निराला की रिक्त तमन्नाओं का ग्रंथ : सरोजस्मृति

महाप्राण पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

(निराला की रिक्त तमन्नाओं का ग्रंथ : सरोजस्मृति)


निराला जी के पूर्वज उन्नाव जनपद के गढकोला ग्राम के रहने वाले थे, जो बैसवारा क्षेत्र में आता है। आपका जन्म पश्चिम बंगाल के महिषादल में 21 फरवरी 1896 ई0, वसंत पंचमी को हुआ था। बचपन का नाम सूरज कुमार था, बाद में उत्कृष्ट काव्यसृजन के कारण पूरा नाम ‘महाप्राण पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ हो गया था। बचपन में आपने बंगाली भाषा सीखी थी, तत्पश्चात आपका विवाह रायबरेली जनपद के डलमऊ निवासी पं0 रामदयाल की सपुत्री मनोरमा के साथ वैदिक बिधि-विधान के साथ संपन्न हुआ था। धर्मपत्नी मनोरमा के कहने पर आपने हिंदी भाषा का अध्ययन करके ही हिंदी में लेखन कार्य का श्रीगणेश किया। फिर संस्कृत और अंग्रेजी का अध्ययन किया। मनोरमा जी ने एक कन्या को जन्म दिया। बेटी को जन्म देने के बाद परलोकवासी हो गईं, तब निराला जी के जीवन में मानो वज्रपात हो गया हो।

छायावाद’ आधुनिक हिंदी कविता का स्वर्णिम युग माना जाता है।

पं0 सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को महाप्राण, मतवाला, छयावाद का कबीर, मस्तमौला, विद्रोही कवि आदि नामों की संज्ञा दी गयी है। छायावाद के सभी तत्व निराला के काव्य में विद्यमान हैं। इनका जीवन सदैव शूलों से भरा था फिर भी गरीब, असहायों एवं महिलाओं के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे। निराला ने अपनी रचनाओं में स्त्री को माता, पुत्री, पत्नी, आराध्या, देवि, साध्वी आदि रूपों में चित्रित किया है। आपने अपनी कविता में अत्यंत मार्मिक शब्दों में पत्नी ‘मनोरमा’ को स्मरण करते हुए लिखा है-

वह कली सदा को चली गयी दुनियां से,
वह सौरभ से पूरित आज दिगन्त।

ऐसा ही शोक संवेदनाओं से परिपूर्ण अश्रुपूरित काव्य ‘सरोजस्मृति’ है। सरोजस्मृति को हिंदी जगत का सर्वश्रेष्ठ ‘शोकगीत’ कहा जाता है। निराला ने अपनी पुत्री का विवाह शिव शेखर द्विवेदी से कर दिया था। अठारह वर्ष पूर्ण करके बेटी ने उन्नीसवें वर्ष में कदम रखा ही था कि चेचक और तपेदिक रोग हो जाने के कारण बीमार हो गयी। दुर्भाग्यवश विवाहिता पुत्री सरोज की मृत्यु 19वें वर्ष में सन 1935 में राणा बेनीमाधव सिंह जिला चिकित्सालय, रायबरेली में हो गयी थी। सुमित्रानंदन पंत जैसे वरिष्ठ साहित्यकार बेटी को देखने आए थे। निराला जी यह मानते हैं कि पुत्री की उम्र श्री मद्भागवत गीता के अठारह अध्याय के समकक्ष हैं, जो सरोज पूर्ण कर चुकी है। सरोज का मरण जीवन के शाश्वत विराम की ओर जाने की यात्रा है। इस शोकगीत में भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज में उसके दायित्व, संपादकों के प्रति आक्रोश और अंतर्मन की पीड़ा दिखाई पड़ती है। कवि निराला ने श्रीमद्भागवत गीता में अटूट आस्था, श्रद्धा और विश्वास व्यक्त करते हुए लिखा है-

उन्नवीश पर जी प्रथम चरण,
तेरा यह जीवन सिंधु-तरण।
पूरे कर शुचितर सपर्याय,
जीवन के अष्टादशाध्याय।”

पुत्री सरोज की मृत्यु के तीन माह बाद सन 1935 में सरोजस्मृति कविता का सृजन और प्रकाशन हुआ। हिंदी साहित्य में ‘शोकगीत’ जैसी नई विधा की नींव डालना निराला जी के लिए किसी चुनौती से कम न था। पुत्री की असामयिक मृत्यु ने मानो कवि की अंतरात्मा को झकझोर दिया था, तब आपने साहस और गंभीरता के साथ शोकगीत की नींव डाली। निराला के व्यक्तित्व और सहित्यप्रेम को देखते हुए आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी ने कहा था- *”कविताओं के भीतर से जितना अथच अस्खलित व्यक्तित्व निराला जी का है, उतना न प्रसाद जी का है, न पंत जी का है। यह निराला जी की समुन्नत काव्य साधना का प्रमाण है।”*

‘सरोजस्मृति’ हिंदी का सबसे लंबा शोकगीत है।

अंग्रेजी साहित्य में तो शोकगीत सन 1750 ई0 से पूर्व भी लिखे जाते थे, परन्तु हिंदी साहित्य में शोकगीत की सर्जना सन 1935 ई0 में सृजित सरोजस्मृति से मानी जाती है। निराला जी सदैव अपनी सहानुभूति शोषित वर्ग के प्रति रखते थे, इसलिए अपना धन, कपड़े, कम्बल आदि प्रयागराज में दान कर दिया करते थे। आप अर्थहीन हो गए थे। अपनी पुत्री का लालन-पालन भी खुले मन से नहीं कर पा रहे थे, तब निराला जी की सासु माँ से यह दुःख देखा नहीं गया। निराला की सहमति से नन्हीं  सी परी सरोज को उसकी नानी डलमऊ लिवा लायी। वहीं पली बढ़ी। सरोज कभी कभी मोक्षदायिनी गंगा नदी के तट की रेत में खेला करती थी। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी ने इस यथार्थवादी दृश्टान्त को बहुत ही मार्मिक शब्दों में ‘सरोजस्मृति’ कविता में व्यक्त किया है-

कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद
बैठी नानी की स्नेह गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यो अपार।।

छायावादी युग में निराला जी की संवेदनाएँ

भारत में आदिकाल से स्त्री सभी रूपों में पूजनीय रही है और आज भी उसे देवी का स्थान दिया जाता है। छायावादी युग में निराला जी की संवेदनाएँ भी स्त्री के प्रति रही हैं। निराला जी परतंत्र भारत में भी भारतीय जन मानस को समाज की जिम्मेदारी का अहसास कराते हुए दहेजप्रथा का घोर विरोध करते हैं। भौतिकवादी युग में मनुष्य अपनी पुत्री के विवाह में दिखावा करने, पुत्री की खुशहाली और वर पक्ष की मांग पर अधिक से अधिक धन खर्च करता है। कभी-कभी तो खुद को श्रेष्ठ दिखाने के लिए जर-जमीन तक गिरवीं रख देता है या बेंच देता है। दहेज के लेन देन तथा अनावश्यक फिजूलखर्च निराला की दृष्टि में व्यर्थ है। निराला जी ने समाज को प्रेरणा देते हुए उपरोक्त तथ्यों को अपनी कविता सरोजस्मृति में मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है-

मेरी ऐसी, दहेज देकर,
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर।
बरात बुलाकर मिथ्या व्यय,
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु के महाप्राण निराला दार्शनिक हो गए थे। ‘सरोजस्मृति’ में करुणा की प्रधानता है। आपने सरोज की शैशवावस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था से लेकर मृत्यु तक के दुखद सफर का सजीव चित्रण क्रमशः लिपिबद्ध किया है। पुत्री वियोग को सहन करने की क्षमता निराला के अंदर न थी, फिर भी समाज और राष्ट्र के प्रति सचेत रहते हैं। निराला ने ‘शोषकों को डाल पर इतराता हुआ गुलाब कहा है, जिसकी सेवा करने वाले खाद-पानी रूपी गरीब शोषक जन हैं।’

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अंत में आंखों में आँसू लिए झिलमिलाते अक्षरों से पुत्री सरोज की मृत्यु का वर्णन चंद शब्दों में ही कर पाने का साहस कर पाए थे। मानो आपकी सहनशक्ति टूट गयी थी। महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी जी ने अपने हृदय पर पत्थर रखकर ‘सरोजस्मृति’ में लिखा है-

दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कहीं।
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण,
कर, करता मैं तेरा तर्पण।।

अशोक कुमार गौतम,
असि0 प्रोफेसर, चीफ प्रॉक्टर,
सरयू-भगवती कुंज
शिवा जी नगर, रायबरेली (उप्र)
9415951459

देखें अशोक कुमार गौतम का बधाई संदेश विश्व हिंदी दिवस 2021 पर

Navvrsh geet/मैं तो वह गुजरा जमाना ढूढ़ती हूं।

मैं तो वह गुजरा जमाना ढूढ़ती हूं।

(Navvrsh geet)


आ गया नववर्ष है लेकिन प्रिए,
मैं तो वह गुजरा जमाना ढूंढ़ती हूं।

तुलसी के चौरे पर मां का सर झुकाना,
और माटी का मुझे चंदन लगाना।

बुदबुदाते होंठ लेकिन स्वर नहीं,
मां का वह मंगल मनाना ढूंढ़ती हूं।

मखमली कुर्ते की जब उधड़ी सिलाई,
और पहनने की थी मैंने जिद मचाई।

सिल दिया था मां ने फिर टांका सितारा,
मैं तो वह कुर्ता पुराना ढूंढ़ती हूं।

कौन आया कौन आया ,कौन आया,
गूंजता था घर में देखो कौन आया।

आज तो दरवाजे बजती डोर वेल,
सांकलों का खटखटाना ढूंढ़ती हूं।

Navvrsh-geet-pushpa-shailee

श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव “शैली”
रायबरेली उत्तर प्रदेश।

new year hindi geet -डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज के गीत

  नव वर्ष 

(new year hindi geet )

 

 नव वर्ष तुम्हारा अभिनन्दन | 

 

 सद्कर्म करें सतपंथ  चलें 

आलोक दीप बन सदा जलें 

पथ पर नित नव निर्माण करें 

साहस से अभय प्रयाण करें 

हम करें राष्ट्र का आराधन 

नव वर्ष तुम्हारा अभिनन्दन | 

 

हम मातृ भूमि को प्यार करें 

जन- जन का हम सत्कार करें 

मानवता का हम गुण गायें 

विपदाओ मे हम मुस्कायें 

हम जियें सदा समरस जीवन 

नव वर्ष तुम्हारा अभिनन्दन |


२. नवल वर्ष शतबार बधाई 

नयी दिशा में प्रगति लक्ष्य पर,

शुचि मंगलमय शुभ जीवन हो ,

नवल  वर्ष   शतबार    बधाई ,

तेरा उज्जवलतम यौवन हो |

 

स्वस्थ  विचार बुद्धि में उपजें ,

और ह्रदय में मधुरिम रिश्ते,

छल प्रपंच के ढूह ढहे सब ,

स्वच्छ बने समता के रस्ते |

 

ऐसा मंत्र पढ़ो युग स्वर में,

सभी अपावन भी पावन हो ,

नवल वर्ष शतबार बधाई ,

तेरा उज्जवलतम यौवन हो |

 

