अँगूठी ने खोला भेद | हिमाचल प्रदेश की लोककथा | आशा शैली

अँगूठी ने खोला भेद | हिमाचल प्रदेश की लोककथा | आशा शैली

महासवी लोककथा का स्वरूप

लोककथा के इतिहास को खंगालने लगें तो हम देखते हैं कि लोककथा की परम्परा धरती के हर कोने में रही है, यह निर्विवाद सत्य है। लेखन की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही कहानी कहने-सुनने की उत्सुकता ने ही इस कला को जन्म दिया है। लोककथा का स्वरूप आमतौर पर लोक हितकारी ही रहा है, सम्भवतया लोककथा का उद्भव लोकहित को दृष्टि  में रखकर किया गया हो।
कहा नहीं जा सकता कि इसका आरम्भ कब हुआ होगा, प्रमाण के लिए हमें वेदों तक दृष्टि दौड़ानी पड़ेगी, जहाँ ऋषिगण गुरुजनों से प्रश्न पूछते हैं तो गुरुजन उत्तर में एक कहानी सुना देतो हैं। मैंने अपनी पुस्तक दादी कहो कहानी के लिए देश के विभिन्न भागों की लोकथायें एकत्र करते समय देखा है कि अधिकतर लोककथायें लगभग हर क्षेत्र में थोड़े-थोड़े बदलाव के साथ उपस्थित रहती हैं, फिर भी क्षेत्र विशेष का प्रभाव हर लोककथा पर देखा जा सकता है। पहाड़ों में प्रचलित लोककथाओं में आपको पर्वत शृंखलाओं, गहरे नालों-खाइयों, प्रचलित परम्पराओं, देव परम्पराओं अथवा पहाड़ी फल-फूलों का वर्णन अवश्य ही मिलेगा। वहीं सामान्यतः मैदानी क्षेत्रों की लोककथाओं में इनका अभाव देखने में आता है।
राजा-रानियों की लोककथायें भी प्रायः पूरे देश में प्रचलित होती हैं। यहाँ मैं शिमला जिला के अपर महासू क्षेत्र की कुछ लोककथाओं को संदर्भ हेतु लूँगी। दूसरे क्षेत्रों में इनका प्रसार है या नहीं, यह मेरे विचाराधीन नहीं है।

अँगूठी ने खोला भेद लोककथा 

एक दिन भोले शंकर के किसी भक्त ने मन्दिर में शिवलिंग पर सोने की अँगूठी चढ़ाई। शिव शंकर और पार्वती उस समय मानव रूप धरकर मन्दिर के नज़ारे ले रहे थे। शिवजी ने वह अँगूठी उठा कर ध्यान से देखी फिर वह पार्वती को दे दी। पार्वती उपहार प्राप्त करके बड़ी प्रसन्न हुई।
थोड़े दिनों बाद ही गाँव में मेला था। पार्वती के मन में आया कि वे भी मेले में मनुष्य रूप में भाग लें। पार्वती ने बहुत आग्रह किया कि भोलेबाबा मेले में चलें। घेरा बाँधकर नाचते युवक-युवतियों के साथ वे भी नाचना चाह रही थीं लेकिन भोले शंकर को वे किसी भी तरह न मना सकीं।
भोले बाबा को इन सब हंगामों से क्या लेना-देना। वे तो अपने घोटे के आनन्द में मगन श्मशानों में भटकते प्रसन्न रहते, लेकिन अब उनके सामने समस्या खड़ी हो गई, क्योंकि पार्वती रूठ गई थी। अब इन्कार कर दिया तो मेले में कैसे जाते! हेठी न हो जाती पत्नी के सामने। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने पार्वती को अकेले जाने को कह दिया, किन्तु नाटी ;नृत्यद्ध में नाचने से मना कर दिया था। पार्वती ने इसे स्वीकार कर लिया।
सुबह सवेरे उठकर पार्वती ने गेहूँ की मोड़ी ;भुने दानेद्ध भूनी, उस में अखरोट तोड़ कर मिलाए और सज संवर कर मेले चल दी। मेले में घूमती युवतियों ने उन्हें साथ ले लिया। फिर वे सब मिलकर झूला-झूलने चलीं। गरमा-गरम जलेबियाँ खाने के बाद सभी युवतियों ने नाटी की ओर चलने की योजना बनाई तो पार्वती को पति को दिया वचन याद आ गया वह कुछ युवतियों के साथ एक किनारे बैठ कर नाटी देखने लगी।
नाटी धीरे-धीरे तेजी पकड़ती जा रही थी, तभी साथ की लड़कियों ने पार्वती का हाथ पकड़कर उन्हें नाटी में घसीट लिया। अब क्या था, ढोल और शहनाई के साथ एक के बाद एक रसीले गीत नाटी को गति दे रहे थे। सभी जोड़े बे-सुध होकर नाच रहे थे। पार्वती का हाथ जिस युवक ने पकड़ रखा था उसे पार्वती की अंगुली में पहनी अँगूठी चुभने लगी तो उसने देखा अंगूठी बहुत सुन्दर थी। अँगूठी कुछ ढीली तो थी ही युवक ने नृत्य के झटके के बहाने पार्वती की वह अँगूठी झटक कर निकाल ली। पार्वती को पता ही न चला, मुद्रिका कब उसके हाथ से निकल गई।
जब वह घर लौटीं तो शिव भोले वैसे ही ध्यान मग्न मिले। उल्लसित मुख लिए जब पार्वती उनके निकट जा कर बैठ गई तो उनका ध्यान भंग हुआ। पूछने लगे, ‘‘कैसा रहा मेला?’’
‘‘बहुत आनन्द आया। आपको कहा था चलिए लेकिन आप कहाँ मानते हैं हमारी बात!’’ पार्वती ने उलाहना दिया।
‘‘खूब नाची होगी तुम तो?’’ शिव जी ने फिर पूछा
‘‘कहाँ! आपने मना जो कर दिया था। मन तो मेरा कर रहा था, लेकिन मैं तो बँधी हुई थी न आपको दिए हुए अपने वचन से।’’
‘‘अच्छा किया! अब जरा मेरे पाँव धो डालो।’’
‘‘अभी आती हूँ।’’ यह कहकर पार्वती तुरन्त उठकर चली गई छोटी गागर में पानी और डबरा ;परातद्ध लेकर लौट आई और शिवजी के पाँव धोने लगी।
‘‘पार्वती तुम्हारी अँगूठी कहाँ है?’’ अचानक शिव भोले ने उसके हाथ में अँगूठी न देख कर कहा।
‘‘अरे!’’ अब पार्वती को पता चला कि उसके हाथ में अँगूठी नहीं है, ‘‘वह…।’’ उसने हाथ देखते हुए कहा, ‘‘पता नहीं कहाँ गिर गई।
‘‘सच बताओ, कहाँ गिरी?’’ शिव भी हठ पर उतर आए, ‘‘नाची होगी तुम, किसी ने हाथ से निकाल ली होगी।’’
‘‘नहीं, मैंने कहा न? मैं नहीं नाची। कहीं गिर गई होगी।’’
‘‘पार्वती! यह देखो अँगूठी। मेरे पास है,’’ शिवजी हँस पड़े, ‘‘तुम्हारी आदत नहीं बदली। कहना भी नहीं मानती और झूठ भी बोलती हो। पर मैं भला किसी दूसरे के साथ तुम्हें कैसे नाचने देता। जब मैंने झटका दिया था तब भी तुम्हें पता नहीं चला कि हाथ से अँगूठी निकल गई है, लेकिन एक बात है। आज तुम नाची बड़े कमाल का हो। भई हमें तो आनन्द आ गया मेले में जाकर।’’
‘‘आप बड़े दुष्ट हैं।’’ कहकर पार्वती ने गागर का सारा पानी शिवजी के ऊपर उंडेल दिया।
इस लोककथा में हिमाचल के उन्मुक्त जीवन, मेले त्योहार और पति-पत्नी के हास-परिहास का परिचय मिलता है और यह भी पता चलता है कि हिमाचल का जनमानस देवों को अपने जैसा, अपने बीच का ही इन्सान ही समझते हैं कुछ और नहीं।


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आशा शैली

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saamaajik chunautiyaan/बाबा कल्पनेश

विषय-सामाजिक चुनौतियाँ

(saamaajik chunautiyaan)

saamaajik chunautiyaan:मानव सभ्यता के उदयकाल से ही मानव समाज को चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। इन चुनौतियों को पहचान कर इनके समाधान की दिशा में कदम बढ़ाना हमारे मनीषियों की दैनिक चिंतन चर्या रही है।आज का यह विषय निर्धारण को भी उसी तरह की चिंतन चर्या की संज्ञा से हम अभिहित कर सकते हैं।
मैं जब इंटर का विद्यार्थी था तब अपने गाँव में “हमारे कर्तव्य और अधिकार” शीर्षक से एक परिचर्चा गोष्ठी का आयोजन किया था।मेरे साथ में पढ़ने वाले गाँव के ही एक और विद्यार्थी रमाकर मिश्र जी थे।हम दोनों ने ही संयुक्त रूप से इस आयोजन की रूपरेखा तैयार की थी।पंडित गिरिजा शंकर मिश्र जी हमें हिंदी पढ़ाते थे। विषय प्रतिपादन के लिए हमनें गिरिजा शंकर जी को बुलाया था। आज यहाँ उस गोष्ठी की चर्चा करने का मेरा एक ही लक्ष्य है।वह यह कि आज का व्यक्ति अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए कर्तव्य से अधिक अपने अधिकार की बात करता है।जिस समय मैंने इस तरह की गोष्ठी का आयोजन किया था उसी समय इस तरह की सोच के दर्शन होने लगे थे,पर इतने निम्न स्तर तक सोच गिर नहीं पायी थी।यह सन् उन्नीस सौ अठहत्तर से अस्सी का वर्ष रहा होगा मतबल यह कि आज से करीब चालीस वर्षों के अंतराल में आज स्व-स्व अधिकार की बातें अधिकता से की जानें लगीं हैं। आज तक में व्यक्ति अपने अधिकार के प्रति जितना सचेष्ट हुआ है,अपने कर्तव्य से उतना ही लापरवाह हुआ है।

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इस विषय में नेताओं की गर्हित भूमिका देखने को मिली है।इन नेताओं ने पूरे भारतीय समाज को टुकड़े-टुकड़े में बाँटकर अपना उल्लू सीधा करने के हेतु से अलग-अलग व्यक्ति और अलग-अलग जाति विशेष से मिलकर उन्हें केवल अधिकार बोध की स्तरहीन प्रेरणा दे रहे हैं। ताजा उदाहरण हमारे सामने है किसान आंदोलन। किसान आंदोलन एक गहरा वितण्डावाद है।किसानों के कंधे पर अपनी बंदूक रख अपना कुछ भिन्न प्रकार का शिकार करना चाहते हैं।किसान आंदोलन के नाम पर राजधानी दिल्ली में जो कुछ हो रहा है सर्वथा अक्षम्य है।पर “नंगा नाचे चोर बलैया लेय।”
मैं भी किसान का ही बेटा हूँ। थोड़ी सी खेती है।बाह्य आमदनी कुछ नहीं आवास और भोजन की आवश्यकता तो सब के पास है।मेरे जैसे अल्पतम जीवन साधन वाले कितने लोग हैं पूरे भारत भर में।सत्य जनगणना की जाय कुल कृषक की 80% जनसंख्या मेरे जैसे किसानों की होगी। ऐसे किसानों की समस्या देखने की किस नेता को फुर्सत है।
प्रधान गाँव का हो या प्रदेश का कोई विधायक अथवा सांसद चुनाव के बाद सम्पन्नता का प्रतिनिधि-प्रतीक बन जाता है।चमचमाचम हो जाता है।ये अपने को जन सेवक कहते हैं। जन सेवा के नाम पर जमकर लूट करते हैं और जन समुदाय को कई विभक्तियों में बाँटने का कार्य करते हैं।

