Patthar dil laghukatha-डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

 पत्थर दिल – लघुकथा

(Patthar dil laghukatha)

बहुत खुश थी सुहानी। आज उसे केन्द्र सरकार के एक प्रतिष्ठित विभाग में नौकरी मिल गई। खुशी का ठिकाना नहीं था। उसकी प्रसन्नता उसके चेहरे से साफ़ दिखाई पड़ रही थी। इधर कई वर्षों से सिविल सेवा की तैयारी में जी जान से लगी थी। सुहानी आज सत्ताइस साल की पूरी हो गई। घर में अपाहिज़ पिता जो पिछले दस वर्षों से ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। उनके दवा की जिम्मेदारी से लेकर छोटे भाई के पढ़ाने का खर्च और बूढ़ी मां के कैंसर जैसे जानलेवा बीमारी जिसमें रोगी का अटेंडेंट बिल्कुल टूट जाता है, यह सब कुछ वह एक छोटी सी प्राइवेट नौकरी और वहां से छूटने पर कुछ छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर किसी तरह से घर को चला रही थी। जिस शहर में सुहानी रहती है उसी शहर में उसके मुंहबोले एक मामा भी रहते हैं। शुरूआती दौर में वह अक्सर भांजी के यहां आया करते थे जब उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी। पिता को पच्चीस हजार का पगार मिल जाता था, लेकिन दुर्भाग्यवश उस घटना में फ़ालिज मार देने के कारण कुछ दिन तो मालिक ने आधा वेतन दिया, बाद में वह भी बंद कर दिया। मुफ़लिसी में खुले दरवाजे भी बंद हो जाते हैं। जो अच्छे समय पर डींगे हांकते थें चौबीस घंटे वहां डटे रहते थे उन्होंने भी किनारा कर लिया। मुंहबोले मामा से सुहानी ने सिर्फ़ दो हजार रुपए मांगे थे, मुसीबत में अपनों का ही सहारा होता है यह समझकर उसने मामा से मदद मांगी थी लेकिन मामा ने स्पष्ट मना कर दिया कहा कि मुझे अपनी बच्ची की फीस जमा करनी है और बेटे सोनू को ट्यूशन जाने के लिए एक नई साइकिल खरीदनी है कहकर पलड़ा झाड़ लिया। कहा गया है कि जब विपत्ति आती है तो कुछ अनिष्ट भी कर जाती है। कैंसर से जूझ रही मां के कीमों थेरेपी के लिए अपने पिता के आफिस गई। कंपनी के मालिक से अपनी हालत बयां कर डाली, लेकिन मालिक ने कहा तुम्हारे पिता के इलाज के लिए पहले से ही बहुत पैसा मैंने दे दिया है अब मैं नहीं दे सकता। सुहानी ने कहा कि मुझे कुछ पैसे और दे दीजिए मैं पाई-पाई आपका चुका दूंगी। थोड़ा सा वक्त दे दीजिए, समय एक जैसा नहीं रहता है। यह कहते- कहते उसकी आंखों से आंसू चू पड़े, लेकिन मालिक का पत्थर दिल नहीं पसीजा। निराश होकर जब घर पहुंची तो देखा दरवाजे पर भीड़ लगी हुई थी। लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। उसकी मां इलाज़ के अभाव में इस नश्वर संसार से अपने सारे संबंध तोड़कर देवलोक के लिए महाप्रस्थान कर चुकी थी।

Patthar- dil- laghukatha
डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
फूलपुर प्रयागराज
7458994874

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moral story in hindi -पवन शर्मा परमार्थी

इकतरफा प्रेम की परिणिति, नशा और पागलपन

(moral story in hindi)

भैया बात दुःख की है, पर मेरा मानना है कि उसकी मृत्यु नहीं उसे मुक्ति मिली है, अच्छा हुआ, क्योंकि ऐसे दुःख उठाने से तो ठीक है, पीड़ा से मुक्ति पा जाना । ऐसी ही मुक्ति मिली है मनोज को। हालांकि परिवार के किसी  सदस्य का परलोक सिधार जाना बहुत ही दुःखद विषय होता है । परन्तु, उन्हें मनोज के पागलपन से मुक्ति मिल जाने पर कोई……।

ये वाक्य थे मृतक मनोज के दोस्त व पड़ोसी रमेश के । क्योंकि उससे ज्यादा मनोज के बारे में कोई नहीं जानता था । दोनों ही बचपन के साथी थे, साथ-साथ, खेले-कूदे और पढ़े-लिखे थे । दोनों एक दूसरे के सुख-दुःख में सम्मिलित रहते थे । यूँ कहिए कि प्रगाढ़ पारिवारिक सम्बन्ध थे । दोनों एक-दूजे के लिए सदैव समर्पित भी रहते थे ।