बहे पवित्र आचरण धारा ,

धुले कलुष जीवन का सारा ,

भेदभाव मन का मिट जाये ,

तम पर अंकित हो उजियारा |

 

पग-पग पथ पर अनय मिटाता ,

गरिमा  आभामय  जीवन  हो ,

नवल  वर्ष शतबार   बधाई ,

तेरा उज्जवलतम यौवन हो |

 

नवल ज्योति बिखराते आओ ,

जीवन का तम  दूर    हटाओ ,

नव उमंग नव गति लय लाओ ,

नव  आभा  फैलाते  जाओ |

 

हो अवसाद तिरोहित मन का ,

आह्लादित रसमय जीवन हो ,

नवल  वर्ष शतबार   बधाई ,

तेरा उज्जवलतम यौवन हो |


 

baba kalpnesh ke geet- कलम मेरी गही माता/बाबा कल्पनेश

कलम मेरी गही माता 

(baba kalpnesh ke geet)

कलम मेरी गहो माता सदा उर नेह की दाता।

चले यह नित्य करुणा पथ यही मुझको सदा भाता।।

भरम यह तोड़ती जग का उठाए प्रेम का छाता।

जगाए राष्ट्र भारत को बढ़ाए आत्म का नाता।।

निबलता देश की टूटे बनें सब वीर व्रत धारी।

चलें सब साथ होकर के सजे यह राष्ट्र फुलवारी।।

महक आकाश तक फैले यशी हों साथ नर-नारी।

मनुजता मूल्य पाए निज हटे जो मोह भ्रम भारी।।

सभी का श्रम बने सार्थक सभी को मूल्य मिल पाए।

नहीं  हों दीन भारत में कलम यह गीत लिख गाए।।

सुने नित विश्व सारा ही सभी को गीत यह भाए।

भरत का देश जागा है समय शुभ लौट कर आए।।

पुरातन शौर्य वह जागे भरत जब शेर से खेला।

वही यह राष्ट्र प्यारा है बनाकर विश्व को चेला।।

भरा करता रहा सब में मनुज के भाव का रेला।

लगे संगम किनारे जो अभी भी देख लें  मेला।।

नहीं कोई करे ऐसा यहाँ निंदित पड़े होना।

जगत अपमान दे भारी मिला जो मान हो खोना।।

जगे फिर दीनता हिय में पड़े एकांत में रोना।

लुटेरे लूट लें सारा हमारी निधि खरा सोना।।

जगे यह राष्ट्र-राष्ट्री सब सभी सम्पन्नता  पाएं।

सभी जन राष्ट्र सेवा में श्रमिक सा गीत  रच गाएं।।

निकल निज देश के हित में स्वयं अवदान ले आएं।

सदा हर जीव का मंगल रचें कवि गीत-कविताएं।।


२. हे राम

(baba kalpnesh ke geet )


 

हे राम जैसे आप हैं, यह जग कहाँ-कब मानता।

निज कल्पना के रूप में, कल्पित तुम्हे  है तानता।।

व्यवहार कर कुछ और ही,प्रवचन करे कुछ और ही।

जो वेद का व्याख्यान है, इस जगत लागे बौर ही।।

यह वेद को पढ़ता भले,पर कामना रत नित्य ही।

निज मापनी आकार में, निज को कहे आदित्य ही।।

यह ज्ञान का भंडार है, उर में सदा ही ठानता।

हे राम जैसे आप हैं, यह जग कहाँ है मानता।।

सम्मान दे माता-पिता,आचरण वैसा अब नहीं।

दुत्कार दे बैठे रहो,आदर नही कोई कहीं।।

आदेश कैसे मानता,ज्ञानी हुआ हर पूत है।

हनुमान को लड्डू खिला,बनता स्वयं हरि दूत है।।

यह देखता टीवी भले,निज बाप कब पहचानता।

हे राम जैसे आप हैं, यह जग कहाँ है मानता।।

ओंकार अथवा राम ही,जपता भले कर माल ले।

आशय नहीं पर मानता,गुरुदेव वाणी भाल ले।।

चंदन भले माला भले,आजान का स्वर तान ले।

कर्तव्य अपना जान ले,जो शास्त्र सम्मति मान ले।।

गुरु वाग केवल बोलता, पर कुछ कहाँ  है जानता।

हे राम जैसे आप हैं, यह जग कहाँ-कब मानता।।


  ३.  साध्य


कविता हमारी साध्य हो,साधन करें जो आज हो।

साधन हमारी भावना,हमको उसी की लाज हो।।

संसार सारा निज सखे,आओ इसे हम प्यार दें।

बोले सभी यह संत हैं, जिसपर हमें अति नाज हो।।

सब कुछ यहाँ परमात्मा, कुछ भिन्न जानो है नहीं। 

बस एक ही यह ज्ञान है,इस ज्ञान से ही काज हो।।

जो मंत्र गुरुवर से मिला,उसको हृदय में धार लें।

तब धन्य जीवन धन्य हो, निज शीश पर जग ताज हो।।

जो योग है वह जान लें, निज आत्म को विस्तार दें।

पाकर जिसे हर आदमी, मेटे उसे जो खाज हो।।

यह जीव-जीवन क्यों मिला,यह प्रश्न उत्तर खोज लें।

इस जग चराचर क्या भरा,हम जान लें जो राज हो।।

आओ लिखें वह गीतिका, जिसमें सरित सी धार हो।

हिय की कलुषता सब बहे,ऐसा सरस अंदाज हो।।

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बाबा कल्पनेश

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My writing journey-मेरा लेखन का सफरनामा/अंजना छलोत्रे

मेरा लेखन का सफरनामा(My writing journey) 

My- writing- journey
अंजना छलोत्रे

बरसात का मौसम , उस पर रिमझिम फुहारे , जंगल से गुजरती मेरी प्राइवेट रोडवेज बस,  उबड़ खाबड़ रास्ते और बस का अपना ही खतरनाक शोर (My writing journey) इन सबके बावजूद बाहर का दृश्य लुभावना,  पेड़ों की हरी पत्तियों पर बूंदों का टपकना और जो सूर्य को अर्घ्य देते उस तरह बूंदों का फिसलना बड़ा भला लग रहा था , आपस में झूमते एक दूसरे को ठेलते,  पेड़ों की टहनियाँ मनो हंसी ठिठोली करते वर्षा का आनंद ले रही थी.