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आज की सामाजिक चुनौतियों में एक और विचित्र सी चुनौती उभरकर आई है।वह यह कि गलत को कोई गलत कहने को तैयार नहीं है। कोई भ्रष्टाचार में रत है तो उसकी कोई निंदा करने को तैयार नहीं है। उल्टे उसकी प्रशंसा की जाती है कि अच्छी कमाई करता है।लोग प्रशंसा के पुल ही बाँधते है।उसका कारोबार बड़ा अच्छा है। परिणाम स्वरूप वह श्रेष्ठता का प्रतिमान बन जाता है।फिर महाजनों येन गता स पंथा की स्थिति निर्मित होती है। ऐसे में सामाजिक चुनौतियों का सामना करना एक और टेढ़ी खीर है।
आज का विषय अत्यंत गहन है।यहाँ माघ मेले में नेट की समस्या तो है ही।एकाग्रता भी नहीं सध पा रही है।इस लिए पूर्ण विवेचन संभव नहीं। अपनी एक कविता की निम्न पंक्तियों के साथ बात को यही विराम देना उचित समझता हूँ।

“पालागी पंडित जी कहकर चमरौटी हर्षाता।
पसियाने का गोड़इत आकर सब को रात जगाता।।
दुआ-सलाम कर जुलहाने का नजदीकी पा जाता।
जात-पात के रहने पर भी मेल-जोल का नाता।।”

पर यह नाता आज खंडित हो गया है। यह सामाजिक दरार बढ़ाने वाले कौन से लोग हैं। पहचान करने की जरूरत है। परस्पर दूरियाँ बढ़ी हैं और गहरी बढ़ी हैं।कुछ लोग ऐसे भी हैं जो रोटी यहाँ की खाते है पर अपना रिश्ता अन्य देश से जोड़ते हैं। सामाजिक विसंगतियों की वृद्धि में इनका भी अहम योगदान है।

hindi diwas speech/के0डी0 हिंदी शोध संस्थान, रायबरेली

हर घर की नाम पट्टिका हो हिंदी में : डॉ चंपा श्रीवास्तव

hindi diwas speech:के0डी0 हिंदी शोध संस्थान, रायबरेली की तरफ से विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में डॉ चंपा श्रीवास्तव पूर्व अध्यक्ष कला संकाय अधिष्ठाता छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर ने अपने उद्बोधन में कहा के हिंदी आज न कि भारतवर्ष में बल्कि संपूर्ण विश्व में अपना एक बृहद रूप स्थापित कर चुकी है उन्होंने यह भी कहा आइए हम सब विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर यह संकल्प लें के हम अपने घरों की नाम पट्टिका को हिंदी में लगवाने का काम करें। डॉ0 आर बी श्रीवास्तव प्राचार्य ने हिंदी दिवस के अवसर पर विश्व में हिंदी के बढ़ते हुए प्रभाव को जो उन्होंने विदेश यात्राओं में व्यावहारिक रूप से देखा उसको सभी के समक्ष रखते हुए कहा कि विश्व में ऐसे भी राष्ट्र हैं जहां पर हिंदी को पढ़ने पढ़ाने और हिंदी के क्षेत्र में वहां की सरकारें रोजगार देने में वचनबद्ध हैं। विदेशों की सरकारें यह सदैव प्रयासरत रहती हैं कि हिंदी सिर्फ व्यावहारिक भाषा ही नहीं कार्यालयों की भाषा एवं पत्र व्यवहार की भाषा बने।

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hindi diwas speech:असि0 प्रोफेसर अशोक कुमार ने हिंदी के वैश्विक स्तर की महत्वपूर्ण जानकारियां देते हुए कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री माननीय मनमोहन सिंह ने नागपुर में 10 जनवरी 2006 ने कहा कि आज से प्रतिवर्ष ‘विश्व हिंदी दिवस’ मनाएंगे। भारत ही नहीं मारीशस बाली जकार्ता जैसे राष्ट्र हिंदी को अपनी कार्यालयों की भाषा, पत्र व्यवहार की भाषा एवं पठन-पाठन की भाषा के रूप में स्थापित कर रहे हैं। आज हिंदी अपना एक बृहद रूप स्थापित कर रही है हम सब सौभाग्यशाली हैं के ऐसे राष्ट्र में मेरा जन्म हुआ जहां की भाषा बहुधा हिंदी है।अशोक कुमार ने आगे कहा कि अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है तो हिंदी मन से मन को जोड़ने वाली भाषा है।

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hindi diwas speech:दयाशंकर राष्ट्रपति पुरस्कृत असिस्टेंट प्रोफेसर ने सभी को हिंदी दिवस की बधाई देते हुए कहा के हम और हमारी हिंदी हमारी पहचान है हमें अपनी पहचान को विश्व पटल पर अपने लेखन से स्थापित करना इसके लिए हमें हिंदी को और सबल एवं समृद्ध बनाना चाहिए। भारत के वर्तमान महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने सभी न्यायालयों के ये सुक्षाव दिया है कि क्यूं न न्यायालयों में चल रहे मुकदमों के फैसले हिंदी में सुनाएं जाएं ताकि हमारे देश की गांव में निवास करने वाली कम पढ़ी लिखी जनता भी उसे पढ़ सकें और समझ सके “हिंदी पढ़ें-हिंदी बढ़े” ऐसी धारणा के साथ हम सब हिंदी को उत्तरोत्तर विश्व की अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में देखना चाहते हैं। यह हमारे लिए प्रसन्नता की बात है। के0डी0 शोध संस्थान के सचिव एवं चिकित्साधिकारी डॉ0 प्रभात श्रीवास्तव ने कहा कि हिंदी हम सभी विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर आज से यह संकल्प लें के कार्यालय में या बैंक खातों में जहां भी हम हस्ताक्षर करें, हिंदी में करें।कार्यक्रम का संचालन डॉ0 पूर्ति श्रीवास्तव असिस्टेंट प्रोफेसर मनोविज्ञान ने किया।

swami vivekananda  ideas/आधुनिक भारत के निर्माण में

आधुनिक भारत के निर्माण में

स्वामी विवेकानन्द के विचारों की प्रासंगिकता

swami vivekananda  ideas:लेख का प्रारम्भ दो घटनाओं से करना चाहूँगा | बालक नरेन्द्र नाथ के पिता के निधन के उपरांत उनके घर की स्थिति बहुत ही ख़राब हो गई। खाने के लिए भी अन्न नहीं था। नौकरी भी नहीं मिल रही थी। तब माँ भुवनेश्वरी देवी ने नरेन्द्र से कहा, – जा अपने गुरु के पास और उनसे घर-परिवार के दुखों को दूर करने की प्रार्थना कर। जैसे ही नरेन्द्र ने दक्षिणेश्वर काली मंदिर के भीतर प्रवेश किया, उनको महाकाली का साक्षात्कार हुआ। तब नरेन्द्र ने देवी से प्रार्थना की, कि मुझे “ज्ञान दे, भक्ति दे, विवेक दे, वैराग्य दे।”
ऐसा तीन बार हुआ। वह गये थे नौकरी और घर की समृद्धि मांगने, पर मांग आये ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य।

दूसरी घटना 1893 ई. की है

एक जहाज जापान से शिकागो जा रहा था।

(swami vivekananda  ideas)

दूसरी घटना 1893 ई. की है एक जहाज जापान से शिकागो जा रहा था। उसमें सैकड़ो लोग बैठे थे लेकिन दो भारतीय थे भारतीय होनें के नाते आपसी बातचीत प्रारम्भ हुई । पहले ने पूछा आप कहाँ जा रहे हैं? जवाब मिला- अमेरिका। प्रतिप्रश्न में उत्तर मिला- हम भी अमेरिका जा रहे हैं। पहले वाले व्यक्ति ने पूछा आप अमेरिका क्यों जा रहे हैं जवाब मिला हिन्दुस्तान के अंदर स्टील बने इसलिए जा रहा हूँ। इग्लैंड वालों ने मना कर दिया अगर हिन्दुस्तानी स्टील बनाने लगेंगे तो पापड़ कौन बनाएगा ? दूसरे से पूछा आप क्या लेने जा रहे हो ? जवाब मिला कुछ लेने नहीं बल्कि देने जा रहा हूँ । आश्चर्य चकित व्यक्ति नें पूछा क्या देने जा रहे हो ? विश्व को भारत का सन्देश देने जा रहा हूँ । पहले व्यक्ति का नाम जमशेद जी टाटा और दूसरे व्यक्ति का नाम स्वामी विवेकानंद था|
नरेन्द्र नाथ दत्त से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक की यात्रा से ही आधुनिक भारत के निर्माण का पाथेय प्रस्फुटित होता है। ऐसा पाथेय जिसमें धर्म,ज्ञान,विज्ञान का हिंदुत्व की सामासिकता,सात्मीकरण, इस्लाम के भाईचारे और पश्चिम के तर्कवाद एवं मानवता वाद का अद्भुत समन्वय है । स्वामी विवेकानंद को राष्ट्रीय पुनरोत्थान का जनक माना जाता है कठोपनिषद से ग्राह्य उनका पाथेय “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” राष्ट्रीय पुनर्जागरण का वाहक बना तो भारतीय समाज में प्रचलित सामाजिक बुराइयों पर भी उन्होंने प्रहार किया। विवेकानन्द ने भारत की भयंकर गरीबी और पतन के लिए अंग्रेजी उपनिवेशवाद से ज्यादा जाति-व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया। अमेरिका और यूरोप की बहुत सफल यात्रा के बाद भारत लौटने पर फरवरी 1897 ई. में मद्रास से 160 मील दूर ब्राह्मण अतिवादियों के वर्चस्व वाले एक गाँव कुम्बकोनम में भाषण देते हुए उन्होंने कहा:-
दोस्तों, मैं तुम लोगों को कुछ कठोर सत्यों से अवगत कराना चाहता हूँ . . . हमारी दुरावस्था और अधोगति के लिए अंग्रेज़ नहीं, हम खुद जिम्मेदार हैं . . . हमारे अभिजात पूर्वजों ने आम लोगों को पैरों तले इतना कुचला कि वे पूरी तरह से असहाय हो गए, इतने जुल्म ढाए कि बेचारे लोग यह भी भूल गए कि वे इन्सान हैं। सदियों तक उन्हें केवल लकड़ी काटने और पानी भरने के लिए मजबूर किया गया। और तो और, उनकी यह धारणा बना दी गई कि उन्होंने गुलाम के रूप में ही जन्म लिया है . . . यही नहीं, मैं यह भी पाता हूँ कि अनुवांशिक संक्रमणवाद जैसे फालतू विचारों के आधार पर ऐसी दानवीय और निर्दयी युक्तियों . . . को प्रस्तुत किया जाता है ताकि इन पददलित लोगों का और अधिक उत्पीड़न और दमन या जा सके।” वस्तुतः उन्होंने भारतीय समाज के उत्थान का पाथेय राष्ट्रीय पुनरोत्थान को माना । ऐसा मार्ग जिसका प्रारम्भ तो प्राचीन संस्कृति की गौरव शाली परम्पराओं से होता है किन्तु उसमें अंतर्निहित कमियों को त्याग कर आधुनिकता के मार्ग पर बढनें का पथ-प्रदर्शन है।