मनोज के जाने का परिवार को तो दुःख था ही, रमेश को भी पीड़ा कम न थी । सामने पड़े मनोज के निर्जीव शरीर को देख रहा था वह । उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदे रमेश की कमीज पर गिर रही थीं, अहसास करा रहीं थीं उसकी पीड़ा का । अपने आँसुओं को रुमाल से पोंछते हुए रमेश मनोज अपनी मित्र की स्मृतियों में खो गया–कितना अच्छा था वह कभी । मनोज, पढ़ने-लिखने, खेल-कूद में बहुत होशियार था । सभी के साथ हँस-बोलकर, घुल मिलकर रहना उसकी विशेष आदत थी । उसने स्नातक तक शिक्षा प्राप्त की थी, वह भाग्यशाली था कि थोड़ा परिश्रम करने पर ही उसे सरकारी नौकरी मिल गई थी ।

दिल्ली नगर निगम में लिपिक (क्लर्क) के पद पर उसकी नियुक्ति हुई । वह बहुत ही पूर्ण परिश्रम व निष्ठा के साथ काम करता था । कार्यालय में सभी साथी एवं अधिकारी उससे बहुत प्रसन्न रहते थे।

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मनोज भी नौकरी मिलने से बहुत प्रसन्न था । यूँ तो परिवार में वह सबसे छोटा था (उसके दो बड़े भाई और दो बहनें थीं, जिनकी शादी हो चुकी थी, बस वही घर में कुंवारा था) पर बड़े की तरह सबका ध्यान रखता था । यह समझिए कि वह परिवार के प्रति अपने दायित्व को भलि-भाँति समझता था । दोस्ती के रिश्ते को भी बहुत अच्छी तरह समझता था। घर पर या कार्यालय में जो भी जाता, उसका वह अच्छी तरह से मान-सम्मान करता था, चाय-पानी से लेकर भोजन से अतिथि सत्कार करता था । किसी को यदि आर्थिक आवश्यकता होती तो जो भी सम्भव हो सकता था, मदद करता था । इसी कारण  दोस्त व रिश्तेदार उससे बहुत-सी अपेक्षाएं रखते थे और उसे एक होनहार व्यक्ति मानते थे ।

यहाँ एक बात पर गौर करने की आवश्यकता है कि जो व्यक्ति सज्जन होता है, उसके कई शत्रु भी होते हैं या ईर्ष्या में शत्रु बन जाते हैं । मनोज को नौकरी करते हुए लगभग चार वर्ष हो गए थे एक ही कार्यालय में कार्य करते हुए । कार्यालय में भी उसके  सद्व्यवहार के कारण परिवार जैसा ही वातावरण बन गया था । ऐसा होना स्वभाविक भी होता है, शायद इसलिए सभी के साथ प्रेम व विश्वास बन गया था । पूर्ण ईमानदारी के साथ वह काम के प्रति सदैव निष्ठावान बना रहता था, अपने काम के साथ कोई व्यक्ति लापरवाही करे तो उसे बरदाश्त नहीं होता था । यही कारण था कि कई लोग उससे अन्दर ही अन्दर कटुता का भाव रखते थे । लेकिन वह ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देता था ।

संयोग की बात थी कि उसी कार्यालय में एक नेहा नाम की  लड़की भी काम करती थी, जिसकी नियुक्ति कुछ ही दिन पहले उसी कार्यालय में हुई और उसकी सीट भी मनोज के साथ में ही थी । क्योंकि एक ही कार्यालय में एक ही साथ काम करते थे तो व्यवहार में रहना, खाना-पीना, हँसना-बोलना स्वाभाविक था । कार्यालय की दिनचर्या दोनों की प्रतिदिन एक जैसी ही थी तो उनमें एक दूजे के प्रति आकर्षण होना कोई बड़ी बात नहीं थी, दोनों एक दूजे से घुलमिल गए थे, दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित दिखाई देने लगे । वे एक दूसरे के प्रति आसक्त हैं, ऐसा लोग अनुभव करने लगे । इसी तरह लगभग एक वर्ष कैसे बीत गया, पता भी नहीं चला ? वे अगर् कभी न मिलें तो एक-दूसरे की कमी महसूस करते । इसी तरह समय का चक्र घूमता रहा, आखिर एक दिन मनोज ने नेहा के सामने शादी का प्रस्ताव रख ही दिया । शादी का प्रस्ताव सुनकर पहले तो नेहा चौंकी लेकिन सम्भलकर बोली–

