप दत्ता थे। मैंने रचना भेज दी। छप गई और फिर प्रताप दत्ता ससम्मान पत्रिका देने मेरे पास आए। यह मेरी प्रताप से पहली मुलाकात थी। पत्रिका का नाम विराज था, पत्रिका थी तो बहुत अच्छी पर इसके बाद वे पत्रिका नहीं निकाल पाए।

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उसके बाद जब वे फिर मेरे पास आए तो प्रताप ने अपनी कुछ रचनाएँ मुझे दीं शैलसूत्र के लिए। अच्छे रचनाकार हैं। समृद्ध शब्द सम्पदा के स्वामी। पर बांग्लाभाषी होने के कारण थोड़ा व्याकरण गड़बड़ा जाता है जो स्वाभाविक है। प्रताप ने मुझे बताया कि वे स्वभावतः फिल्म निर्माण में अधिक रुचि रखते हैं। इस समय उन्होंने लैपटॉप पर मुझे अपने द्वारा निर्मित एक बांग्ला फिल्म भी दिखाई और मुझ से इस क्षेत्र में सहायता करने को कहा। मैं तो सिर्फ फिल्म देखने भर से सम्बंध रखती थी। मैंने हँसी हँसी में कह दिया, ‘‘प्रताप, भाई कोई दादी-नानी का रोल हो तो बता देना। हाँ मेरी कहानी या गीत ग़ज़ल ले सकते हो। इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानती।’’

उस दिन तो प्रताप थोड़ी देर बैठकर चले गए, फिर एक दिन दोबारा फोन पर वही बात उठाई तो मेरे मन में एकदम मंजू पाण्डे ‘उदिता’ जी का नाम आया। मंजू को इस क्षेत्र में अत्याधिक रुचि थी, यह मुझे पता था। उनका इस क्षेत्र के कई लोगों से सम्पर्क भी था। बस मैंने मंजू पाण्डे को फोन लगाया, वो घर पर ही थी। हम दोनों जा धमके उनके घर। परिचय कराया मैंने। मंजू की बात उनसे तय हो गई और इन दोनों ने कुछ काम भी किया। कलकत्ता से फिल्म लाइन के कई लोग जब भी आए तो प्रताप मेरे पास भी उन्हें लेकर आए।

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एक दिन फिर प्रताप ने कहा, ‘‘दीदी! हम फिल्म के लिए सितारगंज में साक्षात्कार ले रहे हैं। आप कुछ समय देंगी?’’ तब मैं सितारगंज में अपने भाई के घर चली गई। वहाँ मेरे भाई का पौत्र भी साक्षात्कार देने को तैयार हो गया। जिस पात्र का अभिनय करना था, लड़के ने अच्छा काम किया। यूँ ही बस मजे-मजे में जितने लोग थे सबने कैमरे के सामने खुद को जांचा परखा। मुझे भी सबने कहा, ‘‘आप भी तो आएँ।’’ पर मैं नहीं गई। मुझे यह सब बचकाना लग रहा था। बाद में भी कुछ लोग प्रताप से जुड़े रहे, मंजू पाण्डे निरंतर प्रताप के सम्पर्क में रही। अपने तमाम घरेलू और व्यवसायिक उतार-चढ़ाव के बाद भी कभी-कभी प्रताप फोन कर लेता। इस बीच नैनीताल फिल्म मेले में प्रताप को चार एवार्ड मिले। जिनका मुझे बाद में पता चला। शायद प्रताप को समझ में आ गया था कि मुझे इस क्षेत्र में कोई रुचि नहीं है। हाँ मैं अपनी कहानियों को जरूर लगवाना चाहती थी, पर शायद मेरी कहानियाँ फिल्म के हिसाब से फिट नहीं बैठतीं।

रहा माँ का रोल! तो यह करिश्मा तो इतना अचानक हुआ कि मैं खुद ही समझ नहीं पाई, कि हो क्या रहा है। प्रताप का फोन आया, ‘‘दीदी मैं आप से मिलना चाहता हूँ।’’
मुझे खटीमा जाना था। डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ की दो पुस्तकों का विमोचन था। सितारगंज रास्ते में है, तो मैंने इन्हें वहीं बुला लिया। थोड़ी ही देर में प्रताप , फिल्म के मुख्य पात्रों के साथ मेरे मायके में थे। यहीं उन्होंने मुझे बताया कि मुझे उस लघुफिल्म में मुख्य भूमिका करनी है। मैं सकपका गई, ‘‘ये क्या कर रहे हो प्रताप। मैंने तो कभी इस बारे में गम्भीरता से सोचा ही नहीं था। हँसी मज़ाक की बात को तुम कहाँ ले गए।’’ पर उन लोगों ने मेरी बात ही नहीं सुनी और अंततः माबदौलत घेर लिए गए और 12/13 जून शूटिंग के लिए तय हो गई। हमारी बात 10 तारीख को हुई और शूटिंग यानि बीच में केवल दो दिन। न कोई तैयारी न रिहर्सल।

तब तक मेरे संज्ञान में मंजू पाण्डे ‘उदिता’ किसी कार्यक्रम में गई हुई थीं। बारह तारीक को शूटिंग से पहले वे भी पहुँच गईं। उन्हें वृद्धाश्रम की डॉ. बनना था। यानि चट मंगनी और पट ब्याह। मुख्य पात्र मैं ही थी। दो दिन बाद मैं घर आ पाई और हम बन गए, फिल्मी कलाकार।

दरवेश भारती के साथ आखिरी मुलाकात -आशा शैली

दरवेश भारती के साथ आखिरी मुलाकात -आशा शैली

संस्मरण आशा शैली के साथ 

पुरानी बात है, मैं हरियाणा के किसी मुशायरे से वापस लौट रही थी। अम्बाला रास्ते में हो और मैं डॉ महाराज कृष्ण जैन परिवार से मिलने न जाऊँ यह तो हो ही नहीं सकता। रात अम्बाला रुक कर मैं दूसरे दिन जिस बस में सवार हुई थी, हरवंश अनेजा उसमें पहले से ही बैठे थे। इस मुशायरे में यह मेरी उनसे पहली और आखिरी मुलाकात थी।
उस समय तक वे दरवेश नहीं बने थे। उनके साथ की सीट खाली थी। शायद हम लोग दिल्ली आ रहे थे। हमारी बातों का सिलसिला स्पष्ट है कि मुशायरे से चलकर ग़ज़ल तक आना ही था। मुझे यह तो याद नहीं कि हमने मुशायरे में क्या पढ़ा था पर यह ज़रूर याद है कि उन्होंने मेरी ग़ज़ल की जमकर तारीफ़ की थी और कहा था कि मैंने बहुत से कलाम सुने हैं मगर आपका कलाम उन सबसे अलग और पुख़्ता कलाम है। अपनी अलग पहचान बनाता।उसी सफर के दौरान दरवेश जी ने मुझे बताया था कि उनके पास उनके वालिद मोहतरम की लाइब्रेरी में बहुत सी बेशकीमती किताबें मौजूद हैं। उन्हीं में एक किताब मिर्ज़ा ग़ालिब के हमवक्त शोरा पर बहुत रोशनी डालती है, जिसमें मुस्लिम शोरा के दरम्यान एक हिन्दू शायर का बेहतरीन कलाम है। तब मैंने उनसे उस पर एक बड़ा सा लेख लिखने के लिए कहा था। मैं उसे अमीबा या और किसी रिसाले में देना चाहती थी, पर वे शायद ऐसा कर नहीं पाये क्योंकि उन्होंने मुझे बताया था कि वहाँ बहुत धूल मिट्टी पड़ी है, बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी किताब तलाशने में। मैंने बाद में भी बारहा उन्हें याद दिलाया, पर शायद वे नहीं कर पाये वरना आज एक और नायाब जानकारी हमारे पास होती। खैर, हम दोनों ने ही एक दूसरे के फोन नम्बर लिए और राब्ता बना रहा। मैंने अमीबा का सम्पादन किया तब भी उनसे कलाम मांगती रही और फिर शैलसूत्र का सफ़र शुरू होने तक वे दरवेश हो चुके थे। दरवेश भारती हमेशा ही शैलसूत्र का हिस्सा रहे हैं। मैं अपने कलाम पर भी मश्विरा मांग लेती थी और वे बिना झिझक मुझे नवाज़ते रहे। आज मैंने भी और दोस्तों की तरह एक अच्छा दोस्त और रहनुमा खो दिया है। क्या दुआ करें, किस किस की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें। पता नहीं, मैं नहीं जानती कि यह किसका शेर है, पर मेरे ससुर जी इसे अक्सर पढ़ा करते थे और फिर मैंने इसे किसी अच्छे गायक, शायद जगजीत सिंह से भी सुना था जो आज अक्सर ज़ुबान पर ही रहता है

कमर बाँधे हुए, चलने को यां सब यार बैठे हैं
कई आगे गये, बाकी जो हैं तैयार बैठे हैं