पढ़े : निराला की रिक्त तमन्नाओं का ग्रंथ : सरोजस्मृति

आज 21 वीं सदी में भारत राष्ट्र और भारतीय समाज का स्वरुप परिवर्तित हुआ है कुछ नवीन चुनौतिया उत्पन्न हुई हैं तो कमोबेश समस्याओं का स्वरुप जस का तस है। किन्तु आज भी स्वामी विवेकानन्द का दर्शन हमारी चुनौतियों से निपटने में हमें सहायता प्रदान करने में यथावत सक्षम है। आज भी भारत में एक बड़ा वर्ग है जो अतीत में केवल कमियाँ ढूंढता है अंग्रेजों के प्रचलित सिद्धांत का “White Man’s Burden” अन्धानुकरण करता है। निहित स्वार्थों से युक्त ये वर्ग भारतीय राष्ट्र के सशक्तीकरण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। स्वामी विवेकानंद का वेदान्त दर्शन आज भी राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और नव निर्माण का पाथेय है।

आज निर्धनता,बेरोजगारी,अशिक्षा,कुपोषण,अति-जनसँख्या,सांप्रदायिक-उन्माद,क्षेत्रवाद उग्रवाद,नक्सलवाद,आतंकवाद पर्यावरणक्षरण,मानव-प्रकृति संघर्ष में वृद्धि आदि समस्याएं हैं जिन पर विजय प्राप्त कर ही आधुनिक व् सशक्त भारत को सशक्त किया जा सकता है। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका से भारत लौटे तो देशभर भ्रमण कर युवाओं को कहते- ‘निर्भय बनों। बलवान बनों। समस्त दायित्व अपने कन्धों पर ले लो और जान लो कि तुम ही अपने भाग्य के विधाता हो। जितनी शक्ति और सहायता चाहिए वह सब तुम्हारे भीतर है।’क्या सचमुच सारी शक्ति हमारे भीतर है ? यह सवाल भी कई बार मन में आया। पर उत्तर तो स्वामीजी ने ही दे दिया। वे कहते थे- ‘अनंत शक्ति, अदम्य साहस तुम्हारे भीतर है क्योंकि तुम अमृत के पुत्र हो। ईश्वर स्वरूप हो।’ कहीं न कहीं 21 वीं सदी में भारत के युवा के मन में स्वयम में निहित ऊर्जा का बोध समाप्त हुआ है तभी वह शक्ति को बाहर ढूंढ रहा है आज आवश्यकता है कि युवाओं को उनमें निहित सार तत्व और ऊर्जा का बोध कराया जाए।

पढ़े : हिंदी का सफर कहाँ तक

स्वामी जी धर्म और ज्ञान को अलग अलग नहीं मानते थे उनका मानना था कि “जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह तथा विकास वश में लाया जाता है और फलदायी होता है ,उसे शिक्षा कहते हैं” वर्तमान शिक्षा की सीमा यही है कि वह तथ्यों के अन्धाधुन्ध अनुकरण पर बल देती है चरित्र निर्माण और नवाचारों से उसका सरोकार नहीं रह गया है। स्वामी जी कहते हैं
“हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है,जिससे चरित्र निर्माण हो ,मानसिक शक्ति बढे,बुद्धि विकसित हो और देश के युवक अपने पैरों पर खड़े होना सीखें।”उचित शिक्षा से ही तमाम समस्याओं का हल स्वयमेव हो जाएगा।

स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के निर्माण के लिए धर्म एवं विज्ञान के समन्वय पर बल देते थे

(swami vivekananda  ideas)

भारतीय सन्दर्भ में धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है जो कि धारण करने वाली धृ धातु से बना है “धार्यते इति धर्मः” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म है। विज्ञान और धर्म के मध्य कोई भी विभेद नहीं है विज्ञान भी सिद्ध किया ज्ञान है अतः विज्ञानं एवं धर्म अलग-अलग नहीं वरन साध्य एवं साधन हैं। स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के निर्माण के लिए धर्म एवं विज्ञान के समन्वय पर बल देते थे यदि उनके विचारों का अनुपालन किया जाए तो पर्यावरणीय समस्याओं के वैज्ञानिक व् मानवीय समाधान का माडल तैयार किया जा सकता है जो कि पर्यावरण अनुकूल तकनीक के अनुप्रयोग में सहयोगी होगा।
उग्रवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याओं के मूल में संसाधनों का अनियमित एवं असमान वितरण है वह सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के पुनरुद्धार तथा आर्थिक प्रगति के पक्ष में थे। रूढिवादिता,अंधविश्वास, निर्धनता और अशिक्षा की उन्होंने कटु आलोचना की। उन्होंने यह भी कहा कि,जब तक करोङों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्च पर शिक्षा प्राप्त करता है, किन्तु उनकी परवाह बिल्कुल नहीं करता है। इस प्रकार समाज सेवा स्वामी जी का प्रथम धर्म था। उनकी मान्यता थी कि देश की गरीबी को दूर करना आवश्यक है। विवेकानंद राष्ट्रवादी थे परंतु उनका राष्ट्रवाद, समावेशी और करूणामय था। जब भी वे देश के भ्रमण पर निकलते, वे घोर गरीबी, अज्ञानता और सामाजिक असमानताओं को देखकर दुःखी हो जाते थे। वे भारत के लोगों को एक नई ऊर्जा से भर देना चाहते थे। वे चाहते थे कि आध्यात्म, त्याग और सेवाभाव को राष्ट्रवाद का हिस्सा बनाया जाए। उन्होंने भारत के लिए एक आध्यात्मिक लक्ष्य निर्धारित किया था। विवेकानंद का राष्ट्रवाद, मानवतावादी और सार्वभौमिक था। वह संकीर्ण या आक्रामक नहीं था। वह राष्ट्र को सौहार्द और शांति की ओर ले जाना चाहता था। वे मानते थे कि केवल ब्रिटिश संसद द्वारा प्रस्ताव पारित कर देने से भारत स्वाधीन नहीं हो जाएगा। यह स्वाधीनता अर्थहीन होगी, अगर भारतीय उसकी कीमत नहीं समझेंगे और उसके लिए तैयार नहीं होंगे। भारत के लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार रहना होगा। विवेकानंद ‘मनुष्यों के निर्माण में विश्वास‘ रखते थे। इससे उनका आशय था शिक्षा के जरिए विद्यार्थियों में सनातन मूल्यों के प्रति आस्था पैदा करना। ये मूल्य एक मजबूत चरित्र वाले नागरिक और एक अच्छे मनुष्य की नींव बनते। ऐसा व्यक्ति अपनी और अपने देश की मुक्ति के लिए संघर्ष करता। विवेकानंद की मान्यता थी कि शिक्षा, आत्मनिर्भरता और वैश्विक बंधुत्व को बढ़ावा देने का जरिया होनी चाहिए।

सांप्रदायिक कटुता संबंधी विषय पर भी स्वामी जी के विचार आधुनिक भारत के निर्माण का पथ प्रशस्त करते हैं तथा ग्राह्य उन्होंने धार्मिक उदारता, समानता और सहयोग पर बल दिया।

उन्होंने धार्मिक झगङों का मूल कारण बाहरी चीजों पर अधिक बल देना बताया है। सिद्धांत, धार्मिक क्रियाएँ, पुस्तकें,मस्जिद, गिर्जे आदि जिनके विषय में मतभेद हैं, केवल साधन मात्र हैं। इस कारण इन पर अधिक बल नहीं देना चाहिये। उन्होंने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा,धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है, धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य सर्वत्र अन्न ही खाता है, किन्तु देश-2 में अन्न से भोजन तैयार करने की विधियां अनेक हैं। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है और देश-2 में उसके भी अनेक रूप हैं। इससे यह स्पष्ट है कि सभी धर्मों में मूलभूत एकता है, यद्यपि उसके स्वरूप भिन्न हैं। उन्होंने अन्य धर्म-प्रचारकों को बताया कि भारत ही ऐसा देश है, जहाँ कभी धार्मिक भेदभाव नहीं हुआ। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि धर्म-परिवर्तन से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि प्रत्येक धर्म का लक्ष्य समान है। उन्होंने ईसाई धर्म के अनुयायियों को स्पष्ट किया कि भारत में ईसाई धर्म के प्रचार से उतना लाभ नहीं हो सकता जितना पश्चिमी औद्योगिक तकनीकी तथा आर्थिक ज्ञान से हो सकता है। भारत पर विजय राजनीतिक हो सकती है, सांस्कृतिक नहीं। 21 वी सदी में सर्वधर्म समभाव का उनका पाथेय भारत के सभी धर्मानुयायियों के लिये आपसी सद्भाव का सन्देश है ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द के विचार राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के साथ-साथ राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए भी समान रूप से प्रासंगिक हैं शायद यही कारण था कि 1985 ई. से भारत सरकार नें 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। आज उनके जन्म दिवस पर सभी नागरिक राष्ट्र के नवजागरण के महान नायक को आभार ज्ञापित करते हैं तथा उनके पदचिह्नों पर चलने को संकल्पित होते हैं।

 

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अनिल साहू
विभागाध्यक्ष भूगोल विभाग दयानंद सुभाष नेशनल कॉलेज उन्नाव.
mob-8299345226

new year resolution in hindi/संकल्प- बाबा कल्पनेश

संकल्प

(new year resolution  in hindi)


new year resolution  in hindi: नूतन वर्ष अभी आया नहीं। किसी तरह का अच्छा संकल्प लेने में कोई एतराज नहीं।यह मेरा संकल्प ही है कि निज संस्कृति के दायरे में ही रह कर अपना जीवन जीना है।अब एक नया संकल्प और लेता हूँ कि जब तक तन में प्राण रहेगा स्वयं निज संस्कृति-संस्कार को वरीयता दूँगा अपने और इष्ट-मित्रों और नई पीढी को भी प्रेरित करता रहूँगा।
अपनी पहचान खोकर जीवन जीना तो अपने पूर्वजों की गरिमा पर पानी उड़ेलना होगा।जिसने अपनी पहचान को गिरवी रख दिया। युग युगांतर तक उसे धिक्कार ही मिलता रहेगा।हम अपनी स्वजातीय भावना को हेय दृष्टि से देखने लगे थे आज कोरोना काल में दूर से ही नमस्ते करने की परंपरा को पुनः वरीयता प्राप्त हुई। कुछ दूरी बनाकर साथ उठने-बैठने की परंपरा श्रेष्ठ साबित हुई।

पढ़े : धारी माता पर कविता

हमको अपने पास -पड़ोस से भी कुछ सीखना चाहिए। केवल दूसरे की मुखापेक्षिता किसी तरह श्रेष्ठ नहीं कही जा सकती।होली पर रंग- अबीर-गुलाल आदि खेलने की परंपरा कब शुरू हुई, यह तो ठीक-ठीक मैं नहीं कह सकता।पर कविताओं और होली के गीतों में भी यह गाया  जाता रहा है।पर आज जो गैर नहीं हैं,अपने ही हैं।जिनके पूर्वज और इष्ट राम और कृष्ण ही हैं। होली के दिनों में वे कहते हैं हमारे ऊपर रंग न पड़े ऐसे हिंदू से मुसलमान बने लोगों की बातें सुनकर हमारे घर-परिवार के कुछ लोग भी कहने लगे हैं कि हमारे ऊपर रंग न पड़े। हम अपने सारे रीति-रिवाज को त्याग कर किस प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं, समझ पाना मुश्किल हो रहा है।

कई भाषाओं का ज्ञान हो यह तो गौरव की बात है।

पर अपनी भाषा को त्याग देने के मूल्य पर नहीं ?