खिड़की से आती वर्षा की बौछार को  मैं अपने आंचल से रोकने का प्रयास कर रही थी,  कितना फर्क था मुझ में और उन वनस्पतियों में,  फिर सोचा उन्हें सर्दी जुखाम जो  नहीं होता……

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ठंडी हवा सिरहन पैदा करती जा रही थी  लेकिन बाहर का मनभावन दृश्य मन में अनेकों अनेक उपमायें  उगाने लगा और एक कविता ने जन्म लिया ….मेरे पास कागज नहीं था मैने रास्ते से खरीदी सरिता पत्रिका के  पीछे ही अपनी पहली मासूम कुछ पंक्तियाँ लिखी….. भावनाओं के साथ कागज कलम का रिश्ता शुरू……

बस में मेरे पीछे की सीट पर परिचित सखी के पतिदेव विराजमान थे , जिन्होंने घर जाकर मेरी सखी को बताया कि वह कुछ लिखती हैं , बस फिर क्या था सखी ने वह   पत्रिका मांगी और मेरी कविता यह जा वह जा  हो गई…. और वह मुझे वापस नहीं मिली , लेकिन उस कविता का गुमना,  मेरे अंदर  भावनाओं का अंकुरण  होना , एक साथ हुआ  और मैं लिखने के लिए कटिबद्ध होती चली गई….

उस समय लेखन को घरों में निकृष्ट कार्य समझा जाता था सो लिखने के लिए एकांत की तलाश होती और अपनी कॉपी छुपा कर रखनी पड़ती थी,  जाने कितने वर्षों हमारी कॉपी हमारी अंतरंग सखी रही…..

चोरी छुपे लिफाफा लाना , पोस्ट ऑफिस जाना,  टिकट लगा कर भेज देना,  किसी युद्ध से कम नहीं था . कई बार जो पत्रिकाएँ टिकट लगा लिफाफा भी मंगवाती थी तब तो हरदम वापस लौट आने का डर बना रहता था , उस पर ख़त उस समय आये जब घर में कोई न हो कि ईश्वर से प्रार्थना ….. हाय राम कितने अनोखे दिन थे…..।

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कई  रचना प्रकृति पर रची गई  फिर श्रृंगार रस और कुछ तो बाल रचनाएँ आई ,  वीर रस का पदार्पण हुआ इसके चलते कई वर्षों तक इन्हीं के बीच मेरी कलम घुमने लगी. कभी -कभी  ही लिख पाती , फिर  लगातार तीन वर्ष प्रतिदिन एक कविता, गीत  ग़ज़ल लिखती थी ….अब ये रचनाएँ 1200 हो गई हैं…

समसामयिक विषयों  पर लिखना शुरू हुआ

(my writing journey)

उस समय न्यूज़ पेपर में विषयों पर कालम के लिए  पाठकों से सामग्री मंगाई जाती थी,  हम  दैनिक भास्कर व अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं में भी  विषयों के अनुसार लेख भेजते रहें और लेख लिखने का सिलसिला वहीं से शुरू हुआ …समसामयिक विषयों  पर लिखना शुरू हुआ ,  खूब छपे, अस्विकृत भी खूब हुए…तो सम्मान भी पाया …पाठकों के पत्रों ने जहाँ सराहा वही कई नये विषय भी दिये…जिनसे हम रूबरू हुये…..

लघु कथा ने ही मुझे कहानी की छोटी दुनिया में प्रवेश कराया.  उस समय जुनून हुआ करता था कि  दोस्तों के साथ परिचित,  अपरिचित कहीं भी कोई  विषय मिला की लघुकथा का ताना-बाना बुनना शुरू …छोटी-छोटी घटनाएँ,  वार्ताएँ  हमें लघु कहानी लिखने की प्रेरणा  देती रही ,  वहीं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी हम छपते रहे और साथ ही रेडियो में रिकॉर्डिंग भी होती रही , काफी समय तक यह दौर चला,  जब संग्रह के लिए एकत्रित किया तो 97 लघुकथाएँ  निकली …जो बाद मैं सौ से ज्यादा हो गई ओर बुक प्रकाशित हो गई।

लघु कथा से निकलकर थोड़ी लंबी कहानियाँ लिखी  जाने लगी,  अब जब लिखने बैठी तो कहानी बढ़ती चली जाती,  समझ नहीं आता कि  यह छोटी कहानियाँ कैसे लिखती चली जा रही हैं और एक ही बैठक में पूरी करने की प्रबल इच्छा  रहती थी,  लगता था की छूट गई तो कल फिर आगे का नहीं सोच पाएंगे तो ……ऐसी कहानियां 250 हो गई.

अब मन छोटी कहानियों से उचटने  लगा ,  कहानियाँ विस्तार लेने लगी और छूटने पर आगे लिख पाने की क्षमता बढ़ने लगी,  कभी चार दिनों में तो कभी आठ से पन्दरह दिनों में, तो  कभी-कभी महीना,  दो महीने में कहानी पूरी होने लगी  अब धैर्य से सोचकर कहानी आगे बढ़ती रहती, लिखकर पढती  तो स्वयं आश्चर्य  होता , हर दिन की सोच अलग-अलग होती थी ..