“अच्छा, किससे कर रहे हो शादी, जरा हमें भी तो पता चले ।”
नेहा की बात सुनकर मनोज ने भावुक होकर कहा–“नहीं, नेहा शादी करनी जरूरी है, शायद तुम नहीं जानती कि….।”
“क्या नहीं जानती, तनिक स्पष्ट कर बोलो तो मनोज, मैं क्या….?”
“यही कि मैं…मैं…तुमसे ही शादी करना चाहता हूँ, क्योंकि….।”
“क्या मतलब, तुमने ऐसा सोच कैसे लिया, मैंने तो कभी ऐसा सोचा ही नहीं, फिर….?”,
“लेकिन नेहा मैं तो तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और शायद तुम भी मुझसे….।”
“नही, मनोज गलतफहमी मत पालो, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती, मैं केवल तुम्हें अपना एक अच्छा दोस्त मानती हूँ, दोस्ती और प्रेम में अन्तर होता है, इसलिए….।”
“परन्तु, मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ । शायद तुम्हें नहीं पता,  मैं तुमसे अथाह प्रेम करता हूँ कि अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकता….।”
इतना सुनकर नेहा कहने लगी—“मनोज क्या तुम्हें कोई गलतफहमी नहीं हो रही है । मैं भी तुम से कम प्यार नहीं करती हूँ, केवल दोस्त समझ कर ।  हाँ, यह बात सही है कि तुम मेरे एक अच्छे दोस्त हो,  दोस्त की तरह ही सोचती हूँ, न कि प्रेमिका के रूप में, अगर तुम ऐसा सोच रहे हो तो गलत….।”
“लेकिन ऐसा क्यों नेहा ?”
इस पर नेहा कुछ देर तो चुप रही और फिर बोली–“मनोज ऐसा नहीं है कि तुम जानते नहीं कि दोस्ती और प्रेम में कितना अन्तर होता है ?”
“हाँ नेहा, यह तो मैं भूल ही गया था, भावनाओं में बहकर, प्रेम के वशीभूत मुझे याद ही नहीं रहा कि बिन तुम्हारी मर्जी के मैं भला….।”
“हाँ, मनोज मित्र और मीत में अन्तर होता है, मैं तम्हें केवल अपना अच्छा मित्र मानती हूँ, प्रेमी नहीं । मैं चाहकर भी तुमसे शादी नहीं कर सकती, क्योंकि मैं किसी और से प्रेम करती हूँ । मेरे मन में तुम्हारे प्रति आदर है, सम्मान है । परन्तु….।”

मनोज पर मानो पहाड़ टूटकर गिर गया हो, उसकी हालत देखते ही बनती थी । वह क्या-क्या सपने सँजोये बैठा था, कितने अरमान थे उसके दिल में नेहा से शादी करने के लिए, जो एक पल में धराशायी हो गए ? उसका दिमाग झन्ना गया चाहकर भी उसका दिल इस बात को मानने को तैयार नहीं था कि….। क्योंकि मनोज उसके प्यार में पूरी तरह गिरफ्त हो चुका था, उसके मन-मस्तिष्क में सिर्फ नेहा ही नेहा बस चुकी थी, जिसकी गिरफ्त से बाहर निकलना शायद उसके बस में नहीं रह गया था ।

मनोज वास्तव में उससे असीम प्रेम करने लगा था, उसके मन-मस्तिष्क में केवल नेहा की छवि इस प्रकार बस गई कि जिससे बाहर निकल पाना उसके बस से बाहर हो गया था । वह चाहकर भी उसे भूल नहीं पा रहा था । उसके साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ था, उसका प्यार इकतरफा बनकर रह गया, उसे इसका सदमा लगा । उसे नहीं पता था कि उसके साथ नेहा की ओर से इस प्रकार का….। उसने कई बार उससे फिर से  विचार करने  की विनती भी की, परन्तु, उसकी तरफ से उत्तर न में ही मिला । जिसने मनोज को तोड़कर रख दिया । नेहा ने भी धीरे-धीरे उससे किनारा कर लिया और कुछ दिन बाद वह अपना तबादला करवाकर दूसरे कार्यालय में चली गई । उसके चले जाने के बाद तो मनोज का जो हाल हुआ बस….।