यह कदापि श्रेष्ठ कदम नहीं है।

हमारे पुरखे कठिन तपस्या करके जिस सात्विक जीवन पद्धति को अपनाये वही हम में आज हीन बोध जागृत करने लगा है।कोई भी मुसलमान या इसाई कभी प्रणाम सूचक हमारे क्रिया पद्धति को नहीं अपनाता और एक हम हैं कि गुडमार्निंग सर या सलामआलेकुम कहकर ही अपने को प्रगतिशील साबित करने पर तुले हुए हैं।कई भाषाओं का ज्ञान हो यह तो गौरव की बात है।पर अपनी भाषा को त्याग देने के मूल्य पर नहीं ? यह कदापि श्रेष्ठ कदम नहीं है। मुझे बहुत ठाँव देखने को मिला कि छोटे बच्चे अंग्रेजी का वन-टू तो धड़ल्ले से पढ़ते-जानते हैं पर हिंदी की गिनती उन्हें नहीं आती।जनवरी-फरवरी तो वे जानते हैं, पर अगहन-पूस वे नहीं जानते।वे इतना आगे निकल गए हैं कि असंभव लगता है इस राजमार्ग पर चल पाना।

संकल्प करें अपने पुरखों के मूल्यों का गहन अध्ययन की

(new year resolution  in hindi)

शाम के समय यदि वे लौटना भी चाहेंगे तो नहीं लौट पाएँगे।तब तक में दृष्टि इतनी कमजोर हो चुकी होगी कि एक कहावत हासिल होगा बस–अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गइ खेत।
गाँधी जी के भजन का अर्थ मैं भी जानता हूँ। मैं ही क्या सारे धरती के लोग जानते हैं। पर सारे धरती का मुसलमान इसे नहीं मानता। वह केवल अल्ला को मानता है और अल्ला को मनवाने पर जबरन उतारू है,उतारू था और उतारू रहेगा।उसके इसी कार्य की फल श्रुति है भारत में 33 करोड़ की हिंदू आबादी मुसलमान बनकर रहने को अभिशप्त है।अभिशप्त मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जीवन स्तर में कोई परिवर्तन नहीं आया है।केवल मांसाहार अपनाना और मंदिर को ध्वस्त करने की मानसिकता के सिवा कोई परिवर्तन नहीं देखने को मिल रहा है।

33 करोड़ अपने मूल हिंदुस्तानी के नेता के रूप में स्थापित मुश्किल से 5-10 प्रतिशत बाहर मूल के कट्टर और गैरकट्टर दो विभक्तियों में शासन कर हैं हजारों वर्षों से अब जो बलवे आदि हो रहे हैं सब इन्हीं के इशारे पर हो रहा है।
इस समय हमें प्रतिज्ञा लेनी होगी चाहिए स्वदेशी गौरव के उत्थान की।अंग्रेज यहाँ से चले गए पर कुछ ऐसे सूत्र यहाँ छोड़ गए कि जिसे त्यागने में भी हमें पीड़ा होने लगी है।हमारे देश में अंग्रेजों के आने के पहले न तो यहाँ अंग्रेजी थी और न ही यहाँ अंग्रेज़ियत थी।आज हिंदी प्रदेश के बच्चे भी हिंदी गिनती और हिंदी महीनों के नाम भूले जा रहे हैं। क्या कारण है।हम सब को विचार करने का अभी अवसर है।संकल्प करें अपने पुरखों के मूल्यों का गहन अध्ययन की।

new -year- revelution- hindi
बाबा कल्पनेश

hindi diwas 2021 -हिन्दी का सफर कहाँ तक/आशा शैली

हिन्दी का सफर कहाँ तक

(hindi diwas 2021)


hindi diwas 2021: कभी-कभी हम भयभीत से हो जाते हैं यह सोचकर कि बदलते हुए समाज के परिवेश में हमारी हिन्दी कहीं पिछड़ तो नहीं रही? सम्भवतया इसमें आंग्ल भाषा का प्रभाव भी शामिल हो, किसी हद तक हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ने का दायित्व आम बोल-चाल में इंग्लिश का दखल भी है जिसे हम आज हिंग्लिश कहने लगे हैं। हिन्दी को रोमन में लिखना भी एक तरह की निराशा पैदा करता है  परन्तु वह मात्र मोबाइल तक सीमित है, इसलिए अधिक परेशान नहीं करता। हाँ बोलने में आंग्ल भाषा का अधिक प्रयोग किसी तरह से भी हितकर नहीं कहा जा सकता।

मैकाले का षडयंत्र सफल हुआ।

(hindi diwas 2021)

वर्तमान परिपेक्ष में नयी पीढ़ी को जब हम अंग्रेज़ी पर आश्रित और निर्भर देखते हैं तो मन में एक टीस-सी उठती है। यहाँ हम निरुपाय से बस देखते रहने के लिए विवश हैं। मैकाले का षडयंत्र  सफल हुआ। आज उसकी नीति सफल होकर कहीं बहुत गहरे पैठ गई है और इस षडयंत्र  का शिकार हुए हम भारतवासी चाहकर भी अपनी भावी पीढ़ियों को हिन्दी की ओर उन्मुख नहीं कर पा रहे। लगता है आज हिन्दी लिखना-पढ़ना लोगों से छूट रहा है। हाँ यह आवश्य है कि घर में यदि हिन्दी बोली जाती है तो भावी पीढ़ी हिन्दी सीखेगी ही परन्तु अधिक संभ्रांत कहे जाने वाले घरों में बात-चीत का माध्यम भी अंग्रेजी ही हो गई है। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग में भी हिन्दी किसी हद तक मौखिक होकर रह गई है।

मैं उत्तराखण्ड के जिस भाग में रहती हूँ वहाँ राष्ट्रीय सेवक संघ का प्रभाव अधिक है, बहुत सारे घरों के बच्चे शाखा में जाते हैं। उस पर भी बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के कारण हिन्दी की गिनती तक नहीं जानते। मैं स्वयं पंजाबी भाषी क्षेत्र से हूँ। मेरा जन्म अविभाजित पंजाब में हुआ और अभी तक हमारे घरों में पंजाबी बोली भी जाती है फिर भी हिन्दी का प्रभुत्व बना हुआ है। इस पर भी नई पीढ़ी हिन्दी की गिनती तक नहीं जानती। हालांकि आज की नई पीढ़ी के बच्चे हिन्दी बोलते अवश्य हैं यह किसी हद तक हमारी पीढ़ी का दबाव भी हो सकता है क्योंकि साधारणतया घरों और गली बाजारों में हिन्दी बोली जाती है परन्तु लिखने-पढ़ने के नाम पर नई पीढ़ी के बच्चे वही अंग्रेज़ी ही जानते समझते हैं।

एक समय था जब अक्सर सुना जाता था कि दक्षिण भारत में हिन्दी का विरोध बहुत मुखर है। परन्तु आज वह स्थिति नहीं है। इसका कारण सम्भवतया रोजगार भी है। बहुत सी सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं में दक्षिण भारतीय लोग उत्तर भारत में नौकरी के लिए आ रहे हैं, इसी प्रकार उत्तरी भारत के लोग दक्षिण में नौकरी कर रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक पैंतरे बाजी के बाद भी भाषा के विस्तार पर अंकुश रखना कठिन हो जाता है और इसका लाभ हिन्दी को भरपूर मिल रहा है।

दक्षिण के हर राज्य में हिन्दी प्रचार के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी बहुत-सी संस्थाएँ हैं और वे अपना काम भी कर रही हैं, फिर भी यह कोई बहुत उत्साहवर्धक स्थिति नहीं है तो निराशाजनक भी नहीं। काम तो हो ही रहा है, भले ही गति धीमी है। कुछ न होने से कुछ होना बेहतर हैं। हाँ यह अवश्य है कि हमें और मेहनत करनी पड़ेगी। कोई माने या न माने हिन्दी का फलक बहुत विस्तृत है। हिन्दी धीरे-धीरे जाग रही है।

हिन्दी को रोजगार से नहीं जोड़ा।

(hindi diwas 2021)

यहाँ केवल मैकाले को कोसने से काम नहीं चलने वाला। हमारी इस दुखद स्थिति के उत्तरदायी हमारे नेतागण भी रहे हैं, जिन्होंने सब कुछ जानते-बूझते हुए भी हिन्दी को रोजगार से नहीं जोड़ा। स्थिति दुखद तो है परन्तु एकदम निराशाजनक भी नहीं है, क्योंकि तनिक-सी समझ विकसित होते ही हमारे बच्चे हिन्दी की ओर उन्मुख होने लगते हैं। पर ये सारी परिस्थितियाँ मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लिए ही हैं। उच्च और उच्चमध्यम वर्ग तेज़ी से न केवल आंग्ल भाषा का अनुसरण कर रहा है अपितु पाश्चात्य संस्कृति  की ओर भी भाग रहा है यही सबसे बड़ी समस्या है। क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति के अनुसार मध्यम और निम्न वर्ग इसी उच्च वर्ग को अपना आदर्श मानकर इनके पीछे चलता है। ऐसे में जो लोग या संस्थाएँ हिन्दी के लिए काम कर रहे हैं उन्हें साधुवाद और प्रोत्साहन देना आवश्यक है।

हमारे समाज की तेजी से बदलती दशा और दिशा जहाँ अंग्रेज़ी भाषा पर निर्भर होती देखी जा रही है वहीं एक सुखद बयार के झोंके-सा सीमापार के देशों में बढ़ता हिन्दी क्षेत्र मन को आश्वस्त भी करता है। कहीं कानों में कोई कहता है कि ‘अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है।’ ऐसा ही एक झोंका मैंने कुछ वर्ष पूर्व महसूस किया था जब उत्तराखंड के  वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ के आयोजन में हिन्दी के लगभग 70 ब्लॉगर खटीमा ,उत्तराखंड में एकत्र हुए। उस समय मुझे पता चला कि हज़ारों की संख्या में हिन्दी ब्लॉगर काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं नए बच्चे जब हिन्दी साहित्य में उतर रहे हैं तो हिन्दी साहित्य की गहराई तक जाने के लिए उन्हें हिन्दी सीखनी भी पड़ती है।