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आशा शैली
वरिष्ठ लेखिका शायरा संपादक
नैनीताल

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डॉ. नरेश कुमार वर्मा के साथ : अविस्मरणीय पल/ डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज

डॉ. नरेश कुमार वर्मा के साथ : अविस्मरणीय पल


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डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज

साहित्यकार डॉ नरेश कुमार वर्मा का परिचय 


भाषाविद्, समीक्षक, साहित्यकार डॉ नरेश कुमार वर्मा जी शासकीय गजानंद अग्रवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय भाटापारा में हिंदी विभागाध्यक्ष, पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर एवं साकेत साहित्य परिषद सुरगी राजनादगांव के प्रमुख सलाहकार थे।
आपका जन्म एक साधारण कृषक परिवार में 13 अगस्त 1959 को ग्राम फरहरा भाटापारा छत्तीसगढ़ में हुआ था उनके जीवन का बचपन से ही यह सपना था कि वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर प्रोफ़ेसर बनें और वह अपने कठिन संघर्ष व परिश्रम की बदौलत ही उस सपने को साकार भी किया।
वह पहले होशंगाबाद फिर शासकीय स्वशासी दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव फिर गजानन अग्रवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय भाटापारा जनपद बलौदा बाजार छत्तीसगढ़ में सेवारत रहकर उन्होंने नया कीर्तिमान स्थापित किया है।
डॉ.वर्मा छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए अपने खून से पत्र लिखने वाले और गरीबों , शोषितों तथा किसान मजदूरों की आवाज बनकर खड़े होने वाले एक नेक इंसान तथा संवेदनाओं से भरे कवि थे, जिन्होंने अपनी कलम को स्याही से ही नहीं खून से भी चलाकर अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है। तथा असहाय लोगों की पीड़ा को अपनी कविता संग्रह – माटी महतारी में लिखकर समाज के सामने प्रस्तुत कर अविस्मरणीय कार्य किया है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह की तरह उनका साकेत छत्तीसा भाग 1, 2 , 3 भी प्रकाशनोपरांत बहुचर्चित हुआ।
डॉक्टर वर्मा को लगभग 2 वर्ष पूर्व चुनाव के समय लकवा लग जाने से वह शारीरिक रूप से कुछ अस्वस्थ हो गए थे जिनका इलाज रायपुर के बड़े चिकित्सालय में चल रहा था उनकी सेवा में पूरा परिवार ही लगा रहता था परिवार में उनकी पत्नी श्रीमती मीना व पुत्री सुप्रिया तथा पुत्र मयंक विशेष रूप से अंतिम क्षणों तक इलाज और उनकी देखरेख व सेवा में तत्पर रहे ।
एक माह पूर्व पिता का संसार छोड़कर जाना पुत्र नरेश कुमार वर्मा को अंदर से मानो तोड़ गया और इस दुख को वह सहन नहीं कर सके।
चिकित्सक के परामर्श के अनुसार लगभग प्रत्येक माह रायपुर अपने उपचार हेतु बेटे मयंक के साथ हमेशा की तरह इस बार भी गए और वहां कोरोना संक्रमित हो जाने के कारण 27 अप्रैल 2021 को सदा – सदा के लिए ब्रह्मलीन हो गए।
डॉ. नरेश कुमार वर्मा का मेरा प्रथम परिचय नागरी लिपि परिषद छत्तीसगढ़ इकाई रायपुर में वर्ष 1995 में पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में हुआ था ।
इसके बाद जब वह मार्च 1998 में लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ में रिफ्रेशर कोर्स में आए थे तब मुझे आने के पूर्व उन्होंने सूचित कर दिया था कि 1 माह तक लखनऊ में ही हम रहेंगे। बस फिर क्या था वर्मा जी के स्वभाव और व्यक्तित्व से तो मैं बहुत ही अधिक प्रभावित था उनसे संपर्क कर अवकाश में एक दिन उनके सम्मान में साहित्यिक कार्यक्रम दो संस्थाओं के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित कराया तथा जिला पंचायत सभागार रायबरेली में उनका सम्मान और कवियों का काव्य पाठ होली मिलन के साथ ही संपन्न हुआ जिसमें डॉ. वर्मा के साथ पधारे मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि के भी साहित्यकार मित्र कार्यक्रम की सफलता से अत्यधिक प्रभावित और प्रसन्न हुए थे।
तत्पश्चात डॉ वर्मा वर्ष 2000 में मुझे राजनादगांव में जहां पर वह हिंदी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत थे वहां राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में आमंत्रित कर सम्मानित किया ।
मैं उनके आवास पर ही रुका तथा डॉ. वर्मा ने मूर्धन्य कवि समीक्षक गजानन माधव मुक्तिबोध (जन्म 13 नवंबर 1917  मृत्यु 11 सितंबर 1964 ) कृतियां – चांद का मुंह टेढ़ा , काठ का सपना तथा मुक्तिबोध रचनावली आदि का आवास जो दिग्विजय कॉलेज में ही था तथा डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (जन्म 27 मई 18 94 मृत्यु 28 दिसंबर 1971) कृतियां – 4 अनूदित तथा 6 संपादित और एक  व्यंग संग्रह प्रकाशित ।
आपसे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अत्यधिक स्नेह रखते थे और उनकी रचनाओं को सरस्वती पत्रिका में भी प्रकाशित करते थे ।तथैव द्विवेदी जी ने इनके हाथों सरस्वती पत्रिका का संपादन भी सौंप दिया था जिसे उन्होंने कई वर्षों तक सरस्वती तथा छाया मासिक पत्रिका का कुशलतापूर्वक संपादन भी किया।
अंतिम समय वह अपने जन्म स्थान खैरागढ़ (छत्तीसगढ़) आकर शिक्षण कार्य करते रहे उन्होंने भी राजनादगांव के इस कॉलेज में प्राध्यापक रहकर अपनी सेवाएं दी थी वह भी मुझे डॉ. वर्मा ने दिखाया तथा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचय कराया।
इसी धरती के महान साहित्यकार डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र (जन्म 12 सितंबर 1898 मृत्यु 4 सितंबर 1975) कृतियां100 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। जिनमें जीव विज्ञान ,कौशल किशोर राम राज्य, साकेत – संत , तुलसी दर्शन ,भारतीय संस्कृति, मानस में राम कथा, मानस माधुरी ,जीवन संगीत ,उदात्त संगीत आदि प्रमुख हैं। उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त कर 1923 में राजा चक्रधर सिंह के बुलावे पर रायगढ़ आ गए वहां पर 17 वर्षों तक न्यायाधीश ,नायब दीवान और दीवान रहकर अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए ।उन्होंनेअपने 10- 11 वर्ष की आयु से ही कविता लिखनी प्रारंभ कर दिया था तथा वह भारत के ऐसे प्रथम शोधकर्ता के थे जिन्होंने अंग्रेजी शासनकाल में पहला हिंदी में अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत कर डी. लिट् की उपाधि 1939 में प्राप्त किया था।
ऐसी महान साहित्यकारों की पावन भूमि की पूरी चर्चा विस्तार से मेरी व डॉ. नरेश वर्मा जी की हुई तथैव दिग्विजय कॉलेज के समीप प्रसिद्ध भूलन बाग को त्रिवेणी परिसर के रूप में विकसित किया गया है जिसका वर्तमान में सौंदर्य देखने लायक है। इतना रमणीक स्थान प्रदेश में प्रमुख स्थान रखता है यह 2 तालाबों से गिरा हुआ भूखंड पृष्ठ भाग ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दर्शाने वाला मुक्तिबोध परिसर के रूप में स्थापित किया गया है।
जो माधव मुक्तिबोध व पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा बलदेव प्रसाद मिश्र तीनों के महत्व को स्मरण कराता है जिसको जानकर मुझे आत्मानंद की अनुभूति हुई।
तदोपरांत डॉ. वर्मा जी और मैं पुनः वर्ष 2002 में दू.धा.म. स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय रायपुर(छत्तीसगढ़) में साहित्यिक समारोह में एक साथ रहे ।इस प्रकार उनका मेरा पारिवारिक संबंध हो गया और उनके घर भी तीन बार जाने का अवसर प्राप्त हुआ।
लगभग 18 वर्षों तक एक दूसरे से केवल दूरभाष वार्ता ही होती रही लेकिन आने – जाने का अवसर नहीं मिला ,उधर कुछ वर्षों के बाद डॉ. वर्मा राजनांद गांव से भाटापारा स्थानांतरण हो कर आ गए लेकिन उनके कई बार आमंत्रण के बाद भी मैं नहीं पहुंच सका।