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मनोज प्यार में धोखा खाकर कुछ दिन तो बिल्कुल मौन रहा, दिल में  लगी ठेस को वह सहन नहीं कर पा रहा था, न उसका काम में मन लगता, न ही घर पर । उसने लगभग सभी से बात करना भी बन्द कर दिया । दफ्तर भी कभी जाता, कभी नहीं जाता । उसकी स्थिति एक बुझे हुए दीपक की तरह हो गई । कार्यालय में भी दिन भर उसी की चर्चा रहती पर उसे किसी से भी कोई शिकायत नहीं होती । बस उसी के ख्यालों में खोया इधर से उधर भटकने लगा । आखिर एक दिन ऐसा आया कि जब वो सब देखने को मिला जिसकी कभी आशा न की  थी । मनोज ने अपना ग़म भुलाने के लिए नशे का सहारा ले लिया, यानि कि उसने शराब पीनी शुरू कर दी । यह सिलसिला निरन्तर चलता रहा । इसी तरह लगभग एक वर्ष निकल गया । कार्यालय कभी चला जाये, कभी नहीं, कार्यालय में भी अधिकारी उससे कुछ नहीं कहते, उसे चेतावनी देकर इतिश्री कर देते ।

मनोज ने खुद को पूरी तरह नशे में डुबो दिया, अब उसने अफीम, गांझा भी लेना शुरू कर दिया था। उसकी हालत और खराब होती चली गई, चौबीस घण्टे नशे में डूबा रहता । उसने फिर कार्यालय जाना भी बन्द कर दिया । अब अधिकारियों ने भी सहयोग करना छोड़ दिया, और एक दो बार नौकरी पर आने को नोटिस भी भेजा, परन्तु नतीजा शून्य रहा । मनोज की ओर से कोई उत्तर न मिलने के कारण उसे नौकरी से निकाल दिया गया । मनोज को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा, नशे से उसका दिमाग बिल्कुल शून्य हो चुका था, उसके अन्दर सोचने समझने की कोई क्षमता नहीं रह गई थी, क्योंकि वह पागल हो चुका था । अब लोग उसे मनोज नहीं, पागल कहकर पुकारने लगे।

पागल की स्थिति क्या होती है, बताने की आवश्यकता नहीं ? अब न उसे किसी प्यार का पता था, न  ग़म का । न उसे हँसने का पता था, न रोने का । न जागने का पता था, न सोने का । न भूख का पता था, न खाने का । न दिन का पता था न रात का । न शराब का पता था न अन्य….। बस इसी तरह कभी बस्ती में, तो कभी जंगल में ही भटकते देखा जाता ।उसकी नींद हराम हो चुकी थी । कुछ दिनों से उसे कभी सोता नहीं देखा गया। बस, इसी हालत में उसने कई  वर्ष बिता दिए और आज उसकी नरकीय जिन्दगी का अन्त होने पर बेचारा पागलपन से मुक्त हुआ ।

रमेश की तन्द्रा लौटी, सभी लोग उसे अंतिम संस्कार के लिए तैयारी कर चुके थे । कुछ समय पश्चात उसकी अन्तिम यात्रा निकली, अंतिम यात्रा के बाद उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया । एकतरफा प्रेम की परिणिति नशा और पाग़लपन होगा ऐसा किसी ने  सोचा न था और सबके मुख से एक ही वाक्य निकला कि इकतरफा प्यार के में पागल आज बेचारा पागलपन से मुक्त हुआ । ईश्वर उसकी आत्मा को शांति प्रदान करे ।

 
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पवन शर्मा परमार्थी

कवि-लेखक

9911466020

दिल्ली, भारत ।

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Moral story|hindi kahani/अंजली शर्मा

आता तो रोज है आखिर माँ लेती क्यों नहीं

(Moral story in hindi)


छोटी मुनिया तो माँ के आँचल में दुबक गई लेकिन, बड़ा, बड़ा कुनमुना रहा था। माँ ने उठकर देखा तो उसका पैर खुला हुआ था इसलिए ठंड में कुनमुना रहा था। माँ ने कंबल खींचकर बड़े के पैरों में ढक दिया, जैसे ही माँ ने कंबल खींचा छोटा का सिर खुल गया वो चिड़चिड़ाने लगा। माँ बड़े को ढकती तो छोटा खुल जाता और छोटे को ढकती तो बड़ा, दोनो हाथ-पैर सिकोड़े पड़े थे। माँ कि छटपटाहट उसे सोने नहीं दे रही थी, बार-बार बड़बड़ाती आज अचानक ठंड इतनी बढ़ क्यों गयी, ये ठंड को भी अभी से आ जाना था।