इस दिशा में व्हाट्सएप्प और फेसबुक भी सहायक हो रहे हैं। नेट को कोसने वालों की भी कमी नहीं है पर सच तो यह है कि जिसे जो सीखना है वह सीख ही लेगा। यानि जिसे जिस चीज़ की तलाश है वह मिल ही जाएगी। आज यदि पुस्तकें नहीं पढ़ी जा रहीं तो उससे भी अधिक नेट पर साहित्य को पढ़ा जा रहा है। अर्थात पढ़ने की प्रवृति बढ़ी है। ऐसे में मोबाइल के कारण आँखों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के कारण पुस्तकों का महत्व भी लोगों की समझ में आता जा रहा है।

भाषाओं के विस्तार और आदान-प्रदान के लिए पर्यटन भी बहुत सहयोगी होता है। इतिहास गवाह है कि हर बड़ा लेखक पर्यटन से जुड़ा रहा है, अर्थात् घुमक्कड़ रहा ही है। भारत विविधताओं को देश है और पर्यटन की अपार संभावनाएँ यहाँ विद्यमान हैं। बहुत से विदशी छात्र यहाँ अध्ययन के लिए भी आते हैं और भारत में रहकर वे हिन्दी न सीखें यह हो ही नहीं सकता। इतना ही नहीं आज हिन्दी के महत्व को समझते हुए विदेशों की सरकारें भी अपने यहाँ हिन्दी पढ़ाने लगी हैं। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के गुजराती कविता संग्रह का हिन्दी अनुवाद सुप्रसिद्ध ( लेखिका श्रीमती अंजना संधीर) ने किया तो बहुत से अन्य अनुवाद दूसरी भाषाओं से हिन्दी में और हिन्दी से अन्य भाषाओं में हो रहे हैं। इसका प्रमाण मैं इस आधार पर दे सकती हूँ कि शैलसूत्र में प्रकाशनार्थ कई भाषाओं से अनुवादित रचनायें मेरे पास आ चुकी हैं। इससे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी का विस्तार तो हो ही रहा है, हिन्दी साहित्य के भण्डार की  भी निरंतर वृद्धि  हो रही है।

भारतीय सभ्यता से जोड़ने का काम तो हिन्दी ही करेगी।

श्रीमती अंजना संधीर जहाँ पाँच वर्ष तक अमेरिका में हिन्दी पढ़ाती रही हैं तो वहीं डॉ. यास्मीन सुल्ताना नक़वी जैसे विद्वान जापान में अपने वर्षों के कार्यकाल में हिन्दी के सैकड़ों विद्यार्थियों को पारांगत करके आए हैं और आज भी कर रहे हैं। वर्तमान में बिड़ला फाउंडेशन के निदेशक सुरेश तुपर्ण भी जापान में हिन्दी पढ़ा चुके हैं। कहना न होगा कि प्रत्येक देश में आज हिन्दी पढ़ाई जा रही है। कारण चाहे जो भी हो हमें परन्तु हमारी भाषा को इसका सीधा लाभ मिल रहा है। हालांकि भारतीय सभ्यता की जड़ें जहाँ बहुत गहरी हैं, वहीं हिन्दी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, फिर भी भारतीय सभ्यता के दीवाने बहुत लोग हैं। उन्हें भारतीय सभ्यता से जोड़ने का काम तो हिन्दी ही करेगी।

यहाँ हमारे लिए हिन्दी में निकलने वाली ई पत्रिकाओं का भी संज्ञान लेना बहुत आवश्यक है। वर्तमान समय में बहुत-सी ई पत्रिकाएँ निकल रही हैं जो निःसंदेह हिंदी के लिए संजीवनी का काम कर रही हैं। आजकल सभी अखबारों ने भी अपने ई संस्करण निकालने शुरू कर दिए हैं। हिन्दी ई पत्रकाओं में जय-विजय, हस्ताक्षर वेव पत्रिका, उच्चारण व अन्य ऐसी बहुत-सी पत्रिकाएँ निकल रही हैं परन्तु मैं यहाँ जिस पत्रिका की चर्चा कर रही हूँ उसका नाम है ‘अनहद ड्डति’।

‘अनहद ड्डति’ पत्रिका

‘अनहद ड्डति’ पत्रिका मेरे संज्ञान में तब आई जब अचानक ही मुझे अम्बाला से निमन्त्रण मिला। यह बात शायद सात-आठ वर्ष पुरानी है, क्योंकि इस पत्रिका को निकलते हुए तब भी समय हो चुका था। तब तक मैं केवल प्रिंट मीडिया से ही परिचित थी। अनहद ड्डति का वार्षिक समारोह था। अम्बाला जाकर मुझे पता चला कि इस पत्रिका के सम्पादक चसवाल दम्पति हैं। प्रेम पुष्प चसवाल जी की कई पीढ़ियाँ हिन्दी साहित्य से जुड़ी हुई हैं और उनकी पत्नी प्रेमलता चसवाल जी भी अच्छी साहित्यकार हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इनकी संतानें भी हिन्दी साहित्य की सेवा कर रही हैं।

अनहद ड्डति में नए-पुराने सभी लेखकों को स्थान मिलता है

यह एक कार्यशाला थी। प्रेमलता चसवाल जी ने पत्रिका का परिचय कराया और कार्यशाला में सिखाया कि हम ई-पत्रिका में भागीदारी कैसे करें। वर्तमान में यह पत्रिका आठ वर्ष की हो चुकी है। भारत से पत्रिका को चसवाल दम्पति और अमेरिका से आपकी बेटी देख रही है। कहना न होगा कि इन आठ वर्षों में पत्रिका ने बहुत से नये आयामों को छुआ है। पिछले वर्ष धर्मशाला ,हिमाचलप्रदेश  में अनहद ड्डति के बैनर के तले आयोजित तीन दिवसीय कार्यक्रम में आपकी बेटी विभा ने धर्मशाला में उपस्थित सभी साहित्यकारों से उनकी पुस्तकों की एक-एक प्रति लेकर अमेरिका के एक पुस्तकालय में पहुँचाई। आज जहाँ हवाई यात्रा में हम सीमित सामान ही ले जा सकते हैं वहाँ मोटी-मोटी चालीस से अधिक पुस्तकें अमेरिका के पुस्कालय में पहुँचाना आसान काम नहीं और यह हिन्दी और हिन्दी साहित्यकारों के लिए किसी सम्मान से कम नहीं है। इसे हम हिन्दी के लिए उपलब्धि क्यों न मानें। अनहद ड्डति में नए-पुराने सभी लेखकों को स्थान मिलता है, अतः इसका प्रसार भी व्यापक है। यह हिन्दी के लिए शुभ है।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इण्डोनेशिया, कम्बोडिया ही नहीं सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भारतीय सभ्यता के अवशेष देखे जा रहे हैं और वहाँ के अध्ययनशील छात्र अपनी जड़ों की ओर लौटने का प्रयास कर रहे हैं। यह सच है कि विदेशों में हिन्दी भाषा का प्रभाव बढ़ रहा है।

अकेले कम्बोडिया में ही अगणित ऐसे छात्र-छात्राएँ है जिन्हें भारत और हिन्दी से असीम प्यार है। पर बिडंम्बना यह है कि हम तो  अपने बच्चों को बड़ी मेहनत से अंग्रेजी सिखाने में लगे हुए हैं।

 विद्वानों का कहना है कि यदि भारत की सरकारें संवेदनशील होतीं तो सांस्कृतिक  एकता के कारण सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया के देश भारत के साथ एकजुट होते। जैसे यूरोपीय देश एकजुट हैं। हमारे पूर्वज हमें यह विरासत देकर गये हैं। पर हमारा देश तो सैक्युलर था उसने इन देशों के प्रति उदासीनता दिखाई।

इन देशों में भारत के प्रति असीम अनुराग है। यहाँ का जनसामान्य अपनी संस्कृति  की जड़ें भारत में देखता है। कम्बोडिया, थाईलैंड, लाओस, इन्डोनेशिया, वियतनाम, बर्मा, फिलिपीन्स आदि भारतीयता के रंग में रंगे हुए देश हैं। चूंकि यहाँ के लोगों को संस्कृत भाषा से गहन अनुराग है। इन लोगों की भारत के सांस्कृतिक  प्रतीकों की जानकारी अद्भुत है। यह विष्णु, शिव, गंगा, गरुड़ आदि सभी से गहराई से परिचित हैं पर भारत में तो धर्मनिरपेक्षता का अर्थ संस्कृति  विहीनता समझा गया। परिणाम सामने है।

बूंद-बूंद से ही घट भरता है। अतः यहाँ हर इकाई का योगदान महत्वपूर्ण है। हमारे आस-पास बहुत से विद्वान हिन्दी में ब्लॉग पर काम कर रहे हैं इन विद्वानों में डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ शिखर पर हैं। इनका हिन्दी ब्लॉग उच्चारण आज भी यथावत काम कर रहा है। डॉ. सि(ेश्वर का कर्मनाशा ब्लॉग काम कर रहा है। शेफाली पाण्डे और ऐसे बहुत से नाम हैं।

मैंने अभी तक ब्लॉग पर काम नहीं किया परन्तु इसके महत्व से इनकार भी नहीं कर सकती। मूलतः पंजाबी भाषी होते हुए मैंने पंजाबी में बहुत कम लिखा है। हालांकि मैंने उर्दू, डोगरी महासवी बोलियों में भी लिखा है। परन्तु मेरा अधिक काम हिन्दी में ही है। यहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगी कि यदि हमें हिन्दी के बारे में सोचना है और उसे विश्व-व्यापी बनाने की इच्छा है तो अन्य भाषा भाषियों से अपेक्षा न रखकर स्वयं पहल करनी होगी। मैंने ओड़िया सीखकर ओड़िया से हिन्दी में काव्यानुवाद किया है। इसी तरह यदि हम भारत की दूसरी भाषाओं में रुचि लेते हैं तो निश्चय ही हम हिन्दी को समृद्ध कर रहे हैं।

हमारे लिए प्रसन्नता की बात यह भी है कि वर्तमान में सरकारी कार्यालयों में भी हिन्दी में काम होने लगा है।

 कोई चाहे तो वह सारा काम हिन्दी में कर सकता है और यदि कोई कार्यालय इसमें लापरवाही बरतता है तो उसकी शिकायत भी की जा सकती है।

हिन्दी को विशाल फलक दिलाने में जहाँ सिनेमा के योगदान को जाना जाता है वहीं इस दिशा में प्रवासी भारतीय साहित्यकारों का योगदान भी कम नहीं है। विदेशों में बसे हमारे रचनाकार अपने-अपने तरीके से हिन्दी को आगे बढ़ा रहे हैं। वे जहाँ भी रह रहे हैं, वहाँ की भाषाओं के अतिरिक्त हिन्दी में भी निरंतर लिख रहे हैं। इससे हिन्दी का फलक विस्तार पा रहा है। वरिष्ठ साहित्यकारों के ऐसे बहुत से नाम हैं जो विदेश में भी हिन्दी भाषा में लिख रहे हैं।

सुखद आश्चर्य का विषय है कि नई पीढ़ी जो साहित्य में उतर रही है वह बहुत अच्छे स्तर का साहित्य दे रही है। यह हिन्दी के लिए उपलब्धि कही जाएगी। यदि कोई भाषा साहित्य में अपना स्थान बना लेती है तो उसका अस्तित्व खतरे में नहीं हो सकता। अतः हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए और हिन्दी के उत्थान के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए।

hindi -diwas- 2021
आशा शैली

सम्पादक शैलसूत्र ;त्रै.द्ध

इन्दिरा नगर-2, लालकुआँ, जिला  नैनीताल

उत्तराखण्ड-262402

निराला की रिक्त तमन्नाओं का ग्रंथ : सरोजस्मृति

महाप्राण पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

(निराला की रिक्त तमन्नाओं का ग्रंथ : सरोजस्मृति)