डॉ. नरेश कुमार वर्मा के साथ : अविस्मरणीय पल

अचानक मेरे अभिन्न मित्र आनंद सिंघनपुरी ( छत्तीसगढ़) द्वारा 30 जनवरी 2021 को एक विशाल कार्यक्रम में मुझे विशिष्ट अतिथि के रुप में आमंत्रित किया गया। जिसमें छत्तीसगढ़ साहित्य परिवार व नई पीढ़ी की आवाज एवं रामदास अग्रवाल स्मृति साहित्य सम्मेलन व पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में पहुंचने के लिए था। जिस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ विनय कुमार पाठक एवं राष्ट्रीय कवि डॉ. ब्रजेश सिंह वरिष्ठ साहित्यकार डॉ .विनोद कुमार वर्मा, केवल कृष्ण पाठक आदि सैकड़ों साहित्यकार शिक्षाविद् भी उपस्थित रहने की सूचना प्राप्त हुई , जो मेरे लिए बहुत प्रसन्नता का विषय था क्यों कि लंबे अंतराल के बाद डॉ. नरेश वर्मा जी से मिलने का सुनहरा अवसर भी था। इसलिए इस कार्यक्रम की सहज स्वीकृति देने की विवशता और अधिक थी।
27 जनवरी 2021 को मैं जैसे ही भाटापारा रेलवे स्टेशन उतरा तो मेरे एक मित्र कन्हैया साहू अमित अपनी बाइक लेकर मुझे रिसीव करने के लिए पहले से ही उपस्थित थे । हम दोनों एक राष्ट्रीय समारोह झांसी में 2 दिन साथ रहे थे और अमित जी डॉ. वर्मा जी के शिष्य भी थे ।
उनके साथ बाइक से मैं उनके आवास सायंकाल पहुंच गया ।और उनके पूरे परिवार से मिलते ही मेरी 2 प्रदेशों से चलकर आने की सारी थकान क्षणभर में सचमुच ही दूर हो गई।
उनकी धर्मपत्नी मीना वर्मा एवं सुपुत्र मयंक वर्मा तथा पुत्री सुप्रिया (मेघा ) के साथ 4 और घर में परिवार के सदस्यों की तरह बोलते, समझदार पक्षी तोता (मिट्ठू) आदि भी प्रसन्नता से ओतप्रोत दिखाई पड़े । कुछ ही देर बाद हम लोग डॉ. वर्मा जी के साथ स्वल्पाहार करने लगे।
डॉ.नरेश कुमार वर्मा को अपनी सद्य: प्रकाशित वर्ष 2020 की 2 पुस्तकें सुनहरी भोर की ओर (काव्य संग्रह )और अञ्जुरी भर प्यास लिये (गीत संग्रह )भेंट किया ।तभी मेघा और मयंक दोनों ने कहा आपकी अंकल जी सभी किताबें हमारे घर में सुरक्षित हैं उनको हम लोग पढ़ते हैं।मैंने कहा क्यों नहीं यह तोसाहित्यकार का घर है बेटा।अब तक मेरी 12 पुस्तकें प्रकाशित हैं जो उन्हें पहले ही भेंट कर चुका था ,उसी समय डॉ.वर्मा जी ने कहा नीरज जी इस वर्ष आपके साहित्य पर विश्वविद्यालय द्वारा शोध कार्य करवाएंगे । मैंने उन्हें इसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित किया। यद्यपि ईश्वर को यह शायद मंजूर नहीं था इसीलिए उन्हें उसके पहले ही अपनी शरण में प्रभु ने ले लिया जिससे यह कार्य अब असंभव सा ही है…
कुछ ही देर बाद अंदर बरामदे में डॉ. वर्मा जी व उनकी पत्नी बच्चों के साथ घर पालतू तोतों से कुछ बातचीत किया वह प्यार और प्रसन्नता से अपने पंख खोलकर फड़फड़ा रहे थे । मैंने उनसे पूछा यह क्या कर रहे हैं तब उन्होंने बताया कि आपके आने की खुशी से यह ऐसा कर रहे हैं फिर हम पांचों लोग एक साथ कुछ फोटो उन तोतों के साथ भी खिंचवाई जो मेरे लिए यह पहला और सुखद अनुभव था वैसे तो बहुत घरों में तोते देखे हैं, लेकिन समय से उनकी ऐसी दिनचर्या जो डॉ. वर्मा जी की थी उनके परिवार की थी वैसे ही सुबह से रात्रि 9-10 बजे तक की दिनचर्या कभी नहीं देखी ।
प्रातः चाय नाश्ता फिर भोजन फिर खेलना, झूले में झूलना, टी.वी. 2 घंटे पक्षियों का ही (सीरियल) देख कर सबसे स्पष्ट बातचीत करना और फिर रात्रि भोजन के बाद विश्राम करना उनका बहुत अद्भुत और प्रशंसनीय था।
वर्मा जी के घर में मेहमान नवाजी में दोनों का प्यार पाकर मैं अपने को धन्य समझता हूं वह मेरे कंधों में बैठकर अपनी चोंच से मेरे गाल भी चूमकर अपना प्यार प्रदर्शित किया । मैं गदगद् हो गया वापस आने पर वह चित्र रायबरेली में हिंदी रचनाकार के माध्यम से तोते के साथ मेरा चित्र प्रकाशित भी किया गया था।
28 जनवरी 2021 को प्रातः डॉक्टर वर्मा जी के सुपुत्र मयंक जी ने मुझे अपनी कार से अपने घर से कन्हैया साहू अमित जी के घर ले गए ।क्यों कि उनके घर जाने का मेरा वादा शेष था कुछ ही देर वहां रुकने के बाद तीनों लोगों ने उनके आवास में फोटो खिंचवाया तथा मुझे रायपुर के लिए भाटापारा से ढेर सारी मीठी- मीठी यादें लेकर विदा कर दिया।
मैं नहीं जानता था कि यह मेरा परम मित्र विद्वान आदरणीय डॉ. नरेश कुमार वर्मा से मिलने का अंतिम अवसर ही था… जिनकी अब स्मृति के कुछ मात्र चित्र ही शेष हैं…

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साक्षात्कार: साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा का

साक्षात्कार: साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा का

  • डॉ कल्पना पांडेय ने पूछे जीवन से संबद्ध कुछ अनिवार्य प्रश्न साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा से और उनके उत्तर सार्थक और सारगर्भित…..

डॉ कल्पना पांडेय द्वारा साक्षात्कार

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डॉ. कल्पना पाण्डेय


प्रश्न 1.कभी-कभी जीवन में सब कुछ होते हुए भी व्यक्ति तन्हा क्यों महसूस करता है?

उत्तर: इस जीवन में किसी भी व्यक्ति को, उसके चाहे अनुसार सब कुछ नहीं मिल जाता । कहीं ना कहीं उसके जीवन में कोई अभाव अवश्य खटकता है। उसे प्राप्त विविध प्रकार के सुखों में ही कई प्रकार के कष्ट छिपे होते हैं। हम सबको केवल सुख है अच्छे लगते हैंऔर जरा सा दुख भी हमें अवसाद की तलहटी में ले जाता है और यही अवसाद हमारे एकाकीपन का कारण बन जाता है। किसी के भी अंतर्मन को बिना उसके कहे पढ़ने की क्षमता का नितांत अभाव रहता है। इसलिए मैं हमेशा कहती हूं हमें संवाद करते रहना चाहिए जब कोई जान ही नहीं पाएगा हमारे भीतर क्या चल रहा है तो उस कष्ट का निवारण भी नहीं हो सकता। अपने मन की व्यथा को किसी बहुत ही अपने और समझदार के सामने वर्णित कर देना ही इस प्रश्न का हल है।

प्रश्न 2.उंगलियों की तरह घरों के दास्तान उलझे सवालों की तरह क्यों है?

उत्तर: कल्पना जी आपके प्रश्न सचमुच बहुत ही अद्भुत हैं और अनिवार्य भी। उंगलियां अपने आप कभी नहीं उलझती, यदि हाथों को सीधे रखा जाए तो उंगलियां भी सीधे ही रहती हैं । जब भी दो हाथ मिल जाते हैं तो इन में उलझने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं । जैसे ही ये दो हाथ अलग हो जाते हैं तो उलझने भी दूर हो जाती हैं।
परिवारों के बीच उलझने पैदा होने के परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग कारण हो सकते हैं। किसी परिवार में शिक्षा का अभाव कई उलझे सवालों को पैदा कर देता है और कहीं कहीं आर्थिक अभाव इसका प्रमुख कारण बन जाता है। इन उलझे सवालों का हल भी बहुत ही जरूरी है सहज जीवन के लिए और इसके लिए आपसी संवाद नितांत अनिवार्य है।

प्रश्न 3. बेबसी क्या है ? सभी की ज़िंदगी में कहीं न कहीं घर कर बैठी है। क्या इसे दूर किया जा सकता है?