सुबह पिता जाम पर जाते-जाते कह रहे थे, अब ठंड बढ़ रही है ऐसे में कंबल वाले आते हैं तुम ध्यान रखना, कम-से- कम दो कंबल तो ले ही लेना। बच्चों ने माँ से ऐसा कहते हुये पिता को सुन लिया था, जैसे ही कंबल वाला आया बच्चे माँ को आवाज लगाने लगे, माँ कंबल वाला आया है। माँ काम कर रही थी सो अभी टाल दिया। अब जब भी कंबल वाला आता बच्चे माँ को बताने दौड़ते। माँ बहुत सुंदर-सुंदर कंबल आया है, शाल और चादर भी है। तुम अपने लिये शाल भी ले लेना सुबह उठती हो तुम्हारे पास शाल नहीं है तुम्हें ठंड लगती होगी। पिताजी के लिये चादर भी ले लेना उनका बिछौना बिल्कुल फट चुका है। जब भी कंबल वाला आता माँ बच्चों की बातों को अनसुना कर देती, मुनिया कह रही होती है मैं तो लाल वाला लूंगी, बड़ा कहता मैं आकाश वाला और छोटा कहता मैं तो शेर वाला लूंगा। माँ चाहती थी कि ये कंबल वाला यहाँ से जल्दी निकल जाय और कंबल वाला था कि बार-बार वहीं आकर आवाज लगाने लग जाता। बेचने वालों की भी अजीब आदत होती है, कान चौकन्ना रखते हैं। बच्चों की बात सुनकर कंबल वाला भी रोज यहीं मंडराता रहता कंबल ले, शाल ले, चादर ले, माँ को बड़ी चिड़चिड़ाहट होती थी। जब भी कंबल वाला आता माँ टाल जाती, जबकि, पिताजी रोज कहकर जाते थे कि, शायद आज आयें कंबल वाले तुम जरा बाहर ध्यान रखना। बच्चों को समझ में नहीं आता कि, जब पिता ने बोला है तो माँ कंबल लेती क्यों नहीं।

इधर रोज ठंड बढ़ती जा रही थी। माँ रोज रात में यही बड़बड़ाती कि, कंबल वाले आज फिर नहीं आये, पता नहीं कब आयेंगे, इस बार आयेंगे भी या नहीं आयेंगे। पिता शाम को घर में आते ही माँ से यही सवाल पूछते कंबल वाले आये थे क्या! माँ कहती इधर तो नहीं आये, उधर तुम्हें कहीं दिखे क्या! तुम्हें कहीं दिखें तो तुम ध्यान रखना, एकाध तो ले ही लेना।

बच्चे आपस में बात करते कि, माँ-पिताजी को आखिर; कौन से कंबल वाले का इंतजार है। कौन से कंबल वाले से कंबल खरीदना चाहते हैं। आखिर,उन्हें कैसा कंबल चाहिए । ठंड बढ़ती जा रही है और माँ-पिताजी कह रहे हैं थोड़ा और इंतजार कर लेते हैं। बच्चे सोच रहे हैं जितने कंबल वालेे आये हैं उन्होंने तो सबके बारे में माँ को बताया है फिर वो कौन सा कंबल वाला है जिसका माँ पिता जी को इंतजार है। अब बच्चों को क्या मालूम; माँ-पिताजी कंबल बेचने वालों की नहीं, कंबल बाँटने वालों की बात कर रहे हैं।

Moral-story-anjali-sharma
अंजली शर्मा

बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

moral story in hindi-अपना ध्यान रखना/ आरती जायसवाल

अपना ध्यान रखना ।

(moral story in hindi)

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आरती जायसवाल

आरती जायसवाल  रायबरेली जिले  की प्रतिष्ठित  साहित्यकार है  उनके द्वारा विधा – कहानी   अपना ध्यान रखना (moral story in hindi) रचना पाठको के सामने प्रस्तुत है ।
निधि अपनी पाँच वर्ष की बेटी शुभी को सुबह से समझाए जा रही थी –
बेटा विद्यालय में आज तुम्हारा पहला दिन है ,अच्छे से रहना कोई शरारत न करना याद रहे घर और विद्यालय में अन्तर होता है ।
क्या ?माँ!
शुभी ने भोलेपन से पूछा ।
पढ़े : –    भ्रष्टतंत्र का जुआ 
निधि ने शुभी के कपोल को सहलाते हुए प्यार से बताया कि-घर में तुम जो चाहो कर सकते हो किन्तु, विद्यालय में कुछ नियम होते हैं , सभी को उनका पालन करना पड़ता है।
अच्छा ।माँ!
मेरी प्यारी माँ!
हाँ मेरी गुड़िया रानी !
अब चलें
कहकर दोनों विद्यालय की ओर चल पड़े।
moral-story-hindi
 