अब मैंने व्यवसायिक व साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में भेजना शुरू कर दिया. स्विकृत  होने व छपने से हौसला बढ़ने लगा और कहानी दर कहानी लिखी जाने लगी….गृहशोभा,  सरिता,  मनोरमा  व साहित्यिक पत्रिकाओं में छपना अच्छा लगने लगा,  हौसला बढ़ा तो कहानियों ने रफ्तार पकड़ी …उस दौर में 300 कहानियाँ लिखी गई…

सन् 2006 से उपन्यास का जुनून आया

(My writing journey) 

सन् 2006 से उपन्यास का जुनून आया , यह ऐसी महिलाओं पर केंद्रित कहानी हैं जिसमें वे अपने जीवन संघर्ष को बखूबी जीते हुए आगे बढ़ती हैं और अपने होने को प्रमाणित कर रही हैं . जब – जब लिखने का समय मिला,  लिखती गई.  जैसे – जैसे उपन्यास लंबा हुआ,  हर बार शुरू से पढ़ने की प्रक्रिया में कई बार आगे लिखने का कुछ सुझता ही नहीं था.. अभी भी कभी-कभी लिख लिया जाता है …

2010 से समीक्षा का क्षेत्र संभाला इससे दो फायदे  हुए,  पढ़ना तो होता ही था , साथ ही रचना का मूल तत्व समझ आने लगा. कहानियों की किताबों के साथ- साथ. समरलोक पत्रिका जो मेहरून्निसा परवेज भोपाल से निकालती हैं उसकी समीक्षा करने लगी,  जो लगातार जारी है ..जिससे मेरी लेखनी की पकड़ और मजबूत हुई…..

पत्रिका न्यूज़ पेपर से साक्षात्कार के लिए मुझसे कहा गया

(My writing journey) 

इसी बीच पत्रिका न्यूज़ पेपर से साक्षात्कार के लिए मुझसे कहा गया और मैंने साक्षात्कार करने के लिए चुन्नीदा साहित्यकारों की सूची बनाकर,  प्रश्नावली बना ली,  रोचक जानकारियों के साथ मेरे लिए हुए साक्षात्कार  रविवार को जयपुर से छपने लगे.  यह नया विषय,  उस पर वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलना , उनके अनुभव जानना और उनके साहित्य सफर से परिचित होना , मेरे लिए रोमांच से कम नहीं था . बहुत सी ऐसी बातें भी पता चली जिसे मैं साक्षात्कार में नहीं दे  सकती थी… मेरे साथ उनकी बाटी हुई अत्यंत  गोपनीय  बातें हुआ करती , एक अलग व्यक्तित्व ,  अलग अनुभव, उनका  सानिध्य  मिलना वाकई अदभूत संसार में विचर रही थी मैं …..

 हमारे पूज्य आदरणीय कवि हुकुम पाल सिंह विकल जी ने मेरी रचनाओं की टोह ली और संग्रह छपवाने पर जोर दिया ……प्रकाशित पुस्तकें…


(1) .मैं अकेली नहीं (कहानी संग्रह  2001),

प्रकाशन…आस्था प्रकाशन41/4सी, साकेत नगर, भोपाल (म.प्र.)

( 2)  फ़रिश्ता (कहानी संग्रह 2006), आशीष प्रकाशन, बालाघाट (म.प्र.)

(3)…शब्द श्रृंगार (कविता संग्रह 2007),

(4) अटल संयोग ( कविता  संग्रह 2008),

(5)   अभिशप्त देव (कहानी संग्रह 2008), प्रकाशक, पेंगुइन प्रकाशन दिल्ली।

(6) लक्ष्मी बाई के ग्वालियर में अन्तिम अठारह दिन (शोधपरक बुक 2010),

( 7) पनाह (कहानी संग्रह 2016), published by WISHWELL , New Delhi ..

(8)  ऊँची उड़ान ( लघुकथा संग्रह 2017 ),आरती प्रकाशन, साहित्य सदन, जड़ सैक्टर, इन्द्रानगर, लालकुआ,नैनीताल(उत्तराखंड)..

(9)  मन का भगड़ा (कविता संग्रह 2018),प्रकाशक साहित्यभूमि, एन-3/5ए, मोहन गार्डन, नई दिल्ली.

(10) लोकतन्त्र की सार्थकता, पंचायती राज और कामकाजी महिलाएँ ( लघुशोध लेख 2019) प्रकाशक साहित्यभूमि, एन-3/ 5 ए, मोहन गार्डन, नई दिल्ली..

(11) भारतीय इतिहास की महान वीरांगनाएँ (एतिहासिक लेख 2020)

(12) 2021 में  ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित होगा।

 उपन्यास “आसमान बुनती औरतें” पर भी काम चल रहा है…..

मैं भाग्यशाली रही कि मेरी कभी आलोचना नहीं हो पाई क्योंकि पहले ही खूब सारा लिखकर रख लिया,  फिर छपी शायद इसलिए….

मेरे लिए सब से प्रमुख खूब  पढ़ना मेरी रुचि है जिसे मैं अपने भोजन की तरह रोजाना लेती हूँ…..