उत्तर: अपनी इच्छा के अनुसार कुछ ना कर पाने को हम बेबसी कहते हैं।इस बेबसी के मैंने कई रूप देखे हैं मैं आपको एक उदाहरण देती हूं हमारे ही परिवार में एक लड़की की शादी विदेश में कर दी गई थी यह सोचा गया था कि विदेश में यह लड़की बहुत सुख से रहेगी और समय आने पर परिवार के लोगों को विदेश में भुला सकेगी। शादी के कुछ समय के पश्चात ही वह लड़की बेबसी का शिकार हो गई वह इतनी बेबस हो गई कि अपने घर परिवार के साथ बात करना भी उसके लिए मुश्किल हो गया विदेश में उसके ससुराल के लोग उसे घर में बंद करके सुबह निकल जाते और उसके खाने के लिए कभी-कभी एक आलू उबला हुआ और पानी उसके पास रख दिया जाता। बेबसी ने उसको घेर लिया था और उसके पास ऐसा कोई साधन भी नहीं था जिससे वह अपने परिवार से संपर्क कर सके। एक दिन उसके घर के लोग उसके कमरे की खिड़की खुली छोड़ गए । जिसमें से उसने राह से जाते एक व्यक्ति को एक कागज पर अपने भारतीय परिवार का फोन नंबर लिख कर फेंक दिया था। उस अंजान ने बस नई ब्याहता लड़की की सहायता की । बाद में उस लड़की को वहां से बचाया गया और अपने देश में ले आया गया । ये एक लंबी प्रक्रिया थी लेकिन मैं कभी याद करती हूं उस लड़की की बेबसी तो मुझे बहुत दुख होता है। हम जीवन में कभी कभी जब बुरे लोगों में घिर जाते हैं और हमारी तमाम अच्छाइयां उन्हें बदल नहीं सकती तो हम बेबस हो जाने को बेबस हो जाते हैं। मुझे लगता है बेबसी कितनी भी हो कोई ना कोई अनजान, कोई ना कोई सहारा कभी ना कभी अवश्य आता है । मैं मानती हूं हर कठिनाई का हाल ,हर बेबसी का हल मिल ही जाता है।

प्रश्न 4.क्या पैसा सोच को, चरित्र को दोहरे मानदंड में खड़ा कर देता है। अगर हांँ ,तो क्यों ?

उत्तर: यदि मैं अपनी बात करूं तो मैं इस बात से सहमत नहीं होती कि पैसा सोच को या चरित्र को दोहरे मानदंड में खड़ा कर देता है। लेकिन हम जिस युग में रहते हैं वहां पर भांति भांति के लोग, भांति भांति के चरित्र विद्यमान है । कुछ लोगों में पैसे की भूख रोटी की भूख से अधिक होती है। ऐसे लोग धन कमाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं । ऐसे लोगों के लिए दोहरे मानदंड बनाना और चरित्र में बदलाव लाना कोई बड़ी बात नहीं होती। देश में ही ऐसे लोगों के बहुत उदाहरण देखे जा सकते हैं।
आपने पूछा है क्यों ? तो इसके उत्तर में मैं इतना ही कह सकती हूं कि पैसे की भूख बिल्कुल वैसी ही है जैसे किसी गरीब आदमी को रोटी की भूख लगती है और जब उसको कुछ भी खाने को नहीं मिलता तो वह विध्वंसक भी हो जाता है। बस रोटी की भूख में और पैसे की भूख में इतना ही अंतर है कि पहली भूख रोटी खाने के बाद शांत हो जाती है लेकिन पैसे की भूख कभी शांत नहीं होती। यदि मन पर नियंत्रण कर लिया जाए तो व्यक्ति सब कुछ त्याग कर सकता है और यदि मन पर नियंत्रण ना हो पाए , तो मन बेलगाम घोड़े की तरह जीवन भर भागता ही रहता है।

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प्रश्न 5.सामंजस्य- तालमेल कभी-कभी उदारता, विनम्रता की कमज़ोरी समझी जाती है। लोग सीधे -सरल रास्तों को क्यों उलझनों से भरने की कोशिश करते हैं?

उत्तर: मुझे लगता है मनुष्य का स्वभाव प्रकृति की देन होता है । ईश्वर ने हमें हमारा स्वभाव सौगात के रूप में दिया है । हमारा स्वभाव ही हमारा वर्तमान और भविष्य निर्धारण करता है। ऐसे में जो व्यक्ति समाज के तालमेल को समझ नहीं पाता , वही व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सज्जनता को उसका भय समझता है या उसका स्वार्थ । बुरे स्वभाव के निकृष्ट व्यक्ति के साथ आप कितना भी अच्छा करते रहें, उसे लगता है इसमें अच्छा करने वाले का कोई ना कोई स्वार्थ छिपा होगा ।
बचपन से हम लोग यह सुनते और पढ़ते आए हैं कि चंदन कभी सुगंध नहीं छोड़ता और फूल कभी महक नहीं छोड़ते, इसी प्रकार अच्छे लोगों को भी सदा ही सज्जनता को अपनाए रहना चाहिए। दूसरे लोग जो भी सोचें इसकी परवाह किए बिना सज्जनता को छोड़ना नहीं चाहिए । अच्छाई करने वाले को इसी से संसार का सुख , संतुष्टि मिल जाती है।

प्रश्न 6.क्या जीवन में व्यवहारिकता के साथ नित्य प्रति थोड़ा समय आध्यात्मिक चिंतन – मनन को भी देना चाहिए?

उत्तर: जी बिल्कुल । मुझे लगता है नित्य प्रति, यदि दिन का प्रारंभ ईश्वर को याद करते हुए, प्रकृति की पूजा करते हुए, प्रकृति के साथ कुछ पल बिताते हुए, अध्यात्म के साथ जोड़ लिया जाए तो पूरा दिन और फिर पूरा जीवन सुखद और शांत रहता है ।आध्यात्मिक चिंतन हमारे मन को भी मजबूती देता है और जीवन में आने वाली आपदाओं से बचने, उभरने और उनसे पार निकल जाने की राह भी दिखाता है ।इसमें मैं अध्यात्म की पुस्तकें पढ़ने का आग्रह भी करना चाहती हूं । हमारे देश में ऐसे बहुत सारे ग्रंथ हैं जो हमें प्रकाशित करते हैं, अच्छा जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित करते हैं लेकिन इसमें पठन-पाठन के साथ साथ जीवन में उन्हें कार्यान्वित करना बहुत आवश्यक है।

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प्रश्न 7.आपके जीवन में मुलाकातें अहम भूमिका रखती हैं। ऐसी कुछ मुलाकातें जिन्होंने आपके जीवन को नई दिशा दी हो।

उत्तर: जी बिल्कुल सही कहा आपने। मुझे सबसे पहले जब 1984 में प्रधानमंत्री निवास में श्रीमती इंदिरा गांधी जी से मुलाकात करने का अवसर मिला था तो वह मेरे लिए बहुत ही गौरव के पल थे । मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसा हो सकता है और यह सब संभव हुआ मेरे लेखन के कारण। उन दिनों मैं वित्त मंत्रालय में वरिष्ठ अनुवादक के रूप में कार्य कर रही थी और मेरा पहला कहानी संग्रह “आज का ज़हर” प्रकाशित हुआ था । स्कूल टाइम में मैंने नेहरू जी के पत्र इंदिरा जी के लिए जो लिखे गए थे वे सब पढ़े थे । पता नहीं क्यों, मुझे उन सब पत्रों में लिखा हुआ अपने लिए भी लगने लगा था।
जीवन में मैं आदरणीय इंदिरा गांधी जी से बहुत प्रभावित रही हूं। एक बार मैंने पढ़ा था कि वे अपने जीवन में 18 घंटे काम करतु हैं और बहुत कम विश्राम करती हैं । मैंने उनका यह नियम अपना लिया था । मुझे लगता था कि मुझे भी कम से कम 18 घंटे तक पढ़ना है ,लिखना है और काम करने हैं। बस उनका यह मंत्र जो था पूरे जीवन भर मुझे शिक्षा देता रहा और फिर जब इस पुस्तक को उन्हें भेंट करने के लिए हमारे वित्त मंत्रालय के मित्र श्री बाल आनंद ने उन्हें पत्र लिखा और मुझे समय मिल गया प्रधानमंत्री निवास जाकर उनसे मिलने का। किसी बड़े व्यक्ति से मिलने की यह पहली मुलाकात थी जिसे मैं कभी नहीं भूलती । आज भी 18 घंटे काम करने और बहुत कम नींद लेने के नियम का पालन कर रही हूं।

प्रश्न 8. साहित्यिक जीवन कई बार ऐसे पड़ाव आए होंगे, जब आपको लगा हो कि पारिवारिक जिम्मेदारियांँ उपेक्षित हो रही हैं ।आपने उसका समाधान कैसे किया?