निधि ने अब तक उसे घर में ही सामान्य ज्ञान करवाया था पाँच वर्ष से कम आयु में ही  बच्चों के पीठ पर भारी- भरकम बस्ता और पाठ्यक्रम देख उसे बड़ा क्रोध आता था यह निजी विद्यालयों
की पढ़ाई का यह चौतरफा भार बच्चों का बचपन तो छीन ही ले रहा है अभिभावक भी आर्थिक भार से सदा दबे ही रहते हैं  उसने अक़्सर सभी को भारी भरकम फ़ीस का रोना रोते देखा है।
वह सबको रोकने का भी प्रयास करती कि क्यों इतनी छोटी आयु में व्यर्थ की कक्षाओं का बोझ उठा रहे हैं आप भी और आप का बच्चा भी ?
पर जो लोग इस भार को भी  आधुनिकता का हिस्सा समझ बैठे हों उन्हें समझा पाना उसके लिए बड़ा कठिन था।
निधि ने अपने घर के निकटतम विद्यालय में शुभी का प्रवेश करवा दिया था वह विद्यालय जाने के नाम पर हर्षोल्लास से भरी उछल-उछल कर विद्यालय की ओर बढ़ रही थी ।
सरकारी विद्यालयों की बदहाल व्यवस्था देख विवशतावश उसने निजी विद्यालय चुना ।
किन्तु;प्रायः विद्यालयों में घट रही वीभत्स दुर्घटनाओं और अप्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा छोटे बच्चों को नित्य-प्रति मिलने वाली मानसिक शारीरिक प्रताड़ना स्मरण कर वह मन ही मन ख़ीज से भर उठी।
उन अप्रशिक्षित कम पढ़े-लिखे शिक्षकों के प्रति जो प्रायः बच्चों को दण्डित करने के भिन्न-भिन्न तरीक़े ढूढ़ लेते हैं काश !इतना दिमाग वे पढ़ाने के तरीकों को ढूँढने में लगाते ।
कितनी बड़ी विडम्बना और विवशता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बदहाल सरकारी व्यवस्था निजी क्षेत्र को जोंकनुमा प्रारूप प्रदान कर रही हैं जो हमें आर्थिक रूप से खोखला कर स्वयं को
समृद्ध और पुष्ट करते हुए दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रही हैं और हम भी निजी विकल्प चुनने हेतु विवश हैं।
तभी शुभी ने उसका ध्यान भंग किया –
माँ!विद्यालय आ गया।
हाँ ।बेटा!
निधि ने उसका माथा चूमते हुए उसे उसकी कक्षा तक छोड़ा वह उसकी कक्षाध्यापिका से भी मिली और उन्हें भी शुभी से परिचित करवाया जाते समय कक्षाध्यापिका के साथ-साथ उसने शुभी से
भी कहा कि -अपना ध्यान रखना बेटा।
ओह!माँ आप तो व्यर्थ चिन्ता करती हो , मैं विद्यालय में हूँ न कि कोई युद्ध लड़ने जा रही हूँ।
फिर भी बेटा हर स्थान पर अपना ध्यान रखना चाहिए।
कहकर वह घर लौट पड़ी सोचने लगी कैसे समझाए इस छोटी सी बच्ची को कि उसे कहाँ-कहाँ ,कैसे कैसे और किन-किन से युद्ध लड़ना होगा।
हर कोना असुरक्षा से घिरा हुआ है ।
पढ़े : प्रेम और स्नेह 
संघर्षमय परिस्थितियों ,योग्यता की अनदेखी ,बढ़ती बेरोज़गारी और शासन-प्रशासन की ढुल-मुल भूमिका सरकार की क्रूर और संवेदनहीन कुनीतियों का शिकार जनमानस अपनी जीविका हेतु
भी मारा-मारा फिर रहा है परिणामतः अधिकांश लोग क्रूर और स्वार्थी होते जा रहे हैं  भ्रष्टाचार चरम पर है, मानवीय मूल्यों का घोर पतन हो रहा है । संवेदना और वात्सल्य के स्थान पर
निर्ममता ने घेरा डाला हुआ है, कब कौन मनुष्य नरपिशाच में बदल जाए और अपने ख़ूनी पंजों से किसी निरीह को दबोच ले क्या भरोसा? मन ही मन काँप बुदबुदा उठी वह
हे ,ईश्वर!
निरीहों की रक्षा करना ।
सबको सद्बुद्धि देना।

video hindi story – वीडियो /संतोष कुमार विश्वकर्मा

मेरे बचपन की यादें”से संकलित कहानी

(video hindi story)

वीडियो”