निराला जी के पूर्वज उन्नाव जनपद के गढकोला ग्राम के रहने वाले थे, जो बैसवारा क्षेत्र में आता है। आपका जन्म पश्चिम बंगाल के महिषादल में 21 फरवरी 1896 ई0, वसंत पंचमी को हुआ था। बचपन का नाम सूरज कुमार था, बाद में उत्कृष्ट काव्यसृजन के कारण पूरा नाम ‘महाप्राण पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ हो गया था। बचपन में आपने बंगाली भाषा सीखी थी, तत्पश्चात आपका विवाह रायबरेली जनपद के डलमऊ निवासी पं0 रामदयाल की सपुत्री मनोरमा के साथ वैदिक बिधि-विधान के साथ संपन्न हुआ था। धर्मपत्नी मनोरमा के कहने पर आपने हिंदी भाषा का अध्ययन करके ही हिंदी में लेखन कार्य का श्रीगणेश किया। फिर संस्कृत और अंग्रेजी का अध्ययन किया। मनोरमा जी ने एक कन्या को जन्म दिया। बेटी को जन्म देने के बाद परलोकवासी हो गईं, तब निराला जी के जीवन में मानो वज्रपात हो गया हो।

छायावाद’ आधुनिक हिंदी कविता का स्वर्णिम युग माना जाता है।

पं0 सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को महाप्राण, मतवाला, छयावाद का कबीर, मस्तमौला, विद्रोही कवि आदि नामों की संज्ञा दी गयी है। छायावाद के सभी तत्व निराला के काव्य में विद्यमान हैं। इनका जीवन सदैव शूलों से भरा था फिर भी गरीब, असहायों एवं महिलाओं के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे। निराला ने अपनी रचनाओं में स्त्री को माता, पुत्री, पत्नी, आराध्या, देवि, साध्वी आदि रूपों में चित्रित किया है। आपने अपनी कविता में अत्यंत मार्मिक शब्दों में पत्नी ‘मनोरमा’ को स्मरण करते हुए लिखा है-

वह कली सदा को चली गयी दुनियां से,
वह सौरभ से पूरित आज दिगन्त।

ऐसा ही शोक संवेदनाओं से परिपूर्ण अश्रुपूरित काव्य ‘सरोजस्मृति’ है। सरोजस्मृति को हिंदी जगत का सर्वश्रेष्ठ ‘शोकगीत’ कहा जाता है। निराला ने अपनी पुत्री का विवाह शिव शेखर द्विवेदी से कर दिया था। अठारह वर्ष पूर्ण करके बेटी ने उन्नीसवें वर्ष में कदम रखा ही था कि चेचक और तपेदिक रोग हो जाने के कारण बीमार हो गयी। दुर्भाग्यवश विवाहिता पुत्री सरोज की मृत्यु 19वें वर्ष में सन 1935 में राणा बेनीमाधव सिंह जिला चिकित्सालय, रायबरेली में हो गयी थी। सुमित्रानंदन पंत जैसे वरिष्ठ साहित्यकार बेटी को देखने आए थे। निराला जी यह मानते हैं कि पुत्री की उम्र श्री मद्भागवत गीता के अठारह अध्याय के समकक्ष हैं, जो सरोज पूर्ण कर चुकी है। सरोज का मरण जीवन के शाश्वत विराम की ओर जाने की यात्रा है। इस शोकगीत में भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज में उसके दायित्व, संपादकों के प्रति आक्रोश और अंतर्मन की पीड़ा दिखाई पड़ती है। कवि निराला ने श्रीमद्भागवत गीता में अटूट आस्था, श्रद्धा और विश्वास व्यक्त करते हुए लिखा है-

उन्नवीश पर जी प्रथम चरण,
तेरा यह जीवन सिंधु-तरण।
पूरे कर शुचितर सपर्याय,
जीवन के अष्टादशाध्याय।”

पुत्री सरोज की मृत्यु के तीन माह बाद सन 1935 में सरोजस्मृति कविता का सृजन और प्रकाशन हुआ। हिंदी साहित्य में ‘शोकगीत’ जैसी नई विधा की नींव डालना निराला जी के लिए किसी चुनौती से कम न था। पुत्री की असामयिक मृत्यु ने मानो कवि की अंतरात्मा को झकझोर दिया था, तब आपने साहस और गंभीरता के साथ शोकगीत की नींव डाली। निराला के व्यक्तित्व और सहित्यप्रेम को देखते हुए आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी ने कहा था- *”कविताओं के भीतर से जितना अथच अस्खलित व्यक्तित्व निराला जी का है, उतना न प्रसाद जी का है, न पंत जी का है। यह निराला जी की समुन्नत काव्य साधना का प्रमाण है।”*

‘सरोजस्मृति’ हिंदी का सबसे लंबा शोकगीत है।

अंग्रेजी साहित्य में तो शोकगीत सन 1750 ई0 से पूर्व भी लिखे जाते थे, परन्तु हिंदी साहित्य में शोकगीत की सर्जना सन 1935 ई0 में सृजित सरोजस्मृति से मानी जाती है। निराला जी सदैव अपनी सहानुभूति शोषित वर्ग के प्रति रखते थे, इसलिए अपना धन, कपड़े, कम्बल आदि प्रयागराज में दान कर दिया करते थे। आप अर्थहीन हो गए थे। अपनी पुत्री का लालन-पालन भी खुले मन से नहीं कर पा रहे थे, तब निराला जी की सासु माँ से यह दुःख देखा नहीं गया। निराला की सहमति से नन्हीं  सी परी सरोज को उसकी नानी डलमऊ लिवा लायी। वहीं पली बढ़ी। सरोज कभी कभी मोक्षदायिनी गंगा नदी के तट की रेत में खेला करती थी। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी ने इस यथार्थवादी दृश्टान्त को बहुत ही मार्मिक शब्दों में ‘सरोजस्मृति’ कविता में व्यक्त किया है-

कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद
बैठी नानी की स्नेह गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यो अपार।।

छायावादी युग में निराला जी की संवेदनाएँ

भारत में आदिकाल से स्त्री सभी रूपों में पूजनीय रही है और आज भी उसे देवी का स्थान दिया जाता है। छायावादी युग में निराला जी की संवेदनाएँ भी स्त्री के प्रति रही हैं। निराला जी परतंत्र भारत में भी भारतीय जन मानस को समाज की जिम्मेदारी का अहसास कराते हुए दहेजप्रथा का घोर विरोध करते हैं। भौतिकवादी युग में मनुष्य अपनी पुत्री के विवाह में दिखावा करने, पुत्री की खुशहाली और वर पक्ष की मांग पर अधिक से अधिक धन खर्च करता है। कभी-कभी तो खुद को श्रेष्ठ दिखाने के लिए जर-जमीन तक गिरवीं रख देता है या बेंच देता है। दहेज के लेन देन तथा अनावश्यक फिजूलखर्च निराला की दृष्टि में व्यर्थ है। निराला जी ने समाज को प्रेरणा देते हुए उपरोक्त तथ्यों को अपनी कविता सरोजस्मृति में मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है-

मेरी ऐसी, दहेज देकर,
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर।
बरात बुलाकर मिथ्या व्यय,
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु के महाप्राण निराला दार्शनिक हो गए थे। ‘सरोजस्मृति’ में करुणा की प्रधानता है। आपने सरोज की शैशवावस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था से लेकर मृत्यु तक के दुखद सफर का सजीव चित्रण क्रमशः लिपिबद्ध किया है। पुत्री वियोग को सहन करने की क्षमता निराला के अंदर न थी, फिर भी समाज और राष्ट्र के प्रति सचेत रहते हैं। निराला ने ‘शोषकों को डाल पर इतराता हुआ गुलाब कहा है, जिसकी सेवा करने वाले खाद-पानी रूपी गरीब शोषक जन हैं।’

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अंत में आंखों में आँसू लिए झिलमिलाते अक्षरों से पुत्री सरोज की मृत्यु का वर्णन चंद शब्दों में ही कर पाने का साहस कर पाए थे। मानो आपकी सहनशक्ति टूट गयी थी। महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी जी ने अपने हृदय पर पत्थर रखकर ‘सरोजस्मृति’ में लिखा है-

दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कहीं।
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण,
कर, करता मैं तेरा तर्पण।।

अशोक कुमार गौतम,
असि0 प्रोफेसर, चीफ प्रॉक्टर,
सरयू-भगवती कुंज
शिवा जी नगर, रायबरेली (उप्र)
9415951459

देखें अशोक कुमार गौतम का बधाई संदेश विश्व हिंदी दिवस 2021 पर

Aloo paratha gyaanavardhak lekh-आलू पराठा/अंजली शर्मा

आलू पराठा

Aloo- paratha -gyaanavardhak -lekh
अंजली शर्मा

पंजाबी फैमिली और आलू पराठा(Aloo paratha gyaanavardhak lekh) का क्या संबध होता है ये तो आप सभी जानते हैं। परंतु; कोई रोज आलू का पराठा खाये तो! खा भी सकते हैं, क्यों नहीं खा सकते। किसी को रोज नाश्ते में आलू पराठा(Aloo paratha gyaanavardhak lekh)पसंद हो या कोई डिनर में ही रोज आलू पराठा खाना चाहता है तो खाये उसकी अपनी मर्जी। परंतु, यदि, मैं कहूँ कि किसी घर में सिर्फ एक टाइम खाना बनता है और वो भी आलू पराठा और वह भी हर रोज तो! क्या तब भी आपको आश्चर्य नहीं हुआ होगा। भई मुझे तो हुआ था।

