स्वाधीनता संग्राम में ‘सरेनी गोलीकांड’ की स्वर्णिम गाथा

स्वाधीनता संग्राम में ‘सरेनी गोलीकांड’ की स्वर्णिम गाथा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों का भारत आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलने लगी थी। तत्पश्चात सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया था। बहुत संघर्ष के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने भारतीय क्रांतिकारियों पर तरह–तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखते हुए तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।


पोर्ट ब्लेयर स्थित सेल्यूलर जेल में बंद निर्दोष क्रांतिकारियों, स्वातन्त्र्य वीरों पर किया गया जुल्म–ओ–सितम और यातनाओं की दर्द भरी दास्तां सुनकर दिल दहल जाता है, जिसके कारण उस स्थान को ‘काला पानी’ की संज्ञा दी गई है। वहां की घटनाओं और जुल्म को पढ़कर हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।


क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी।

स्वाधीनता संग्राम में अवध का बैसवाड़ा क्षेत्र कहीं से भी पीछे न रहा, अपितु रायबरेली में ही शंकरपुर, भीरा गोविंदपुर, मुंशीगंज, फुरसतगंज, सेहंगो, करहिया बाजार, सरेनी आदि क्षेत्रों में फिरंगियों के खिलाफ बिगुल बजाया गया। सरेनी में 18 अगस्त सन 1942 को गोलीकांड हुआ था, जिसका संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत है–
रायबरेली के बैसवारा क्षेत्र का व्यापारिक केंद्र अथवा राजधानी भले ही लालगंज रहा हो, लेकिन सांस्कृतिक राजधानी के रूप में सरेनी ही प्रसिद्ध है। गुप्त काल के पूर्व से इस क्षेत्र का अस्तित्व माना जाता है। प्रमाण स्वरूप सरेनी गांव के उत्तर पूर्व में प्रसिद्ध सिद्धेश्वर मंदिर में गुप्तकालीन मूर्तियाँ विद्यमान हैं। सरेनी की बाजार रायबरेली के पुराने बाजारों में गिनी जाती है। यहाँ पर उन्नाव, फतेहपुर, रायबरेली के व्यापारी खरीद-फरोख्त करने आते हैं।
ब्रिटिश शासनकाल में ही सरेनी में थाना की स्थापना सन 1891 में हुई थी।
ब्रिटिश काल के स्वाधीनता संग्राम में 18 अगस्त सन 1942 का ‘सरेनी गोलीकांड’ जिले का गौरवशाली इतिहास प्रतिबिंबित करता है। देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने को हजारों की संख्या में सरेनी विकासखंड निवासी देशभक्त तिरंगा फहराने के लिए थाने की ओर बढ़ने लगे। ब्रिटिश सिपाहियों की गोलियां इन वीरों के कदमों को रोक न सकी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सरेनी क्षेत्र के चौकीदारों ने रामपुर कला निवासी ठाकुर गुप्तार सिंह के नेतृत्व में 11 अगस्त सन 1942 को सरेनी बाजार में बैठक किया जिसमें निर्णय हुआ कि शीघ्र ही सरेनी थाना में तिरंगा फहराया जाएगा। 15 अगस्त 1942 को हैबतपुर में विशाल जनसभा में गुप्तार सिंह ने आंदोलन को अंतिम रूप देते हुए तिरंगा फहराने की तिथि 30 अगस्त सन 1942 निर्धारित की। कुछ वसंती चोले वाले वीर युवकों ने 30 अगस्त के बजाय 18 अगस्त को ही थाना में तिरंगा फहराने की ठान ली। युवाओं के आह्वाहन पर हजारों की संख्या में भीड़ सरेनी बाजार में एकत्रित हुई। तत्कालीन थानेदार बहादुर सिंह ने भीड़ को आतंकित करने के लिए नवयुवक सूरज प्रसाद त्रिपाठी को गिरफ्तार कर लिया। यह खबर आग की तरह फैलते ही आजादी के दीवानों ने थाने पर हमला कर दिया। हमले में कई ब्रिटिश सिपाहियों को चोटें भी आई। आक्रोशित थानेदार और सिपाहियों ने थाने की छत पर चढ़कर निहत्थे जनता पर अंधाधुंध गोलियां चलाना शुरू कर दिया। इस अप्रत्याशित गोलीकांड में भारत माँ के 5 वीर सपूत– टिर्री सिंह (सुरजी पुर), सुक्खू सिंह (सरेनी), औदान सिंह (गौतमन खेड़ा), राम शंकर त्रिवेदी (मानपुर), चौधरी महादेव (हमीर गांव) शहीद हो गए।
रणबाकुरों ने अपनी शहादत स्वीकार की, लेकिन वो ब्रिटिश हुकूमत के आगे न डरे, न झुके। देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले पाँच शहीदों की याद में थाना के ठीक सामने शहीद स्मारक का निर्माण कराया गया। इसके ठीक बगल में शहीद जूनियर हाई स्कूल परिसर में छोटा शहीद स्मारक का भी निर्माण कराया गया। दोनों स्मारक गर्व से सीना ताने गोलीकांड और अमरत्व को प्राप्त हुए वीर सपूतों की स्वर्णिम गाथा का मूक गवाह बन कर खड़े हैं।
सरेनी स्थित शहीद स्मारक पर सन 1997 से प्रतिवर्ष 18 अगस्त को विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। मेला जैसा हर्ष उल्लास का वातावरण रहता है। तब जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की काव्य पंक्तियाँ सार्थक हो जाती हैं-

“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगा अपना ही आसमां होगा।”

डॉ अशोक कुमार गौतम
(असिस्टेंट प्रोफेसर)
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली
मो० 9415951459