पूरे गांव में हल्ला मच गया कि ठाकुर साहब की बेटी की शादी में वीडियो लगेगा, और पूरा गांव क्या,आसपास के दो चार गांव में   यह बात जंगल में आग की तरह फैल गई।
बूढ़े, बच्चे, जवान सब अपना बोरिया बिस्तरा लेकर वीडियो देखने को उमड़ पड़े।
घेरर्राउ काका ने बताया कि वीडियो बारातियों के तंबू के सामने लगेगा, आखिर बाराती है उनका सम्मान पहले किया जाएगा, सो वीडियो देखने वालों की भीड़ बारातियो के तंबू के आसपास मंडराने लगी।
उस समय किसी के यहाँ शादी विवाह या अन्य किसी समारोह में वीडियो लगना बहुत अच्छा इंतजाम, और प्रतिष्ठा का विषय था।
बारातियों में कुछ लोग जो “बसंती”का आलिंगन कर चुके थे वो कुछ ज्यादा ही आतुर हो रहे थे और बीच बीच मे शोले फ़िल्म के धर्मेंद्र बन रहे थे और हंगामे का वातावरण बनाने में भरपूर सहयोग कर रहे थे।
तभी अचानक लुकमान ने पूछा,” कौन कौन पिक्चर आया है”।ये भी एक चिंता का विषय था,यदि दो कैसेट आयी है,तो मजा पचास प्रतिशत तुरंत कम हो जाता था ,और अगर तीन कैसेट आयी है, तो बढ़िया और यदि चार, तो सोने पे सुहागा।
तभी सिकंदर भाई ने कहा, मैं पता लगा के आता हूं कौन कौन सी फिलिम,और कितनी कैसेट आयी है।
जो वीडियो चलाने वाला आया था उसका तो अलग ही जलवा और भोकाल था ,गांव के लड़के उसे भरपूर से ज्यादा सम्मान दे रहे थे।मेज पर टीवी सेट लगाते हुए वो अपने आप को किसी हीरो से कम नही समझ रहा था।
लुकमान ने एक बार उससे फ़िल्म के बारे में पूछा तो उसने लुकमान को डांटकर भगा भी दिया था।
आखिर सिकंदर भाई के “आशिकी”गुटके ने कमाल दिखाया और वीडियो चलाने वाले ने उनको बताया तीन कैसेट आयी है, मिथुन, अमिताभ बच्चन और सनी देओल की ,इतना सुनते ही दर्शकों की टोली खुशी से झूम पड़ी। क्या क्रेज था उस टाइम मिथुन का, बहुत लोकप्रिय थे।

उनका बोला डायलॉग,”अबे ओय”  “कोई शक” और “तेरी जात का बैदा मारुं” आज भी बहुत प्रसिद्ध है और आवारा टाइप के लड़कों के मुंह से आज भी सुनाई पड़ जाता है।
खैर तभी अचानक हलचल तेज हो जाती है और पता चलता है कि वीडियो चालू होने वाला है, वीडियो वाले ने जैसे ही “श्री राम होंडा” का पोर्टेबल जनरेटर स्टार्ट किया, दर्शकों के दिलों की धड़कने भी उसी रफ्तार से तेज हो गयी और फिर लगी पहली कैसेट,मिथुन की “दाता”दर्शको में घोर आंनद की प्राप्ति, किसी मारधाड़ वाले सीन पर बीच बीच में “मार सारे का” भी सुनाई पड़ रहा था।
गंगा जमुना सरस्वती फ़िल्म में अमिताभ बच्चन जब मगरमच्छ को अपनी पीठ पर लादकर लाये और हंसराज की जो सुताई की ,मजा आ गया।
तभी अचानक जनरेटर घरघरा के बंद हो गया चारों तरफ सन्नाटा, क्या हुआ ,क्या हो गया, पता चला कि जनरेटर में पेट्रोल ही खत्म हो गया है,सभी दर्शको का दिल बैठ गया।
ठाकुर काका जिन की बेटी की शादी थी वो भी फिलिम का आनंद ले रहे थे, वीडियो चलाने वाले को बिगड़ गए बोले एक पैसा नही दूँगा ।वीडियो चलाने वाले की घोर बेज्जती हुई ,सारा हिरोपना निकल गया।
एलान हुआ कि सब अपने घर जाओ अब फिलिम नही चलेगी,तभी कुछ लड़कों ने कहा फौजी काका के “हीरो मैजेस्टिक”(विक्की)से पेट्रोल मिल सकता है और फौरन से पेश्तर, चार लड़के फौजी काका के घर रवाना हो गए।
रात के दो बजे के आसपास फौजी काका ने आने की वजह पूछी तो लड़को ने बताया कि वीडियो चल रहा था जनरेटर में पेट्रोल खत्म हो गया है आपकी बिक्की से पेट्रोल चाहिए ।
इतना सुनते ही फौजी काका आगबबूला हो गए और एक हजार गाली दी और बोले, चले जाओ हरगिज नही दूंगा।
लेकिन फिलिम देखने के जुनून के आगे ये अपमान कुछ भी ना था आखिर पेट्रोल लेकर ही लौटे ,ये बात अलग है कि फौजी काका ने पेट्रोल का दाम दुगना वसूल किया।
एक बार फिर से वीडियो चालू हुआ और फिर लगी “विश्वात्मा”   “सात समुंदर पार मै तेरे पीछे पीछे आ गई” बहुत  लोकप्रिय हुआ और आज भी उसका कोई तोड़ नही।।