                                अंजना छलोत्रे

                 जी- 48, फॉरच्यून ग्लोरी

        ई-8, एक्सटेंशन बाबडिया कला

               भोपाल (म. प्र.) 462039

कल दीवाली होगी-बाबा कल्पनेश

ताटंक छंद


 

कल दीवाली होगी

कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा,
यह प्रकाश का पर्व युगों से, गीत लिखूँगा-गाऊँगा।

गुड़िया बोल रही है अम्मा, मुझको गणपति ला देना,
रग्घूमल की उस दुकान से,गुड्डा सुंदर सा लेना।
दीवाली के लिए रँगोली,मुझको सुखद बनाना है,
भाँति-भाँति के रंग बहुत से,भरकर उसे सजाना है।
खेत-बाग-मंदिर पर दीपक, लेश द्वार आ जाऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा।

सजी हुई हैं बहुत दुकानें, लाई-खील-बतासे हैं,
बोलो नन्हे क्या-क्या लेना,बाबू जी के झाँसे हैं।
गुड़िया हुई रुआंसी लखकर,दिल मेरा घबड़ाता है,
धिक्कार कलम लिख देती मुझको,खुलकर रोना आता है।
खुशियों का त्योहार सोचता,खुशियाँ मैं भी पाऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जाऊँगा।

पारस के सूरज जी आए,जाने क्या-क्या लाए हैं,
बच्चे टोले भर के दौड़े,सब का मन ललचाए हैं।
गुड़िया आकर घर में मेरी,गिन-गिन नाम बताए है,
मुझको भी ये लेना कह कर,हाथ-शीश मटकाए है।
सुनकर हँसते-हँसते बोला,मैं भी तुझको लाऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा।

धरा धाम पर नभ उतरेगा,तारे धरती आएँगे,
चंदा मामा शीश झुका कर, और कहीं छिप जाएँगे।
हर-घर-आँगन-नगर-गाँव में, खुशी पटाखे फूटेंगे,
चिंताओं के परकोटे तो,तड़-तड़ तड़-तड़ टूटेंगे।
खुशियों में आकंठ डूब कर,नाचूँगा मैं धाऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा।

घर का दीपक अम्मा लेशें,परम्परा की थाती है,
तुलसी के चौरे पर दीपक, यह दैनिक सँझबाती है।
बाद इसी के भइया-भौजी,सब जन दीप जलाना जी,
गणपति-लक्ष्मी-सरस्वती को,फिर घर में बैठाना जी।
जितनी होंगी तिमिर दिवारें,सब को तोड़ गिराऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा।

बाबा कल्पनेश

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बचपन गीत
bachapan geet
दुर्गा शंकर वर्मा “दुर्गेश”

बचपन गीत

बचपन के वे प्यारे दिन,
छप-छप पानी वाले दिन।
 
धमा चौकड़ी उछल कूद के,
धूम मचाने वाले दिन।
 
छप-छप पानी वाले दिन।
कागज़ की एक नाव बनाना,
पानी में उसको तैराना।
चींटों को फिर पकड़-पकड़ कर,
नाव के अंदर उन्हें बैठाना।
बहती नाव के पीछे-पीछे,
दौड़ लगाने वाले दिन।
छप-छप पानी वाले दिन।
 
चार बजे स्कूल से आना,
ताल,तलैया खूब नहाना।
 
बाबा जी को पता चले जब,
हाथ में डंडा लेकर आना।
 
आमों के पेड़ों पर चढ़कर,
आम तोड़ने वाले दिन।
 
छप-छप पानी वाले दिन।
बर्फ बेचने वाला आता,
भोंपू को वह तेज बजाता।
भोंपू की आवाज को सुनकर,
उसके पास दौड़कर जाता।
दादी से पैसे लेकर के,
बर्फ चूसने वाले दिन।
छप-छप पानी वाले दिन।
 
साबुन का वह घोल बनाना,
गुब्बारे सा उसे फुलाना।
 
फूंक मारकर  उसे उड़ाना,
दोनों हाथों से पिचकाना।
 
अजिया के संग रात लेटकर,
आसमान के तारे गिन।
छप-छप पानी वाले दिन।
—————————
गीतकार-दुर्गा शंकर वर्मा “दुर्गेश” रायबरेली।
 

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कुटिल चिकित्सक काला अन्तस- डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज

डॉ.  रसिक किशोर नीरज की कविता-” कुटिल चिकित्सक काला अन्तस” वर्तमान प्रकृति की महामारी से ग्रसित सामान्य, निर्धन परिवार जो अपनी बीमारी का इलाज धनाभाव में नहीं करा पाते तथा अस्पतालों और अच्छे चिकित्सकों का मनमानी शुल्क ना दे पाने के कारण जीवन रक्षा की भीख मांग रहे हैं इस कड़वे सत्य को उजागर करती है यह रचना:-

कुटिल चिकित्सक काला अन्तस

कतिपय रोग  ग्रस्त  होकर

सन्निकट मृत्यु के खड़े हुये

क्या  कोई  अवशेष   रहा

रोगों   से बिन  लड़े  हुये।

 

कल्पना नहीं थी अस्पताल में

आने    के   दिन   देखे     जो

भोग -भोगते   जन्म- जन्म के

ब्रह्मा   के  हैं    लेखे      जो।

 

थीं    भविष्य की  अभिलाषायें

खंडित       होता  मन  ही   मन

कुटिल चिकित्सक काला अन्तस

चेहरे      दिखते   सुंदर    तन।

 

सुंदरता  भावों  में   लेकिन

नहीं    क्रियाओं  में   देखी

निर्धन  की सेवा  है  उनको

नहीं  कभी   भाती    देखी।

 

क्षमता  हो न,  किंन्तु वह लेते

हैं  मनमानी   शुल्क   परीक्षा

रोगी  हो  असहाय  यहाँ   पर

माँगे  नव-जीवन की   भिक्षा।

 डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज की दूसरी कविता “कुछ मीठे स्वर की मृदु  ध्वनियाँ” प्रस्तुत है-

कुछ मीठे स्वर की  मृदु ध्वनियाँ

खोये  थे क्षण-क्षण जो मेरे

तेरी विरह व्यथा  यादों   में

लिख न सका वैसा जैसा था

देखा सपनों  के, वादों   में।

 

सभी विवादों  को माना   मैं

लेकिन  मौन नहीं सुख पाया

रहा   साध्य साधक तेरा   मैं

तेरी  ही  सुस्मृति  की काया।

 