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वैसे तो हर किसी की अपनी कुछ न कुछ पसंद होती है जिसे वह अक्सर खाना चाहता है परंतु, हर रोज वही एक चीज खाये ऐसा कैसे हो सकता है। खासकर बच्चे, वो भी जब वो दस बारह साल के हों तब वो निश्चित रुप से कुछ अलग खाने की बात जरुर करेंगे। परंतु, ये लोग रोज पता नहीं कब से आलू पराठा (Aloo paratha gyaanavardhak lekh)ही खा रहे हैं, अब तो इनके आलू पराठा का चर्चा पूरे मोहल्ले और हरएक घर में होता है। इनके आलू पराठा( Aloo paratha gyaanavardhak lekh)का चर्चा इतना आम हो गया था कि, अब पूरे मोहल्ले के लिये यही खास चर्चा बना हुआ था। हर कोई इनके आलू पराठा खाने पर ही बात करता।
वैसे यह चर्चा न आम होता न खास लेकिन, इसके खास होने के पीछे क्या वजह जानने के लिये मैं आप लोगों को इस परिवार के बारे में बता दूं। इस परिवार में थे चार लोग, माता-पिता जिनकी उम्र लगभग, पैंतीस से चालीस के बीच और दो बच्चे जिसमें एक लड़का और एक लड़की जिनकी उम्र करीब दस और बारह साल की थी। इनकी एक खास बात थी ये जब भी घर से निकलते चारों एक साथ निकलते। रहन-सहन और बातचीत व तौर तरीका का सलीका बहुत अच्छा होता। देखने में यह फैमिली बहुत तो नहीं लेकिन फिर भी काफी कुछ पढ़ी-लिखी और समझदार नजर आती। एक बात जो और खास थी वो ये कि ये लोग हमेशा एक ही कपड़े में नजर आते, सिर्फ लड़की ही दो अलग-अलग फ्राक में दिखलाई देती थी। आंटी तो हमेशा एक पीले रंग की साड़ी में नजर आती थी और अंकल सफेद कुर्ता और दफेद लुंगी के साथ नीली पगड़ी में नजर आते। लड़का सफेद शर्ट के साथ नीली हाफपैंट में रहता। लेकिन, कपड़े हमेशा साफ-सुथरे ही पहनते थे। आंटी की कमर तज की चोटी लहराती हुई, आधा कानों को ढकती हुई, बालों को चिपका कर उसमें अच्छे से हेयर पिन लगाये रहतीं ताकी बाल बिखरे नहीं। गोरी, लम्बी, नाक थोड़ी गोल सी थी परंतु आँखे बहुत सुंदर थी। कहा जाय तो वहुत सुंदर थी। लड़की भी बहुत सुंदर थी और बच्चा भी बहुत प्यारा था लेकिन वह बहुत अनमने से रहता था। आंटी दो घरों में झाडू़-पोंछा और कपड़ा धोने का काम करती थी। मैंने देखा कि लोगों के बीच इनकी चर्चा तो अक्सर होती थी लेकिन, किसी के भी मन में इनके लिये सहानुभूति दिखाई नहीं देती थी। इसकी वजह इनका रहन-सहन, इनका तौर-तरीका और इनका रोज खाने वाला आलू पराठा। लोग अक्सर कहते कि, घरों में झाडू़-पोंछा करती है और इनके ठाठ देखो, इतना टीप-टॉप रहती है। रोज आलू पराठा खाते हैं, रुखी-सूखी खाकर इनका काम नहीं चलता। लोग तो और भी कई तरह की बातें करते पर, मुझे वो सब बातें न तो ध्यान देने लायक लगतीं और न यकीन करने लायक। परंतु, जितने लोग उतनी बातें। लोगों का तो काम ही होता है कहना और वो कहते रहते हैं वो जो कहते हैं उन्हें कहने दो। वह फैमिली, कुछ इसी अंदाज में चलती थी। इनको कौन क्या कह रहा है से कोई मतलब नहीं होता था।

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खाना खाने का समय था तो मैने ऐसे ही पूछा बच्चों से~ तुम लोगों ने खाना खा लिया? बच्चों ने हाँ कहकर जवाब दिया। मैने पूछा- क्या खाया? आलू पराठा कहकर दोनों चुप हो गये। मैने आगे पूछा~ तुम लोगों को आलू पराठा बहुत पसंद है! दोनो माँ की तरफ देखने लगे फिर दोनों ने सिर झुका लिया।
आंटी कहने लगी, रोज-रोज किसी चीज खाना किसे पसंद होता है बेटा परंतु, मजबूरी में खा लेते हैं। इतने बड़े-बड़े बच्चे हैं मन तो इनका भी करता होगा कि घर में कुछ और बने। परंतु, क्या करें।
कोई मजबूरी में रोज आलू पराठा खाता होगा ये बात तो शायद किसी को हजम हो। आमतौर पर आलू पराठा बड़े-बड़े लोग खाते हैं या फिर मध्यम वर्गीय परिवारों में भी अक्सर खाया जाता है। परंतु, कोई कहे कि मजबूरी में आलू पराठा खा रहे हैं वो भी रोज!! आंटी ने मुझसे सवाल किया~ बेटा एक बात बताव आलू पराठा बनता कैसे है? आप लोग अपने घरों मे आलू पराठा कैसे बनाते हो? हमारे यहाँ कैसे बनता है आपको पता है! दो आलू को उबालकर उसमें नमक-मिर्ची और हल्दी डालकर हाथ से मसल लेते हैं, आटे की दो-दो लोई बनाते हैं सबके लिये और उसी में आलू भरकर पराठा सेंक लेते हैं जरा-जरा सा तेल लगा कर। वैसे तो आलू पराठा में अच्छे से तेल या घी लगाकर पलट-पलट कर सेंका जाता है परंतु हमारे यहाँ ऐसा नहीं बनता, मक्खन की तो हम सोच भी नहीं सकते। बस ऐसे ही आलू पराठा बनाकर अचार से खा लेते हैं। सब्जी-भाजी खरीदने के लिये पैसे तो होते नहीं, दो आलू से चार लोगों की सब्जी भी ढंग से नहीं बनती फिर सब्जी के लिये मसाले भी चाहिये। एक किलो आलू हफ्ते भर चलता है। हमारे पास बस एक-एक अच्छे कपड़े हैं बस उसी को रोज धो-धोकर पहनते रहते हैं। बेटी के लिये बस, दो फ्राक बनवायी हूँ, वो भी अपनी साड़ी से। अब मेरे पास एक ही साड़ी है पहनने के लिये। घर जाकर गाऊन पहन लेती हूं और इस साड़ी को धोकर डाल देती हूं। पहले सब कुछ ठीक था, तुम्हारे अंकल एक बड़े कपड़े की दुकान पर काम करते थे, अच्छी पगार थी। अचानक तबियत खराब होने से काम छुट गया। थोड़ी-बहुत जमापूंजी थी वह भी खतम हो गयी। कुछ दिनों तक तो घर का सामान बेचकर गुजारा होता रहा लेकिन ऐसे कब तक चलता फिर मैंने दो घरों में झाडू़-पोंछा औेर कपड़ा धोने के काम में लग गयी। अच्छे लोग हैं नौकरानी की तरह नहीं समझते घर जैसे समझ कर काम करती हूं । वैसे तो कई घरों में काम मिल जायेगा लेकिन कभी किया नहीं तो संकोच होता है। बस अब तो भगवान से यही प्रार्थना है कि तुम्हारे अंकल जल्दी ठीक हो जायें। लोग तरह-तरह की बातें करते हैं मुझे सब पता है लेकिन, क्या करें, लोगों के मुँह पे ताला तो नहीं लगा सकते। लोगों को लगता है कि मैं बहुत खूबसूरत हूँ इसलिये मेरे पति मुझे कहीं अकेले नहीं जाने देते, मैं जहाँ भी जाती हूँ सब मेरे साथ चले आते हैं परंतु, सच बात तो ये है कि, तुम्हारे अंकल को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता, उनकी तबियत ठीक नहीं है वो ठीक से बोल भी नहीं पाते। बच्चों को भी वहाँ पर अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। घर का किवाड़ बहुत पुराना हो गया है , टूट भी गया है लेकिन, घर को वैसे ही छोड़ देते हैं आखिर, घर में है भी क्या, जिसे लोग उठाकर ले जायेंगे।

ज्ञानवर्धक लेख की शिक्षा

कहने लगीं, आजकल लोग किसी की मजबूरी पर तरस नहीं खाते बल्कि, मजबूरी का तमाशा बनाते हैं। इसलिए, हम किसी के सामने अपनी मजबूरी नहीं गिनाते। लोगों को लगता है कि हम रोज आलू पराठा खाकर रोज दावत कर रहे हैं। अगर, लोग ऐसा समझते हैं तो समझें, हम किसी के घर कटोरी लेकर नहीं जाते सब्जी के लिये। एक ही कपड़ा से काम चला लेते हैं लेकिन, किसी के आगे अपना रोना नहीं रोते। लोग हमारी मजबूरी देखकर यदि तरस भी खायेंगे तो क्या, मदद के लिये तो नहीं आयेंगे, सब मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं। इन्हें लगता है कि, हम रोज आलू पराठा खाते हैं तो लगने दो। इन्हें लगता है कि हम सब बनठन कर सब एक साथ घूमने निकलते हैं तो लगने दो। यदि, वे हमारे बारे में गलत सोचकर खुश होते हैं तो होने दो। वो वैसे खुश हैं तो हम ऐसे खुश हैं।

**अंजली शर्मा**
बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ ).

अभिभावक और शिक्षण संस्थान की भूमिका।

कोविड 19: अभिभावक और शिक्षण संस्थान की भूमिका

आकांक्षा सिंह “अनुभा

क्या कभी किसी ने सोचा था कि वक्त का पहिया इतना लंबा रुकेगा? शायद ही किसी ने ऐसा सोचा होगा। वक्त का पहिया ऐसा रुका कि व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक जैसी गतिविधियों पर ताला लग गया।

‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’ अरस्तू का ये कथन गलत साबित होने की कगार पर आ गया। समाज शास्त्र की जैसे परिभाषा ही बदल गयी। ये सब कुछ आखिर सम्भव हो गया, विश्वव्यापी महामारी

कोविड19 के फैलने से।

कोविड 19 महामारी एक ऐसी महामारी है जिसने व्यक्ति का जीवन अस्त व्यस्त कर दिया। लेकिन वो कहते हैं ना कि किसी चीज़ का अंत ही आरम्भ बन जाता है। ठीक इसी प्रकार कोविड 19 महामारी के आने से हर गतिविधि एक नए रूप में सामने आई। जीवन जीने का नज़रिया ही बदल गया। इसी कड़ी में शिक्षा जैसी जरूरी आवश्यकता का भी स्वरूप बदल गया। नई पीढ़ी को परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार बनाने हेतु शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है।

लेकिन शिक्षा का स्वरूप इस भयंकर कोविड19 की महामारी काल में पूरा का पूरा बदल गया। महामारी ने विद्यार्थियों की पूरी दिनचर्या ही बदल कर रख दी। बेशक बच्चों के माता पिता पहले गुरु होते हैं। लेकिन विद्यालय में गुरु मंदिर के ऐसे पुष्प होते हैं जो भिन्न भिन्न प्रकार की अपनी महक के ज्ञान से बच्चों के मन मस्तिष्क में नित नई ऊर्जा भरते हैं।
शिक्षक ऐसे ईश्वरीय स्वरूप होते हैं, जो बच्चों में मानसिक, सामाजिक विकास की ऊर्जा भरते हैं। एक बच्चा जब छुटपन से विद्यालय जैसे मंदिर में कदम रखता है तब ईश्वर स्वरूप शिक्षक बच्चों की हर समस्या का समाधान करते हैं। शिक्षक बच्चों को मन , कर्म, वचन से जीवन की सभी प्रकार की चुनौतियों से डटकर सामना करने के लिए सशक्त बनाते हैं। बच्चों का एक लंबा वक्त शिक्षा के मंदिर में ही बीतता है। जिससे छोटे से बड़े कक्षा के हर स्तर के विद्यार्थियों को ईश्वर स्वरूप शिक्षक ही सँवारता है।
लेकिन वर्तमान समय में कोविड 19 की महामारी के समय में अभिभावक और शैक्षणिक संस्थानों में कुछ ऐसे मतभेद उभर कर समाज में सामने आए जो शिक्षक की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लगा चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि शिक्षा के मंदिर की शोभा विद्यार्थियों से है परन्तु बिना शिक्षक के शिक्षा का मंदिर अपंग कहलायेगा। विद्यार्थी और शिक्षक दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। विद्यार्थी बिना विद्यालय व्यर्थ और शिक्षक बिना शिक्षा व्यर्थ।
कोविड 19 महामारी के दौर में जब व्यक्ति का व्यक्ति से सम्पर्क बंद है तो प्रश्न ये उठा आखिर शिक्षा के स्वरूप का संचालन कैसे हो? बड़े स्तर पर समाधान निकला। डिजिटलाइजेशन के युग मे शिक्षा के संचालन का स्वरूप ही बदला गया, अपनाया भी गया।
एक लंबे वक्त बाद शिक्षा के संचालन स्वरूप का ढाँचा पूरी तरह बदल गया। हर वर्ग की पहुँच तक शिक्षा को संभव बनाया गया। जिसका पूरा श्रेय शिक्षक को ही जाता है। इसमें कोई संशय ही नहीं है। खुद से प्रश्न करें कि क्या शिक्षक के बिना ये सम्भव हो पाता ?