उत्तर: जीवन के प्रारंभ में कई बार हुआ मुझे लगा कि कुछ छूट रहा है । मैंने फौरन उन बाधाओं को समस्याओं को दूर कर दिया। मुझे लगता है जैसे ही कोई कठिनाई जीवन में आती है उसे ,उसी पल दूर कर दिया जाना चाहिए नहीं तो वह बहुत मुश्किलों से हल होती है।
मैंने परिवार और साहित्य दोनों को एक साथ रखा है ।न तो मैंने साहित्य को परिवार से अधिक तरजीह दी
न ही परिवार को साहित्य से बड़ा माना है । मेरे लिए ये दोनों हैं मेरे दो नेत्रों के समान रहे हैं जो सदा ही मेरे साथ रहे ,मेरे सहायक रहे । जब मेरे परिवार के सदस्य प्रधानमंत्री निवास में मेरे साथ इंदिरा जी को मिले थे तब उन्होंने स्वीकार कर लिया था कि साहित्य और लेखन का सम्मान पूरी दुनिया करती है और फिर मेरे परिवार ने मुझे पूरा सहयोग दिया कि मैं साहित्य के प्रति अधिक समर्पित रहकर अपना लेखन कार्य करती रहूं। इसमें मुझे मेरे पति सुभाष चडढा जी का बहुत सहयोग रहा जिसके लिए मैं उनका सदैव आभार प्रकट करती रहती हूं।
पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में मेरे पति, मेरे नानी जी और मेरे माता-पिता का भी बहुत योगदान रहा । मुझे जब-जब आवश्यकता हुई उन्होंने मुझे समय दिया, मेरा मार्गदर्शन किया और मुझे कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।

प्रश्न 9. सम्मान और पुरस्कारों की जैसे बहार आ गई है । क्या यह साहित्यिक मूल्यों को पतन की ओर ले जा रहा है या उन प्रतिभाओं को संबल प्रदान कर रहा है, जिनके अंदर सर्जना शक्ति का संचार हो रहा है ।

उत्तर: सम्मान और पुरस्कार साहित्य के उत्थान के लिए अनिवार्य नहीं है । साहित्यकार कभी भी पुरस्कारों के लिए या सम्मान प्राप्त करने के लिए नहीं लिखता दूसरी ओर यह भी सत्य है कि जब उसके लेखन को, उसके कार्य को पुरस्कार और सम्मान के माध्यम से सराहा जाता है तो वह साहित्य साधना के प्रति अधिक समर्पित होकर काम करने के लिए प्रेरित होता है।
आपने साहित्यिक पतन की जो बात की है वह भी कुछ हद तक सही है । आज साहित्य को नहीं बल्कि व्यक्ति को सम्मानित किया जा रहा है । होना यह चाहिए की लिखित साहित्य के माध्यम से व्यक्ति का सम्मान किया जाए परंतु आज व्यक्ति का सम्मान अधिक हो रहा है। तभी साहित्यिक मूल्यों का पतन धीरे-धीरे होने लगा है। लेकिन हर जगह साहित्यिक मूल्यों का पतन नहीं हो रहा। हमारे देश की कई संस्थाएं लेखक के लेखन को ही महत्व दे रही हैं और प्रकाशित पुस्तकों के आधार पर उन्हें सम्मान मिल रहे हैं । इसलिए हमें निराश होने की आवश्यकता कदापि नहीं है और जैसा कि मैंने पहले भी कहा हर लेखक सम्मानों के लिए नहीं लिखता । यह संस्थाओं का दायित्व है कि वह प्रकाशित साहित्य को देखें, परखे और उसी के अनुसार निर्णय लिए जाएं। यह भी देखने में आ रहा है कुछ लोग शोर-शराबा करके , झगड़ा करके अपने को सम्मानों की सूची में लाने के प्रयास में लगे रहते हैं और वे कामयाब भी हो जाते हैं ।मुझे लगता है यह साहित्यिक मूल्यों की गिरावट है। यदि वह व्यक्ति पहले ही योग्य था तो उसे पुरस्कार दे दिया जाना चाहिए था, उसके कहने पर, उसके भय से जब उस को सम्मान दिया जाता है तो यह भी विचारणीय हो जाता है।

प्रश्न 10.व्यावसायिकता के इस दौर में हमें कहांँ तक साहित्य में समझौते करने चाहिए ?

उत्तर: साहित्य में समझौतों की आवश्यकता नहीं होती। हम जो भी लिखना चाहें, जैसा भी साहित्य अपने पाठकों को देना चाहते हैं , वह हमारी अपनी सोच , हमारा अपना निर्णय होता है। अपने लिखित साहित्य को प्रकाशित करने , पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के लिए कभी-कभी कुछ समझौते करने पड़ते हैं। व्यावसायिकता के आज के दौर में पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर काफी चिंता है । लेखक को अपने पैसे देकर पुस्तकें प्रकाशित करवाने की जो प्रक्रिया हमारे देश में है इसका निदान होना अनिवार्य है। मैं सरकार से अनुरोध करना चाहूंगी कि वे लेखक की समाजोपयोगी सामग्री के प्रकाशन के लिए अनुदान प्रदान करने की नई योजना बनाए।


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डाॅ. रसिक किशोर सिंह ’नीरज’ ने मा. कुलपति नरेशचन्द गौतम को पुस्तक भेंट की

डाॅ. रसिक किशोर सिंह ’नीरज’ ने मा. कुलपति नरेशचन्द गौतम को पुस्तक भेंट की रायबरेली से चलकर चित्रकूट पहुॅचे डाॅ. रसिक किशोर सिंह ’नीरज’ चित्रकूट 28 फरवरी 2021 को महात्मा गाॅधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय सतना म.प्र.देश के प्रख्यात वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. रसिक किशोर सिंह ’नीरज’ ने अपनी सद्यः प्रकाशित (गीत संग्रह) ’अंजुरी भर प्यास लिये’ माननीय कुलपति महोदय को भेट किया, जिनकी अभी तक 12 पुस्तके गद्य पद्य में प्रकाशित हैं डाॅ. नीरज मूलतः गीतकार के रूप में जाने जाते हैं उन्हे अभी तक 70 सम्मानो से अधिक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं जिनमें उन्हे साहित्य श्री, राष्ट्र सचेतक, महाकवि जायसी, सरस्वती सम्मान, निराला सम्मान, साहित्य भूषण, अकबर इलाहाबादी, साहित्य शिरोमणि सम्मानो से विभूषित किया जा चुका है।
जिनकी विश्वविद्यालय में साहित्य पर सार्थक वार्ता क्रम में मा. कुलपति ने साहित्य पर गहन चर्चा करते हुये डाॅ. नीरज को मंगलकामनायें दी।


जय प्रकाश शुक्ल
जन संपर्क अधिकारी
म.गां.चि.ग्रा.विश्वविद्यालय

 

anubhav Savita Chadha/अनुभव-सविता चडढा

अनुभव

anubhav- Savita- Chadhaसविता चडढा

आज गणतंत्र दिवस की परेड देखी तो बहुत सारी बातें याद आ गई

anubhav Savita Chadha:1960 की बात थी जब मैं अपने पिताजी के साथ यहां पर गणतंत्र दिवस की परेड देखने आई थी ।हम सब थे मेरी नानी जी, मेरी चाई जी, मैं और मेरे भाई बहन। पापा जी कि ड्यूटी गणतंत्र दिवस में लगी हुई थी और हम सब सुबह 6:00 बजे ही यहां पहुंच गए थे। परेड खत्म होने के बाद पापा जी हमें राष्ट्रपति भवन और उसके सामने विदेश मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और सारे भवन दिखा रहे थे ।राजपथ से ऊपर राष्ट्रपति भवन की ओर जाते हुए मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं किसी राज महल की ओर प्रवेश कर रही हूं। अचानक मन में एक विचार आया था कितनी अच्छी जगह है, काश मैं यहां हमेंशा रह सकती।

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उस समय कभी सोचा भी नहीं था कि हम जो सोचते हैं वह हो जाता है लेकिन आज मेरा यह अनुभव यह सिद्ध कर रहा है कि जो भी हम सोचते हैं वह एक एक दिन हो सकता है।
झील कुरंजा, लाल बिल्डिंग, हायर सेकेंडरी स्कूल में जब मैं पढ़ रही थी । उस समय मैं 11वीं कक्षा में थी। उस समय वराह गिरी वेंकट गिरी साहब राष्ट्रपति थे । तब भी एक बार राष्ट्रपति भवन जाने का अवसर मिला था। राष्ट्रपति महोदय के समक्ष हमें एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए हमारे स्कूल के अध्यापक गण लेकर आए थे । अब तो वही इच्छा फिर बलवती हुई और फिर मन में विचार आया काश मैं यहां हमेशा यह सकूं।