मेरे बचपन की यादें”

आप में से बहुत लोगो को शायद ये याद होगा, बहुत लोग भूल भी गए होंगे, थोड़ा बहुत मैं लिखता हूं सोचा आप सबको याद दिला दूं, थोड़ी आपके चेहरे पे मुस्कान ला दूं।
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संतोष कुमार विश्वकर्मा के संकलन का अन्य भाग पढ़े :

bachpan ki yaadein story-संतोष कुमार विश्वकर्मा

“स्कूटर


हम लोग उम्र के उस दौर में थे, जब मन साइकिल से मोटरसाइकिल पर जाने के लिए बेचैन होने लगा था। हम मतलबमैं और मेरे सुपर स्टार दोस्त मियां मोकीम। तो उस समयबजाज सुपरस्कूटर का जलवा था, और मोटरसाइकिल में लोग बहुत कम इंटरेस्ट लेते थे,स्कूटर उस समय सुपर स्टार होती थी।

कभी किसी की स्कूटर खड़ी देख लेते थे हम लोग,तो मोहल्ले के दूसरे लड़को के सामने खूब शेखी बघारते,और अपने आधे अधूरे ज्ञान का प्रदर्शन करते, जैसे,”पहिला गेर ऊपर लगेगा, “चौथे गेर में गाड़ी बहुत भागती है“,  पहिया के नीचे अगर अद्धा गया तो गाड़ी पलट जाएगी और बहुत कुछ जैसे कि हम सब कुछ जानते है।

किसी तरह थोड़ा बहुत हम लोग चलाना जान गए थे।किसी की स्कूटर कभी मिल जाती थी चलाने को तो,बड़ी शान से अपने घर की तरफ जरूर जाते थे,कि देख लो हम भी स्कूटर चलाना जानते है। मोकीम के साथ भी यही सेम सिचुएशन थी, क्योंकि वो और मै अक्सर एक ही गाड़ी पर होते थे।

वो अपने घर के सामने मुझे पीछे बैठाते थे,और मैं अपने घर के सामने मोकीम को पीछे बिठाता था।स्कूटर चलाने का शौक अपने जुनून पर था और उसी बीच एक दुःखद घटना हो गई, मोकीम के अब्बा हुजूर का इंतकाल हो गया, मोकीम के बड़े भाई सिकंदर अपने ससुराल गए थे, तो ये तय हुआ कि, मोकीम जाएं और सिकंदर को अपने साथ लेकर आएं।

बगल से सेठ माताफेर की स्कूटर का प्रबंध हुआ, अगर मैयत का मामला ना होता तो सेठ माताफेर अपना स्कूटर हरगिज़ नहीं देते। मैं मुकीम के मन की स्थिति को बहुत अच्छी तरह से समझ रहा था, उन्हें अब्बा हुजूर की मौत का दुख तो बहुत था लेकिन स्कूटर चलाने का रोमांच उससे कहीं ज्यादा था,मोकीम तुरंत तैयार हो गए जाने के लिए।

जब मैंने सुना कि ,स्कूटर से जाएंगे तो मैं भी फट से तैयार हो गया।मोकीम इस समय डिस्टर्ब है ,मैं इनके साथ जरूर जाऊंगा ,ऐसा झांसा देकर मैं भी मोकीम के साथ हो लिया ,स्कूटर चलाने के लालच में।।

मोकीम के भैया की ससुराल करीब 40 किलोमीटर दूर थी, स्कूटर मोकीम ने ही स्टार्ट किया, और वही चला रहा था ,चार पांच किलोमीटर जाने के बाद मेरे मन मे भी स्कूटर चलाने तीव्र इच्छा हुई ,एक बार थोड़ा कहीं डगमगाया तो मैंने अपनी आवाज को गंभीर करते हुए कहा कि ,”मोकीम तुम्हारे अब्बा की अभी डेथ हुई है तुम्हारी तबियत ठीक नही लग रही रही है,लाओ स्कूटर मैं चलाऊ। लेकिन मोकीम ने तत्काल इनकार कर दिया बोला कि ,”बैठे रहो जल्दी पहुचना है, टाइम कम है। ये सुनते ही दिल बैठ गया,दरअसल स्कूटर चलाने का कीड़ा जितना मुझे काटा था उतना ही मियां मोकीम को भी।

खैर मोकीम ने मुझे स्कूटर नही दिया और आप तो समझ ही रहे होंगे कि मेरे दिल की क्या हालत रही होगी।

।।मेरे बचपन की यादें से संकलित।।

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