बिल्कुल ही मैं  अपरिछिन्न  हूँ

  भिन्न- भिन्न    आशाएँ     मेरी

रूद्ध  पथिक  स्वागत  हित  तेरे

ही,  भावों   की  माला     मेरी ।

 

कुछ मीठे  स्वर की मृदु ध्वनियाँ

 अधरों   तक  आकर  रुक  जातीं

उच्छृंखल   मन की  अभिलाषा

 ‘नीरज’ मन  में कुछ  कह  जातीं।

kutil-chikitsak-kaala-antas
डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज

 
 

प्यार का गीत – बाबा कल्पनेश

प्यार का गीत – बाबा कल्पनेश
प्यार का गीत
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत,
जिसमें हार हुई हो मेरी और तुम्हारी जीत।
कई जन्म बीते हैं हमको करते-करते प्यार,
तन-मन छोड़े-पहने हमने आया नहीं उतार।
छूट न पाया बचपन लेकिन चढ़ने लगा खुमार,
कितने कंटक आए मग में अवरोधों के ज्वार।
हम दोनों का प्यार भला कब बनता अहो अतीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
तुम आयी जब उस दिन सम्मुख फँसे नयन के डार,
छिप कर खेले खेल हुआ पर भारी हाहाकार।
कोई खेल देख पुरवासी लेते नहीं डकार,
खुले मंच से नीचे भू पर देते तुरत उतार।
करने वाले प्यार भला कब होते हैं भयभीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
नदी भला कब टिक पायी है ऊँचे पर्वत शृंग,
और कली को देखे गुप-चुप रह पाता कब भृंग।
नयनों की भाषा कब कोई पढ़ पाता है अन्य,
पाठ प्यार का पढ़ते-पढ़ते जीवन होता धन्य।
जल बिन नदी नदी बिन मछली जीवन जाए रीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
कभी मेनका बन तुम आयी विश्व गया तब हार,
हुई शकुंतला खो सरिता तट लाए दिए पवार।
कण्वाश्रम पर आया देखा सिर पर चढ़ा बुखार,
भरत सिंह से खेल खेलता वह किसका उद्गार।
वही भरत इस भारत भू पर हम दोनों की प्रीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
श्रृद्धा मनु से शुरू कहानी फैली मानव वेलि,
अब भी तो यह चलता पथ पर करता सुख मय केलि।
इसे काम भौतिक जन कहते हरि चरणों में भक्ति,
आशय भले भिन्न हम कह लें दोनो ही अनुरक्ति।
कभी नहीं थमने वाली यह सत्य सनातन नीत,
मैं भी चाह रहा था लिखना वही प्यार का गीत।
बाबा कल्पनेश

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar

Dr rasik kishore singh neeraj ka rachna sansar
डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ की इलाहाबाद से वर्ष 2003 में प्रकाशित पुस्तक ‘अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संकलन में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गीत कारों ,साहित्यकारों ने उनके साहित्य पर अपनी सम्मति प्रकट करते हुए कुछ इस प्रकार लिखे हैं

भूमिका

कविता अंतस की वह प्रतिध्वनि है जो शब्द बनकर हृदय से निकलती है। कविता वह उच्छ् वास है जो शब्दों को स्वयं यति- गति देता हुआ उनमें हृदय के भावों को भरना चाहता है क्योंकि कविता उच्छ् वास है और उच्छ् वास स्वर का ही पूर्णरूप है, अतः यदि स्वर की कुछ अभिलाषाएँ हैं तो वे एक प्रकार से हृदय की अभिलाषाएँ ही हैं जो काव्य का रूप लेकर विस्तृत हुई हैं ।’अभिलाषायें स्वर की’ काव्य संग्रह एक ऐसा ही संग्रह है इसमें कवि डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘नीरज’ ने अपनी अभिलाषाओं के पहले स्वर दिए फिर शब्द।

 

कवि डॉ. रसिक किशोर ‘नीरज‘ ने इस संग्रह में कविता के विभिन्न रूप प्रस्तुत किए हैं। उदाहरणतया उन्होंने अतुकांत में भी कुछ कवितायें लिखी हैं एक प्रश्न तथा अस्मिता कविता इसी शैली की कविताएं हैं तथा पवन बिना क्षण एक नहीं….. वह तस्वीर जरूरी है…… किसी अजाने स्वप्नलोक में…… अनहद के रव भर जाता है…. पत्र तुम्हारा मुझे मिला….. खिलता हो अंतर्मन जिससे….
विश्व की सुंदर सुकृति पर….. मित्रता का मधुर गान……. चढ़ाने की कोशिश……. चूमते श्रृंगार को नयन…… बनाम घंटियां बजती रही बहुत…… जो भी कांटो में हंसते ……..जिंदगी थी पास दूर समझते ही रह गये…….. गीत लिखता और गाता ही रहा हूं……. श्रेष्ठ गीत हैं इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर की प्रति ध्वनियों को शब्द दिए हैं
डॉ. कुंंअर बैचेन गाज़ियाबाद
2. कविता के प्रति नीरज का अनुराग बचपन से ही रहा है बड़े होने पर इसी काव्य प्रेम ने उन्हें सक्रिय सृजनात्मक कर्म में प्रवृत्त कियाl यौवनोमष के साथ प्रणयानुभूति उनके जीवन में शिद्त से उभरी और कविता धारा से समस्वरित भी हुई ।वह अनेक मरुस्थलों से होकर गुजरी किन्तु तिरोहित नहीं हुई। संघर्षों से जूझते हुए भावुक मन के लिए कविता ही जीवन का प्रमुख सम्बल सिद्ध हुई
डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया

इस प्रकार रायबरेली के ही सुप्रसिद्ध गीतकार पंडित बालकृष्ण मिश्र ने तथा डॉ. गिरजा शंकर त्रिवेदी संपादक नवगीत हिंदी मुंबई ने और डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी बरेली आदि ने अपनी शुभकामनाएं देते हुए डॉ. नीरज के गीतों की प्रशंसा की है

(1). पारब्रह्म परमेश्वर

पारब्रह्म परमेश्वर तेरी
जग में सारी माया है।
सभी प्राणियों का तू
नवसृजन सृष्टि करता
तेरी ही तूलिका से
नव रूप रंग भरता।
कुछ रखते सत् विचार
कुछ होते अत्याचारी
तरह तरह के लोग यहाँँ
आते, रहते बारी-बारी ।
जग के रंगमंच में थोड़ा
अभिनय सबका आया है।
कहीं किसी का भेद
खेद हो जाता मन में
नहीं किसी की प्रगति
कभी देखी जन-जन में ।
सदा सदा से द्वेष
पनपता क्यों जीवन में
माया के चक्कर में
मतवाले यौवन में।
‘नीरज’ रहती नहीं एक सी
कहीं धूप व छाया है।।

(2).राम हमारे ब्रह्म रूप हैंं

राम हमारे ब्रह्म रूप हैं ,राम हमारे दर्शन हैं ।
जीवन के हर क्षण में उनके, दर्शन ही आकर्षण हैं ।।
हुलसी सुत तुलसी ने उनका
दर्शन अद्भुत जब पाया ।
हुआ निनाँदित स्वर तुलसी का
‘रामचरितमानस’ गाया।।
वैदिक संस्कृति अनुरंजित हो
पुनः लोक में मुखर हुई ।
अवधपुरी की भाषा अवधी
भी शुचि स्वर में निखर गई।।
कोटि-कोटि मानव जीवन में, मानस मधु का वर्षण है ।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं राम, हमारे दर्शन हैं।।
ब्रह्म- रूप का रूपक सुंदर ,
राम निरंजन अखिलेश्वर ।
अन्यायी के वही विनाशक,
दीन दलित के परमेश्वर ।।
सभी गुणों के आगर सागर ,
नवधा भक्ति दिवाकर हैं।
मन मंदिर में भाव मनोहर
निशि में वही निशाकर है।
नीरज के मानस में प्रतिपल, राम विराट विलक्षण हैंं।
राम हमारे ब्रह्म रूप हैं , राम हमारे दर्शन हैं।

(3).शब्द स्वरों की अभिलाषायें

रात और दिन कैसे कटते
अब तो कुछ भी कहा ना जाये
उमड़ घुमड़ रह जाती पीड़ा
बरस न पाती सहा न जाये।
रह-रहकर सुधियाँ हैं आतीं
अन्तस मन विह्वल कर जातीं
संज्ञाहीन बनातीं पल भर
और शून्य से टकरा जातीं।
शब्द स्वरों की अभिलाषायें
अधरों तक ना कभी आ पायें
भावों की आवेशित ध्वनियाँ
‘ नीरज’ मन में ही रह जायें।

(4). समर्पण से हमारी चेतना

नई संवेदना ही तो
ह्रदय में भाव भरती है
नई संवेग की गति विधि
नई धारा में बहती है ।
कदाचित मैं कहूँँ तो क्या कि
वाणी मौन रहती है
बिखरते शब्द क्रम को अर्थ
धागों में पिरोती है ।
नई हर रश्मि अंतस की
नई आभा संजोती है
बदल हर रंग में जलती
सतत नव ज्योति देती है।
अगर दीपक नहीं जलते
बुझी सी शाम लगती है
मगर हर रात की घड़ियाँ
तुम्हारे नाम होती हैं।
नया आलोक ले ‘नीरज’
सरोवर मध्य खिलता है
समर्पण से हमारी चेतना
को ज्ञान मिलता है ।

(5).नाम दाम के वे नेता हैं

कहलाते थे जन हितार्थ वह
नैतिकता की सुंदर मूर्ति
जन-जन की मन की अभिलाषा
नेता करते थे प्रतिपूर्ति।
बदले हैं आचरण सभी अब
लक्षित पग मानव के रोकें
राजनीति का पाठ पढ़ाकर
स्वार्थ नीति में सब कुछ झोंके।
दुहरा जीवन जीने वाले
पाखंडी लोगों से बचना
शासन सत्ता पर जो बैठे
देश की रक्षा उनसे करना।
पहले अपनी संस्कृति बेची
अब खुशहाली बेंच रहे हैं
देश से उनको मोह नहीं है
अपनी रोटी सेक रहे हैं।
देशभक्ति से दूर हैं वे ही
सच्चे देश भक्त कहलाते
कैसे आजादी आयी है
इस पर रंचक ध्यान न लाते।
कथनी करनी में अंतर है
सदा स्वार्थ में रहते लीन
नाम धाम के वे नेता हैं
स्वार्थ सिद्धि में सदा प्रवीन।

(6). आरक्षण

जिसको देखो सब ऐसे हैं
पैसे के ही सब पीछे हैं
नहीं चाहिए शांति ज्ञान अब
रसासिक्त होकर रूखे हैं।
शिक्षा दीक्षा लक्ष्य नहीं है
पैसे की है आपा धापी
भटक रहे बेरोजगार सब
कुंठा मन में इतनी व्यापी ।
आरक्षण बाधा बनती अब
प्रतिभाएं पीछे हो जातीं
भाग्य कोसते ‘नीरज’ जीते
जीवन को चिंतायें खातीं ।
व्यथा- कथा का अंत नहीं है
समाधान के अर्थ खो गये
आरक्षण के संरक्षण से
मेधावी यों व्यर्थ हो गये।
सत्ता पाने की लोलुपता ने
जाने क्या क्या है कर डाला
इस यथार्थ का अर्थ यही है
जलती जन-जीवन की ज्वाला।