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1972 में मेरी नौकरी पर्यटन विभाग में लग गई थी उस समय पर्यटन विभाग का कार्यालय रेल भवन में था रेल भवन राजपथ और राष्ट्रपति भवन के पास ही था। 1980 में मुझे नार्थ ब्लॉक, वित्त मंत्रालय में वरिष्ठ अनुवादक के रूप में चुन लिया गया था। यह वही स्थान था जहां मैंने सोचा था कि मुझे हमेशा आना चाहिए ।जब हम भोजन अवकाश में बाहर निकलते तो सामने राष्ट्रपति भवन और इधर विदेश मंत्रालय और मैं भी तो मंत्रालय में काम करती थी। इस राजपथ पर जितने वर्ष भी मैं रही मैंने अपने भीतर एक अद्भुत उत्साह महसूस किया।
कुछ वर्ष यहां नौकरी करने के पश्चात में प्रमोशन पा कर पंजाब नेशनल बैंक के संसद मार्ग कार्यालय में चली गई थी लेकिन राजपथ यहां से भी दूर नहीं था । उन दिनों संसद भवन के बीच बने रास्ते से दूसरी और आसानी से जाया जा सकता था। संसद भवन, रेल भवन और फिर उसके आगे इंडिया गेट और फिर राजपथ , ये हमेशा ही मेरे बहुत प्रिय स्थल रहे हैं और भगवान का धन्यवाद करती हूं कि उसने मुझे मेरे जीवन के अधिकांश वर्ष इसी स्थान पर रहने का शुभ अवसर भी दे दिया।
मैं कभी-कभी सोचती हूं अगर मैंने बचपन में यहां रहने का सुखद स्वप्न नहीं देखा होता तो क्या मैं यहां आ सकती थी । मुझे पता नहीं यह सच होता कि नहीं पर मुझे लगता है कि यह मेरी मन की इच्छा ईश्वर ने जरूर कहीं ना कहीं सुनी होगी। हमारे कर्मों को वही तो कार्यान्वित करता है और मैं धन्यवाद करती हूं उस परमात्मा का जिसने हमेशा ही मुझे सच्ची राह दिखाने में अपना आशीर्वाद बनाए रखा है।


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tabo monastery in hindi/ताबो-आशा शैली

ताबो मठ कहाँ हैं

tabo monastery in hindi : हिमाचल प्रदेश के दूर-दराज़ के गाँव ‘‘ताबो’’ की चर्चा हिमाचल में हर ज़बान पर है। आइये एक नज़र देखें कि ताबो नाम का यह गाँव क्यों आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।  ताबो मठ किस राज्य में स्थित हैं  हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से 365किमी दूर और मनाली से 270कि.मी. दूर लाहुल-स्पिति जि. के मुख्यालय काज़ा से थोड़ा आगे जाने पर ‘ताबो’ नाम का यह गाँव आता है।
शिमला से ताबो जाने के लिए कुफ़री, नारकण्डा, रामपुर बुशहर, ज्यूरी, भाबा होते हुए समदो पहुँचा जा सकता है। यहाँ से 35/40 किमी दूर स्पिति नदी और सतलुज का संगम होता है। इसी स्पिति नदी के किनारे बसा है ‘ताबो’।

tabo -monastery -in -hindi

दूसरे मार्ग से, कुल्लू मनाली होते हुए रोहताँग दर्रे को पार करके लोसर से थोड़ा पहले चन्द्रा नदी के किनारो-किनारे छोटा दर्रा-बड़ा दर्रा पार करके बाथता से 1400फ़ीट की ऊँचाई का कराकुर्रम दर्रा पार करके स्पिति घाटी में प्रवेश किया जाता है। हिमाचल प्रदेश की ऊँची पर्वत शृंखलाओं, चारां ओर ढलानों पर बर्फ़ अथवा रेतीली भूमि से घिरी स्पिति घाटी में स्पिति नदी के तट पर बायीं ओर 100 वर्ग गज भूमि पर चौकोर ईंटों से बना है ‘ताबो महाविहार’, जो ई0 सन् 996 में लामा राजा ज्ञान प्रभ के संरक्षण में महानुवादक रत्नभद्र के द्वारा निर्मित किया गया था। महाविहार के विषय में कुछ भी जानने से पहले रत्नभद्र्र के विषय में जानना भी परमावश्यक है।

की गोम्पा किस लिए प्रसिद्ध है

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रत्नभद्र का जन्म वर्तमान पश्चिमी तिब्बत के गुगे क्षेत्र में क्युवंग-रदनि में 958ई. में प्रित्यवन-छेने-पो-जेन-नु-बंड छुग (महाभदन्त ईश्वर कुमार) तथा माता कुन-जंङ-शेरब् तनामा (समन्त भद्रा प्रज्ञाशासनी) के घर हुआ। भोट भाषा में रत्नभद्र को रिन्-चेन्-त्साँग-पो के नाम से जाना जाता है। रत्न भद्र तत्कालीन उन 21 विद्यार्थियों में से एक थे जिन्होंने बौद्ध धर्म के सभी अंगों-अभिधर्म, प्रज्ञापारमिता, विनय, सूत्र, तंत्र इत्यादि का विशद अध्ययन किया, तथा पूरे ज्ञान को संग्रहीत व संकलित करके तिब्बती भाषा में उसका अनुवाद किया।
रत्नभद्र ने गुगे, पुरसङ, जम्मू-कश्मीर प्रान्त के लद्दाख़ हिमाचल प्रदेश के लाहुल स्पिति एवं किन्नौर आदि में असंख्य स्तूपों के साथ 108 बौ(बिहारों की स्थापना भी की थी। केवल मात्र किन्नर कैलाश के परिक्रमा पथ में ही पाँच विहार हैं। इन में कुछ क्षतिग्रस्त हैं (चारङ्-रिदङ् रिब्बा), विद्यमान छितकुल एवं ठँगे के विहारों का नवीकरण किया गया है। इस बात का ध्यान रखते हुए कि इनका मूल रूप नष्ट न हो।


रत्नभद्र स्वयं में एक आश्चर्य थे। आपको महानुवादक अथवा लोचारिन पोछे के नाम से याद किया जाता है, मूर्तिकला, भित्ति-चित्रकला, थङ्का (तत्कालीन पट- चित्रकला) के निर्माता, बौद्ध धर्म दर्शन, तन्त्र के ज्ञाता एवं स्थानीय लोकभाषा जंङ-जुङ, भोट व संस्तकृ के मूधर्न्य विद्वान थे।

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रत्नभद्र के बनावाए एक सौ आठ महाविहारों में से ताबो महाविहार ही एक ऐसा मठ है जो अपने पूर्ण गरिमा-मय प्राचीन रूप में विद्यमान है। इतना ही नहीं यह अपनी ऐतिहासिक स्मृति को तथ्यों सहित स्वयं प्रस्तुत कर रहा है। इस मठ की विशेषता केवल प्राचीन और ऐतिहासिक होना ही नहीं है वरन् इसका महत्व इसलिए भी अधिक आंका गया है कि यह दो राजमार्गों पर स्थित होने के कारण कलात्मक, सांस्कृतिक एवं व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र्र रहा है। 84/70/70/64/30 मीटर क्षेत्र में बने ताबो मठ के चारों ओर दो मीटर ऊँची दीवार बनी है। इस परिक्षेत्र में 9 मन्दिर बने हैं। इनमें से 5 मूलसंरचना के मन्दिर माने जाते हैं और चार बाद के। इन नौ कक्षों अथवा मन्दिरों के नाम इस प्रकार हैं।
1.सेर खाङग् अर्थात-स्वर्ण कक्ष
2.क्विल खोरखाङग्-गुहा मण्डल कक्ष
3.द्रोमतोन ल्हाखाङग् चैम्पा-द्रोमतोन का वृहत्त मन्दिर
4.सुगल्हा खाङग्-अकादमी कक्ष
5.ज्हैलमा या गोखाङग्-चित्रविधि का प्रवेश कक्ष
6.गोन-खाङग-महाकाल कक्ष
7.करव्यून ल्हाखाङग-लघुश्वेत मन्दिर
8.व्यमसपा चैम्पोल्हा खाङग् -महामैत्रैय मन्दिर
9.द्रोमतोन ल्हाखाङग् -द्रोमतोन मन्दिर