डिजिटलाइजेशन

डिजिटलाइजेशन के इस युग में हर वर्ग के शिक्षक ने बखूबी सीखते हुए खुद को हर सम्भव ढालते हुए शिक्षा के प्रसार में कोई कमी नहीं छोड़ी। लेकिन वो कहते हैं ना कि सकारात्मकता के साथ नकारात्मकता भी साथ साथ चलती है। कोविड 19 महामारी के दौर में शिक्षा का स्वरूप तो बदल गया लेकिन समस्याएं भी सामने आईं। वो ये कि बच्चों की क्लास ऑनलाइन चल रही है, बच्चा विद्यालय नहीं जा रहा तो फ़ीस क्यों दें ?
प्रश्न वाज़िब भी है। लेकिन अभिभावक एक प्रश्न खुद से करें कि जब बच्चा जिस कक्षा में पंजीकृत होता है तो क्या उसके बगैर उनका कार्य चल पाएगा ? अभिभावक अपनी स्वेच्छा से अपने बच्चे का विद्यालय में पंजीकरण कराते हैं। शिक्षण संस्थान योजनानुसार शिक्षा को डिजिटली शिक्षकों द्वारा प्रसार करवाते हैं। बच्चों की शिक्षा और साल खराब न हो इसलिए हर संभव प्रयास शैक्षणिक संस्थान अपने स्तर से करवाते हैं। फिर चाहे बच्चा किसी भी वर्ग का हो। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली हर वर्ग के लिए संभव कराई जाती है। फिर फीस ना देने का प्रश्न आखिर क्यों ? हाँ प्रश्न ये उठना वाज़िब है कि मनमुताबिक फीस वसूली आखिर क्यों ? यदि मन मुताबिक फीस प्राईवेट शिक्षण संस्थान ले रहें हैं तो हर वर्ग के अभिभावक को ये अधिकार है कि उसके खिलाफ आवाज़ उठाये।
अभिभावक के पास कई विकल्प मौजूद है कि वो अपने बच्चों को ऐसे मनमानी फीस वसूलने वाले शिक्षण संस्थान से अपने बच्चे को पृथक कर दें। लेकिन यदि अभिभावक बच्चों को विद्यालय स्तर पर शिक्षा का लाभ प्राप्त करा रहें हैं तो फीस देना आपका कर्त्तव्य बन जाता है।
 
कहते हैं वक़्त के साथ बदलना चाहिए। कोविड 19 महामारी में शिक्षा का स्वरूप पूरी तरह बदल गया है और ये बदलाव विद्यार्थियों के भावी भविष्य के लिए उत्तम है।
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आकांक्षा सिंह “अनुभा”
रायबरेली, उत्तरप्रदेश।

श्रीरामचरितमानस की चौपाई का अर्थ
गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस एक विश्व प्रसिद्ध प्रबंध काव्य है ,जिसमें श्री राम, श्री लक्ष्मण ,श्री भरत जी ,श्री दशरथ जी आदि के पुरुष चरित्र के साथ ही साथ माता कौशल्या ,सीता, सुमित्रा आदि महिला पात्रों के चरित्र का जीवन्त चित्रण किया गया है । श्रीरामचरितमानस की चौपाई का अर्थ उधर विपक्ष के रावन ,खर -दूषण, मेघनाथ आदि पुरुष पात्रों के साथ शूर्पणखा ,मंदोदरी  जैसी नारी पात्रों की भी योजना की गई है ।इन्हीं पात्रों के मध्य महाराज दशरथ की रानी कैकयी का भी चरित्र प्रदर्शित किया गया है ।वह अपनी दासी मंथरा के कहने से दो वरदान मांगती है- प्रथम में राम के राज्याभिषेक के स्थान पर अपने पुत्र भरत का राज्याभिषेक  चाहती है। दूसरे वरदान में वह राम को 14 वर्ष का वनवास मांगती है ।वह राम को राजकुमार अथवा राजाराम से उठाकर उन्हें भगवान राम बना देती है ।

            राम के वनवास के पीछे के  अनेक कारण हैं ।

एक तो यह कि कैकेयी अपने चारों पुत्रों में से राम को ही एक ऐसे समर्थ  पुत्र के रूप में देखती है जो उसके समस्त शत्रुओं का नाश कर सकता है और उसकी बानगी उसे विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा तथा धनुष यज्ञ की शिव धनुष भंग के रूप में मिल चुकी थी ।

  जैसा कि प्रमाण मिलता है कि कैकेयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध भूमि में उनके रथ  संचालन हेतु जाया करती थी ।एक बार वह रावण से युद्ध के समय महाराज दशरथ का रथ हाँक  रही थी ।उस समय उनकी हार हो जाने से रावण ने उनका उपहास करते हुए कहा कि रघुवंशी में इतना साहस नहीं है कि वह मेरे जैसे महान योद्धा का सामना कर सके।
         यह बात माता कैकई को बहुत चुभ गई और उसने  वही रावण को जवाब दिया था कि रघुवन्शियो के द्वारा ही तुम्हारे वंश का नाश होगा। अपने इसी वचन को पूरा करने के लिए कैकई ने राम को 14 वर्षों का वनवास मांगा था ।वनवास का वरदान मांगने के समय उसका पुत्र भरत अयोध्या में नहीं था ।यही उपयुक्त अवसर था जब वह राम का वनवास मान सकती थी। वनवास के वर माँगने के  बाद अयोध्या वासियों ने, राह के लोगों ने उसके इस कार्य की भर्त्सना की लेकिन कैकई अपने निर्णय पर अटल रही ।हालांकि उसके इस निर्णय के कारण राजा दशरथ को प्राण गंवाने पड़े ।यह तो होना ही था क्योंकि उन्हें श्रवण कुमार के अंधे माता पिता का श्राप था ।  राजा दशरथ ने इस वनवास के कारण पत्नी कैकेयी का परित्याग कर दिया और मृत्यु को प्राप्त हो गए।
           ननिहाल से लौटे भरत ने भी उसकी कम निंदा नहीं की ।उन्होंने भी माता कैकई का परित्याग किया, जिसकी निंदा भगवान राम ने भरत से ही की ।भगवान  राम अपनी माता कैकई को अन्य दोनों माताओं से अधिक चाहते थे। माता कैकेई भी चारों पुत्रों में से राम को अधिक चाहती थी जिसका प्रमाण दशरथ जी स्वयं देते हुए कहते हैं कि तुमने हमेशा राम की सराहना की है ।आज क्या हो गया है जो कि राम के प्रति ऐसी निष्ठुर हो गई हो ।
     कैकेयी तो जानती थी कि मैं राम को उनके कर्तव्य को पूरा करने में उनका साथ दे रही हूं अन्यथा उनका जन्म लेना ही व्यर्थ हो जाता है। राजकुमार से राजाराम ही हो पाते। उसने वनवास देकर उन्हें संपूर्ण सत्य से अवगत कराया ।सभी प्रकार के मानव से मिलाया ।यहाँ तक महाराज सुग्रीव, नल ,नील ,अंगद तथा हनुमान से मिलाया और उत्तर से लेकर दक्षिण तक के संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधने का कार्य कराया ।
         माता कैकई रावण की सौंदर्य प्रियता को भी जानती थी। उसे यह भी पता था कि उपवन में सीता को किसी पक्षी के द्वारा कहा गया था कि इसे रावण चुराकर लंका ले जाएगा। किसी बहाने रावण वन से सीता का  अपहरण करेगा तब राम और उनकी वानरी सेना द्वारा रावण के वंश का समूल नाश किया जाएगा ।
        एक किवदंती और भी है कि राजा दशरथ का मूल मुकुट जो उन्हें वंश परंपरा से प्राप्त हुआ था। बाली ने उसे हराकर प्राप्त कर लिया था। उस मुकुट को भी अयोध्या वापस लाने की क्षमता भी वह राम में ही देखती थी जैसा कि बाद में बाली वध के बाद हुआ भी ।
           इस प्रकार महारानी कैकई ने अपने एक ही वरदान के कारण महाराज दशरथ के पुत्र प्रेम ,भरत का राम के प्रति भ्रातृ प्रेम एवम् सेवक भाव , लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न के भ्रातृ प्रेम ,महारानी कौशल्या के धैर्य, उर्मिला  की प्रेम परीक्षा,और यही नहीं संपूर्ण अयोध्या के नर -नारियों के राम प्रेम को दर्शाने का अवसर प्रदान किया। राम को भी विभिन्न साधू सन्यासियों और संतों के दर्शन करने, उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया।जिस कारण से राम जन्म हुआ था अर्थात पृथ्वी का भार उतारने का कार्य करने का भी अवसर राम को माता कैकई के वरदान से ही प्राप्त हुआ ।राम को सब के प्रति समभाव दर्शाने का मौका भी वनवास के द्वारा ही प्राप्त हुआ।
           अहिल्या जैसी निरपराध नारी जो अपने ही पति से शापित हुई थी उसका उद्धार ,शबरी जैसी नारी का उद्धार ,ऋषि मुनियों की रक्षा का कार्यभार भी माता कैकई के कारण ही पूर्ण हुआ ।यही नहीं तमाम राक्षस योनियों में उत्पन्न ऋषि मुनियों का भी उद्धार राम के वन गमन से ही पूर्ण हुआ ।
        यही कारण था कि राम ने माता कैकई को कहीं भी अपमानित नहीं होने दिया ।उनकी दृष्टि में मां कैकयी  अन्य दोनों माताओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ थी ।उसका प्रमाण उन्होंने वन से वापस आने पर दिया ।

“प्रभु जाना कैकई लजानी,

प्रथम तासु गृह गये भवानी।”

           इस चौपाई से स्पष्ट हो जाता है कि  राम ने माता कैकई के सम्मान की सदैव रक्षा की और वह ऐसा क्यों न करते क्योंकि वह संपूर्ण पात्रों को अपने अपने चरित्रों को व्यक्त करने का शुभ अवसर प्रदान करने में सक्षम थी।
       अंत में समग्र विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार स्वर्ण को अपनी शुद्धता व्यक्त करने के लिए कसौटी पर कसा जाता है अथवा उसे तपा कर उसकी शुद्धता की जांच की जाती है ,उसी प्रकार रामचरितमानस के सभी पात्रों की शुद्धता की जांच महारानी कैकयी  की कसौटी पर खरा उतरने के बाद या उनकी अग्नि में तपने के बाद  ही हो पाती है।
      अतः उक्त माता कैकेयी को कोटिशः नमन -अभिनंदन एवं उनके आशीर्वाद की शुभेच्छा।
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rubi sharma