सुगल्हा खाङग् ताबो का प्रमुख एवं महत्वपूर्ण कक्ष रहा है। प्रवेश द्वार के भीतर दोनों ओर गच (प्रहरी) प्रतिमाएँ हैं। सामने ही महाविरोचन की एक ही आकार की चार प्रतिमाएँ एक-दूसरे की ओर पीठ किए बैठी हैं। मुख्य मूर्ति के दोनों ओर दो मूर्तियाँ हैं, जिन्हें रत्नभद्र और अतिशा की मूर्तियाँ माना जाता है।
सेर खाङग् के भित्ति चित्रों में स्वर्ण का प्रयोग हुआ है इसीलिए इसे स्वर्ण मन्दिर कहा जाता है। गोखाङग् अथवा गोन खाङग् में महाकाल अथवा वज्र भैरव का स्थापित होना सिद्ध करता है कि यह कक्ष तन्त्रशोध के लिए प्रयोग में लाया जाता था, क्योंकि इस कक्ष में आम आदमी का प्रवेश वर्जित था। यहाँ बुद्ध तथा गच (प्रहरी) प्रतिमाएँ हैं। क्विल खोर खाङग् में केवल मण्डप ही बचा है। भीतरी दीवारों में रहस्मय मण्डप चित्रित हैं। यह कक्ष पूरी तरह ताँत्रिक पद्धति पर आधारित हैं। मन्दिर के मुख्य देव विरोचन हैं तथा दायें-बायें अन्य देव चित्रित हैं। छत में अनेक पशु-पक्षी तथा गंधर्वों और किन्नरों का भी चित्रण हुआ है।
द्रोमतोन ल्हा खाङग् का समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा या होता रहा। यहाँ शाक्यमुनि अमिताभ व तारा आदि के चित्र भी हैं।
व्यमस-पा-छैम्पों (चैम्पो) ल्हाखाङग् मैत्रैय को समर्पित है। धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में मैत्रैय कमलासन पर विराजमान हैं ताबो के अधिकतर मन्दिरों में गर्भगृह हैं।
बाकी चार मन्दिर बाद में बने हैं जिनका निमार्ण काल (1008.1064) बताया जाता है। इन पाँचों भवनों के अपने-अपने तथागत हैं और हर तथागत के चार-चार देवता पाँचों को मिलाकर वृत, पाँचों वृत्तों को मिलाकर वज्र धातु मण्डल बनाया गया है। ये पाँच तथागत हैं महाविरोचन, अक्षोम्य, रत्नसंभव, अमिताभ और अमोघसि(। इन पाँचां अपने-अपने देवता हैं। आश्चर्य है कि सभी के नाम में आगे अथवा पीछे वज्र शब्द का प्रयोग हुआ है। सम्भवतया इसी कारण इस मण्डल को वज्रधातु मण्डल का नाम दिया गया है। उदाहरण के लिए महाविरोचन के साथ जो चार देवियाँ हैं उनके नाम सत्ववज्री, रत्नवज्री धर्मवज्री और कर्मवज्री हैं। अक्षोम्य के साथ वज्रसत्व, वज्रराज, वज्रराग और वज्रसाधु हैं। इसी प्रकार अन्य तीन तथागतों में भी वज्र नामी देवी देवता हैं। बाहरी परिक्रमा में भी आठ वज्र नामी देवियाँ हैं। चार द्वारपाल भी वज्र नामधारी हैं। इस मण्डल को महामण्डल कहा जाता है। इसे महामण्डल इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इसमें भद्र-कल्प के सभी हजार बुद्धों को दर्शाया गया है।
इस महामण्डल की दूसरी विशेषता है हजार बुद्धों का एक सा चित्रण। कला के इस अनोखे नमूने के भित्ति चित्रों में महात्मा बुद्ध के जीवन की झलकियाँ जातक कथाएं और बुद्ध उपदेश आदि उपलब्ध हैं जो छत के टपकने के कारण क्षति ग्रस्त हो गये हैं। दीवारों पर बहुत से लेख हैं जो फ्रेंक ने खोजे थे जिनमें ताबो की स्थापना के बारे में उल्लेख किया गया है। महाविरोचन के साथ उनकी देवियाँ नहीं हैं जो वर्णित हैं। सम्भवतया वे तोड़-फोड़ की शिकार हो गईं हैं।
बाद के बने चार मन्दिरों में से कर-अब्यूनल्हा-खाङग् श्वेत मन्दिर अथवा देवी मन्दिर के नाम से जाना जाता है। यह ‘ताबो’ मठ की सीमा से बाहर है। इस मन्दिर में भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध, मैत्रैय और मंजुश्री के चित्र हैं जो खराब हो गये हैं। इस भवन का निर्माण बाद में जोमो (भिक्षुणियों) के लिए हुआ।
मठ के ऊपर भिक्षुओं के आवास के लिए 19 गुफ़ाएँ थीं जिनमें से अब एक ही बची है इसे फ़ो-गोम्पा कहा जाता है। इस जनहीन गुफ़ा में पूजा न होने पर भी ‘ताबो’ आने वाला हर यात्री यहाँ आता अवश्य है। चार कमरों की इस गुफ़ा का टु-खाङग् (सभाग्रह) 7/50/4/20 मीटर है। यहाँ भी बुद्ध, शक्यमुनि एवं तारा आदि के चित्र हैं।
फ्रैंक के अनुसार (1909) ताबो में उस समय लगभग 5 फुट ऊँचे पाण्डुलिपियों के दो ढेर थे। एक ढेर में सुन्दर लिखावट में सैकड़ों खुले पृष्ठ थे, जो प्रज्ञापारमिता की बारह पुस्तकों का तिब्बती अनुवाद प्रतीत होता था। फ्रैंक ने सिक्ख सेनापति जोरावर सिंह द्वारा इस महाविहार को क्षति पंहुचाए जाने से इन्कार किया है, किन्तु टुकी (1933) इस बात को नहीं मानते। इसके बाद भी फ्रैंक अधिक उचित प्रतीत होते हैं। क्येंकि जोरावर सिंह के हमलों और मुसलमान मूर्ति भंजकों के कारण हुए महाविनाश के बाद भी ताबो महाविहार को क्षति न पहुँचना इस बात का सबूत है कि यहाँ होने वाले साहित्यक कार्यों के कारण ताबो पूर्ण-रूपेण सुरक्षित रहा। फ्रैंक ने जिन प्रतियों की चर्चा की है वे सम्भवतया रिन-चैन-त्साँग-पो (रत्नभद्र) अथवा उसके साथियों के अनुवाद का परिणाम हैं। इनसे निश्चित ही बौद्ध धर्म तथा अनुभवकों को आसानी से समझा जा सकता है।
ताबो के ‘टु-खाङग्’’ (सभाग्रह) में जो पुस्तकें आज भी विद्यमान हैं वे हैं, ‘‘अध समयालंकार लोक, विनय संग्रह’ पंच सहस्रिका प्रज्ञापारमिता, सतसहस्रिका प्रज्ञा पारमिता, अष्ट सहस्रिका प्रज्ञा पारमिता, बौद्धवर्यावतार, सद्धर्मपुष्टिका’ ‘सत्यदयावतार’, संक्षिप्त मण्डल सूत्रावृत्ति’’।
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ ही दसवीं शताब्दि के अन्तिम चरण में परम्परित-प्रचलित चित्र कला शैली के अद्भुत और विलक्षण नमूने एक हजार वर्षों के बाद भी प्रमाणों सहित केवल इसी एक महाविहार में पूर्ण रूपेण सुरक्षित हैं। कालान्तर में चीन में विकसित चित्र कला का प्रभाव भी बाद में निर्मित 4 मन्दिरों में स्पष्ट है। इसके कक्षों में रचा गया साहित्य कालान्तर में ‘रत्न सिद्ध’ द्वारा संकलित तंजूर ग्रन्थ संग्रह का एक विशिष्ट भाग बना।
ताबो महाविहार को राजाश्रय के साथ ही अन्तर्देशीय व्यापारियों, धर्म प्रचारकों, कलाकारों एवं वास्तु शिल्पियों के आश्रय स्थल रहने के कारण ही अन्य समुदायों का भी सहयोग प्राप्त रहा।
जहाँ रत्नभद्र के बाद भी अन्य कला शैलियों के प्रमाण इस महाविहार के कक्षों में भित्ति चित्रों एवं आलेखों के रूप में मिलते हैं वहाँ मठ की सीमा के दायरे में कुछ स्तूप रत्नभद्र काल से पूर्व के भी बने हैं। इन स्तूपों के भीतरी भाग भी चित्रों से सुसज्जित हैं। इस से सिद्ध होता है कि रत्नभद्र से पूर्व भी ताबो बौद्ध धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। इस महाविहार के समान प्रचीन और निरन्तर क्रियाशील सम्भवतया शायद ही कोई और संस्थान हो। इसके बारे में बने भित्ति चित्रों में इतनी अधिक मुखरता है कि उनके परिशीलन से इनका इतिहास जाना जा सकता है। इस कार्य को मठ की दीवारों पर अंकित आलेखों ने और सरल कर दिया है।
कक्षों के आकार से स्पष्ट होता है कि यह महाविहार एकांत साधना के लिए नहीं बना था, अपितु सामूहिक कार्यकलापों के लिए इसका निर्माण हुआ था। इस बात का प्रमाण फ़र्श से ऊपर अचित्रित पट्टिका और कक्षों में प्रतिमाओं का न होना है। केवल ‘सुग-ल्हा-खाङग्’तथा ‘‘व्यसम-पा-चैन-पो-ल्हा-खाङग्’’ ही ऐसे मन्दिर हैं जहाँ प्रतिमाएँ स्थापित हैं वह भी ऐसे कि कक्ष का प्रयोग बैठक के लिए हो सके।
स्पष्टतया इस महाविहार का उद्देश्य साहित्य संकलन, सम्पादन, अनुवादक और संवर्धन आदि को सम्पन्न करना रहा है। यही कारण है कि टु-खाङग् में भी गच प्रतिमाएँ दीवार पर बहुत ऊँचे स्थापित की गई हैं। ताबो कक्ष मेंं बैठने वाले विद्वानों को असुविधा न हो। ताबो महाविहार के निमार्ण में येगदान देने वाले बहुत से विद्वानों, कलाकारों के नाम प्रकाश में आये हैं। इनमें काश्मीर के तन्त्र विशेषज्ञ ‘ज्ञानश्री’ नालाफ़ें, नीमशरण और कश्मीरी मूर्तिकार विधिक के नाम प्रमुख हैं।
1992 में इस क्षेत्र के सर्वोक्षण में चट्टानों पर खुदाई से बनी आकृतियों में स्वास्तिक का अंकन बहुतायत से पाया गया। स्वास्तिक का प्रयोग अतिप्राचीन काल में प्रभावी बौन धर्म के धार्मिक चिन्ह के रूप में किया जाता था। अतः चट्टानों पर खुदे स्वास्तिक चिन्हों से यह प्रमाणित होता है कि ताबो न केवल एक हजार वर्ष पूर्व रत्नभद्र के प्रयासों का फल है वरन् उससे पूर्व काल के चित्रित स्तूपों और बौन धर्म के प्रतीक स्वास्तिक चिन्हों के द्वारा युगों पुरानी कहानियाँ सुनी जा सकती हैं। कहीं भी इतने अधिक चिन्ह उस युग-धर्म अथवा सम्प्रदाय की हलचलों की कहानी कहते हैं।
इतना ही नहीं, इस महाविहार के मूल कक्षों में बने चित्र, शैली-शिल्प एवं विषय वस्तु के आधार पर नालन्दा के भित्ति चित्रों के समरूप लगते हैं। अतः इन्हें प्रचलित धारणानुसार कश्मीरी शिल्प शैली से नहीं जोड़ा जा सकता। कश्मीरी कला का प्रभाव केवल मात्र विधिक के मूर्तिकार होने से ताबो की प्रतिमाओं पर स्पष्ट परिलक्षित होता है।
भित्ति चित्रों में पाल चित्र शैली का प्रभाव पूर्ण तथा स्पष्ट है। इसके साथ ही रंगों में नीले रंग का बाहुल्य, घुमावदार, लहरीलेपन का रेखाँकन भाव-मंगिमाओं में तीखापन आदि बाद के बने कक्षों में चीनी चित्र कला के प्रभाव को स्पष्ट करते हैं और इन कक्षों के निर्माण काल का समय इंगित करते हैं।
सम्प्रति तीस से भी अधिक किशोर भिक्षुओं को शैक्षणिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने की व्यवस्था है। आज भी यहाँ बौद्धधर्म एवं बौद्धदर्शन तथा साहित्य का अध्ययन किया जाता है।
ताबो महाविहार की स्थापना के एक हजार वर्ष पूरे होने पर बौद्धधर्मावलम्बियों द्वारा 15 दिन का एक शिक्षा उत्सव आयोजित किया गया जिसमें प्रमुख दलाई लामा ने 1996 में ताबो में अध्ययन रत किशोर भिक्षुओं को रत्नभद्र्र की शृंखला से जोड़ने के लिए काल-चक्र की शिक्षा दी। इस उत्सव में भाग लेने देश-विदेश से लाखों बौद्ध यात्री, जिज्ञासु, पत्रकार एवं पर्यटक दोनों मार्गों से ताबो पहुँचे। भारी वर्षा के कारण स्थान-स्थान पर मार्ग अवरुद्ध होने के कारण बहुत सारा मार्ग पैदल तय कर साहसी लोग ताबो पहुँचे। 1996 में सम्पन्न हुए काल-चक्र को नमन करके हजारों बौद्ध लामाओं, लाखों श्रद्धालुओं और पर्यटकों ने इस शीत मरुभूमि को रमणीक तीर्थ स्थली की रज लेकर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये।

sansmaran aasha shailee ke saath /संस्मरण आशा शैली

संस्मरण आशा शैली के साथ

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आशा शैली

मेरे लिए बड़ा रोमांचक क्षण रहा, जब मुझे राजेन्द्र नाथ रहबर जी का फोन आया।(sansmaran aasha shailee ke saath) वे फोन बिना कारण करते ही नहीं इतना तो मैं बहुत पहले से ही जानती हूँ। मेरा और रहबर जी का परिचय 1984 के इण्डोपाक मुशायरे में शिमला के गेयटी थियेटर में हुआ था। उसके बाद पंजाब, हरियाणा और हिमाचल के लगभग हर मुशायरे में इनसे भेंट होती रहती थी।
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उन दिनों जनाब आज़ाद गुलाटी, प्रेम कुमार नज़र, जमीला बानो, मसूदा हयात, बी डी कालिया हमदम, बशीर बद्र, राजेन्द्र नाथ रहबर, अरमान शहाबी, मेहर गेरा वगैरह कुछ ऐसे नाम थे जो हर मुशायरे में मौजूद रहते, चाहे मुशायरा हिमाचल अकादमी कराये, हरयाणा अकादमी कराये या साहित्य मंच जालंधर कराये। राजेन्द्र नाथ रहबर जी उस्ताद शायर होने के नाते हर जगह रहते थे। अब साहित्य मंच जालंधर की हिमाचल शाखा की सचिव के नाते या हिमाचल की एकमात्र उर्दू शायर होने के नाते मुझे भी हाज़र रहने का मौका नसीब हो जाता, फिर भी मुझे याद है कि रहबर साहब ने कभी भी मुझे फ़ोन नहीं किया। बस उन दिनों हमारी बात फोन पर होती थी जब मेरे गुरू प्रोफेसर मेहर गेरा गम्भीर रूप से बीमार चल रहे थे। वे मुझे पल पल की खबर दे रहे थे और एक दिन प्रोफ़ेसर गेरा का सफ़र ख़त्म होने के साथ ही यह सिलसिला भी थम गया। फिर कुछ दिन रहबर साहब से प्रोफेसर मेहर गेरा की किताब खामोशी के बाद के सिलसिले में राबता रहा और बस।
उस दिन सालों बाद भी रहबर साहब का फोन जब आया था तो उन्होंने बताया कि अलवर से तुम्हें फोन आएगा, बात कर लेना। फिर अलवर से एक कांपती सी आवाज़ आई, “हमें पता चला है कि आप ने मेहर गेरा की कोई किताब निकाली है। हम कुछ शोरा पर काम कर रहे हैं आप हमें प्रोफेसर मेहर गेरा के बारे में जितना जानती हैं, बताइए।” इन साहेब ने अपना नाम राधे मोहन राय बताया था।
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मैं जो कुछ उनके बारे में जानती थी बता दिया। प्रोफेसर गेरा बहुत कम-गो पर मिलनसार इन्सान थे और उनकी मर्जी के बिना उनसे बात निकलवा लेना टेढ़ी खीर थी, इसलिए जो कुछ मैंने अलवर वालों को बताया वह शायद उन्हें सच नहीं लगा। उन्होंने कुछ और जगहों से भी पता लगाया होगा। नतीजतन अब जब किताब मेरे हाथ में आई तो देखा, बहुत सी बातें छूट गई हैं।
ख़ैर आपने देखा, किताब का उन्वान (शीर्षक) ही महत्वपूर्ण है और अपनी अहमियत दिखा रहा है। हाँ, मैं बताना भूल गयी कि राय साहब ने मेरे बारे में भी दरयाफ़्त किया था। बहुत बड़ा काम हाथ में लिया है राय साहब ने। एक हफ्ता पहले मेरे पास यह किताब आ गयी है। कुल 286 पेज की इस किताब में राधा मोहन राय साहब ने 68 शोरा-कराम को लिया है, जिसमें सात पेज इस नाचीज़ हस्ती को भी दिए हैं।
इस शोध के लिए वक्त, मेहनत, लगन और पैसा सभी कुछ दरकार है। ऐसी ही दस किताबें राय साहब निकाल चुके हैं। मेरा नम्बर नौवें हिस्से में है। सबसे बड़ी और काबिले फख़्र बात मेरे लिए मेरे उस्ताद मोहतरम के बाद उसी किताब में मेरा ज़िक्र होना है। बड़ी बात यह भी है कि आपने किसी से एक पैसे की तलब नहीं रखी और हर शायर को दो-दो कापियाँ बतौर तोहफ़ा भेजी हैं। अयन प्रकाशन से छपी इस किताब की कीमत सिक्कों के बतौर 600/- रुपये है, पर क्या सचमुच रुपयों में इसकी कीमत लगाई जा सकती है?
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